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बुधवार, 30 जून 2021

उपन्यास साहित्य और मेरठ - प्रवीण जैन

उपन्यास साहित्य और मेरठ - प्रवीण जैन

       नो ड़ाऊट, मेरठ की  पहचान को जासूसी उपन्यासो, लुगदी लिटरेचर, पॉकेट बुक पब्लिशर्स ने नया आयाम  दिया। मगर मेरठ की अपनी अलग पहचान भी रही है, 1857 के स्वंत्रता संग्राम से भी पहले की । यह पहचान थी उस नौचंदी मेले से जो 1672 से पशुओं की खरीद फरोख्त के मेले से शुरु हुआ। जिसके नाम पर मेरठ से लखनऊ तक रेगुलर एक ट्रेन नौचंदी एक्सप्रेस चलती है और जैसा की किवदन्तियो मे कहा जाता है, देवी पार्वती के उस मन्दिर के सामने गढ़ रोड पर  लगने से है जिसे रावण की पटरानी मंदोदरी ने देवी भक्त होने के कारण बनवाया था। आपके कोई मित्र परिचित, रिश्तेदार मेरठ मे हो और नौचंदी मेला देखने के लिये आमन्त्रित न करे, यह तो हो ही नही सकता था, कम से कम 80 के दशक तो बिल्कुल नही। 

1672 से   अब तक मेला दो बार सिर्फ 1858 और 2020 मे  मुल्तवी हुआ है। 

          मेरठ के पॉकेट बुक बाज़ार मे आने से  पहले इलाहबाद ( अब प्रयागराज) जासूसी, सामाजिक, थ्रिलर, अपराध कथाओ के पब्लिकेशन का गढ़ था। निकहत पब्लिकेशंस, कुसुम प्रकाशन, मित्र प्रकाशन जैसे नामी ग्रामी प्रकाशक इलाहबाद मे ही थे। क्या खूब छापा इन्होने, जासूसी दुनिया, रहस्य , मनोरमा, मनोहर  कहानियाँ, माया, मनमोहन ( बाल पत्रिका) सत्य कथा जैसे मासिक  उपन्यास और रिसाले यहीं से  छपे। जिसे हम लुगदी पेपर पर छपा होने से लुगदी साहित्य कहते सुनते है उसकी शुरुआत न्यूज़ प्रिंट पेपर पर बुक साईज़ से हुई थी। 

मंगलवार, 29 जून 2021

चन्द्रमोहन

 नाम- चन्द्रमोहन
उपन्यासकार चन्द्रमोहन
उपन्यासकार चन्द्रमोहन
  उक्त लेखक के विषय में कोई ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं होती। हां, एक उपन्यास 'फरेबी' से कुछ जानकारी प्राप्त हुयी है। यहाँ प्रस्तुत जानकारी का आधार वही एक उपन्यास रहा है।
       चन्द्रमोहन‌ के उपन्यास
1. फरेबी (आॅरियंटल पॉकेट बुक्स, मेरठ)



सोमवार, 28 जून 2021

इंस्पेक्टर आजाद

नाम - इंस्पेक्टर आजाद
   एक समय था जब उपन्यास साहित्य में इंस्पेक्टर, कर्नल, कैप्टन जैसे नाम से लेखक हुआ करते थे। उसी समय में एक नाम आया था इंस्पेक्टर आजाद
     हालांकि इस लेखक के विषय में कोई ज्यादा जानकारी तो नहीं मिली। हालांकि यह 'सुपर पॉकेट बुक्स, मायापुरी- दिल्ली' का प्रकाशन था।

इंस्पेक्टर आजाद के उपन्यास
1. अंधा डिक्टेटर
इंस्पेक्टर आजाद
इंस्पेक्टर आजाद




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रविवार, 27 जून 2021

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा-06

 मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा
आत्मकथा, भाग-06
 गत अंक पांच यहाँ से पढें -  आत्मकथा भाग- 05
    आपने गतांक में पढा कैसे एक उपन्यासकार फिल्म क्षेत्र में संघर्ष करता है। वहाँ उसके कैसे अनुभव रहे।
  अशोक कुमार शर्मा जी की आत्मकथा के इस भाग में पढें उनके उपन्यास लेखन के क्षेत्र में संघर्ष को।

तो अब चलिए दोस्तो मेरे इस अंतिम सफर का लुत्फ़ उठाने के लिए मेरे साथ।
आशा है, मेरे इस अंतिम सफर में भी आपको काफी मजा आएगा ।
ये बात ईस्वी सन् 1979 के आसपास की है, जब मैं पांचवीं कक्षा का स्टूडेंट था।
उन दिनों उपन्यासों का स्वर्ण युग  हुआ करता था और उपन्यासकार किसी फिल्म के हीरो से कम नहीं समझे जाते थे।  
     उपन्यास पढ़ाकूओं के घरों में 50 से लेकर 250 - 300 तक का  उपन्यास संग्रह बड़ी आसानी से मिल जाया करता था। 
मेरे मौहल्ले में भी कम से कम ऐसे 40 - 50 पढ़ाकूओं के घर थे, जिनमें शायद अव्वल नंबर मेरे ही घर का था। 
और वो इसलिए, क्योंकि मेरे घर का प्रत्येक सदस्य उपन्यास पढ़ा करता था। 
उस वक्त मेरी समझ में यह नहीं आता था कि ये लोग बिना चित्रो वाली इतनी मोटी - मोटी किताबों को आखिर पढ़ कैसे लेते हैं और इनमें ऐसा क्या लिखा हुआ होता है, जो कि लोग अपना खाना - पीना तक भूल कर हर वक्त इनमें ही खोए हुए रहते हैं।
इसी उत्सुकता की वजह से मैंने एक रात को सब घरवालों के सो जाने के बाद रजाई ओढ़ कर तथा एक टॉर्च को रोशन कर मुंह में दबाने के बाद उसकी रोशनी में उस समय के सबसे मशहूर लेखक आदरणीय गुलशन नंदा द्वारा लिखा गया उपन्यास 'राख और अंगारे'  पूरी रात जागकर पढ़ा। 
वो टॉर्च मैंने इसलिए रोशन की थी, क्योंकि उन दिनों हमारे छोटे से गांव में बिजली का आगमन नहीं हुआ था। 
गुलशन नंदा के इस उपन्यास को पढ़ने के बाद मैं तो जैसे उपन्यासों का दीवाना ही हो गया था।  
साहित्यदेश
      घर के और पूरे मोहल्ले के उपन्यास संग्रहो को मैंने दीमक बनकर दो-तीन साल में ही लगभग पूरा चट कर डाला। 
उनमें से ज्यादातर उपन्यास गुलशन नंदा, प्रेम बाजपेई, इब्ने सफी, राजहंस, ओम प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश कांबोज और कुशवाहा कांत के ही थे। 
      प्रथम उपन्यास 'राख और अंगारे' पढ़ने के बाद ही मेरे मन में यह लालसा जाग उठी कि क्यों न मैं भी उपन्यास लिखने लगूं और फेमस राइटर गुलशन नंदा की तरह ग्लैमर की दुनिया का एक चमकता हुआ सितारा बनकर क्यों न उनकी तरह ही चमकने लगूं। 

बुधवार, 23 जून 2021

लुगदी साहित्य को आज की पीढी पसंद करती है- संजय आर्य

लुगदी साहित्य को आज की पीढी पसंद करती है- संजय आर्य


लुगदी साहित्य लुगदी पेपर से आधुनिक समय में सफेद पेपर और उसके आगे डिजिटल किंडल फॉरमेट तक की यात्रा कर चुका है। बाबू देवकीनंदन की चंद्रकांता ने लुगदी सहित्य को एक अलग ही मुक़ाम पर पहुंचा दिया। 'चन्द्रकांता' से यात्रा अमित खान की वेब सीरीज 'बिच्छु का खेल' तक पहुंच गई है।  लुगदी साहित्य को आज की पीढ़ी के बीच भी पहले की तरह पसंद किया जाना 'शुभ संकेत' है।
      वास्तव में देखा जाए तो जासूसी उपन्यास-लेखन की जिस परंपरा को गोपाल  राम गहमरी ने जन्म दिया था, उसका हिन्दी में विकास ही न हो सका।
       प्रेमचंद के  जिस उपन्यास  'गबन' को पठनीयता की दृष्टि से सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ है, उस 'गबन' की अनेक कथा स्थितियां एक विदेशी क्राइम थ्रिलर से मिलती-जुलती हैं और जिसका अनुवाद गोपालराम गहमरी  ने  'जासूस' पत्रिका में किया था।
      गहमरी जी की बाद की पीढ़ी को जो भी लोकप्रियता मिली, उसका बहुत कुछ श्रेय पूर्व स्थापित देवकीनंदन खत्री जी के साहित्य को ही जाता है। इन्होंने अपने लेखन से वह  वातावरण  स्थापित कर दिया था कि लोगों  की रुचि  लोकप्रिय साहित्य को पढ़ने की और बढ़ गयी थी। उसका प्रमुख कारण था लुगदी साहित्य की भाषा। जो सामान्य जनता  की भाषा हुआ करती थी। आसानी से सभी को समझने में सहायक।
         वैसे देखा जाए तो हिंदी साहित्य में गंभीर साहित्य और लोकप्रिय साहित्य दोनो को पाठकों का भरपूर प्रेम मिला है।
    50-60 के दशक में वेदप्रकाश काम्बोज का नाम घर -घर मे लोकप्रिय था।    उस समय जासूसी और सामाजिक साहित्य में बड़ा विभाजन था।  गुलशन नंदा, रानू, प्रेम वाजपेयी, राजहंस, राजवंश और मनोज के उपन्यास सामाजिकता और रूमानियत से भरे हुए थे। ओम प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश काम्बोज, इब्ने सफी, अकरम इलाहाबादी जासूसी उपन्यासकार थे। सामाजिक उपन्यास बिकते ज्यादा थे, पढ़े कम जाते थे।
      लोकप्रिय साहित्य को 'मास से क्लास' तक पहुंचाने के लिए सुरेंद्र मोहन पाठक को अवश्य श्रेय दिया जाना चाहिए ।विदेशी पब्लिकेशन के द्वारा उनके उपन्यास '65 लाख की डकैती' को अनुवाद कर पब्लिश किया जाना लोकप्रिय साहित्य का  अपूर्वभूत सम्मान है।
     वेदप्रकाश शर्मा  का उल्लेख किये  बिना ये चर्चा अधूरी रहेगी।    प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता आमिर खान ने अपनी फिल्म 'तलाश' के प्रमोशन की शुरुआत वेदप्रकाश शर्मा के निवास से की थी, जो जाने-माने उपन्यासकार और लगभग आधा दर्जन फिल्मों के स्क्रिप्ट राइटर वेद प्रकाश शर्मा  की लोकप्रियता को विशाल सम्मान है ।
     कहते हैं कि 1993 में वर्दी वाला गुंडा की पहले ही दिन देशभर में 15 लाख कॉपी बिक गई थीं।
      लेकिन वस्तुतः ऐसे उदाहरण नाम-मात्र ही है। अभी भी लोकप्रिय साहित्य और उनके लेखकों को वह स्थान नही मिला है जिसके वे हकदार है। हमेशा से लुगदी साहित्य हेय दृष्टि का शिकार रहा है।  और अभी भी अपनी जड़ें तलाश रहा है। 
     एक बार मैंने सुरेंद्र मोहन पाठक सर से प्रश्न किया था कि
''सर क्या कारण है कि हिंदी के लेखको को अंग्रेजी लेखकों के समान सम्मान नही मिलता?''
उनका जवाब था- "कोई पढे तो, हिंदी किताबो को पाठक ही नहीं मिलते।''
   आवश्यकता है -वर्तमान में उपलब्ध प्रचार-प्रसार के साधनों के माध्यम से  लोकप्रिय साहित्य के प्रति रुचि फिर से बढ़ाने की ताकि हिंदी के पाठकों में ज्यादा से ज्यादा वृद्धि हो।
    साहित्य के इतिहास में प्रारम्भिक समय मे अनेक आलोचकों ने लुगदी साहित्य की चर्चा की तो की लेकिन  बाद के समय मे उसको लगभग भुला ही दिया गया ।

आज के युवा लेखक नई ऊर्जा से भरपूर है।  नए लेखको में संतोष पाठक, इकराम फरीदी, कंवल शर्मा,  सबा खान, अनिल गर्ग, अनुराग कुमार जीनियस, अजिंक्य शर्मा आदि का नया पाठक वर्ग तैयार हो रहा है और निश्चित रूप से किसी नए सवेरे की उम्मीद अवश्य ही की जाना चाहिए।

'राहुल प्रसाद 'की कविता की कुछ पंक्तियां याद आ रही है।
ये ख्वाहिशें, ये चाहतें, ये धड़कनें बेहिसाब,
चलो मिलकर लिखते हैं, एक नई किताब।
ये नया सवेरा, ये नया दिन, ये नई-नवेली रात,
चलो मिलकर करते हैं, फिर कोई नई रूमानी बात।

प्रस्तुति- संजय आर्य, इंदौर

मंगलवार, 22 जून 2021

एक नाम की पहचान, जो खुद को ही रास न आई- रवीन्द्र यादव

अरुण आनंद - एक नाम की पहचान, जो खुद को ही रास न आई।
संस्मरण- रविन्द्र यादव

साहित्य देश इस बार 'संस्मरण स्तम्भ' में‌ लेकर आया है। Ghost Writer रवीन्द्र यादव जी का मार्मिक संस्मरण। जो उनके लेखन के साथ-साथ जासूसी उपन्यासकार अरुण आनंद के जीवन के कुछ पृष्ठों से रूबरू करवाता है, वहीं लोकप्रिय साहित्य के नेपथ्य के पीछे छिपे काले सच को सामने लाता है।  
  मुझे उम्मीद है इस भावुक संस्मरण को पढकर आपकी आँखें नम हो जायेंगी।।
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आज पाकेट बुक्स के कारोबार से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप में जुड़े गिनती के ही ऐसे लोग बचे होंगें जिन्हे 1990 का वह सुनहरा दौर याद होगा, जो अब कभी लौटकर नहीं आएगा। उसी दौर के एक किरदार का नाम था अरुण आनन्द.
उपन्यासकार- अरुण आनंद
उपन्यासकार- अरुण आनंद
      हालांकि यह उनका वास्तविक नाम नहीं था। उनका असली नाम था अरूण सागर। 1990 के दशक में वह पश्चिम बिहार दिल्ली के 540 जी एच 13, के थर्ड फ्लोर परं अपने मां बाप भाई बहन के साथ रहते थे। मेरी उम्र उस वक्त महज 16-17 साल होगी। जबकि अरूण सागर की उम्र तीस से ज्यादा थी। 
  मैं एक कामयाब लेखक बनने का बचकाना सपना साथ लेकर पैदा हुआ था और हताशा के साथ बेतहाशा धक्के खाता हुआ 1996 में आखिरकार ‘राजा पाकेट बुक्स तक जा पहुंचा था। 

रविवार, 20 जून 2021

कहानी उपन्यासकार राजहंस की-11

राजहंस बनाम विजय पाकेट बुक्स - 10    ========================
हिन्द व मनोज  Vs. विजय पाकेट बुक्स
नाश्ता करके हम पटेलनगर के लिए निकले! भारती साहब घर पर नहीं थे! 
मैंने ऊपर खेल खिलाड़ी के आफिस में जाकर खेल खिलाड़ी की डाक देखी! पढ़ने में वक़्त लगता, इसलिए सारी डाक इकट्ठी करके एक बड़े ब्राउन लिफाफे में रख लीं और जवाब देने के लिए कुछ पोस्ट कार्ड साथ में डाल लिये! 
"अब किधर चलें?" वालिया साहब ने स्कूटर स्टार्ट करते हुए मुझसे पूछा! 
"बैक टू पैविलियन...!" मैंने कहा! 
"नहीं यार, इतनी जल्दी घर जाकर क्या करेंगे? चलो, कनाट प्लेस चलते हैं!" और वालिया साहब ने स्कूटर पटेलनगर से शंकर रोड पर ले आये! फिर काफी देर सीधे चलने के बाद राम मनोहर लोहिया अस्पताल (तब के विलिंग्डन हास्पिटल) के पास से मोड़ लिया! 
फिर बंगला साहब गुरुद्वारे के निकट, बाहर ही फुटपाथ के समीप स्कूटर रोक दिया और बोले - "योगेश जी, आप यहीं रुको, मैं जरा मत्था टेक आऊँ!"
"मैं भी चलूँ..?" मैंने कहा! 
"फिर स्कूटर कौन देखेगा? पार्किंग में खड़ा किया तो ख्वामखाह टाइम वेस्ट होगा!"
"ठीक है!" मैंने कहा और स्कूटर के साथ खड़ा हो गया! वालिया साहब मत्था टेकने चले गये! स्वभाव से यशपाल वालिया भी धार्मिक प्रवृत्ति के थे! पर किसी विशेष गुरुद्वारे या मन्दिर जाने की उनकी आदत नहीं थी! चांदनी चौक गये तो शीशगंज गुरुद्वारे में मत्था टेक लिया! सेन्ट्रल सेक्रेटियेट गये तो रकाबगंज में मत्था टेक दिया! बिड़ला मन्दिर के निकट से गुज़रे तो वहाँ सिर झुकाने चले गये।

शुक्रवार, 18 जून 2021

कहानी उपन्यासकार राजहंस की -10

राजहंस बनाम विजय पाकेट बुक्स - 9   ========================
हिन्द व मनोज  Vs. विजय पाकेट बुक्स
जस्टिस फौजा सिंह गिल के अल्फ़ाज़ सबके लिए एक झटका थे! जस्टिस महोदय का कहना था -  ट्रेडमार्क किसी कम्पनी द्वारा किसी वस्तु विशेष के लिए अपनी पहचान का ठप्पा लगाने के लिए रजिस्टर्ड किये जाते हैं और एक लेखक कोई वस्तु नहीं होता! 
कोर्ट में दूसरी एप्लीकेशन राजहंस की थी! उनकी ओर से सरदार अनूपसिंह ने पैरवी करते हुए कहा कि राजहंस - केवलकृष्ण कालिया का नाम है! विजय पाकेट बुक्स राजहंस नाम से 'तलाश' उपन्यास प्रकाशित कर रहा है, जो कि केवलकृष्ण कालिया का लिखा नहीं है! विजय पाकेट बुक्स द्वारा राजहंस का नकली उपन्यास 'तलाश' प्रकाशित और वितरित किये जाने पर रोक लगाई जाये! 
विजय पाकेट बुक्स की ओर से राजहंस नाम पर विजय पाकेट बुक्स के स्वामित्व की उनके एडवोकेट सोमनाथ मरवाहा तरह-तरह की दलीलें देते रहे! जिनका जवाब सरदार अनूपसिंह निरन्तर देते रहे! सरदार अनूपसिंह और राजहंस के हक में  जस्टिस महोदय का यह कथन और सोच 'एक लेखक कभी ट्रेडमार्क नहीं हो सकता' उनका पक्ष मजबूत कर रही थी और आखिरकार फैसला राजहंस के पक्ष में ही हुआ! 'तलाश' उपन्यास पर राजहंस को स्टे मिल गया!
उस रोज उससे ज्यादा बहस नहीं चली!  

गुरुवार, 17 जून 2021

कहानी उपन्यासकार राजहंस की -09

 राजहंस बनाम विजय पाकेट बुक्स - 8   ========================
हिन्द व मनोज  Vs. विजय पाकेट बुक्स
"तूने तो गद्दारी करने की ठान ली है, पर हमें तो व्यापार करना है! सारी खबरें रखनी ही पड़ेंगी!" गौरी भाई साहब मुस्कुराते हुए गर्दन हिलाते हुए बोले! 
"मैंने कौन सी गद्दारी कर दी...?" मैंने पूछा! 
"अब मेरा मुंह मत खुलवा!" गौरीशंकर गुप्ता बोले - "हमारे दुश्मनों के यहाँ रविवार को भी चाय नाश्ता करने पहुँचा हुआ था!  या कह दे नहीं गया था - रविवार को तू विजय पाकेट बुक्स में...!"
"जगदीश जी ने बताया है कुछ.,.?" 
"अरे जगदीश जी को देख कर तो तू और  राजभारती टी स्टाल में घुस गये थे! पता चलने पर राज भाई ने एक लड़के को साइकिल से राणा प्रताप बाग भेजा था! उसने तुझे भी वहाँ देखा था और बाकी सबको भी! चल, अब भी कह दे कि तू नहीं गया था विजय पाकेट बुक्स में...!" गौरीशंकर गुप्ता निरन्तर मुस्कुरा रहे थे! 
"असली जासूस तो आपलोग हो!" मैं हंसा - "आपने तो पूरी जासूसी एजेन्सी खोल रखी है! योगेश मित्तल सांस  भी लेता है तो आपको पता चल जाता है - कहाँ पर खड़े होकर सांस ली थी! पर उस दिन आप मुझे दरीबे में छोड़, अचानक कहाँ गायब हो गये थे...?"
"हम पटेलनगर गये थे, यह तो जगदीश जी ने तुझे बता ही दिया था बेटा... फिर क्यों पूछ रहा है?" गौरीशंकर गुप्ता बोले! राजकुमार गुप्ता इस बीच बिल्कुल खामोश रहे, लेकिन वह मन्द-मन्द मुस्कुरा रहे थे! 

कहानी उपन्यासकार राजहंस की-08

 राजहंस बनाम विजय पाकेट बुक्स - 7   ========================
हिन्द व मनोज  Vs. विजय पाकेट बुक्स
राणा प्रताप बाग पहुँचकर, फिर उसी हाल में महफ़िल जमी, जहाँ किताबों का भण्डार था और वीपी पैकेट और रेलवे के बण्डल तैयार किये जाते थे। 
आज की महफ़िल में वासुदेव और हरविन्दर नहीं थे! वे वापस कानपुर और लुधियाना चले गये थे, लेकिन आज की महफ़िल में इन्देश्वर जोशी भी हम सबके साथ ही एक फोल्डिंग कुर्सी पर बैठा था, जैसे वह विजय पाकेट बुक्स में नौकरी करने से पहले साथ ही बैठा करता था।
थोड़ी देर बाद कुछ और लोग आ गये, जिन्हें मैं नहीं जानता था, किन्तु वे सभी उम्रदराज थे, अत: मेरे लिए यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं था कि वे सब विजय कुमार मलहोत्रा के पुराने एवं घनिष्ठ मित्र हैं। 
विजय जी उन्हें राजहंस के हिन्द व मनोज में छपने का किस्सा सुनाने लगे। 
उन सब बातों में न मेरे लिए कुछ नया था, ना ही बताने योग्य नया। 
अचानक वालिया साहब ने एक दस का नोट इन्देश्वर जोशी की ओर बढ़ाते हुए धीरे से कहा - "इन्देश, यार मेरे लिए एक पान ले आ..!" फिर मेरी ओर देख कर बोले -"एक योगेश जी के लिए भी..!"
"आओ योगेश जी, चलते हो?" इन्देश ने उठते हुए मेरा हाथ थामते हुए मुझसे कहा -"चलो, पान ले आयें।"
मैंने पहले भी बताया है - मैं एकदम मस्तमौला था! छोटी-बड़ी गाड़ियों में बैठने और घूमने वालों से भी मेरी दोस्ती थी तो फटे और मैले कपड़ों में दिखने वालों से भी बहुत मुहब्बत भरे रिश्ते थे मेरे। 
       और एक आदत उन दिनों मेरी जिन्दगी का खास अंग थी, वह यह कि कितना ही जरूरी कहीं जाना हो, अचानक कोई भी किसी काम को कहे, मना करना तो मैंने सीखा ही नहीं था! 
यहाँ तक कि जब मैं बंगला साहब गुरुद्वारे के सामने कनाट प्लेस में रहता था, तब कई अड़ोसी-पड़ोसी मुझसे कभी कोई  मामूली सा बाज़ार का काम सौंप देते थे तो चाहें कितना ही व्यस्त रहा होऊँ, कभी इन्कार नहीं करता था! वहाँ के पड़ोसियों ने बाज़ार से आधा किलो चीनी ला देने और स्टुडियो से फोटो ला देने ही नहीं, रीगल या रिवोली सिनेमा हॉल में फिल्म 'हाऊस फुल' रही हो तो मुझसे फिल्मों के टिकट तक ला देने का काम लिया था!
मेरी कनाट प्लेस के सिनेमा हॉल्स के गेटकीपर्स से भी उन दिनों अच्छी खासी जान-पहचान थी, जिसे आप दोस्ती भी कह सकते हैं।

बुधवार, 16 जून 2021

कहानी उपन्यासकार राजहंस की- 07

राजहंस बनाम विजय पाकेट बुक्स - 6  ========================
हिन्द व मनोज  Vs. विजय पाकेट बुक्स

आप सौ परसेन्ट एक ईमानदार और सच्चे इन्सान हैं, वफ़ादार और अच्छे इन्सान हैं, लेकिन कभी कभी वक़्त आपके खिलाफ हो जाता है और जब वक़्त आपके खिलाफ हो, आपकी ईमानदारी में दूसरे को बेईमानी नज़र आती है। सच्चाई में झूठ नज़र आता है। ऐसे समय कोई सफाई देना या अपने अज़ीज़ को यह समझाना कि आप ईमानदार हैं, सच्चे हैं, शुभचिन्तक हैं, दोस्त हैं, सब बेकार होता है। ऐसे समय खामोश रह जाना ही सबसे उत्तम कदम होता है।
         यह सब मैं इसलिये बता रहा हूँ, क्योंकि जो-जो लोग, मेरी पीठ पीछे भी हमेशा मेरी तारीफ करते थे, सराहना करते थे - राजहंस और हिन्द - मनोज के विजय पाकेट बुक्स से विवाद में एकदम अकारण मुझे शक की निगाहों से देखने लगे थे। हालांकि बाद में, मैं उन सबके लिए भी वही पहले वाला प्यारा-दुलारा योगेश मित्तल बन गया था, लेकिन कुछ समय तक मुझे कड़वाहटें, जिल्लतें और उपेक्षा भी सहनी पड़ी थी। 
       विजय पाकेट बुक्स में वासुदेव और हरविन्दर से भारती साहब ने उन्हीं दिनों मेरा प्रथम परिचय कराया था। बाद में तो हम कई बार मिले, पर उस रोज भी वासुदेव और हरविन्दर बहुत मुहब्बत से मिले। हाथ पकड़ कर वासुदेव ने कई बार हाथ हिलाया।
 उसने यह भी कहा -"आपका नाम तो कई बार सुना था। मिलने का अवसर पहली बार मिला है।"
हरविन्दर ने भी हाथ मिलाया, पर सहज अन्दाज़ में मुस्कुराते हुए हाथ मिलाकर छोड़ दिया। 
विजय कुमार मल्होत्रा उस समय एक साइड में खड़े, इन्देश्वर जोशी से पहले से, विजय पाकेट बुक्स में काम कर रहे पैकर को, वासुदेव, हरविन्दर, सावन और मीनू वालिया की पुरानी सभी किताबों के दो-दो बण्डल निकाल कर कार की डिकी में रखने का आदेश दे रहे थे। उस समय मुझे विजय कुमार मल्होत्रा के उस आदेश का मतलब समझ में नहीं आया था, पर बाद में सब पता चल गया था। 
     वे सारी किताबें नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के लिए निकलवाई जा रही थीं। दरअसल विजय कुमार मलहोत्रा नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हमेशा राजहंस की किताबों की बिक्री पर ही ज्यादा जोर देते रहे थे, लेकिन अब उन्हें समझ आ गया था कि उन्हें अपने सभी लेखकों पर बराबर का जोर लगाना चाहिए था। 
उस समय विजय कुमार मल्होत्रा की पीठ मेरी तरफ थी। अपने वर्कर को सब कुछ समझाने के बाद जैसे ही वह पलटे, उनकी नज़र मुझपर पड़ी और छूटते ही वह बोले - "ये मनोज का जासूस कब आया?"
मुझे काटो तो खून नहीं। 

मंगलवार, 15 जून 2021

पहली वैम्पायर- विक्रम ई. दीवान, उपन्यास समीक्षा

एक पिशाचनी की दिल दहला देने वाली ख़ौफ़नाक कहानी
उपन्यास :- पहली वैम्पायर
लेखक :     विक्रम ई. दीवान 
प्रकाशन :  बुक कैफे पब्लिकेशन
पृष्ठ संख्या -184
उपन्यास समीक्षा - संजय आर्य

वारलॉक श्रृंखला के बाद 'पहली वैम्पायर' का पाठकों को बेसब्री से इंतजार था। लगता है विक्रम ई.दीवान सर ने कसम खाई है कि वो पाठकों को नए नए तरीकों से डराकर ही रहेंगे। और इस बार पाठकों को उन्होंने एक ऐतिहासिक डरावनी कहानी के माध्यम से डराने का न केवल बेहतरीन प्रयास किया है बल्कि डराने में सफल भी रहे है। 
        कहानी की पृष्ठभूमि में है- सन 1818 का ब्रिटिश काल और उनका ठगों के साथ संघर्ष। ब्रिटिश कैप्टेन जोनाथन स्मिथ एक घमंडी और सनकी आदमी है उसके साथ इंग्लैंड की ही मानवविज्ञानी एलेन भी रहती है जो भारत घूमने आई है। स्मिथ को एक दिन जब अपने इलाके में एक आदमी की पेड़ पर उल्टी लटकी लाश मिलती है।और जैसे किसी जीव ने उसके शरीर से खून की आखरी बून्द तक  निकाल ली  हो, उसके बाद शुरू होती है स्मिथ की खोजबीन और उसका सामना होता है खून पीने वाली पिशाचिनी से और वो एक अघोरी की सहायता लेता है। 
पिशाचिनी की कहानी काफी रोचक और ख़ौफ़नाक है।एक बानगी देखिये।
"मुझे लगता है, तुम और कैप्टन दोनों इस जीव को बहुत हल्के में ले रहे हो।

वी. एम. अस्थाना

वी. एम. अस्थाना - संक्षिप्त चर्चा
आबिद रिजवी
वी.एम. अस्थाना  लेखन के शुरुआती समय से छपने तक  'हैलन' के उपन्यासों के साथ अनुवादकनामरूप से चिपके रहे जैसे इब्ने सफ़ी  हिन्दी नॉवलों (जासूसी दुनिया ) के साथ 'प्रेम प्रकाश ' का नाम। 'हैलन' के उपन्यासों के साथ वी.एम.अस्थाना का नाम उसी तरह सोने की अँगूठी मे जड़े नगीने की तरह शोभायमान - मूल्यवान साबित होता रहा जैसे गौरी पॉकेट बुक्स , मेरठ के केशव पण्डित के उपन्यासों के साथ  'केशव पण्डित'।
    मूल लेखक (राकेश पाठक, जो केशव पण्डित के नाम से भी लिखते थे) ने हरचन्द (भरसक) कोशिश की कि वे अपने नाम से ख़्याति अर्जित कर सकें , पर सफल न हुए। वी.एम.अस्थाना ने भी अपने नाम से मशहूरियत पाने के इच्छा लेकर  नॉवल लिखे। पर कामयाब न हुए।
      वी.एम.अस्थाना कानपुर के एक बैंककर्मी थे। सतीश जैन की उसी तरह कि खोज थे जैसे गौरी पॉकेट बुक्स वालों की राकेश पाठक। दोनों को ही उनके प्रकाशकों ने हरेक से गोपनीय रखने की पूरी चेष्टा की। ....पर, इस वाकिया नवीस से सब कुछ खुला रहा, इसकी वजह ये रही कि उक्त दोनों प्रकाशकों ने, उपर्युक्त संदर्भित दोनों लेखकों के शुरुआती नॉवल छापने से पहले मुझसे पढ़वाने और सुधरवाने में  'हरि इच्छा' मानी। गौरी पॉकेट बुक्स वाले अंतिम समय तक इस बात को प्रकाशकों और लेखकों के बीच कई बार खुले तौर पर कहा -- "आबिद रिज़वी ने केशव पण्डित का पहला उपन्यास को सुधारने का इतना अमॉउण्ट वसूला कि जितना मैंने उसके लिखने वाले को पारश्रमिक रूप में भी न दिया था।" अब पता नहीं ये कथन लेखक की डिवैल्यूएशन के लिए था या मेरी वैल्यूएशन केे लिए।  वैसे मेरा आंकलन पहले वाले विचार पर ही  है।
  @आबिद रिजवी के स्मृति कोष से
महत्वपूर्ण तथ्य


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गुरुवार, 10 जून 2021

लोकप्रिय साहित्य पर चर्चा- शरद कुमार दूबे


लुगदी साहित्य को सस्ता, फुटपाथी और घासलेटी साहित्य जैसे नामों से भी अलंकृत किया जाता है। अंग्रेजी भाषा में इसे पल्प फिक्शन (Pulp fiction) कहा जाता है। मैंने गूगल पर pulp fiction meaning in hindi टाइप किया तो जवाब आया 'उत्तेजित करने वाला सस्ता उपन्यास'।
वैसे लुगदी साहित्य का सबसे इज्जतदार नाम है, 'लोकप्रिय साहित्य'। यानी कम गुणवत्ता वाले सस्ते कागज पर छपने वाला वो साहित्य जो आम लोगों की जेब पर भारी नहीं पड़ता और वो रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड की दुकानों पर आम बिकते इस साहित्य को खरीदकर अपने पढ़ने की तलब को पूरी कर पाता है। सही मायनों में यही वो साहित्य है जो पाठकों के मन में रोचकता पैदा करता है और उन्हें इससे जोड़े रखता है। लोकप्रिय साहित्य लिखा नहीं जाता बल्कि लिखा जाकर लोकप्रिय होता है।
हिंदी उपन्यास के संसार में उपन्यास को दो श्रेणियों में बाँटा गया, 'सामाजिक उपन्यास और जासूसी उपन्यास'। यहाँ हम बात कर रहे हैं जासूसी उपन्यासों और उनके लेखकों की। 100 साल से भी अधिक पुराने, हिन्दी जासूसी उपन्यासों के इतिहास में, 200 से भी अधिक जासूसी उपन्यासों के लेखक, गोपाल राम गहमरी का योगदान अविस्मरणीय है। सन 1900 में उन्होंने जासूस नामक पत्रिका भी प्रारम्भ की थी जो अगले चार दशकों तक प्रकाशित होती रही। ऐंसे ही देवकीनन्दन खत्री के उपन्यास 'चन्द्रकान्ता' का योगदान भी अतुलनीय है।
किसी भी उपन्यास को पढ़ने का मुख्य उद्देश्य होता है पाठक का मनोरंजन। लेकिन ये भी सत्य है कि, पढ़ने से ढेरों उपलब्धियाँ भी हासिल होती हैं। जैसे, ज्ञान प्राप्त होना, शब्द भंडार में वृद्धि होना आदि।
पिछले 50-60 बरस के कामयाब जासूसी उपन्यास लेखकों की बात करें तो उनमें, इब्ने शफी,  कर्नल रंजीत, जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा, वेदप्रकाश काम्बोज, परशुराम शर्मा, वेदप्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक आदि के नाम स्पष्ट रूप से सामने आते हैं।
पुराने समय में जब मनोरंजन के साधन कम थे तब लोगों में पढ़ने का बड़ा चाव था और जासूसी उपन्यास भी खूब पढ़े जाते थे। मनोरंजन के साधन बढ़े तो लोगों का वक्त दूसरे साधनों पर खर्च होने लगा और पढ़ने में रुचि कम होती गई। फिर हुआ ये कि, लोकप्रिय लेखक भी कम छपने लगे और बिकने और भी कम हो गए।
यहाँ मैं तारीफ करना चाहूँगा वेद प्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक की कि, पाठकों में इनकी लोकप्रियता कम न हुई। दोनों खूब छपते और बिकते रहे। 17 फरवरी 2017 को वेद प्रकाश शर्मा का देहांत हो गया। लोकप्रिय साहित्य में वेद प्रकाश शर्मा का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता।
लुगदी साहित्य का पहला लेखक जो लुगदी अथवा सस्ते कागज से ऊपर उठकर बेहतरीन वाइट पेपर पर छपा, वो है सुरेन्द्र मोहन पाठक। अपनी मेहनत, लगन और लेखन की वजह से पाठक जी ने यह मुकाम हासिल किया और अब तो उनका हर उपन्यास वाइट, उम्दा पेपर पर ही छपता है।
सुरेन्द्र मोहन पाठक का एक विशाल पाठक वर्ग है जो उनके हर नए उपन्यास का बेताबी से इंतजार करता है। 81 बरस के पाठक जी आज भी लेखन में सक्रिय हैं और उसी शिद्दत से लिख रहे हैं जैसे पहले लिखते थे। लेकिन ऐंसा लगता है मानो पाठक जी, लोकप्रिय लेखन के आखरी हस्ताक्षर हैं और नहीं लगता कि, सस्ते साहित्य का कोई और लेखक अब इस मुकाम तक पहुँच पाएगा क्योंकि वर्तमान में जो भी नए लेखक लिख रहे हैं वो पाठकों की पसंद पर खरा उतरने लायक नहीं है।।
प्रस्तुति-
शरद कुमार दुबे  


राम मंदिर के पास
रेलटोली, गोंदिया,
महाराष्ट्र (पिन- 441614)


बुधवार, 9 जून 2021

बिच्छू का खेल- अमित खान

साहित्य देश अपने ब्लॉग पर एक नया स्तम्भ आरम्भ कर रहा है- उपन्यास समीक्षा। जिसमें आप विभिन्न पाठकों द्वारा लिखी ्यी रोचक समीक्षाएं पढेंगे। 
इस क्रम में सब से पहले हम हरियाणा निवासी सुनील भादू जी द्वारा लिखित एक समीक्षा यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।
  अगर आप भी किसी उपन्यास पर समीक्षा लिखते हैं तो हमें भेज सकते हैं। 
Emial- sahityadesh@gmail.com
उपन्यास- बिच्छू का खेल
लेखक- अमित खान
प्रकाशक- Book cafe
एमेजन‌ लिंक- बिच्छू का खेल
उपन्यास समीक्षा- सुनील भादू
पर सुपरहिट वेब सीरीज़ बनी। पर वेब सीरीज और उपन्यास दोनों की कहानी अलग लग रही है।

कहानी की शुरुआत मुख्य किरदार अखिल से होती है। अखिल के पिता उसे एक वकील बनाना चाहते है। अखिल का एडमिशन लॉ कॉलेज में करवाने के लिए उनको एक लाख की जरूरत होती है। वो अगले दिन उस्मान भाई के पास जाता है पर उस्मान भाई उसे एक भी पैसा नही देते,  रात को अखिल के पिता देर से आते हैं और अपने साथ एक लाख रुपए लेकर आते हैं। 
     अगले दिन सुबह पुलिस इंस्पेक्टर तिवारी आता है और अखिल के पिता को उस्मान भाई की हत्या के जुर्म में गिरफ्तार कर लेता है। 
उस्मान भाई की वाइफ सभी वकीलों को अखिल के पिता का केस लड़ने से मना कर देती है पर क्रिमिनल लॉयर तलोनी अखिल के पिता का केस लेता है और उसे लड़ता है। पर तलोनी उस केस को हार जाता है और अखिल उर्फ़ ‘बिच्छू’ के पिता को एक झूठे मर्डर के इल्ज़ाम में फाँसी हो जाती है। 
फिर अखिल को पता चलता है कि उनकी मौत के लिये तलोनी ज़िम्मेदार है, तब अखिल अपने फ़ादर की मौत का बदला लेने के लिये तलोनी के मर्डर की प्लानिंग बनाता है। यह ‘बिच्छू का खेल’ था - ज़बरदस्त खेल ।
- क्या सच में तलोनी ने अखिल (बिच्छू) के साथ धोखा किया था? 
- ऐसी कौनसी बात थी जो तलोनी ने अखिल से छुपाई?
- अब क्या करने वाला था बिच्छू? क्या सजा देने वाला था वो
- तलोनी को या फिर उसे कुछ नही करने वाला था ?
- क्या सच में अखिल के पिता ने उस्मान भाई का कत्ल किया था ?

सोमवार, 7 जून 2021

एक मुलाकात कुमार कश्यप से- योगेश मित्तल

साहित्य देश के संस्मरण स्तम्भ में पढें आदरणीय योगेश मित्तल जी की विक्रांत सीरीज के उपन्यासकार कुमार कश्यप जी के साथ बीते कुछ यादगार पलों की एक झलक।

कुमार कश्यप जब बहुत बुलन्दी पर थे, तब उनसे हमेशा मेरठ में किसी न किसी प्रकाशक के यहाँ ही मिलना हुआ, पर जब भी वह मिलते हमेशा जल्दी में रहते थे, "नमस्ते - जय राम जी की" से आगे बात कम ही बढ़ी।
आम तौर पर उन्हें बाहरी चाय की दुकान पर चाय पीते कभी देखा नहीं, पर एक बार सुबह-सुबह वह  ईश्वरपुरी के बाहर ही गिरधारी चाय वाले की दुकान पर दिख गये। 
      मेरठ में ईश्वरपुरी के बाद अगली ही गली हरिनगर की है, जिसका पहला और काफी बड़ा मकान मेरे मामाओं का था, मकान के चार हिस्सों में मेरे चार मामा रहते थे, जिनमें दूसरे नम्बर के मामा रामाकान्त गुप्ता के यहाँ मैं ठहरा हुआ था! 
मैं उन्हीं के यहाँ से बाहर सिगरेट फूंकने के लिए निकला था, तब मैं सिगरेट पीने लगा था, किन्तु बड़ों के सामने... न बाबा न, इतना माडर्न और बेहिचक नहीं हुआ था।  
कुमार कश्यप
कुमार कश्यप

गिरधारी चाय वाले की दुकान पर मैं सिगरेट लेने ही पहुँचा था कि बेंच पर बैठे कुमार कश्यप जी की आवाज आई- " आओ योगेश जी, आओ! चाय पीते हैं।"
हमने चाय पी। सिगरेट भी पी। पैसे कुमार कश्यप जी ने ही दिये।
मेरे बहुत कहने पर भी उन्होंने मुझे नहीं देने दिये।
दरअसल कुमार कश्यप जी को जिस पब्लिशर से मिलना था, उसका आफिस तब तक खुला नहीं था, इसलिए हमारे बीच औपचारिकता से आगे बढ़ने की शुरुआत होगी।

उसके बाद हम इटावा में मिले, तब मेरे सबसे बड़े बहनोई शान्तिभूषण जैन इटावा में यूपी रोडवेज़ में आर. एम. की पोस्ट पर थे।
बहन का घर रेलवे स्टेशन के पास ही था।
मैं दिल्ली वापस जाने के लिए रेलवे स्टेशन पहुँचा ही था कि उसी समय किसी ट्रेन से वापस लौटे कुमार कश्यप जी की नज़र मुझ पर पड़ी - "अरे योगेश जी!"

मंगलवार, 1 जून 2021

वी.एम. अस्थाना

 नाम- वी. एम. अस्थाना

वी.एम. अस्थाना
वी.एम. अस्थाना
 मेरठ निवासी उपन्यासकार वी. एम. अस्थाना ओरियंटल पॉकेट बुक्स, मेरठ के लिए  अनुवादक का काम करते थे।

ओरियंटल बुक्स के लिए  'हैलन सीरीज' के उपन्यास अनुवादित करते थे।
   बाद में स्वयं मौलिक लेखन के क्षेत्र में हाथ आजमाया।
वी.एम. अस्थाना के प्रकाशित मौलिक उपन्यास
1. प्रलय की रात
2. प्यार का मौसम
3. बादल और बिजली
4. चोर लूटेरा
5. नौ-दो ग्यारह
6. तीन चोर - जुलाई-2977
7. खजाना
उक्त समस्त उपन्यास ओरिएंटल पॉकेट बुक्स, मेरठ से प्रकाशित
वी.एम. अस्थाना जी पर आबिद रिजवी जी की संक्षिप्त जानकारी यहाँ पढें- वी. एम. अस्थाना

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मेरठ उपन्यास यात्रा-01

 लोकप्रिय उपन्यास साहित्य को समर्पित मेरा एक ब्लॉग है 'साहित्य देश'। साहित्य देश और साहित्य हेतु लम्बे समय से एक विचार था उपन्यासकार...