प्रशांत सीरीज का पहला उपन्यास
कॉपीराइट © 1986 प्रकाश भारती द्वारा
ISBN 978-93-85898-87-7
औसत दर्जे की उस चाय की दुकान में पहुंचना मेरी मजबूरी थी।
उस रोज शनिवार था और उस वक्त रात के बारह बज चुके थे। लम्बी कार ड्राइविंग, थकान, सुस्ती और ऊपर से अकेलेपन की बोरियत। इन सबकी वजह से मेरी हालत खस्ता थी। बार–बार उबासियां आ रही थीं ! आंखें रह–रहकर मुंदने लगती थीं। मेरी तकदीर अच्छी थी कि रास्ते में एक्सीडेंट नहीं हुआ और करीमगंज से विशालगढ़ मैं सहीसलामत पहुंच गया था।
लेकिन अपने फ्लैट तक पहुंचने में अभी कम से कम आधा घंटा और लगना था। और अब शहरी सीमा में क्योंकि यातायात अपेक्षाकृत बढ़ता जा रहा था इसलिए और ज्यादा रिस्क लेना खतरनाक था। अपनी थकान और सुस्ती से वक्ती तौर पर कुछ निजात पाने के लिए मुझे कड़क चाय या स्ट्रांग कॉफी की जरूरत महसूस होने लगी।
आखिरकार, एम्बेसेडर साइड में पार्क करके मजबूरन मुझे उस दुकान में, जिस पर ग्लोरी रेस्टोरेंट का बोर्ड लगा था, जाना पड़ा ।
मामूली शक्ल–सूरत और लिबास वाले तीन आदमी वहां मौजूद थे । उनमें से, एक मेज पर बैठे, दो आदमी ब्रेड स्लाइस और आमलेट खाते हुए चाय सुड़क रहे थे । अलग बैठा तीसरा आदमी चाय के गिलास में रस्क भिगो–भिगोकर खा रहा था ।
एक नौकर सिंक के पास खड़ा गिलास, प्लेटें, प्याले वगैरा धो रहा था । और दूसरा जिस ढंग से चीजें समेट रहा था उससे जाहिर था कि दुकान बंद होने में ज्यादा देर नहीं थी।