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शनिवार, 3 जुलाई 2021

एक थे गुलशन नंदा- एस. डी. ओझा

                एक थे गुलशन नंदा 
उपन्यास लेखन में जो नाम गुलशन नंदा ने कमाया वह अन्यत्र दुर्लभ है। एक ज़माना था जब हम कोर्स की किताबों में गुलशन नंदा के उपन्यास रख कर पढ़ा करते थे। रेलवे स्टेशन व बस स्टॉप के बुक स्टालों पर गुलशन नंदा के उपन्यासों की भरमार रहती थी।  
   हर कोई इन बुक स्टालों पर यही पूछता था -''गुलशन नंदा का कोई नया उपन्यास आया क्या?" 
 
मैंने गुलशन नंदा का सर्व प्रथम 'जलती चट्टान' उपन्यास पढ़ा था  और उसके बाद मैं उनके उपन्यासों का मुरीद हो गया। 
      गुलशन नंदा के उपन्यासों की जो धूम भारत में मची कि उसके आगे इब्ने सफी बी ए के जासूसी उपन्यास फीके पड़ने लगे।  इनके उपन्यासों पर धड़ाधड़ फ़िल्में बनने लगीं। उस समय के गुलशन नंदा कीर्तिमान के पर्याय व प्रतीक हो गए थे। कटी पतंग, दाग, झील के उस पार  और नया जमाना आदि  सुपर डुपर हिट फिल्मों के अतिरिक्त कुल 20 सिल्वर जुबली फिल्में इनके उपन्यासों पर बन चुकी हैं। इनके मरणोपरांत फ़िल्म 'पाले खां' भी हिट रही थी।  
     जब ये मुम्बई एयर पोर्ट पर उतरते थे तो फिल्मों के निर्माता व निर्देशक उनकी आगवानी के लिए पक्तिबद्ध हो कर खड़े रहते थे।  उस समय ये जुमला आम था - गुलशन नंदा का उपन्यास हो या राजेश खन्ना हीरो हो या दोनों साथ हों तो फ़िल्म जरूर हिट होगी। 
 
     बहुत कम लोगों को पता होगा कि गुलशन नंदा देवनागरी लिपि में न लिख कर उर्दू में लिखते थे, जिसे बाद में उनके बहनोई देवनागरी लिपि में लिपिबद्ध करते थे। जब पैसा पानी की तरह आने लगा तो गुलशन नंदा 5 स्टार होटलों में बैठ कर उपन्यास लिखने लगे। एक उपन्यास का नाम हीं उन्होंने उस होटल के नाम पर रख दिया , जिसमें बैठ कर उन्होंने वह उपन्यास लिखा था। नाम रखा - गेलार्ड।
     इतनी शोहरत व पैसा पाने के वावजूद, गुलशन नंदा का नाम साहित्यकारों की सूची में नहीं आ पाया।  इनके साहित्य को लुगदी साहित्य, कबाड़खाना आदि नाम दिया गया। आज चेतन भगत का जो नाम अंग्रेजी साहित्य में है, वही नाम उस समय गुलशन नंदा का था। दोनों साहित्यकार न होते हुए भी नाम व पैसा के मामले में  तथाकथित साहित्यकारों से मीलों आगे  हैं।

       गुलशन नंदा के उपन्यास पढ़ने के लिए हीं कुछ लोगों ने हिंदी सिखी। इनके बहुत से उपन्यासों का अनुवाद दुनियाँ के अन्य भाषओं में हुआ। 'कटी पतंग' जब चीनी भाषा में अनूदित हुई तो इनके प्रशंसकों की संख्या रातों रात दुगनी हो गयी। गुलशन नंदा पाकिस्तान में भी बहुत लोकप्रिय थे। भारत में  'झील के उस पार' उपन्यास की उस समय 5 लाख प्रतियां बिकी थीं , जो उस दौर का एक कीर्तिमान  था। उस समय यदि किसी पुस्तक की 20 - 30  हज़ार प्रतियाँ  छप जाये तो वही काफी होता था।
      नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के बुकस्टाल पर मैं पूछ बैठा था - , "गुलशन नंदा का कोई उपन्यास है क्या ?''
दुकानदार ने पूछा- ''कौन गुलशन नंदा ? हम उनको नहीं जानते।"
कमाल है आज की नई पीढ़ी गुलशन नंदा को नहीं जानती, किन्तु प्रेमचंद व शरतचंद को आज भी बच्चा-बच्चा जानता है और उनकी पुस्तकें आज भी बुक स्टालों व पुस्तकालयों में मिलती हैं । आज भी लोग उन्हें चाव से पढ़ते हैं।
            
16 नवम्बर 1985 को उस दौर के लोकप्रिय उपन्यासकार गुलशन नंदा का निधन हो गया था ।
      प्रस्तुति-   इं. एस. डी. ओझा
एस.डी. ओझा जी का ब्लॉग- सबरंग
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इंजीनियर एस.डी. ओझा
इंजीनियर एस.डी. ओझा

3 टिप्‍पणियां:

  1. रोचक लेख। गुलशन नंदा का लोगो द्वारा भुला दिये जाने का एक कारण उनकी पुस्तकों का अनुपलब्ध होना भी है। अगर वो उपलब्ध रहती तो पाठक उनसे ज्यादा परिचित होते। बाकी लोकप्रिय साहित्य में जिसकी रूचि होगी उसे शायद ही गुलशन नंदा का नाम न पता हो।

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