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शुक्रवार, 2 जुलाई 2021

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा- 07

 मैं आवारा, इक बनजारा- भाग-07
अशोक कुमार शर्मा, आत्मकथा

मैं देहली हाफ पैंट इसलिए पहनकर गया था, क्योंकि उन दिनों मेरे पास फुल पैंट नहीं था।
इसकी वजह ये नहीं थी कि मेरा परिवार बहुत ही गरीब था, बल्कि वजह ये थी कि मैं बहुत ही पतला -  दुबला और छोटी कद - काठी वाला एक कमजोर सा लड़का था और उन दिनों के चलन के मुताबिक मुझे हाफ पैंट ही सिलवाकर दिए जाते थे ।
यह यात्रा घरवालों से छुपकर की गई थी और इस यात्रा के खर्च के लिए मेरे पास एक फूटी कोड़ी भी नहीं थी, इसलिए मां से रो - धोकर मैंने 100 रुपए ऐंठ लिए थे, पर ये रकम देहली के खर्च के लिए पर्याप्त नहीं थी, इसलिए बाकी का यात्रा खर्च जुटाने के लिए मैंने अपने बड़े भाई साहब के बटुए पर हाथ साफ कर दिया।
     करीब पचास साठ रुपए तो चुराए ही होंगे, पर इस चोरी की खबर उन्हे आज तक भी नहीं है। 
इस प्रकार मेरे इस शौक ने मुझे झूठ बोलने के साथ - साथ चोरी करना भी सिखा दिया था, पर दोस्तों ! यकीन मानिए। स्वभाव से आज भी मैं झूठा और चोर नहीं हूँ।
बस मेरी आकांक्षा और मजबूरी ने बचपन में मुझसे ये दो नीच कार्य करवा दिए, जिनका मलाल मुझे आज भी है।
मुझे ये अच्छी तरह याद है कि उन दिनों सीकर से देहली का ट्रेन  किराया मात्र 28 रुपए ही था।
एक रात आठ बजे मैं एक जनरल डिब्बे में बैठकर दिल्ली के लिए रवाना हो गया।     चूंकि अकेले की गई ये मेरी पहली ट्रेन यात्रा थी और देहली शहर बहुत बड़ा और मेरे लिए बिल्कुल ही अनजान था, इसलिए मेरे दिल की धड़कनें बढ़ीं हुई थी ।
इसके अलावा ऊपर से मैंने ये भी सुन रखा था कि वहां चोर, उचक्के और जेबकतरे बहुत ही ज्यादा है, इसलिए मैंने बतौर सावधानी आधे से ज्यादा रुपए अपने हाफ पैंट की तुरपाई खोलकर उसमें छुपा लिए थे,  ताकि मेरी जेब भी अगर कट जाए, तो कम से कम वहां छुपाए गए रुपए तो सुरक्षित रहे।
सुबह करीब चार बजे मैं देहली पहुंचा।
      फिर मैं प्लेटफार्म पर इधर - उधर चक्कर लगाता हुआ वक्त बिताने लगा और सुबह होने का इंतजार करने लगा।
इस बीच में दो बार चाय पी चुका था।
जैसे ही सुबह का उजाला फैला, मैं प्लेटफॉर्म से बाहर निकल आया।
        प्लेटफॉर्म के बाहर रिक्से और टैक्सियों की लम्बी - लम्बी कतारें लगी हुई थी और रिक्शेवाले और टैक्सी वाले यात्रियों से पूछ रहे थे कि कहां चलना है, बाबूजी ? चलिए, मैं आपको वहां तक छोड़ देता हूँ।
पर मैं अपने हुलिए की वजह से कहीं से भी बाबूजी नहीं लग रहा था, इसलिए किसी भी रिक्शेवाले या टैक्सीवाले ने मुझे नहीं टोका।
       चूंकि मैं देहली के लुटेरों और जेबकतरों से आशंकित था, इसलिए मैंने दरीबा कलां में स्थित 'मनोज पॉकेट बुक्स' जाने के लिए एक बूढ़े और कमजोर रिक्शेवाले को चुना, ताकि वो अगर मुझे लूटने की कोशिश करे, तो मैं आसानी से उसपर काबू पा सकूं ।
        उसने दरीबा कलां जाने के दस रुपए मांगे, तो मैंने कहा - बाबा, मैं मात्र 28 रुपए में सीकर से देहली आ गया और तुम दरीबा कलां के ही दस रुपए मांग रहे हो ?
उसने मुझे कुछ नाराजगी से घूरते हुए कहा - "लगता है देहली पहली बार ही आए हो, इसीलिए तुम्हे यहां के भाड़े की जानकारी नहीं है। मेरी जगह अगर कोई दूसरा होता, तो कम से कम वो बारह रुपए जरूर मांगता।"
        मैंने उस बूढे को ज्यादा मुंह लगाना उचित नहीं समझा, इसलिए जल्दी से बोला - "ओह ! ये तो आपकी बड़ी ही मेहरबानी है बाबा, जो आपने बारह की जगह सिर्फ दस रुपए मांगे। अब चलिए, फटाफट मुझे दरीबा कलां छोड़ दीजिए।"
फिर मैं उसके रिक्से पर बैठकर दरीबा कलां के लिए रवाना हो गया।
       रास्ते में मुझे मजबूरन उस बूढ़े को  चाय पिलानी पड़ी और एक बीड़ी का बंडल भी दिलाना पड़ा, क्यों कि उसने आधे रास्ते में ही रिक्शा रोककर ऐलान कर दिया था कि उसके पैर अब दुखने लगे है इसलिए बिना बीड़ी और चाय पिए वो एक कदम भी रिक्शा आगे नहीं बढ़ा सकता।
खैर !
जैसे - तैसे कर मैं दरीबा कलां जा पहुंचा।
पर मनोज पॉकेट बुक्स में मुझे विनय कुमार जी नहीं मिले।
उनकी जगह मिले एक अधेड़ से व्यक्ति।
        जब मैंने बताया कि मैं एक लेखक हूँ और अपने उपन्यास के प्रकाशन के सिलसिले में विनय कुमार जी से मिलना चाहता हूं, तो उन्होंने इस तरह मेरी ओर घूरकर देखा, जैसे कि मैं कोई दुनिया का आठवां अजूबा हूँ।
        मेरी छोटी उम्र और जोकरों जैसा  हुलिया देखकर शायद उनको मेरे लेखक होने की बात पर यकीन नहीं आया था।
उनको यकीन दिलाने के लिए मैंने विनय कुमार जी का बुलावा पत्र अपनी जेब में से निकालकर उनको दिखाया, तब जाकर उनको यकीन आया।
      उन्होंने मुझे एक एड्रेस लिखकर दिया और बताया कि विनय कुमार जी रूपनगर में मिलेंगे, अतः तुम बस में बैठकर रूपनगर चले जाओ।
      मैंने उनके हाथ से वो एड्रेस लिया और एक रिक्शे वाले को रोककर उससे कहा कि भैया मुझे रूपनगर जाना है। क्या तुम मुझे रूपनगर जाने वाली बस तक पहुंचा दोगे ?
       जवाब में उसने कहा - "क्यों नहीं बाबूजी, जरूर पहुंचा दूंगा। पुरानी देहली रेलवे स्टेशन के बाहर से रूपनगर के लिए बहुत सी बसे जाती है, पर वहां तक जाने के लिए पूरे ढाई रुपए लगेंगे। बाद में आप झगड़ा करोगे।"
         मैंने मन ही मन सोचा कि यार वहां से यहां तक आने के लिए मैं कुछ ही मिनट पहले पूरे दस रुपए रिक्शा भाड़ा दे चुका हूं और तुम्हें सिर्फ ढाई रुपए के भाड़े में ही झगड़ा होने की आशंका है।
      मै अब समझ चुका था कि उस बूढ़े रिक्शेवाले ने जमकर मुझे चूना लगाया था, पर अब हो भी क्या सकता था, इसलिए मैं उससे बोला - "ठीक है। मुझे मंजूर है, पर तुम्हें रूपनगर जानेवाली बस में मुझे बैठाना होगा।"
        उसने मुझे आश्वासित करते हुए कहा -"अरे, साहेब ! आप उसकी बिल्कुल भी चिंता मत कीजिएगा। पहले मैं आपको रूपनगर जानेवाली बस में बैठाउंगा, उसके बाद ही आपसे रिक्शे का भाड़ा लूंगा।"
       उसके इस आश्वासन के बाद मैं उस जवान उम्र वाले लड़के के  रिक्शे मैं बैठ गया और फिर उसने अपने वादे के मुताबिक मुझे पुरानी देहली रेलवे स्टेशन के बाहर लगी हुई रूपनगर जानेवाली एक बस में बैठा दिया।
      देहली की बसों में टिकट लेने का भी एक अलग ही रूल था।  कंडेक्टर टिकट देने के लिए यात्रियों के पास नहीं जाता था, बल्कि यात्रियों को ही बस कन्डेक्टर की सीट के पास जाकर टिकट लेनी पड़ती थी।
      मुझे इस रूल की जानकारी नहीं थी, इसलिए मैं अपनी सीट पर बैठा हुआ कंडक्टर का इंतजार करता रहा। फिर जब मुझे इस रूल की जानकारी हुई, तब तक रूपनगर आ चुका था, इसलिए मुझे बिना टिकट लिए ही बस से नीचे उतर जाना पड़ा ।
मैंने मन ही मन सोचा कि वाह ! क्या ठाठ है देहली के कंडक्टरों के भी। बस वे किसी राजा - महाराजा की तरह अपने राजसिंहासन पर बैठे रहते हैं और यात्रियों को धक्का - मुक्की सहन करते हुए उनके दरबार में जाकर टिकट लेनी पड़ती है।
रूपनगर पहुंच जाने के बाद मैं विनय कुमार जी से मिला। उन्होंने बीच-बीच में से मेरे उपन्यास के कुछ पन्ने पढ़ें और फिर भेज दिया मुझे अपने बड़े भाई गौरी शंकर गुप्ता जी के पास शक्ति नगर।
         चूंकि पूछताछ करने पर मुझे ज्ञात हुआ कि शक्ति नगर पास ही है, इसलिए मैं पूछताछ करता हुआ पैदल ही शक्तिनगर गौरीशंकर जी गुप्ता के पास जा पहुंचा ।
उन्होंने भी बीच-बीच में से मेरे उपन्यास के कुछ पन्ने पढ़े और बोले कि यह उपन्यास इतना काबिल नहीं है, जो कि मैं इसे प्रकाशित कर सकूं। आइंदा  अगर अच्छा लिखकर लाओगे, तो मैं जरूर तुम्हें मौका दूंगा।
       ये सुनकर मैं बुझे मन से वापस सीकर लौट आया, पर बाद के दिनों में वह मौका मुझे उनसे कभी भी नहीं मिला। 
और वो इसलिए, क्योंकि मैंने अपना लिखा कभी सुधारा नहीं और उन्होंने मौका दिया नहीं।
       यह बात मैं इसलिए लिख रहा हूं, क्योंकि बाद के दिनों में मैंने दो उपन्यास और भी लिखे थे और बतौर नमूने के मैंने 8- 10 पन्ने उनको पढ़ने के लिए भी भेजे थे, पर वे पन्ने उन्हें पसंद नहीं आए।
अरे, हां।
       अपनी पहली देहली यात्रा की वो रोचक घटना तो मैं आपको बताना ही भूल गया, जब मैं देहली से सीकर वापस लौटने के लिए पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन आया था।
हुआ यूं था दोस्तो कि वहां आने के बाद मुझे पता चला कि सीकर जानेवाली ट्रेन रवाना होने में अभी दो घंटे बाकी है ।
उन दो घंटों का वक्त बिताने के लिए में कभी प्लेटफॉर्म के अंदर जा रहा था, तो कभी उससे बाहर निकलकर इधर - उधर घूम रहा था।
तभी बीकानेर से एक ट्रेन आकर वहां रुकी।
कुछ ही पलों बाद उस ट्रेन के यात्री उस ट्रेन से नीचे उतरकर प्लेटफॉर्म से बाहर निकलने लगे।
उसी दरम्यान मेरा भी प्लेटफॉर्म से बाहर निकलना हुआ।
मैंने ज्यों ही बाहर निकलने के लिए गेट पार करने की कोशिश की, तो मुझे वहां खड़े एक टिकट चैकर ने रोकते हुए कहा कि ऐ बच्चे, किधर जा रहा है ? जरा इधर आके अपना टिकट तो चैक  करवा।
मैंने हैरत से पूछा - "ट... टिकट ! कौनसा टिकट ?"
"अरे, ट्रेन से आने का टिकट और कौनसा टिकट । उसने झुंझलाकर कहा।"
"ल...लेकिन साहेब, मैं तो इस वक्त ट्रेन से आया ही नहीं हूँ।"
"तो क्या आसमान से सीधे जमीन पर उतरे हो ? अब बहाने बनाना छोड़ो और चुपचाप अपना टिकट चैक करवाओ।"
"कहां से करवाऊं ? ट...टिकट तो साहेब, अब जाके मैं खरीदूंगा।"- मैंने सहमते हुए कहा।
"अच्छा ! टिकट अब खरीदोगे और  यात्रा का मजा पहले ही लूट लिया। तुम तो यार बड़े ही चालबाज निकले।"-उसने व्यंग्य से कहा।
उसका ये व्यंग सुनकर अन्य यात्री भी हंस पड़े ।
"न...नहीं साहेब । अभी मैंने यात्रा की ही कहां है ? मुझे तो अभी ट्रेन में बैठना है और सीकर जाना है।"
"तो फिर प्लेटफॉर्म टिकट दिखाओ ?"- उसने आगे कहा।
"प...प्लेटफॉर्म टिकट ! ये... कौनसा टिकट होता है, साहेब ?"-
मैने हैरत से पूछा।
"ऐ लड़के । ज्यादा चालाक बनने की कोशिश मत करो और सीधी तरह बीकानेर से देहली तक का दुगुना किराया जमा करवा दो, वरना तुम्हे तीन महीनो के लिए अंदर करवा दूंगा । समझे ?"
ये सुनकर मेरे चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी, पर शीघ्र ही मैंने अपने - आप को संभाला और कहा - "दुगुना किराया तो मेरे पास नहीं है साहेब, चाहे तो आप तीन महीने के लिए मुझे अंदर करवा सकते है।"
        मेरा ये जवाब सुनते ही वो मेरा हाथ पकड़ कर एक ऑफिसनुमा रूम में ले गया, जहां शायद रेलवे का कोई बड़ा ऑफिसर बैठा हुआ था।
       वहां जाकर उसने उनको पूरा मामला बताया, तो वो अधिकारी मुझे डराते हुए बोला -  "बच्चे, बीकानेर से देहली का दुगुना किराया तो तुम्हे बतौर जुर्माना भरना ही होगा, वरना बतौर सजा तुम्हे तीन महीनों के लिए सीधे जेल में डाल दिया जाएगा।"
"साहेब, दुगुना किराया मैं क्यों दूं ? जबकि मैं बीकानेर से आया ही नहीं हूं, मुझे तो दस बजे वाली ट्रेन से सीकर जाना है, उसी का टिकट खरीदने के लिए मैं प्लेटफार्म से बाहर मौजूद टिकट खिड़की की ओर जा रहा था कि तभी इन साहेब ने मुझे पकड़ लिया और आपके पास ले आए।"
"देखो बच्चे, हमारा कीमती टाइम ज्यादा खराब मत करो। हम नहीं चाहते कि तुम जैसे छोटे बच्चे को जेल की सजा हो, इसलिए चुपचाप जुर्माना निकालो और छुट्टी लो।"
        अब मैं समझ गया था कि चाहे मैं अपनी लाख सफाई दूं, पर ये जुर्माने के रुपए वसूल किए बिना मुझे छोड़ने वाले नहीं है।
हालांकि सीकर जाने का किराया मेरी शर्ट की जेब में था और सौ रूपयों के करीब मैंने मेरे हाफ पैंट की तुरपाई में छुपा रखे थे, पर मैंने जुर्माना देना कबूल नहीं किया।
और वो इसलिए, क्यों कि मैं सच्चाई पर था ।
आपको मैं बता दूं कि सत्य और इंसाफ की रक्षा के लिए अड़ना और लड़ना जन्मजात मेरे स्वभाव में शामिल है।
      मेरे जीवन में ऐसे कई मौके आए है, जब सत्य और इंसाफ की रक्षा करने के लिए मैं बड़ी से बड़ी तोप से भीड़ गया और अंत में विजय भी रहा, पर मैं समझता हूं कि ये विजय मुझे अपनी खुद की ताकत से नहीं, बल्कि सत्य और इंसाफ की ताकत से मिली, जिससे मेरे सामने ये बार - बार और हर बार साबित हुआ कि सत्य और इंसाफ में सौ हाथियों की ताकत होती है, इसीलिए मैं हमेशा सत्य और इंसाफ का ही पक्षधर रहता हूँ।
इसके लिए बतौर उदाहरण मैं एक सच्ची घटना आपको बताना चाहूंगा।
       बात करीब पच्चीस साल पुरानी है, जब मैं अपनी धर्म पत्नी मंजू शर्मा को बीमार होने के कारण सीकर एक डॉक्टर को दिखाकर बस द्वारा वापस अपने गांव लौट रहा था।
ये हमारे गांव तक जाने के लिए अंतिम बस थी और इसके बाद हमारे गांव तक जाने के लिए ओर कोई भी साधन नहीं था।
अभी हमारी बस सीकर से पूरी तरह से बाहर भी नहीं निकली थी कि पुलिस के एक बड़े अधिकारी ने हमारी बस को रोक लिया और फिर उन्होंने बस के कागजात चैक किए।
      भगवान जाने बस के उन कागजातों में क्या कमी थी, पर उन कागजातों को लेकर उस बड़े अधिकारी और बस मालिक के बीच कुछ कहासुनी हो गई।
       और इस कहासुनी का परिणाम ये निकला कि उस बड़े अधिकारी ने खफा होकर बस की चाबी अपने कब्जे में ले ली और ये घोषणा कर दी कि ये बस अब आगे नहीं जाएगी।
ये घोषणा करने के बाद वो अधिकारी बाकी के पुलिस वालों के साथ पास ही स्थित सर्किट हाउस में जा घुसा।
यात्रियों में से किसी की भी हिम्मत उनका विरोध करने की नहीं हुई।
वे चुपचाप उस ऑफिसर को पुलिसवालों के साथ सर्किट हाऊस में घुसते हुए देखते रहे।
        इस अन्याय पर मुझे बहुत ही गुस्सा आया, पर एकाएक मेरी भी हिम्मत उनसे बात करने की नहीं हुई।
       उनके सर्किट हाउस में घुस जाने के बाद सभी यात्री आपस में बात करते हुए चिंता जाहिर करने लगे कि गांव जाने का यही तो अंतिम साधन था और इसी को रोक लिया गया, इसलिए अब हम कैसे  गांव जाएंगे और अगर गांव नहीं गए, तो कैसे ये ठंडी अंधेरी रात इस खुले में बीता पाएंगे ?
          उनकी ये बातें सुनकर मेरी सत्य और इंसाफ पसंद लेखकीय आत्मा मुझे मन ही मन इस बात के लिए धिक्कारने लगी कि इतना बड़ा अन्याय होता रहा और तू कायरों की तरह चुपचाप खड़ा हुआ ये तमाशा देखता रहा। आत्मा द्वारा यूं धिक्कारने पर मैं मन ही मन बहुत ही शर्मिंदा हो गया। फिर मैंने अपनी कायरता का चोला उतारकर यात्रियों को जोश दिलाने वाले अंदाज में कहा कि यूं चुपचाप बैठे रहने से इस समस्या का हल कत्तई नहीं निकलेगा। अगर आप लोगों में जरा सी भी हिम्मत है, तो उस अधिकारी के पास जाकर इस जुल्म का विरोध करो, वरना पड़े रहो रोड़ के किनारे इस ठंडी अंधेरी रात में।
पर यूं लगता था कि मेरे कहे का उन पर कोई ज्यादा असर नहीं हुआ था, क्यों कि वे सब के सब अपनी - अपनी गर्दन झुकाए हुए चुपचाप बैठे रहे।
कुछ पल तक उनकी प्रतिक्रिया का इंतजार करने के पश्चात मैंने कहा - "मैं इस जुल्म का विरोध करने के लिए उस अधिकारी के पास जाना चाहता हूं, इसलिए मुझे फटाफट बताइए कि और कौन - कौन चल रहा है मेरे साथ ?"
उनकी तरफ से फिर से कोई जवाब नहीं आया । बस, वे एक दूसरे का मुंह तकते रहे।
      तभी मेरी धर्मपत्नी दृढ़ स्वर में बोल उठी -  "कोई जाए या नहीं जाए, पर मैं जरूर चलूंगी आपके साथ, क्यों कि इतना बड़ा जुल्म सहना भी एक तरह से पाप ही है और मेरी खुद्दारी भी इसकी इजाजत नहीं देती।" 
अशोक कुमार शर्मा जी अपनी धर्मपत्नी मंजू शर्मा के साथ
अशोक कुमार शर्मा जी अपनी धर्मपत्नी मंजू शर्मा के साथ
        उसकी ये बात सुनकर मैं आश्चर्यचकित रह गया, क्यों कि इतना बड़ा साहस मैंने उसमें पहले कभी भी नहीं देखा था। इस वजह से मुझे मन ही मन उसके प्रति गर्व की अनुभूति हुई, पर मैं अपनी बीमार पत्नी को इतने बड़े खतरे में डालने की जोखिम मोल नहीं ले सकता था, इसलिए मैंने उसे समझाते हुए कहा - "ये औरतों का काम नहीं, हो सकता है वहां जाने पर दो - चार डंडे भी पड़ जाए और तुम तो वैसे भी इन दिनों बीमार चल रही हो।"
मेरी बात सुनकर वो व्यंग्य से बोली - "यह मत समझो कि औरते मर्दों से कमजोर होती है और वैसे भी मर्दों की मर्दानगी तो हम औरते इस वक्त देख ही रही हैं।"
       उसके मुंह से ये व्यंग्य भरी बात  सुनने के पश्चात जोश मैं आकर चार - पांच औरते और दो - तीन मर्द मेरे साथ उस अधिकारी के पास जाने के लिए तैयार हो गए।
इस प्रकार हम दस के करीब स्त्री - पुरुष पुलिस प्रशासन के खिलाफ नारे बाजी करते हुए सर्किट हाऊस में जा घुसे।
हमारा ये अप्रत्याशित व्यवहार देखकर उस अधिकारी सहित सभी पुलिस वाले दंग रह गए।
        हम नारे लगाते - लगाते जैसे ही उनके नजदीक पहुंचे, तो वो अधिकारी भड़क कर बोला - "अगर तुम लोग अपना भला चाहते हो, तो तुरंत वापस चले जाओ, वरना अगर मैंने लाठीचार्ज का ऑर्डर दे दिया, तो इस ठंड के मौसम में तुम लोगों की शामत आ जाएगी।"
       मैंने रिक्वेस्ट भरे स्वर में कहा - "सर, इस ठंडी अंधेरी रात में तो वैसे ही हमारी शामत आईं हुई है, इसलिए मेहरबानी करके आप हमारी बस को छोड़ दीजिएगा, ताकि हम सब यात्रीगण अपने - अपने गंतव्य स्थान तक पहुंच सके।"
"नहीं, कदापि नहीं।  इस बस को तो मैं कत्तई नहीं छोड़ने वाला।  क्योंकि पूरे कागजात न होने के बावजूद भी बस मालिक ने मेरे साथ बदतमीजी की है, इसलिए इसकी सजा तो उसे भुगतनी ही पड़ेगी।"- उस अधिकारी ने दृढ़ता से कहा।
ये सुनकर मुझे भी थोड़ा गुस्सा आ गया और मैं तल्ख लहजे में बोला,-"सर, बस मालिक की गलतियों के लिए हम यात्री जिम्मेदार नहीं है। इसके लिए आप जाने और वो बस मालिक जाने। हम तो बस इतना जानते है कि इस बस को इस रूट पर चलने के लिए सरकार ने परमिट दिया है और हम सब इसमें टिकट लेकर बैठे है, इसलिए हमारी गलती बिल्कुल भी नहीं है। अगर आपने ये बस नहीं छोड़ी, तो हम सब यात्री यहीं पर धरना देकर बैठ जाएंगे और आपको भी यहां से कत्तई नहीं जाने देंगे।"
यह सुनकर वो अधिकारी और भी ज्यादा भड़क गया और भड़ककर बोला - "ऐसे धरने मैंने अपनी  सर्विस में बहुत से देखे हैं। अभी दो - चार डंडे पड़ेंगे न, तो तुम लोग अपनी सारी हेकड़ी और नेतागिरी एक झटके में ही भूल जाओगे । समझे ?"
           जवाब में मैंने भी साहस करके कह दिया,-" आप अधिकारी है, इसलिए बेशक आप ऐसा कर सकते हैं, पर आपको उन पत्रकारों को जवाब जरूर देना होगा, जिनको हम यहां बुलाने वाले हैं और कुछ दिनों के बाद बड़े अधिकारियों और मिनिस्टर को भी जवाब देना होगा, जिनको हम हर कीमत पर शिकायत करने वाले हैं।"
      ये सुनकर उस अधिकारी का गुस्सा कुछ ढीला पड़ा और वो अपेक्षाकृत कुछ नरम स्वर में बोला - "अच्छा तो तुम लोग अब धमकी पर भी उतर आए। कोई क्या बिगाड़ लेगा मेरा ? इस वक्त मैं अपनी सरकारी ड्यूटी बजा रहा हूँ समझे ?"
"ये तो हम भी जानते है, सर कि ऐसा कर आप अपनी सरकारी ड्यूटी बजा रहे है, पर शिकायत करना हमारी भी मजबूरी है। अब आप ही बताइए कि इस ठंडी अंधेरी रात में हम जाएं, तो कहां जाएं। इस बस के बाद इस रूट पर जाने वाली ओर कोई बस भी नहीं है, जिसमें बैठकर हम अपने - अपने गंतव्य स्थानो तक पहुंच सके। इसके अलावा इस बस में दो - तीन छोटे - छोटे बच्चे और कुछ बीमार आदमी भी है, जो इस कड़कती ठंड की वजह से काफी परेशान हो रहे है।"    
         यह कहकर मैंने उनको इज्जत के साथ अपने बढ़ाए हुए कदम वापस खींचने का एक मौका दे दिया था,  क्यों कि इतनी बहसबाजी के बाद अब इतनी आसानी से बस छोड़ देना उनकी भी इज्जत में पलीता लगने वाली बात होती, इसलिए उनको ये मौका देना मैंने जरूरी समझा ।
और इस मौके का उन्होंने बखूबी फायदा भी उठाया ।
          उन्होंने मेरी बात सुनते ही तुरंत कहा - "अगर ऐसी परेशानी वाली बात थी, तो पहले बतानी चाहिए थी न। मैं इसके लिए कोई न कोई व्यवस्था जरूर करवा देता, पर इस बस को तो मैं कत्तई नहीं छोड़ने वाला।"
       ये सुनकर मैंने भी संकेत में उनको रास्ता सुझाते हुए कहा,-" हमे इस बस से कोई लेना - देना नहीं है, सर। आपकी मर्जी हो, तब छोड़िएगा इसे, पर आपको हमारी हमारे गंतव्य स्थान तक पहुंचा देने की व्यवस्था जरूर करवानी चाहिए, क्यों कि हम सब लोग निर्दोष है और क्यों की एक प्रशासकीय पोस्ट पर होने के नाते ऐसा करना आपकी नैतिक और सरकारी जिम्मेदारी भी बनती है।"
ये सुनकर उस अधिकारी ने अपनी इज्जत बचाते हुए कहा - "हूं ...। अब आए न तुम लाइन पर। पहले ही इतनी विनम्रता से रिक्वेस्ट करते, तो क्या मैं मना कर देता।"
इतना कहने के बाद उन्होंने रोडवेज बस मैनेजर को फोन किया और हमारे लिए एक गाड़ी की व्यवस्था करवा दी।
कुछ ही देर बाद रोडवेज बस डिपो से एक सरकारी बस वहां आ पहुंची, जिसे देखकर सभी ने राहत की सांस ली और मेरी व मेरी धर्मपत्नी के इस साहस की भूरी - भूरी प्रशंसा की ।
मैंने उस अधिकारी को इसके लिए धन्यवाद दिया और इस प्रकार हम सब कुछ देर बाद अपने - अपने गंतव्य स्थान तक पहुंच गए। 
        जीवन में ऐसे और भी कई मौके आए, जिनमें सत्य और इंसाफ की रक्षा के लिए या किसी मजलूम की मुहाफिजी के लिए मैं चट्टान की तरह अड़ गया । पर हां, छोटे - छोटे मामलो को मैं जानबूझ कर अनदेखा भी कर देता हूं, ऐसे मामलो में दखलंदाजी करके मैं अपना समय और ताकत नहीं गवाना चाहता और बिना कोई बड़े मकसद के कोई आफत मोल नहीं लेना चाहता, इसलिए ऐसी बातों के लिए मैं कन्नी काटकर साइड से निकल जाता हूं या शांति और समझौतावादी रूख अख्तियार कर कोई बीच का रास्ता तलाश करने की कोशिश करता हूँ, ताकि शांति और सद्भाव बना रहे और मेरे शांत जीवन में बेमतलब और बेमक़सद ही कोई हलचल पैदा न हो।
      अपने इसी अड़ियल स्वभाव के वशीभूत होकर मैंने रेलवे के उस बड़े ऑफिसर को कह दिया था कि चाहे आप मुझे तीन महीने के लिए जेल में ही क्यों न डाल दें, पर मेरे पास बतौर जुर्माना आपको देने के लिए एक रुपया भी नहीं है।
मेरा जवाब सुनकर उस ऑफिसर ने कुछ पलों तक तो मुझे घूरकर देखा और फिर पूछा - "तुम कह रहे हो कि मेरे पास एक रुपया भी नहीं है, फिर तुम बिना रुपयों के सीकर कैसे जाते ?"
अब न जाने मुझमें भी साहस कहां से आ गया, इसलिए मैंने बिना डरे कहा - "बिना टिकट के जाता और कैसे जाता ? यहां कौनसा मेरा घर है, जो सीकर न जाकर यहां रह जाता ? अब आप तीन महीने के लिए मुझे जेल भेजने की बात कह रहें है, तो कोई बात नहीं, मैं यहां जेल में आराम से रह लूंगा।"
"चलो, मान लिया कि तुम तीन महीने जेल में रह लोगे, लेकिन जेल से छूटने के बाद सीकर कैसे जाओगे ?"- उन्होंने मेरी आंखो में देखते हुए अपना अगला सवाल दागा।
"बिना टिकट के जाऊंगा और कैसे जाऊंगा ?"- मैंने फिर साहस के साथ जवाब दिया।
"तो फिर से पकड़े जाओगे और फिर से तीन महीने की जेल हो जाएगी तुम्हे।"
"कोई बात नहीं, मैं फिर से तीन महीने की जेल भुगत लूंगा, और जेल से छूटते ही मैं फिर से बिना टिकट सीकर जाने की कोशिश करूंगा और ये सिलसिला तब तक यूं ही जारी रहेगा, जब तक कि मैं सीकर नहीं पहुंच जाता।"
"यानी कि पक्के ढीठ हो।"- उन्होंने व्यंगपूर्वक कहा।
"अब आप कुछ भी समझ लीजिए  साहेब, मजबूरी जो है।
"खैर ! तुम ये तो मानते हो न कि बिना टिकट यात्रा करना तुम्हारी बहुत बड़ी गलती है ?"
"नहीं,  बिल्कुल भी नहीं। ये गलती मेरी नहीं, बल्कि सरकार की है।"
अब चौंकने की बारी उनकी थी, इसलिए उन्होंने चौंक कर ही पूछा - "स...सरकार की ! स...सरकार की कैसे ?"
"अरे, साहेब। क्या सरकार को टिकट खिड़की के पास क्या ऐसी एक और खिड़की नहीं खोलनी चाहिए थी, जहां से मेरे जैसे वे लोग रुपए ले सके, जिनके पास टिकट खरीदने के लिए रुपए नहीं होते।"
वो ऑफिसर बगलोलों की तरह मुंह फाड़े मेरी और टुकुर - टुकुर देखने लगा ।
       अपना ये पहला वार निशाने पर लगा देखकर मैंने झट से उनपर दूसरा वार कर दिया - "यही नहीं साहेब, सरकार को जगह - जगह ऐसी भी खिड़कियां खोलनी चाहिए, जिनसे जिनके पास खाना न हो, वो खाना ले सके, जिनके पास कपड़े न हो, वो कपड़े ले सके और जिनके पास रोजगार न हो, वो रोजगार भी ले सके। क्या ऐसा करना सरकार की नैतिक और संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं है? क्या जरूरत के वक्त जनता का पैसा जनता के काम नहीं आना चाहिए?"
      मेरी ये क्रांतिकारी बाते सुनकर  उस ऑफिसर की हालत ऐसी हो गई थी कि उन्हें देखकर ऐसा लगता था कि वे बेहोश होकर बस अब गिरने ही वाले है।
कुछ पल तक तो उनके मुंह से कोई भी बोल नहीं फूटा।
फिर उन्होंने संभलते हुए कहा - "त...तुम बिल्कुल सच कह रहे हो बेटे, पर हकीकत में ऐसा होना मुझे तो दूर - दूर तक संभव नहीं दिखाई दे रहा। वैसे तुम करते क्या हो ?"
"मैं पढ़ता भी हूं और लिखता भी हूं।  यानी कि स्टूडेंट होने के साथ - साथ मैं एक उपन्यासकार भी हूँ।"
ये मेरे द्वारा उनके जेहन पर किया गया तीसरा वार था, इसलिए वे चौंककर बोले - "क... क्या कहा ? उ... उपन्यासकार ?"
"जी हां, उपन्यासकार।"
"क ... क्या गुलशन नंदा की तरह ?"
"जी हां, बिल्कुल उन्हीं की तरह। बस फर्क सिर्फ इतना है कि उनके उपन्यास प्रकाशित हो चुके है और मेरे उपन्यास प्रकाशित होना अभी बाकी है"-  इतना कहने के बाद मैंने अपने लटकन थैले में से अपने उपन्यास की पांडुलिपि निकालकर उनको दिखाई।
       उन्होंने पांडुलिपि के पन्ने पलटते हुए उसको देखा और फिर हैरत से मेरी और देखकर बोले - "विश्वास नहीं होता कि ये सब तुम्ही ने लिखा है, पर सब - कुछ मेरी आंखों के सामने है, इसलिए विश्वास तो करना ही पड़ेगा।"
फिर उन्होंने एक सौ का नोट अपने पर्स में से निकालकर मेरी और बढ़ाते हुए कहा, - "ये लो सौ रुपे। इनसे टिकट खरीदकर ही सीकर जाना। और हां, बाकी बचे रुपयों से कुछ खा - पी लेना भी।"
वो टिकट चेकर आश्चर्य और झुंझलाहट भरी दृष्टि से मेरी ओर देखने लगा ।
शायद वो मन ही मन ये सोच रहा था कि मैं तो इसे जुर्माना वसूल करने के लिए यहां लेकर आया था और ये तो उल्टे हमसे ही जुर्माना वसूल करके जा रहा है ।
यानी कि उल्टे बांस, बरेली को।
       ववे रुपए मैं लेना तो नहीं चाहता था, पर नहीं लेता, तो इस बात के लिए मैं झूठा साबित होता कि मेरे पास एक भी रुपया नहीं है, इसलिए मैंने चुपचाप वे रुपए लेकर अपनी जेब में डाल लिए और उस ऑफिसर को धन्यवाद देकर उस रूम से बाहर निकल आया।
बाहर आकर मैंने एक राहत भरी सांस ली और फिर एक बैंच पर आकर बैठ गया।
       पर कुछ ही पलों बाद मेरे मन में इस बात के लिए बहुत ज्यादा ग्लानि होने लगी कि मेरे पास टिकट खरीदने के रूपये होने के बावजूद भी मैंने रूपये न होने की बात कहकर और इस प्रकार उस अधिकारी से झूठ बोलकर बहुत बड़ा पाप किया है।
कुछ मिनट तक तो मैं इस असमंजस से घिरा हुआ उस बैंच पर बैठा रहा कि उस भले अधिकारी के पास जाकर मैं सच बात बताऊं या नहीं बताऊं ?
     अगर बताता, तो जुर्माना लगने का डर था और अगर न बताता, तो अपनी आत्मा को मैं क्या जवाब देता ?
यानी कि एक तरफ कुआ था, तो दूसरी तरफ खाई ।
फिर मैंने अपने अंदर सच कहने का साहस जुटाया और इस निश्चय के साथ दुबारा उस ऑफिसर के रूम में जा घुसा कि चाहे वो  ऑफिसर गुस्सा होकर मेरे ऊपर जुर्माना ही क्यों न लगादे या तीन महीने के लिए जेल में ही क्यों न डाल दे, पर मैं उनको सबकुछ सच - सच बताकर ही दम लूंगा और उनके सौ रुपए भी वापस लौटा दूंगा।
मुझे रूम में दुबारा आया हुआ देखकर वो अधिकारी हैरत से मेरी और देखने लगा और फिर हैरत से ही उसने पूछा - "क्या बात है ? दुबारा यहां कैसे ?"
मैंने कहा - "साहेब। मैंने जुर्माना बचाने के चक्कर में आपसे ये झूठ बोला कि मेरे पास रुपए नहीं है, जबकि मेरे पास रुपए हैं। इसलिए आप अपने सौ रुपए वापस रख लीजिएगा, ताकि आप इन रुपयों से किसी अन्य जरूरतमंद की हेल्प कर सके।"
     इतना कहने के बाद मैंने सौ का नोट निकालने के लिए जैसे ही अपनी जेब में हाथ डाला, तो मेरी अंगुलिया उस टिकट से जा टकराई, जो मैंने कल रात सीकर से देहली आने के लिए खरीदा था।
उस टिकट से मेरी अंगुलियां टकराते ही जैसे मुझमें दुगुना जोश और उत्साह आ गया था ।
      मैंने सौ रुपए और वो टिकट निकालकर उस ऑफिसर की टेबल पर रखते हुए कहा - "सर। ये वो टिकट है, जो कल रात आठ बजे मैंने सीकर से देहली आने के लिए खरीदा था और सुबह चार बजे मैं यहां पहुंचा था। अब आप ही बताइए सर कि एक ही आदमी इतने कम समय में सीकर और बीकानेर दोनों जगहों से कैसे आ सकता है ?"
      उस ऑफिसर ने वो टिकट देखा और फिर ग्लानि भरे हुए स्वर में कहा - "सॉरी । मेरे कारण तुम्हे परेशान होना पड़ा, पर तुमने ये टिकट उस वक्त क्यों नहीं दिखाया, जब मैं तुम पर जुर्माना लगाने की और तीन महीने तक जैल भेजनी की बात कर रहा था ?"
"सर, उस वक्त घबराहट की वजह से ये टिकट दिखाने वाली बात मेरे माइंड में आई ही नही थी,इसलिए मैं आपको ये टिकट नहीं दिखा सका।"
"ओह !"- वे अफसोस भरे हुए स्वर में बोले,-"सारी गलती मेरी है, इसलिए ये रुपए तुम मेरी ओर से की गई हेल्प समझकर न रखना चाहो, तो मुझ पर मेरी गलती के लिए लगा जुर्माना समझकर ही रख लो।"
"ऐसा मत कहिएगा, सर। आप जैसे भले इन्सान पर जुर्माना लगाने की बात तो मैं कभी सपने में भी नहीं सोच सकता हूँ । आपने जो कुछ भी किया, अपनी ड्यूटी के तहत किया। और आपने जो सौ रुपए की हेल्प की, वो ड्यूटी के अलावा की, जो हर कोई नहीं कर सकता।"
        ये सुनकर उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कराहट आ गईं । फिर वो संजीदगी से बोले - "आज तक सिर्फ सुना ही था कि लेखक लोग सत्य, इंसाफ और ईमानदारी पसंद होते है, पर आज अपनी आंखों से यह सब देख भी लिया।"
ये सुनकर मैं शर्मिंदगी भरे लहजे में बोला - "अरे, साहेब! क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरबा। मैं कोई इतना बड़ा लेखक नहीं हूं, जो आप मेरे अदने से गुणों की तुलना बड़े -  बड़े लेखकों के महान गुणों से कर रहे है।"
      "मैं झूठी तुलना नहीं कर रहा हूँ। अगर तुम्हारी जगह कोई और होता, तो अब तक ये सौ रुपए लेकर चंपत हो चुका होता और मन ही मन वो इस बात को लेकर खुश हो रहा होता कि आज अपनी चालाकी से मैंने एक अच्छे  - खासे अफसर को चूना लगा दिया है।"
     इसके बाद एक - दो मिनट तक  हमारी बातचीत और हुई, फिर मैं उनको नमस्कार करके उनके ऑफिस से बाहर निकल आया।
उसके बाद मैंने सीकर जाने के लिए टिकट खरीदा और ट्रेन में बैठकर वापस सीकर आ गया।
इस प्रकार देहली की मेरी ये पहली यात्रा इस घटना के कारण अविस्मरणीय बन गयी।
     आगामी भाग में पढें लेखक महोदय ने कैसे गुलशन नंदा और सुरेन्द्र मोहन टाइप के उपन्यास लिखे और कैसे संघर्ष किया उपन्यास साहित्य क्षेत्र में।
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श्री अशोक कुमार शर्मा जी वर्तमान में राजस्थान शिक्षा विभाग में राजकीय पद पर शिक्षक हैं। 
अन्य भाग यहाँ देखें-  

   

2 टिप्‍पणियां:

  1. वाह!
    इन सात भागों में अपना बचपन याद आया।
    👌👌

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  2. वाह!! रोचक संस्मरण श्रृंखला है ये। आगे आने वाले भागों का इंतजार रहेगा।

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