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रविवार, 11 अप्रैल 2021

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा-05

मैं आवारा, इक बंजारा- अशोक कुमार शर्मा
       आत्मकथा, भाग-05   
क्रिकेट की इस दास्तान के बाद लगे हाथ मैं आपको अपनी  फिल्म स्क्रिप्ट राइटर बनने की दास्तान भी सुना ही देता हूँ।
    हुआ यूं दोस्तो कि उपन्यास लेखन छोड़ देने के करीब बारह वर्षो बाद ईस्वी सन 2012 में मुझ पर 'फिल्म स्क्रिप्ट राइटर' बनने का जुनून सवार हो गया था ।
     और वो इसलिए, क्यों कि उपन्यास लेखन में बहुत ज्यादा टाइम लगता है और दूसरा उपन्यास जल्दी लिखने के लिए पब्लिसरों का भी बहुत ज्यादा प्रेशर रहता है और मेरे पास अपनी नौकरी के चलते अब उतना टाइम नहीं बचता था कि मैं एक के बाद दूसरा उपन्यास फटाफट लिखता रहूं।
इसलिए मैंने शॉर्ट कट ढूंढा और मुड़ गया 'फिल्म स्क्रिप्ट' लिखने की ओर। 

मैंने तीन - चार महीने कड़ी मेहनत करके एक फिल्म स्टोरी लिख डाली, जिसका कि टाईटल था - 'बेडलकिया'
        अब साहेबान, ये फिल्म स्टोरी लेकर मैं जा पहुंचा अपने सपनों की नगरिया - मुंबई।
वहां उस शहर में मेरे बचपन का लंगोटिया यार श्रीराम शर्मा अपने परिवार सहित रहता था ।
तो जनाब, उसी दोस्त के घौंसले में जाकर मैंने अपना भी डेरा डाल दिया और उसे बताया कि मैं मुंबई घूमने के लिए आया हूँ।
शर्मो - हया की वजह से मैं मुंबई आने का असली मकसद उसे नहीं बता सका था।
         दूसरे दिन उसने मुझे घुमाने के लिए जुहू चौपाटी की ओर ले जाना चाहा, तो मैंने हिम्मत जुटाते हुए कहा कि यार जुहू चौपाटी फिर कभी घूम लेंगे, तू तो मुझे घुमाने के लिए 'अंधेरी' ले चल । 'अंधेरी' इलाके का नाम मैंने इसलिए लिया था, क्यों कि ज्यादातर फ़िल्म निर्माताओं के ऑफिस अंधेरी नाम के उस इलाके में ही स्थित थे ।
        अंधेरी का नाम सुनते ही वो एक पल के लिए चौंक उठा और फिर उसने दूसरे ही पल मुस्कराते हुए मुझसे पूछा कि सच - सच बता यार। कहीं कोई फिल्म - विल्म की स्टोरी तो नहीं लिख डाली तूने?
मैंने शरमाते हुए हामी भर दी ।
उसने प्यार से झिड़कते हुए मुझसे कहा कि,"यार, इसमें इतना शरमाने की क्या जरूरत थी? पहले ही साफ साफ बता देता । खैर ! अब बता कि अंधेरी में किसके पास चलना है तुझे?"
मैंने कहा, -"मैं वहां किसी को भी नहीं जानता, इसलिए किसी भी प्रोड्यूसर के पास ले चल।" 
उसने कहा कि प्रोड्यूसरों को तो मैं भी नहीं जानता। पर हां, मैं अपने जिले के फतेहपुर निवासी श्री राधेश्याम जी पारीक को जरूर जानता हूं, जो मुंबई में अपनी एडवरटाइजिंग ऐजेंसी चलाते है और जो अक्सर एड शूटिंग के दौरान मेरी गाड़ी किराए पर मंगवाते रहते हैं।
मैंने कहा - ठीक है। उन्ही के पास ले चल। वो इसी लाइन के आदमी है, इसलिए हो सकता है कि वो मेरी कुछ हेल्प कर सके। 
        फिर हम दोनों दोस्त एक लोकल ट्रेन पकड़कर जा पहुंचे भाईन्दर से अंधेरी और वहां से एक टैक्सी पकड़कर पहुंचे ओशिवारा, जहां राधेश्याम जी पारीक का ऑफिस था ।
वहां राधेश्याम जी पारीक, बड़े ही प्यार और गर्मजोशी से हमसे मिले और मुझे बताया कि वो इस संबंध में जान - पहचान वाले कुछ डायरेक्टरों से बात करेंगे और फिर उन्होंने आगे कहा कि किसी भी प्रोड्यूसर और डायरेक्टर को अपनी ये फिल्म स्क्रिप्ट देने से पहले तुम्हें "फिल्म राइटर्स एसोसियेशन" का मेंबर जरूर बन जाना चाहिए, ताकि तुम वहां अपनी इस स्क्रिप्ट का रजिस्ट्रेशन करवा सको और इस प्रकार कोई भी प्रोड्यूसर या डायरेक्टर  तुम्हारी इस फिल्म स्क्रिप्ट को चुराकर इस पर फिल्म नहीं बना सके।
       उनके अलावा उन्हीं के ऑफिस में काम करने वाले दर्शन कुमार जी ने भी मेरी खूब हेल्प की। 
उन्होंने मुझे फ़िल्म प्रोड्यूसरों से मिलने के कुछ टिप्स बताए और एक फिल्म डायरेक्टरी दी, जिसमें लगभग सभी फिल्म प्रोड्यूसरों और डायरेक्टरों के अलावा सभी जाने - माने हीरो और हीरोइनों के एड्रेस और फोन नंबर थे।
अब मैं बहुत खुश था, क्योंकि राधेश्याम जी पारीक और दर्शन कुमार जी की बदौलत मेरे हाथ फिल्म इंडस्ट्री की ऐसी बहुत सारी जरूरी जानकारियां हाथ लग चुकी थी, जिनका फायदा उठाकर मैं आगे के सफर के लिए अपने कदम बढ़ा सकता था।
फिर मैं राधेश्याम जी की सलाह के मुताबिक दूसरे ही दिन 'फिल्म राइटर्स एसोसियेशन' के ऑफिस जा पहुंचा।
वहां जाकर मुझे पता चला कि वे उन्हीं लेखकों को अपनी
एसोसियेशन का मेंबर बनाते है, जिनका पहले से लिखा हुआ कुछ  कहीं से पब्लिश हो चुका हो और जिनकी गारंटी एसोसियेशन के दो लाइफटाइम मेंबरों ने दी हो। 
         चूंकि मेरे द्वारा लिखे हुए पांच उपन्यास पहले ही पब्लिश हो चुके थे, इसलिए मुझे उनकी पहली शर्त पूरी करने में कोई भी परेशानी महसूस नहीं हुई। 
रही बात उनकी दूसरी शर्त की, तो मैंने वहां पर पहले से ही मौजूद दो लाइफ टाइम मेंबरों को अपने द्वारा लिखे हुए कुछ उपन्यास दिखाकर अपना परिचय दिया और अपनी परेशानी बताई, तो तुरंत ही उन्होंने मेरी हेल्प करते हुए गारंटी फॉर्म पर अपने - अपने हस्ताक्षर कर दिए और इस प्रकार मैं अब फिल्म राइटर्स एसोसियेशन का मेंबर बन गया था।
     उस ऑफिस में मैंने बतौर उस एसोशिएशन के मेंबर गुलशन नंदा, प्रेमचंद, वृन्दावन लाल वर्मा और मंटो जैसे प्रख्यात साहित्यकारों के नाम और उनकी दीवार पर टंगी हुई फोटो देखी और मैंने मन ही मन इस बात पर गर्व महसूस किया कि मैं अब उस संस्था का मेंबर बन चुका हूं, जिनके मेंबर ये नामचीन साहित्यकार कभी रह चुके है। 
अब मैं भाइंदर चौपाटी की एक बैंच पर समुद्र की ठंडी - ठंडी हवा खाता हुआ बैठा रहता था और दर्शन कुमार जी द्वारा दी गई फिल्म डायरेक्टरी में से ढूंढ - ढूंढकर फिल्म प्रोड्यूसरों को फोन लगाता रहता था। 
कुछ प्रोड्यूसर मेरा फोन उठाते थे और कुछ नहीं भी। 
उन फोनों से मुझे ज्ञात हुआ कि अधिकतर फिल्म प्रोड्यूसरों ने फिल्में बनाना अब लगभग बंद सा कर दिया है, क्यों कि उन दिनों ये व्यवसाय बहुत ही जोखिम भरा बन चुका था और कई प्रोड्यूसर फिल्में पिट जाने की वजह से कर्ज के भारी - भरकम बोझ तले दबकर बर्बाद हो चुके थे।
उसी दरम्यान मेरी फोन पर सलमान खान के सबसे छोटे भाई सोहेल खान से भी लम्बी बातचीत हुई थी, जो काफी रोचक और अपनत्व भरी हुई रही थी। 
उन्होंने कुछ अपनी निजी बाते शेयर की, तो कुछ मैंने ।
बाद में एक दिन मुझे राजश्री प्रोडक्सन हाउस के ऑफिस से बुलावा आया।
उस बुलावे को पाकर मेरे तो जैसे पंख ही लग गए थे ।
मैं तुरंत एक लोकल ट्रेन पकड़ कर जा पहुंचा "दादर" और वहां से एक टैक्सी पकड़कर पहुंचा भावना बिल्डिंग, जहां उनका ऑफिस था।
उस समय मेरी आंखों के सामने एक बहुत ही अप्रत्याशित दृश्य उपस्थित हूआ।
और वो अप्रत्याशित दृश्य ये था कि जब मैं भावना बिल्डिंग की सीढ़ियां चढ़ रहा था, तब सलमान खान उन सीढ़ियों से नीचे उतर रहे थे। 
उनसे बस मेरी हाय - हैलो हुई और एक दिल को सुकून पहुंचा देनेवाली मुकुराहट का आपस में आदान - प्रदान हुआ। 
बाद में मुझे पता चला कि वे राजश्री वालों की फिल्म - 'प्रेम रतन धन पायो' के सिलसिले में मुलाकात करने के लिए वहां आए थे ।
अंदर ऑफिस में जाकर मेरी गुप्ता जी नाम के एक शख़्स से
मुलाकात हुई।
उन्होंने मेरी फिल्म स्क्रिप्ट की वन पेज स्टोरी पढ़ी और बाद में उन्होंने अपना डिसीज़न सुनाते हुए कहा कि हम ऐसी मिक्स मसालेदार फिल्मे नहीं बनाते, बल्कि साफ - सुधरी पारिवारिक फ़िल्में ही बनाते है, अगर तुम्हारे पास वैसी कोई स्क्रिप्ट हो, तो
बात करो।
मैंने कहा कि फिलहाल तो मेरे पास यही स्क्रिप्ट है।
उन्होंने कहा कि अगली बार जब कभी भी यहां आवो, तो कोई अच्छी सी पारिवारिक फिल्म स्क्रिप्ट लेकर आना, तब हमारी आगे की बातचीत हो सकती है।
इस प्रकार निराश होकर मैं वहां से खाली हाथ वापस लौट आया था। 
लिखने को तो मैं पारिवारिक फिल्म स्क्रिप्ट भी लिख सकता था, पर फिल्म इंडस्ट्री की पसंद या नापसंदगी का नॉलेज न होने की वजह से मैं यह निश्चय नहीं कर सका था कि मुझे कैसी स्टोरी लिखनी चाहिए ।
इस वजह से मैंने उस फिल्म स्क्रिप्ट में जितने भी मेरे पास मसाले थे, वे सब के सब डाल दिए थे, ताकि कोई ये नहीं कह सके कि यार तूने इसमें चना मसाला तो डाला ही नहीं।
उसके बाद मुझे धीरज कुमार जी के प्रोडक्सन हाउस 'क्रिएटिव आई' की ओर से बुलावा आया ।
वहां एक शख्स कुछ लड़कियों का रिसेप्शन हॉल से सटे एक दूसरे रूम में ऑडिशन ले रहा था। 
मैं ऑफिस के अन्दर जाकर एक मैडम से मिला। 
मैडम ने मेरी फिल्म स्क्रिप्ट की वन पेज स्टोरी पढ़ी और उसके बाद उसमें लिखे हुए वे गाने भी पढ़े, जो मैंने उस स्क्रिप्ट की डिमांड और उसकी सिचुएशन के मुताबिक उसमें लिखे थे। 
         ये सब पढ़ने के बाद अंत में वो बोली कि आपकी ये फिल्म स्टोरी और गाने तो अच्छे है, पर हम सिर्फ टी.वी. सीरियल्स ही बनाते हैं, क्यों कि फिल्म बनाना आजकल बहुत ही जोखिम भरा कार्य बन चुका है, इसलिए तुम अगर सीरीयल लिखने के लिए इंटरेस्टेड हो, तो बात करो ।
मैंने उनको साफ - साफ लफ्जों में इंकार करते हुए कहा कि नहीं मैडम । मुझे सीरियल लिखने में कोई इंट्रेस्ट नहीं है, क्योंकि मेरे पास सीरियल लिखने जितना लंबा खाली वक्त नहीं है ।
कोई बात नहीं, पर अगर आगे कभी भी सीरियल लिखने का इरादा बन जाए, तो हमसे संपर्क जरूर करना, क्यों कि सीरियलों में भी अच्छे - खासे पैसे मिल जाया करते है ।
ये बात शायद उसने इसलिए कहीं थी, क्यों कि वो मेरी फिल्म स्क्रिप्ट से प्रभावित होने के साथ - साथ मेरे द्वारा लिखे हुए उन उपन्यासों से भी काफी प्रभावित हुई थी, जो मैंने उसको दिखाए
थे।
ठीक है, मैडम । अगर मेरा कभी ऐसा इरादा बना, तो मैं जरूर आपसे संपर्क करूंगा । 
इतना कहने के बाद मैं वापस जाने के लिए उठ खड़ा हुआ।
उसने कहा - ओके, पर जाने से पहले अमित खान जी से जरूर मिलते जाना, शायद तुम्हारा इरादा बदल जाए ।
मैंने मैंने आश्चर्य से पूछा - अ... अमित खान जी ! अमित खान जी कौन ?
अरे, क्या अमित खान जी को भी नहीं जानते, वे भी तुम्हारी तरह ही फेमस उपन्यासकार है और अब वे हमारे यहां डायरेक्टर है ।
ये सुनते ही मैं बहुत खुश हो गया।

     और वो इसलिए, क्यों कि मेरे ही जैसा एक उपन्यासकार प्रोग्रेस करके यहां डायरेक्टर जैसी रिपुटेडेट पोस्ट तक जा पहुंचा था। 
इसलिए मैंने व्यग्रता से कहा - ओह ! तो आप उन अमित खान जी की बात कर रही है । हालांकि मेरी उनसे पहले कभी मुलाकात तो नहीं हुई है, पर मैंने उनके लिखे हुए कई उपन्यास पढ़े जरूर है । प... पर है कहां वे अमित खान जी ?
अरे, वे ही तो है अमित खान जी, जो रिसेप्शन हॉल के साइड वाले रूम में लड़कियों के ऑडिशन ले रहे हैं, इसलिए तुम शायद अंदर आने से पहले उनको देख चुके हो। 
ये सुनने के बाद मैं रिसेप्शन हाल की ओर चल दिया ।
वहां जाकर मैंने अमित खान जी  को अपना परिचय देते हुए उनसे हाथ मिलाया ।
वे बड़े ही अपनत्व भाव से मुझसे मिले और कहा कि वे यहां बहुत दिनों से डायरेक्टर है और  आपको यहां मुझसे किसी भी तरह की हेल्प की अगर कोई जरूरत हो, तो निस्संकोच होकर जरूर बताना । मैं आपकी हेल्प करने की पूरी - पूरी कोशिश करूंगा ।
जवाब में मैंने कहा - जी, बहुत - बहुत शुक्रिया, पर फिलहाल मुझे किसी भी प्रकार की हेल्प की जरूरत नहीं है, क्यों कि मैं सीरियल नहीं लिखा करता ।
इस मुलाकात के बाद मैं न सिर्फ वहां से, बल्कि मुंबई से भी निराश होकर खाली हाथ वापस लौट आया । 
मुंबई से लौट आने के कई वर्षो बाद एक न्यूज पेपर् से मुझे ज्ञात हुआ कि मेरे पड़ौसी जिले झुंझनू के 'मंडावा' नाम वाले एक कस्बे में फिल्म 'पी  के' की शूटिंग चल रही है।
ये न्यूज़ पढ़कर मैंने एक कोशिश और करने की ठानी और फिर जा पहुंचा मंडावा ।
वहां जाने के बाद मुझे पता चला कि आज शूटिंग की छुट्टी है और संजय दत्त साहेब जयपुर किसी बड़े नेता से मिलने के लिए गए हुए है, इसलिए मैं अमीर खान साहेब से मिलने होटल 'डेजर्ट इन' जा पहुंचा। 
वहां होटल के बाहर अमीर खान साहेब से मिलने की इच्छा रखनेवालों की सैकड़ों की तादात में भीड़ खड़ी हुई थी, किन्तु होटल स्टाफ किसी को भी होटल के अंदर नहीं घुसने दे रहा था ।
मैंने वहां पर काम करने वाले एक बुजुर्ग कर्मचारी को एकांत में जाकर अपने उपन्यास और अपनी फिल्म स्क्रिप्ट दिखाने के बाद अमीर खान से मिलने की अपनी इच्छा जताई, तो वे मुझसे प्रभावित होकर मुझे एक साइड वाले दरवाजे से होटल के अंदर ले गये और वहां के मैनेजर से मिलवा दिया । 
होटल मैनेजर को मैंने अपनी फिल्म स्क्रिप्ट दिखाते हुए पूरी बात बताई और अपने उपन्यास और फिल्म राइटर एसोसियेशन का कार्ड दिखाया, तो वे भी मुझसे काफी प्रभावित हुए । 
उन्होंने मुझे आश्वाशन देते हुए कहा कि हालांकि अमीर खान साहेब ने ये सख्त हिदायत दे रखी है कि किसी भी मुलाकाती को उनसे मिलाने के लिए न लाया जाए, पर मैं आपके लिए एक कोशिश जरूर करूंगा, इसलिए आप अपना परिचय और उनसे मिलने का मकसद एक चिट पर लिखकर दे दीजिए, ताकि मैं वो चिट उन तक पहुंचा सकूं ।
मैंने उनके बताए मुताबिक अपना परिचय और मिलने का मकसद एक चिट पर लिखकर मैनेजर साहेब को थमा दी ।
कुछ ही देर पश्चात मैनेजर साहेब ने वो चिट अमीर खान साहेब तक पहुंचा दी ।
कुछ देर बाद उनकी तरफ से जवाब आया कि वे आधे घंटे बाद पुरानी हवेलियां देखने के लिए शहर जाएंगे, तब उनसे एक छोटी सी मुलाकात हो सकती है ।
मैनेजर साहेब ने मेरी चेयर होटल  के मैनगेट के पास ये सोचकर लगवा दी कि जैसे ही अमीर खान साहेब शहर जाने के लिए उधर से होकर गुजरें, तो मैं उनसे उस वक्त मुलाकात कर सकूं ।
मैं वहां चेयर पर बैठकर अमीर खान साहेब के आने का इंतजार करने लगा ।
करीब बीस मिनट बाद अमीर खान साहेब अपने सात - आठ बाउंसरों से घिरे हुए मेरी तरफ आए और एक पल ठिठक कर मेरी ओर मुस्कराकर देखने के बाद वे बिना बोले आगे बढ़ गए ।
मैंने उनसे दुआ - सलाम तक नहीं किया था । और वो इसलिए नहीं किया था, क्यों कि एकाएक मैं उनको पहचान नहीं सका था।
और वो इसलिए, क्यों कि जो हुलिया मैंने उनका आज तक फिल्मों में देखा था, हकीकत में उनका हुलिया उस हुलिए से काफी जुदा था। 
फिल्म 'पी के' की शूटिंग के दौरान उन्होंने अपने बाल बहुत छोटे - छोटे करवा रखे थे । वजन भी काफी कम कर रखा था और उस पर तुर्रा ये कि उन्होंने एक टाईट जींस और हाफ बाजूवाली टाईट ही एक टीशर्ट पहन रखी थी, जिसके कारण वे बीस साल से भी कम उम्रवाले युवा लग रहे थे।
हालांकि उनका चेहरा मुझे बहुत ही जाना - पहचाना सा लगा था और आठ - दस सैकिंड बाद ही मेरे दिमाग में ये आ भी गया था कि अरे, ये ही तो है अमीर खान साहेब, जो अभी - अभी यहां से होकर गुजरे हैं ।
ये बात दिमाग में आते ही मैं उनके पीछे तेजी से लपका, पर तब तक वे भीड़ को चीरते हुए अपनी गाड़ी में बैठ चुके थे और मैं भीड़ में फंसा उनकी गाड़ी को होटल परिसर से बाहर निकलते हुए  बेबस सी निगाहों से सिर्फ देखता रहा।
इसके बाद मैं अपनी किस्मत को कोसता हुआ वापस अपने गांव लौट आया था।
पर अपने एक सहकर्मी द्वारा बार - बार कहने से मैं तीसरे दिन एक बार फिर मंडावा इस दृढ़ निश्चय के साथ जा पहुंचा कि इस बार चाहे जो कुछ भी हो, पर मुझे हर हाल में संजय दत्त और अमीर खान साहेब से मुलाकात करनी ही करनी है।
इस कारण मंडावा पहुंचते ही मैंने सबसे पहले धर्मशाला में अपने लिए एक रूम बुक करवाया और उसके बाद जैसे ही मैं धर्मशाला से बाहर निकला, तो मुझे पता चला कि उस फिल्म की शूटिंग तो बगल वाले हॉस्पिटल में ही हो रही है ।
पर जैसे ही मैं हॉस्पिटल तक पहुंचा, तो वहां पर हजारों की भीड़ पहले से ही मौजूद थी, जिसको पुलिसवालों ने जगह - जगह बेरीकेट्स लगाकर बड़ी मुश्किल से नियंत्रित कर रखा था और वे हॉस्पिटल के नज़दीक़ किसी इंसान को तो क्या, एक
चींटी को भी फटकने नहीं दे रहे थे।
इतनी ज्यादा भीड़ और इतनी चाक - चौबंद पुलिस व्यवस्था को देखकर एक बार फिर मुझे संजू बाबा और अमीर खान साहेब से मिलना असंभव सा लगने लगा था।
    कुछ देर पश्चात राजस्थानी पौशाक पहने हुए संजय दत्त अपनी गाड़ी में बैठकर वहां पर आए ।
उनके साथ उनके बाउंसरों की भी अलग से एक गाड़ी ओर थी ।
भीड़ उनको देखते ही उत्साहित होकर अपने हाथ हिलाती हुई और मारे खुशी के चीखती - चिल्लाती हुई उनके नजदीक जाने की कोशिश करने लगी, पर बाउंसरों और पुलिस के कारण कोई भी उनके नजदीक नहीं पहुंच सका ।
उन्होंने दूर से ही अपना हाथ भीड़ की तरफ हिलाया और फिर बेरीकेट्स पार करते हुए हॉस्पिटल में जा घुसे ।
मैंने भी उनके पीछे - पीछे हॉस्पिटल में घुसने की कोशिश की तो वहां गेट पर मौजूद बाउंसरों द्वारा मैं रोक दिया गया ।
           जब मैंने उनको अपना परिचय दिया तो उनका हेड सा दिखाई देने वाला बाउंसर बोला -  सॉरी सर । डायरेक्टर साहेब का हमे सख्त आदेश है कि चाहे जो कोई भी क्यों न हो, पर अंदर किसी को भी न घुसने दिया जाए ।
ये सुनकर मैंने भी अंदर जाने की ज्यादा जिद्द नहीं की ।
तभी मुझे उनसे मिलने का एक उपाय सूझा ।
मैं लपक कर संजय दत्त के ड्राईवर के पास पहुंचा, जो उनकी गाड़ी पार्क करने के बाद गाड़ी में ही बैठा हुआ था । 
              मैंने उससे हाथ मिलाने के बाद अपना परिचय और काम बताने के बाद संजय दत्त से मिलने की अपनी इच्छा जताई, तो उसने कहा कि वो सिर्फ एक नौकर आदमी है, इसलिए वो ऐसा नहीं कर सकता। हां, पर वो ये जरूर कर सकता है कि संजय दत्त ने अपने एक फैन को रोज उनसे मिलने की छूट दे रखी है, वो मुझको उससे जरूर मिलवा सकता है । हो सकता है कि वो फैन आपकी मुलाकात संजय दत्त से करवा दे ।
एक न्यूज पेपर में दो - तीन दिन पहले उस फैन के बारे में छपी हुई ये खबर मैं पहले ही पढ चुका था, इसलिए मैंने उससे कहा कि ठीक है, भाई । उस फैन से ही मिलवा दो। हो सकता है कि मेरा काम बन जाएं। 
फिर हम दोनो ने मिलकर शीघ्र ही उस फैन को ढूंढ निकाला ।
वो फैन बहुत ही सनकी किस्म का बंदा निकला । 
कुछ देर तक तो उसने हमसे सीधे मुंह बात ही नहीं की, फिर उसकी बहुत ज्यादा प्रशंसा करने और सिगरेट का एक पूरा भरा हुआ पैकेट दिलाने के बाद कहीं जाकर  उस दिहाड़ी मजदूर ने अपना मुंह खोला । 
उसने एक सिगरेट जलाकर और उसका धुआं बड़ी शान से आकाश में उड़ाते हुए बताया कि उसने उस वक्त खुद के शरीर को एक जलती हुई सिगरेट से जगह - जगह से दाग कर जला डाला था, जब संजय दत्त को फर्स्ट बार जेल की सजा हुई थी, इसीलिए संजय दत्त उसको इतना मानते है ।
          जब मैंने उससे संजय दत्त से मुलाकात कराने की गुजारिश की, तो वो बहुत नाज-नखरे दिखाने के बाद मुझे वहां से करीब एक किलोमीटर दूर एक खाली प्लाट पर ले गया, जहां संजय दत्त की वेनिटी वेन खड़ी हुई थी और उसके पास ही उनके चार - पांच बाउंसर भी खड़े हुए थे।
वहां पहुंचने के बाद वो सनकी बोला - संजय दत्त यहां करीब पांच बजे आएंगे। यही पर वे मेरे जैसे कुछ खास लोगों से मुलाकात करते है, पर मेरे पास इतना फालतू टाइम नहीं है, जो मैं पांच बजे तक तुम्हारे लिए यहां रुक सकूं। अगर तुम्हारी किस्मत अच्छी रही, तो जरूर तुम्हारी मुलाकात उनसे हो जाएगी, इसलिए अब टाटा, बाय बाय।
                        इतना कहने के बाद वो सिगरेट का धूंआ उड़ाता हुआ और फिल्म मुगले - आजम में जिस तरह अकबर महान की भूमिका निभाने वाले महान आर्टिस्ट पृथ्वीराज कपूर चले थे, उन्हीं की तरह  गर्वीली और रौबीली चाल से चलता हुआ वो वापस वहां से रवाना हो गया ।
मैं जानता था कि ये सनकी अब यहां ज्यादा रुकने वाला नहीं है, क्यों कि संजय दत्त से रोज - रोज  मुलाकाते होने से उसमें इतना ज्यादा गुरूर आ गया था कि वो खुद को संजय दत्त से भी बड़ा स्टार समझने लगा था।
इसलिए अब जो कुछ भी करना था, वो सिर्फ और सिर्फ मुझे ही करना था।
मैं संजय दत्त के बाउंसरों से मिला और उनको अपनी फिल्म स्क्रिप्ट दिखाने के बाद पूरी बात बताई । 
जवाब में वे बोले कि वे संजय दत्त को सिर्फ आपके बारे में सूचित कर सकते हैं । मुलाकात करना या ना करना खुद उन पर डिपेंड 
करता है ।
              तभी दूसरा बोला कि संजू बाबा के यहां आने में अभी बहुत टाइम  है, क्यों न आप तब तक जाकर अमीर खान साहेब से मुलाकात कर लीजिए ।
मैंने पूछा - वे इस वक्त कहां मिलेंगे ?
अरे, इस प्लाट से अगले वाले प्लाट में ही तो उनकी वेनिटी वेन खड़ी हुई है । इस वक्त लंच लेने के लिए वे वहां जरूर आते है ।
ये सुनकर मैं तुरंत अगले प्लाट की ओर चल दिया। 
वहां जाकर मैंने देखा कि वहां पर लडकों से ज्यादा लड़कियों की भीड़ थी ।
पूछने पर पता चला कि ये सब मोदी स्कूल की लड़कियां है, जो अपनी उस सहेली को अमीर खान से मिलवाने के लिए लेकर आई है, जिसने पिछले ग्यारह दिन से इस बात को लेकर अनशन कर रखा है कि वो अमीर खान से मुलाकात करने के बाद ही अपना अनशन तोड़ेगी, वरना सदा के लिए भूखी - प्यासी रहकर अपनी जान दे देगी ।
उसने अमीर खान साहेब का एक बड़ा सा स्केच भी बना रखा था, जिसे वो अपने सीने से चिपकाए हुए लड़कियों की भीड़ के सबसे आगे खड़ी हुई थी और जिसे अमीर खान साहेब ने मुलाकात करने के लिए अपना टाइम भी दे रखा था ।
मेरी समझ में ये नहीं आया कि उन लड़कियों की भीड़ को चीर कर मैं आगे बढूं, तो कैसे बढ़ूं ?
फिर मैंने उनकी लीडर सी दिखाई देने वाली एक लड़की को अपना परिचय देने के बाद बताया कि मैं अपनी ये फिल्म स्क्रिप्ट अमीर खान साहेब को देना चाहता हूं और इस काम में मुझे आप सब की हेल्प की जरूरत है ।
                     वो लड़की मेरा परिचय प्राप्त कर एकाएक यह विश्वास ही नहीं कर सकी थी कि उसके सामने अशोक कुमार शर्मा नाम के वो ही उपन्यासकार खड़े हुए है, जिनके एक - दो उपन्यास वो पहले पढ़ चुकी थी और जिनकी कहानियां उसे बहुत ही पसंद आई थी।
फिर जब मैंने अपने लिखे हुए उपन्यास और उसके पीछे अपनी छपी हुई फोटो दिखाई, तब कहीं जाकर उसे मेरे कहे पर यकीन आया ।
ये यकीन आते ही कि सचमुच उसके सामने उपन्यासकार अशोक कुमार शर्मा खड़े हैं, तो वो काफी खुश हो गई और फिर  उसने उत्साह भरे हुए अंदाज में मेरा परिचय अन्य लड़कियों को दिया । 
मेरा परिचय प्राप्त कर सभी लड़कियां एक बार तो काफी हैरान रह गई और फिर वे मुझसे अपने उपन्यासों से संबंधित तरह - तरह के सवाल करने लगी ।
        फिर उस टीम लीडर लड़की ने मेरी हेल्प करते हुए मुझे लड़कियों की भीड़ से आगे उस लड़की की बगल में ले जाकर खड़ा कर दिया था, जिसने पिछले ग्यारह दिनों से अमीर खान से मुलाकात करने के लिए अनशन कर रखा था ।
कुछ देर बाद अमीर खान साहेब अपनी वेनिटी वेन से बाहर निकलकर पास खड़ी एक छोटी गाड़ी में जा बैठे और उस लड़की को नजदीक बुलाकर उन्होंने उसका परिचय और पढ़ाई के बारे  में पूछा और बाद में उसे समझाया कि ऐसी कठोर जिद्द जिंदगी में उसे फिर कभी भी नहीं करनी चाहिए, क्यों कि ये जरूरी नहीं कि हर बार उसकी ऐसी जिद्द पूरी  हो जाए और चूंकि अब उन दोनों की मुलाकात हो चुकी है, इसलिए वो आज ही अपना अनशन तोड़ दे ।
लड़की ने अपना अनशन तोड़ने का वादा किया और अपना स्केच अमीर खान साहेब को भेंट कर दिया । 
                         उसके साथ आई कई लड़कियां  अपने - अपने मोबाईल फोन से इस मुलाकात को यादगार बनाने के लिए उस वक्त रिकॉर्डिंग भी कर रही थी ।
अमीर खान साहेब ने उस स्केच  को प्रशंसनीय अंदाज में देखा और फिर उस लड़की की पेंटिंग स्कील की काफी तारीफ भी की। तारीफ करने के बाद उन्होंने वो स्केच अपनी गाड़ी में रख लिया ।
इतना होने के बाद वो लड़की अमीर खान साहेब से हाथ मिलाकर वापस पीछे हट गई और   मेरी बगल में आकर दुबारा खड़ी हो गई ।
मैं अपनी फिल्म स्क्रिप्ट को अपने सीने से चिपकाए हुए अमीर खान साहेब की ओर ही देख रहा था ।
तभी अमीर खान साहेब ने इशारे से मुझे अपने नजदीक बुलाया ।
ये देखकर मुझे बहुत ही आश्चर्य और खुशी हुई । 
मैं लपककर उनके नजदीक जा पहुंचा और उनसे हाथ मिलाते हुए कहा कि सर, मेरा नाम अशोक कुमार शर्मा है । मैने दो - तीन दिन पहले होटल "डेजर्ट इन" में आपसे मुलाकात करने के लिए एक चिट भी भेजी थी ।
अमीर खान ने मुस्कराते हुए 
कहा - अरे, भाई । मैं तो देखते ही आपको पहचान गया था, पर उस रोज शायद आप ही मुझे नहीं पहचाना पाए थे ।
   मैं शर्मिंदगी से बोला - हां । आप ठीक कह रहे है, सर , पर गलती दरअसल मेरी नहीं, बल्कि आपके इस लुक की है, जो इन दिनों काफी बदला हुआ सा लग रहा है। 
                           जवाब में उन्होंने मुस्कराते हुए कहा - अरे, भाई । क्या करें, मजबूरी जो है, क्यों कि लुक तो हमे फ़िल्म स्टोरी की डिमांड के मुताबिक हरबार बदलना ही पड़ता है । खैर । अभी इस फिल्म की शूटिंग में काफी बीजी होने की वजह से मेरे पास उतना ज्यादा खाली वक्त नहीं है, जो मैं आपकी ये स्क्रिप्ट गौर से पढ़ सकूं और आपके साथ इस स्क्रिप्ट पर एक लम्बा डिसकस कर सकूं, इसलिए मैं आपको मेरे ऑफिस के नंबर दे रहा हूं। वहां  रीना नाम कि एक लड़की आपसे बात करेगी। उसको आप तफ्सील से पूरी बात बताइएगा और वैसा ही कीजिएगा, जैसा कि वो आपको करने के लिए बोले ।
इतना कहने के बाद उन्होंने मेरी फिल्म स्क्रिप्ट के एक खाली पन्ने पर रीना नाम की उस लड़की के फोन नंबर लिख दिए और मुझसे हाथ मिलाकर वहां से शूटिंग स्पॉट की ओर रवाना हो गए ।
मैं चाहकर भी उनको ये नहीं बता सका कि मैं कुछ रोज पहले ही रीना नाम कि उस लड़की से फोन द्वारा बातचीत कर चुका हूं और वो जवाब में मुझे बता चुकी है कि फिलहाल वे कोई भी फिल्म नहीं बनाने जा रहे हैं, इसलिए उन्हें मेरी फिल्म स्क्रिप्ट की अभी कोई जरूरत नहीं है । पर हां, आप आगे हमसे फोन द्वारा संपर्क में जरूर रहिएगा ।
खैर ! 
                              ये सब होने के बाद मैं मोदी स्कूल की लड़कियों के साथ संजय दत्त से मुलाकात करने के लिए उनकी वेनिटी वेन की ओर बढ़ गया था ।
               मोदी स्कूल की उस टीम लीडर लड़की ने रास्ते में मेरा हौंसला अफजाई करते हुए कहा कि भैया, चाहे जो कुछ भी हो जाए, पर हम आपको संजू बाबा से मिलाकर ही दम लेगी ।
ये सुनकर मेरी निराश हुई आशाओं में एकबार फिर से जान आ गई थी और मैं उत्साहित कदमों के साथ संजू बाबा की वेनिटी वेन की और बढ़ने लगा ।
वहां जब हम पहुंचे, तो हमने देखा कि संजू बाबा पहले से ही वहां लगी एक छोलदारी के नीचे एक चेयर पर बैठे हुए है और उनके नजदीक ही झुंझुनू कलेक्टर का पूरा परिवार भी उनके आजू - बाजू रखी हुई चेयर्स पर बैठा हुआ उनसे बातचीत कर रहा है ।
कुछ देर बाद राजस्थान के चिकित्सा मंत्री श्री राजकुमार  शर्मा भी संजय दत्त से मुलाकात करने के लिए वहां पर आ पहुंचे ।
उन सबकी मुलाकात करीब पंद्रह - बीस मिनट तक चली होगी, फिर संजू बाबा अपने होटल में जाने के लिए उन सबसे हाथ मिलकर उठ खड़े हुए। 
तभी एक बाउंसर ने मेरी ओर इशारा करते हुए उनके कान में  फुसफुसा कर कुछ कहा ।
उसकी बात सुनने के बाद वे लड़कियों का अभिवादन कबूल करते हुए मेरे नजदीक आ खड़े हुए और बोले  - अशोक जी, ऐसा है कि मैं तो कोई फिल्म बनाता नहीं, जो मैं आपकी कुछ हेल्प कर सकूं। परन्तु हां । मेरी जान - पहचान वाले कुछ डायरेक्टर्स ऐसे जरूर है, जिनको मैं आपके नाम कि सिफारिश कर सकता हूं, पर उसके लिए मुझे आपकी ये स्क्रिप्ट चाहिए ।
ये सुनकर मारे खुशी के मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा और किसी रेल इंजन की तरह धक - धक की आवाज करता हुआ धड़कने लगा।      
फिर मैंने उनको इस मेहरबानी लिए अपना शुक्रिया अदा किया और अपनी फिल्म स्क्रिप्ट उनके हाथ में थमा दी ।
वे स्क्रिप्ट थामकर और मुझसे हाथ मिलाकर अपनी गाड़ी में जा बैठे और वहां से वे अपने होटल के लिए रवाना हो गए ।
मेरी खुशियों का अब कोई पारावार न था ।
मैंने मन ही मन ऊपरवाले को शुक्रिया अदा किया ।
तभी मोदी स्कूल की वो टीम लीडर लड़की चिल्लाकर बोली - भैया । जरा पीछे मुड़कर देखो।
शायद संजू बाबा आप ही को बुला रहे है ।
मैंने तुरन्त मुड़कर अपने पीछे  देखा ।
सचमुच संजू बाबा की गाड़ी एक छोटे से मोड़ पर खड़ी हुई थी और वे अपने हाथ के इशारे से मुझे अपने नजदीक बुला रहे थे ।
मैं लगभग दौड़ता हुआ सा उनकी गाड़ी के नज़दीक़ जा पहुंचा ।
मेरे नजदीक पहुंच जाने के बाद उन्होंने मुझसे पूछा कि ये स्क्रिप्ट  "फिल्म राइटर्स एसोसियेशन" में रजिस्टर्ड तो है न ? 
मैंने कहा - जी हां । बिल्कुल रजिस्टर्ड है । आप इसे खोलकर देख लीजिए। इसके प्रत्तेक पन्ने पर उनकी मुहर लगी हुई है ।
ये सुनकर उन्होंने कहा - ओह । तब ठीक है । आप यकीन मानिए कि मैं ये स्क्रिप्ट अपने जानकार डायरेक्टर्स को जरूर दिखाऊंगा । अगर इसमें दम हुआ, तो इसपर फिल्म जरूर बनेगी ।
मैंने कहा शुक्रिया सर । आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।
उन्होंने एक बार फिर से मुझसे हाथ मिलाया और वहां से अपने होटल की ओर रवाना हो गए ।
कुछ ही पल बाद मोदी स्कूल की सभी लड़कियां नजदीक आकर मुझे बधाइयां देने लगी ।
मैंने मुस्कराकर उनकी बधाइयां कबूल करने के बाद उन सभी को उनके सहयोग के लिए धन्यवाद दिया और खुशी - खुशी वापस अपने गांव लौट आया ।
पर कुछ ही दिनों के बाद मेरी ये खुशी किसी कपूर की गोली की तरह तुरन्त काफूर हो गई थी । 
एक बार फिर मेरी फूटी हुई किस्मत ने अपना कमाल कर दिखाया था ।
और वो ऐसे कि संजू बाबा को अवैध हथियार रखने के जुर्म में पांच साल के लिए जेल की सजा हो गई थी और उसकी वजह से अब मुझे तनिक सी भी ये आशा नहीं रही थी कि मेरी उस फिल्म स्क्रिप्ट का कुछ बन पाएगा।
पर कुछ दिनों के बाद जब मुझे फिल्म स्क्रिप्ट लिखने की और भी ज्यादा बारीकियों का पता चला, तो मैंने पाया कि मेरी वो फिल्म स्क्रिप्ट उस मानक पर उतनी खरी नहीं थी, जितना कि उसे होना चाहिए था।
इसी कारण जेल से रिहा होने के बाद भी मैंने इस सिलसिले में संजू बाबा से कभी कोई संपर्क नहीं किया। 
और वो ये सोचकर कि जब अपनी उस स्क्रिप्ट से अगर मैं ही पूरी तरह संतुष्ट नहीं हूं, तो डायरेक्टर्स जैसे जहीन लोग भला  कैसे संतुष्ट होंगे ?
फिर बाद के दिनों में मैंने उस फिल्म स्क्रिप्ट में जरूरी बदलाव किये और कई प्रोड्यूसरों को फोन लगाए, पर उन प्रोड्यूसरों से कोई भी संतुष्टि भरा जवाब मुझे नहीं मिला।  सिवाय एक्सेल"' कंपनी वालों को छोड़कर । 
        उस कंपनी वालों ने मेरी स्क्रिप्ट मंगवाई और कुछ दिनों बाद मेल द्वारा उनका जवाब आया कि हमें आपकी ये स्क्रिप्ट पसंद है, पर इसके रिव्यू के लिए आपको साथ भेजे जा रहे रिलीज लेटर पर साइन करके वापस भेजना होगा, ताकि हम इसमें जरूरी फेरबदल कर इसे डवलप कर सके ।
पर मुझे उस रिलीज लेटर की कुछ शर्ते कबूल नहीं हुई और एक बार फिर बात ठंडे बस्ते में चली गई, जो अब तक भी ठंडे बस्ते में ही पड़ी हुई है ।
उसके बाद मैंने एक ओर फिल्म स्क्रिप्ट, जिसका कि टाईटल है - 
`शेरू मेरा नाम
लिख डाली, जिसका न तो मैंने अभी तक राइटर्स एसोसियेशन में  रजिस्ट्रेशन ही करवाया है और न ही किसी प्रोड्यूसर से उस पर फिल्म बनाने के लिए संपर्क ही किया है ।
और वो इसलिए, क्यों कि अब मेरी रुचि फिल्म राइटर बनने में उतनी ज्यादा नहीं रही, जितनी कि पहले कभी थी ।
          और दूसरा कारण ये है कि फिल्म प्रोड्यूसरों और डायरेक्टरों से मुलाकात करने के लिए उनके दफ्तरों के चक्कर पे चक्कर लगाना और उसके लिए तरह - तरह के पापड़ बेलना मेरे लेखकीय आत्मसम्मान को कत्तई मंजूर नहीं है ।
तो जनाब ये था मेरी फिल्मी दुनिया का एक छोटा सा सफर ।
        और इस सफर के बाद मैं आप सबको लिए चलता हूं अपने  औपन्यासिक सफर की ओर, जहां मैं कुछ सफल हुआ भी, और कुछ नहीं भी।

इस शृंखला का छठा भाग यहां पढेंमैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा-06

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