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शनिवार, 31 जुलाई 2021

कलाकार और मौत- पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र'

 कलाकार और मौत - पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र'

पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' का यह आर्टिकल कुशवाहा कांत के अंतिम उपन्यास `जंजीर` में प्रकाशित हुआ था। 'जंजीर'(1954) को कुशवाहा कांत के भाई जयंत कुशवाहा ने पूर्ण किया था। 

    गत फरवरी के प्रथम सप्ताह में संवाद पढने को मिला कि एक अमरीकी उपन्यासकार और सुलेखक तथा उसकी परम सुंदर पत्नी की हत्या किसी ने रातो रात कर डाली। हत्या के पूर्व उन्हें निर्दयता से पीटा गया, फिर छुरे घुसेड़े गये और फिर गोली मारी गयी। जरा हिंसा का शृंगार, 'फिनिश' तो देखिये। 'वीभत्स' का कैसा विस्तार ! चित्रकार जैसे रंग-रंग से चित्र रगे, गवैया जैसे ढंग-ढंग तान पलेट लेकर संगीत सँवारे, कवि जैसे अक्षर, छंद, ध्वनि और रस से काव्य करे वैसी ही शांति, व्यवस्था और मनोयोग से हत्यारा हत्या भी करे! समाचार पढने के बाद मेरे मन में आया कि उस अमरीकी कलाकार की मृतात्मा से कभी भेंट होती तो मैं उससे पूछता कि जीवन में अधिक मजा था या मृत्यु में? यश में अधिक आनंद था या हंटरों से निर्दय पीटे जाने में? स्वार्थ और छुरे में से छाती की छलनी अधिक उन्माद से कौन करता है? खूबसूरत औरत और पिस्तौल की गोली में कितना फर्क है? उस अभागिनी सुंदरी से भी मैं जरूर पूछता कि रूप और मृत्यु में (ओ आर्या रूपवती शत्रु!) कोई भेद है भी?

  कुशवाहा कांत

     हिंदी कथा साहित्य से अगर आपका जरा भी संबंध है, तो आपने कुशवाहा कांत का नाम जरूर सुना होगा। यह दूसरी बात है कि आपने उक्त नाम अप्रसन्नता से सुना हो या प्रसन्नता से। 'उग्र गुरुड़म' में नहीं विश्वास करते बला से- यह लोग कुशवाहा कांत की 'उग्र स्कूल' का कलाकार मानते थे। हिंदी में फिलहाल मेरी नजरों में कमोबेश `उग्र स्कूल` का ही बोलबाला है। यद्यपि `उग्र` बीसियों  बरसों से नहीं के बराबर लिखते हैं। पर स्वयं मैं उसे अपने स्कूल के महज एक शाखा का विद्यार्थी मानता था। उस शाखा का नाम रख लीजिये `यौन सनसनी`। वर्तमान विश्व का बौद्धिक बाजार- खासकर दूसरे महायुद्ध के बाद- इसी सनसनी से सनक रहा है।  मगर पहले मुझे कुशवाहा कांत की खबर लेने दीजिये।

  कल और कलदार

मेर बातों का आप विश्वास करे तो मैंने अपनी रचनाओं में समाज को `ज्यो का त्यों` दर्शाने के फेर में `यौन सनसनी` को सजाया था, कलदार कमाने के लिये नहीं, पर दुर्याग्य से, `यौन सनसनी` चित्रण में-अपना सा मुहँ देखकर-बाजार के खरीददार चकाचक रस लेते हैं। रचनाओं की बिक्री तब ही होती है। पैसों की तो बरसात हो जाती है। एक बार मैंने ही कितने रुपये कमाये थे और कितने वक्त में। श्री ॠषभ जैन का उत्थान पर्व भी आपको भूला न होगा।  वैसे ही कुशवाहा कांत ने खूब रुपये कमाये। कहने वाले तो सैकड़ों हजार की कहानियां सुनाते हैं। मुझे इतना मालूम है कि एक दिन एक टाइप के पाठक काशी से कन्याकुमारी तक कुशवाहा कांत को हिंदी का श्रेष्ठ उपन्यासकार मानते थे? जब हिंदी के बिगड़े साहित्यिक  और  कलाकार उसको असफल, अश्लील कह रहे थे, तब वह बनारस में अपना बड़ा सा प्रेस खोलकर चौथाई मासिक पत्र और सैकड़ों पुस्तकें प्रकाशित कर,कलाकारों को हैरान और रोजगारों को परेशान कर रहा था।

 हत्या

       मनचले, रंगीले लेखक `उग्र` की साहित्यिक हत्या कर डाली गयी, इसे `उग्र` न भी माने, तो दुनिया मानती है। श्री ॠषभ चरण के दुःखद दर्शन सामने है। और कुशवाहा कांत की तो सचमुच हत्या ही की गयी थी। आने वाली होली के दिन उसकी तीसरी या चौथी मरण-तिथि पड़ेगी। वह `सफल बाजारू` किस तरह से मारा गया था, किस बुरी तरह मरा कि स्मरण पत्र से मेंरे तो रोंगेट खड़े हो जाते हैं। उस वर्ष की होली के आठ-दस दिन पूर्व, रात के वक्त कुशवाहा कांत के साथ आधे भड़ैत की तरह में बैठकर किसी ने उस पर अनेक घातक आक्रमण किये। सर में छुरा, सीने में छुरा, पेट में छुरा। फिर जख्म सोजन के बाद अस्पताल में डेढ हफ्ते तक पीड़ा और प्यास से तड़फता। फिर ऐन होली के दिन मरण।

 अरे ओ जाने वाले,

रुख से आँचल को हटा देना,

तुझे अपनी जवानी कि कसम।

औरत

आर्टिस्ट को धन जितना नहीं मारता, यश जितना नहीं, नशा भी नहीं, उसे बहुत आसानी से है औरत! इसलिये खूबसूरत स्त्री के कारण प्राण होने वाले कलाकारों की चर्चा में कुशवाहा कांत की याद आ गई। मालूम नहीं उसके मुकदमें में क्या प्रकाशित हुआ, क्या नहीं, पर जब  उसकी हत्या हुई  मैं कलकते में था तब यही अफवाह जोरों पर थी। धन, यश, नशा, औरत प्रतिभाशाली को वैसे ही सुलभ जैसे भूत साधनेवाले को भौतिक सुख। पर, आपने सुना होगा, भूत साधन प्रेत से प्राप्त चीजों का स्वयं उपयोग करते हुये मारे भय के काँपते हैं। प्रेत की कमाई खाने वाला प्रेत से मारा भी जाता है। फिर प्रतिभा बाजार में या विश्वविद्यालयों में तो बिकती-मिलती नहीं। यह तो ईश्वर की कृपा से मुफ्त मिलती है। और बाइबिल में लिखा है कि `अनायास मिली वस्तु का वितरण अमूल्य होना चाहिये।` किसी रंग का प्रतिभाशाली जब अपनी प्रतिभा से बाजारू लाभ उठाने लगता है तब नष्ट भी होने लग जाता है। प्रतिभा से नाजायज फायदा उठाना ही नहीं चाहिये। प्रतिभा की चाँदी बनाने वाले डाक्टरों का वश नहीं चलता, साधुओं का स्वर्ग नष्ट हो जाता है और कलाकार प्रतिभाहत ही नहीं पागल तक हो जाते हैं। `फ्लोबा`-फ्रांस के महान् लेखक ने जीवन से ऊबकर आत्महत्या को खूब माना था। यही गति श्रेष्ठ फ्रांसीसी कलाकार मोपासा की हुयी थी। अद्भुत इंग्लिश लेखक आस्कर वाइल्ड ने घोर अपमानजनक जेल जीवन भी भोगा सो तो दरकिनार, फ्रांस में जब वह मरा तो उसकी काया सड़ कर गल गयी थी। आस्कर वाइल्ड का शव कंधे पर उठाकर कब्रगाह ले  जाने वाले चंद चार नजदीकी यार मात्र थे और वर्षा हो रही थी धुँआधार, दुर्दिन, चारों तरफ अँधकार...अँधकार।

ताव और भाव

  वह मेरे ही बिहड़ मिर्जापुर जिले का अल्हड़ लेखक था-वही खुशवाहा कांत। वह अभी नौजवान था। गधापचीसी से महज चंद जूते आगे। भले मानसों की राय में वह बुरा लेखक था इसलिये नहीं कि वह यौवन सनसनी लिखता था बल्कि इसलिये कि वह बाजार में सफल था। कुशवाहा कांत के आगे-पीछे `यौन सनसनी` लेखक अनेक पर उन नामधारी भले आदमियों की नजर नहीं। सबकी आँखों का कांटा था वह। उसके मारे  जाने से बहुतों को खुशी भी हुयी हो, तो कोई ताज्जुब नहीं। उसे अगर आदर देकर बढावा दिया गया होता तो संभव था वह `यौन सनसनी` से हटकर और भी उत्तम साहित्यिक मार्ग ग्रहण करता। पर, हमारे यहाँ ऐसी चाल नहीं।

     कुशवाहा कांत ने क्या बुरा किया था। किसकी गाय मारी थी उसने? वह उत्तेजक साहित्य लिखता था- यही न, हिंदी में कितने पाठक हैं, सारे भारत को बतलाइये। पहले यही बतलाइये कि सारे भारत में पढे-लिखे लोग ही कितने हैं? 15 प्रतिशत, उसमें कितने हिंदी जानते हैं? उनमें खरीदकर कितने पढने वाले हैं? मैं दावे  से कहता हूँ, आज का सत्ताधारी स्वदेशी राजनीतिक अपने दुष्ठ कर्मों से सारे भारत की जनता का जितना नुकसान कर रहा है, हिंदी का कोई भी साहित्यिक उसका पासंग भी नहीं कर सकता, फिर भी कुशवाहा कांत को बुरा करने वाले भले मानस ऐसे अनैतिक अधिकारियों से घृणा कर नहीं सकते। उलटे पापियों, जनलूटकों, भ्रष्टाचारियों को महिमान्, श्रीमान्, क्या-क्या नहीं करते हैं। फोटो छापते हैं, जीवनी छापते हैं, अभिनंदन ग्रंथ और  मानपत्र समर्पित करते हैं।

  मैं कहता हूँ आज के अनेक मिनिस्टर या डिप्लामेंट यदि मरने के पहले ही मार* न डाले गये तो मरते ही युग के स्मृति-पट से यूँ मिट जायेंगे जैसे जानवर विशेष के सिर से सींग गायब-कोई उसका  नामलेवा न रह जायेगा। पर कुशवाहा कांत के पाठक उसके मर जाने पर भी कम होने वाले नहीं। भले ही आप उसे किसी दर्जे का लेखक कहें और उन्हें किसी दर्जे का पाठक।

  फागुन के दिन चार

      उस दिन रंग नहीं था तो कुशवाहा कांत उपन्यासकार के कफन पर बाकी सारी विलासी रंग-रंगीली लाल रही-नीली पीली थी। उन्माद नहीं था तो उस मैखार की काया में बाकी सारा शहर उन्मत्त था। अस्सी से वरुणा तक, करुणा केवल कुशवाहा कांत की अर्थी के निकट, बाकी चारों ओर उल्लास, हास, विलास, रास। शहर में इतना जीवन था कि उस मुर्दे की सुधि जिगरी दोस्तों को भी न आई हो, तो आश्चर्य क्या। होली के रंगीन विशेषांकों में उसके लिये अखबार वाले  ब्लैक बार्डर लगाते भी तो क्योंकर। सो, जब उसकी उम्र वाले तरुण अपने प्रिय और प्रियतमों से गले लग रहे थे तब कुशवाहा कांत को चिंता पर सुलाकर जलाया जा रहा था।

कुशवाहा कांत
लो?

  बाजार जीतते वक्त औ जीत लेने के बाद भी अनेक बार पत्र लिख और पुस्तकें भेजकर उसने मुझे गुरु माना पर मेरा मुहँ सहज सीधा होने वाला कहाँ। कभी मैंने न तो उसके पत्रों का उत्तर दिया और न आशीर्वाद ही। मिर्जापुर का वह भी, मैं भी। मैं `मतवाला` निकालता था, वह `चिनगारी`। पर हमने न तो कभी एक दूसरे को देखा न बातें की। इतनी बातें आज मैं लिख रहा हूँ उसके मर जाने के तीन या चार साल बाद।

`समाज`

                                 पाण्डेय बेचन शर्मा `उग्र`

*भावुकता की बहस में कही पाठकगण गोड़से पंथ के अनुगामी न बन जाये।                                

 पाण्डेय बेचन शर्मा `उग्र` का यह आर्टिकल कुशवाहा कांत के अंतिम उपन्यास `जंजीर` में प्रकाशित हुआ था। `जंजीर`(1954) को कुशवाहा कांत के भाई जयंत कुशवाहा ने पूर्ण किया था। 

   

गुरुवार, 29 जुलाई 2021

वंदना भारती

 नाम- वंदना भारती

    मलियाना से अभी तक तीन उपन्यासकारों का संबंध ज्ञात हुआ है। सुरेश साहिल, विनोद प्रभाकर और वंदना भारती।

इनमें से कौन मूलतः मलियाना (मेरठ) का था और कौन सिर्फ यहाँ से प्रकाशित हुआ यह अभी तक अज्ञात है।

      मलियाना की एक प्रकाशन संस्था थी 'श्यामा पॉकेट बुक्स' वहीं से वंदना भारती के उपन्यास प्रकाशन की जानकारी प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त कोई जानकारी उपलब्ध नहीं ।



विनोद प्रभाकर

 नाम- विनोद प्रभाकर

मेरठ उपन्यास लेखकों का केन्द्र रहा है। मेरठ जिला मुख्यालय ही नहीं वरन आसपास के क्षेत्रों से भी काफी उपन्यास लेखक सक्रिय थे।
    मेरठ के नजदीक शहर है मलियाना। वहीं के एक जासूसी उपन्यासकार थे विनोद प्रभाकर।
विनोद प्रभाकर के उपन्यास 'श्यामा पॉकेट बुक्स, मलियाना' से प्रकाशित हुये थे। 
       विनोद प्रभाकर के उपन्यास
  1. नहीं खुलेगा राज- 1990
  2. कत्ल के हिस्सेदार
  3. रात के शहंशाह
  4. महानायक
  5. जलाकर राख कर दूंगा
  6. अयोध्या का पापी
संपर्क -श्यामा पॉकेट बुक्स
          1252, मलियाना मेरठ
उक्त लेखक के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध हो तो हमसे शेयर करें।
Email- sahityadesh@gmail.com




मंगलवार, 27 जुलाई 2021

वह विनय प्रभाकर है और रामनारायण पासी भी- विजयशंकर चतुर्वेदी

काफी सयाना है तु। आज से दुश्मनी नहीं दोस्ती बनाना मांगता है। क्योंकि अपन भी तेरा भाई बंद है। फरक है तो दोनों के काम करने के स्टाइल में। तू तो खूब माथा-पच्ची करके प्लान बनाता है। लोगों के अपनी मिठी बातों के जाल में फसाकर ऐसा बेवकूफ बनाता है कारण तू आज तक पुलिस के हाथ नहीं लगा, बरोबर? जबकि अपन का स्टाइल एकदम शार्टकट है, चापर या तलवार या तमंचा दिखाया कि तुरंत सामने वाले का सारा माल अपन के पास, क्या?

    ये लाइनें हैं विनय प्रभाकर के जंगी उपन्यास `मौत आयेगी सात तालों में` की। रेल्वे स्टालों में देश भर के यात्रियों के मनोरंजन का साधन होते थे विनय प्रभाकर के ऐसे उपन्यास। जलजलाते संवाद, रहस्य-रोमांच से भरी कहानी और शब्दों के जादू में बांध लेने वाली पठनीयता विनय प्रभाकर की पूंजी है। विनय प्रभाकर चर्चगेट में  एमटीएनएल यानि महानगर टेलिफोन निगम लिमिटेड के कर्मचारी हैं। रेल्वे की इमारत में लाइनमैन का पद संभाल रहे हैं। लोअर परेल की सीबी गुलवाली चाल में रहते हैं। दस बाई बारह के कमरे में। पानी खोली के अंदर आता है, टेलिफोन पड़ोसी के सांझे में और संडास पूरी चाल के।

     सस्पेंस लिखने वाले विनय प्रभाकर के नाम के लेकर  भी कुछ कम सस्पेंस नहीं है। उनका असली नाम है रामनारायण पासी और वह देख चुके हैं उमर के अड़तीस वसंत। रामनारायण तीन भाइयों और एक बहन में सबसे बड़े हैं। वैसे तो उनका मुलुक उत्तर प्रदेश है। प्रतापगढ़ जिले का संगीपुल उनका गाँव है। लेकिन पढाई लिखाई मुंबई में होने और बचपन से लेकर जवानी यहीं बिताने के कारण यही अपना मुलुक लगने लगता है। छोटा भाई जगदीश तो अब गाँव लौट गया है, वरना वह भी पिता रामेश्वर के साथ इसी खोली में रहता और सायन के एक म्युनिसिपल स्कूल में पढता। खुद रामनारयण ने हाईस्कूल पास किया परेल की तुलसी मानस स्कूल से। पिता चिंचपोकली की अपोलो मिल में मुलाजिम थे। दस-बारह साल पहले रियायर होकर गाँव चले गये अपने पिता की सेवा करने। रामनारायण की दादी तो अभी-अभी गुजरी है, छह-सात माह पहले।

राकेश पाठक - उपन्यास पोस्टर

 लोकप्रिय उपन्यास साहित्य के एक्शन लेखक राकेश पाठक जी के उपन्यासों के कुछ पोस्टर


राकेश पाठक जी के उपन्यास 'प्लास्टिक की बीवी' का एक पोस्टर


Rakesh pathak novel

Rakesh pathak novel

Rakesh pathak novel


सोमवार, 26 जुलाई 2021

कहानी विनय प्रभाकर की

वह विनय प्रभाकर भी है और रामनारायण पासी भी और मेरे पापा है- दीपक पासी
    लोकप्रिय उपन्यास साहित्य में विनय प्रभाकर को एक छद्म लेखक के तौर पर जाना जाता है। लेनिक इस छद्म लेखक के पीछे एक चेहरा और है और वह चेहरा है रामनारायण पासी का। रामनारायण पासी जी ने विनय प्रभाकर के नाम से अधिकांश उपन्यास लिखे हैं और 'नाना पाटेकर' जैसा जीवंत किरदार उपन्यास साहित्य को दिया है। 
       रामनारायण पासी के सुपुत्र दीपक पासी से जाने उनके बारे में।
      एक समय था जब मनोरंजन का मुख्य साधन था उपन्यास ।वेद प्रकाश शर्मा और सुरेंद्र मोहन पाठक जैसे कई उपन्यास लेखक उस समय एक स्टार थे।
इन्हीं में से एक थे विनय प्रभाकर। विनय प्रभाकर द्वारा लिखे उपन्यास की काफ़ी माँग थी। बहुत से लोग उन्हें पढ़ा करते थे।
बहुत कम लोगों को पता है विनय प्रभाकर  के नाम से लिखने वाले अधिकतर उपन्यास श्री राम नारायण पासी जी  ने लिखा था। विनय प्रभाकर की मेजर  नाना पाटेकर सीरीज के तो सारे उपन्यास रामनारायण पासी जी ने ही लिखा थे।
    बहुत कम लोगों को पता है और मैंने भी कभी पब्लिक प्लेटफ़ोरम पर इसका ज़िक्र नहीं किया की विनय प्रभाकर के नाम से उपन्यास लिखने वाले रामनारायण पासी जी मेरे पिताजी है। 
   रामनारायण पासी/ विनय प्रभाकर
विनय प्रभाकर के नाम से तक़रीबन सभी उपन्यास पापा ने ही लिखे थे। इसके अलावा कुछ उपन्यास अर्जुन पंडित और दूसरों के नाम से भी लिखे थे। थ्रिलर और सस्पेंस  के साथ साथ  प्रकाशक जो भी विषय कहते हर उस  सब्जेक्ट पर लिखने में महारत हासिल थी पापा को। 

द ट्रेल- अजिंक्य शर्मा, समीक्षा

द ट्रेल - अजिंक्य शर्मा 
उपन्यास समीक्षा- संजय आर्य
                                उपन्यास समीक्षा-03
 "एक और नई मर्डर मिस्ट्री जिसमे रहस्य के साथ जज्बातों का सैलाब भी है जिसमे आप खो जाएंगे । कातिल को पकड़ने में इस बार पाठकों को बहुत मशक्कत करनी होगी । अंत काफी चौकाने वाला है।"
         'द ट्रेल' अजिंक्य शर्मा का सातवां उपन्यास है और  उनके पहले उपन्यास 'मौत अब दूर नही' को पाठकों से अच्छा प्रतिसाद मिला था जिसके कारण  लेखक से पाठकों की उम्मीद बढ़ गई थी जिस पर 'द ट्रेल' के माध्यम से लेखक 100 प्रतिशत खरे उतरे है, और मिस्ट्री लेखक के रूप में अपना सिक्का एक बार फिर से जमाने मे सफल रहे है। 
        'द ट्रेल' को मैंने एक बार पढ़ना शुरू किया तो खत्म करके ही माना। उपन्यास का अंत काफी हैरत अंगेज है  उनके अन्य उपन्यास से इतर इसमें जज्बातों का तूफान भी है । ऐसी मर्डर मिस्ट्री की आप भी खुद को जासूस मानते हुवे कातिल की तलाश करने लग जाएंगे।

रविवार, 25 जुलाई 2021

रोशनी की मौत- अब्बास हुसैनी

 रोशनी की मौत

  जासूसी साहित्य के इतिहास में अँधकार

  इब्ने सफी की मृत्यु पर जासूसी दुनिया पत्रिका में संपादक अब्बास हुसैनी काश्रद्धांजलि स्वरूप छपा एक आर्टिकल। 

 महान जासूसी उपन्यासकार इब्ने सफी 26 जुलाई 1980 को मौत  की गोद में हमेशा के लिये सो गये।

            आज से अट्ठाईस वर्ष पूर्व जब मैंने इब्ने सफी के प्रथम उपन्यास का संपादकीय लिखा था तो उस समय क्या मालूम था कि जीवन में कोई ऐसा मनहूस समय भी आयेगा जब मुझे अपनी इस लेखनी से इब्ने सफी की मृत्यु की भी घोषणा करनी पड़ेगी। काश उसी अशुभ समय को ही मौत आ गई होती, जिसने इब्ने सफी को सदैव के लिये हमसे छीन लिया।

     इस समय अकेला मैं ही इब्ने सफी के निधन पर शोकाकुल नहीं हूँ, बल्कि मेरी नजरें साक्षात यह देख रही हैं कि सहस्त्रों, लाखों पढने वाले इब्ने सफी के दुख में अश्रुपात कर रहे हैं। जासूसी इतिहास के संपूर्ण वातावरण पर शोक के बादल छाये हुये हैं। संपूर्ण वातावरण अँधकार में विलिन है, पूरे वातावरण पर जानलेवा सन्नाटा है।

28 जुलाई सन् 1980 को जब तार द्वारा मुझे यह दुखदाई सूचना मिली कि इब्ने सफी का 26 जुलाई को देहांत हो गया तो मैं विचार करने लगा लगा कि-क्या किसी रोशनी को भी मौत आ सकती है?, क्या किसी युग को भी मौत आ सकती है?, क्या किसी शैली को भी मौत आ सकती है?....नहीं...नहीं, इब्ने सफी कभी मर सकते। वह जासूसी साहित्य के इतिहास में सदैव जीवित रहेंगे। वह लोगों के दिल व दिमाग में जिंदा रहेंगे। वह आकर्षक शैली में जीवित रहेंगे। वह अपने निर्मित पात्रों के दिलों की  धड़कनों में जिंदा रहेंगे। वह अपने व्यंग्य, उपहास और परिहास की छटामयी घाटियों में जीवित रहेंगे। वह हमीद की मधुर मुस्कानों में जीवित रहेंगे। वह विनोद के मायावी व्यक्तित्व में जीवित रहेंगे। वह राजेश के आकाशभेदी अट्ठहासों में जीवित रहेंगे। इब्ने सफी ने तो पूरा एक संसार सजा है, इसलिये जब तक उस संसार का श्रृंगार शेष रहेगा तब तक इब्ने सफी को भी को मौत नहीं आ सकती- वह जीवित रहेंगे।

        आज हम इसलिये दुखी हैं कि हमारी आँखें अब इब्ने सफी को नहीं देख  सकती फिर भी जुदाई का यह दुख  बड़ा ही हृदयविदारक दुख है किंतु यह दुख केवल मेरा या तुम्हारा या किसी एक परिवार का दुख नहीं है बल्कि इस दुख में आज इब्ने सफी के लाखों पढने वाले सम्मलित हैं। अतः मैं जासूसी दुनिया के समस्त पाठकों को उनके प्रिय लेखक इब्ने सफी की मृत्यु पर सांत्वना देता हूँ और इब्ने सफी की आत्मा की शांति के लिये स्वयं अपनी ओर से और आप सब लोगों की ओर से भी खुदा से दुआ करता हूँ।

       जमाना बड़े शौक से सुन रह था,

      तुम ही सो गये दास्तां कहते-कहते।

                                                सोगी-

                                             अब्बास हुसैनी

इब्ने सफी कुछ उपयोगी लिंक
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इब्ने सफी उपन्यास झलक

शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

एम. एल. देव

नाम- एम. एल. देव
    लोकप्रिय साहित्य में‌ जब लेखकों को खोजने‌ निकलो तो एक के बाद एक नये नाम सामने आते हैं।
     ऐसा ही एक नया नाम मिला है - एम. एल. देव।
   इनका एक उपन्यास मिला है, समस्त जानकारी का स्त्रोत वही उपन्यास है। 
इनके उपन्यास 'जिस्म का सौदागर' का पुस्तकालय संस्करण भी आया था जिसका नाम भी परिवर्तित था। पुस्तकालय संस्करण में नाम 'परदे के पीछे' था। यह मधुर पॉकेट बुक्स - मथुरा से प्रकाशित हुआ था।
एम. एल. देव के उपन्यास
1. जिस्म‌ के सौदागर -1969 (मधुर पॉकेट बुक्स)
उक्त लेखक के विषय में अगर आपके पास कोई भी जानकारी है तो शेयर करें।
धन्यवाद।
Email- sahityadesh@gmail.com
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मंगलवार, 20 जुलाई 2021

एस. सी. बेदी

नाम- एस. सी. बेदी
पूरा नाम     - सुभाषचन्द्र बेदी
जन्म-
मृत्यु- 


 
 
                              1.            अँधे की आँखें
            2.            अँधेरे का खिलाड़ी
            3.            अँधेरे की आँख
            4.            अंधेरे के बादशाह
            5.            अग्नि मंदिर
            6.            अजगर
            7.            अजगर का रहस्य
            8.            अनोखी दुनिया
            9.            अनोखे अपराधी
          10.           अपराधी का अंत
          11.           अफ्रीकी लड़ाके
          12.           आँख का तमाशा
          13.           आओ मरें
          14.           आकाश की देवी
          15.           आखिरी मंजिल
          16.           आग का दरिया
          17.           आग की चट्टानें (नूतन पॉकेट बुक्स)
          18.           आग की मुर्ति
          19.           आग के आदमी
          20.           आग के शैतान
          21.           आग के शोले (नूतन पॉकेट बुक्स)
          22.           आतंक
          23.           आतंक के टुकड़े
          24.           आत्मा का अंत
          25.           आत्मा की चट्टान
          26.           आदमखोर शैतान
          27.           आधी रात

रविवार, 18 जुलाई 2021

लौटेंगें वे दिन- अजिंक्य शर्मा

 लौटेंगें वे दिन- अजिंक्य शर्मा
बने रहे ये पढ़ने वाले, बनी रहे ये पाठशाला

जी हांँ, हिन्दी पाठकों की मस्ती की पाठशाला, जिसमें पाठकों ने बहुत मजे किए। एक वक्त था जब बुकस्टालों पर जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा, इब्ने सफी, वेद प्रकाश काम्बोज, कर्नल रंजीत, सुरेंद्र मोहन पाठक, अनिल मोहन, वेद प्रकाश शर्मा, अमित खान आदि लेखकों के उपन्यासों का इंतजार उतनी ही शिद्दत से किया जाता था, जितनी शिद्दत से आज दर्शक क्रिस्टोफर नोलन या मार्वल सिनेमेटिक यूनिवर्स की नई फिल्म का इंतजार करते हैं। इन लेखकों की लोकप्रियता का आलम ये था कि किताबें बुकस्टाल पर आते ही हाथों-हाथ बिक जातीं थीं। आज भी इनके दीवानों की कमी नहीं है और इनके उपन्यास रिप्रिंट होकर भी बिक रहे हैं।  
उपन्यासकार अजिंक्य शर्मा
                     उपन्यासकार अजिंक्य शर्मा

मंगलवार, 13 जुलाई 2021

जगदीशकृष्ण जोशी

 नाम- जगदीश कृष्ण जोशी

   उक्त लेखक के विषय में‌ कोई विशेष जानकारी तो उपलब्ध नहीं होती। मैंने इनका एक उपन्यास पढा था जो रोचक जासूसी उपन्यास था। 

    उपन्यास प्रतिशोध में एक वृद्ध जासूस गोपालराम होता है। ऐसे कम ही अवसर आये हैं जहाँ जासूस वृद्ध हो।

जगदीशकृष्ण जोशी के उपन्यास

1. प्रतिशोध (उपन्यास समीक्षा के‌ लिए नाम‌ पर क्लिक करें)

प्रतिशोध- जगदीश कृष्ण जोशी



    

आबिद लखनवी

 नाम- आबिद लखनवी

  लोकप्रिय साहित्य के विकिपीडिया कहे जाने वाले आबिद रिजवी साहब ने कभी 'आबिद लखनवी' नाम से भी उपन्यास लिखे थे।

     आबिद जी का कहना है- यह मेरा आरम्भिक समय था, तब में सामाजिक उपन्यास लिखा करता था।

     उसी आरम्भिक समय में कुछ जासूसी उपन्यास भी‌ लिखे थे। आबिद जी तब इलाहाबाद के निवासी थे।

 राम प्रकाशन इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली 'जासूस लोक' पत्रिका के प्रवेशांक में आबिद लखनवी का एक उपन्यास प्रकाशित हुआ था। इस पत्रिका के संपादक राय नरेन्द्र बहादुर थे।

     आबिद लखनवी के उपन्यास
1. चन्द्रलोक का हत्यारा (मार्च 1967)
2. तीस मार खाँ (जनवरी 1963)
3. जहरीले बादल  (जनवरी1963
आबिद रिजवी अन्य लिंक-


रविन्द्र रवि

 नाम- रविन्द्र रवि

    किस प्रकाशक ने कितने लेखक मैदान में उतारे, किस लेखक ने किस लेखक के स्थापित पात्र को लेकर उपन्यास लिखे, यह कहना बहुत मुश्किल है। इस मुश्किल परिस्थिति में एक लेखक की जानकारी मिली। नाम है- रविन्द्र रवि

रविन्द्र रवि
रविन्द्र रवि
 रविन्द्र रवि ने प्रसिद्ध पात्र विक्रांत को आधार बना कर उपन्यास लिखा है। इनके अन्य कौन से उपन्यास थे, ये कहां के लेखक थे कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती।


  रविन्द्र रवि ने स्थापित पात्र विक्रांत को आधार बना कर तो उपन्यास लिखे ही थे, साथ में इन्होंने अपना एक पात्र 'अमन' भी मैदान में‌ उतारा।  इन्होंने पचास के लगभग बाल उपन्यास भी लिखे थे।

  इनके उपन्यास साकेत पॉकेट बुक्स, खुर्जा शहर से प्रकाशित होते रहे हैं।

रविन्द्र रवि के उपन्यास

1. एक अधूरा गीत
2. अलगोझा
3. प्यासी आँखें
4. अँधेरा सावन‌ का
5. फ्लाईंग किक
6. वीनस 
7. आग और आँसू.
8.  विक्रांत और अमन के हत्यारे 
9. विक्रांत और अमन की ज्वाला
10. विक्रांत और जगत की टक्कर
 
उपन्यास और बाल उपन्यास के अतिरिक्त रविन्द्र रवि ने कुछ काॅमिक्स लेखन भी किया था।
कॉमिक

   

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Comics

गुरुवार, 8 जुलाई 2021

विश्वंभरनाथ गुप्त 'शैलेष'

 नाम- विश्वंभरनाथ गुप्त 'शैलेष'

विश्वंभरनाथ गुप्त 'शैलेष' के उपन्यास

1. हत्यारा कौन‌( नवंबर 1957)

लेखक के विषय में कोई भी जानकारी उपलब्ध नहीं है।।

इनका उपन्यास 'हत्यारा कौन' प्रेमी जासूस कार्यालय इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ था।

विश्वंभरनाथ गुप्त 'शैलेष'


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गगन दीप

 नाम- गगन दीप

गगन दीप के उपन्यास

1. हसीन लाशें (राज प्रकाशन)

 हसीन लाशें नामक उपन्यास 'विजय- रघुनाथ' सीरीज का है। इसका अर्थ यह है की गगन दीप नामक लेखक 'वेदप्रकाश कांबोज' जी के बाद लेखन में आया है, क्योंकि 'विजय- रघुनाथ' वेदप्रकाश कांबोज जी के पात्र हैं।




इब्ने कैफी

 नाम- इब्ने कैफी

   मेरठ शहर लोकप्रिय उपन्यास साहित्य का केन्द्र रहा है। यहाँ से संपादक देवीदयाल गंभीर जी के संपादन में एक मासिक पत्रिका आरम्भ हुयी थी -भयानक दुनिया।

   भयानक दुनिया 'अशोक पब्लिकेशन' की पत्रिका थी। और इसके प्रथम अंक में इब्ने कैफी नामक लेखक का एक उपन्यास प्रकाशित हुआ था। 

हालांकि इब्ने कैफी के विषय में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है।

इब्ने कैफी के उपन्यास

1.  आवारा देवता ( सितम्बर-1986)


ललित भारती

नाम- ललित भारती
श्रेणी- Ghost Writer
     उपन्यासकार ललित भारती जी के विषय में योगेश मित्तल उर्फ रजत राजवंशी जी के माध्यम से संक्षिप्त जानकारी प्राप्त हुई थी। ललित भारती Ghost writing है।
      भारती पाकेट बुक्स के स्वामी लालाराम गुप्ता जी के दिमाग में अचानक एक दिन यह विचार आया कि अपना भी एक नाम खड़ा किया जाये, जिसमें पी.डब्ल्यू.डी. की सरकारी नौकरी से रिटायर होने के बाद अपनी फोटो भी चस्पाँ कर सकें।
और फिर लालाराम गुप्ता जी ने भारती पाकेट बुक्स से एक नया नाम इन्ट्रोड्यूस किया - ललित भारती। 
उसमें अधिकांश उपन्यास बिमल चटर्जी के छोटे भाई अशीत चटर्जी ने लिखे थे, जिन्होंने भारती पाकेट बुक्स में रोहित नाम से छपने वाले सभी उपन्यास लिखे थे, लेकिन ललित भारती नाम से सारे उपन्यास उनके नहीं थे, इस नाम में दो उपन्यास मेरे भी लिखे हुए थे, याद नहीं - सीरीज क्या थी, पर मैंने अच्छी खासी कॉमेडी भी डाली थी!।
अचानक याद आया तो सोचा, दोस्तों से शेयर कर लूँ - यह जानकारी भी।
प्रस्तुति- योगेश मित्तल


ललित भारती के उपन्यास
  1. लाशों का तूफान
  2. थ्री एस
  3. कत्ल कत्ल कत्ल
  4. खून के निशान
  5. मर्डर कार्पोरेशन
  6. शैतान के पुजारी
  7. जंगल की मौत
  8. अनजान देश की राजकुमारी

रविवार, 4 जुलाई 2021

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा-08

मैं आवारा, इक बनजारा- 08
अशोक कुमार शर्मा, आत्मकथा
मेरा उपन्यास पढ़ने का सिलसिला इसके बाद के दिनों में भी जारी रहा।
     स्कूल लाइब्रेरी से ला - लाकर अब मैं प्रेमचंद, रांगेय राघव, जयशंकर प्रसाद, शरद चंद्र, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, रविन्द्र नाथ टैगोर, आचार्य चतुर सेन, गुरुदत्त, मंटो और शौकत थानवी जैसे कई महान लेखकों को पढ़ने लगा,  जिसकी वजह से मेरी लेखन शैली में कुछ निखार, कुछ सुधार और कुछ परिपक्वता आ गई । फिर मैंने बड़े ही मनोयोग से एक तेज रफ्तार वाला थ्रीलर उपन्यास लिख डाला । जिसका कि शीर्षक था - 'वतन के आंसू'।
 
वतन के आंसू
वतन के आंसू
[ वतन के आंसू टाइटिल वाले इस उपन्यास की आज मेरे पास एक भी प्रति नहीं है, अगर किसी भाई के पास हो, तो मुझे डाक द्वारा भेजने की कृपा करे । मैं उस भाई का अनुग्रहित रहूंगा। ]
अपना दूसरा उपन्यास मैंने गुलशन नंदा स्टाइल में लिखा। जिसका कि शीर्षक था - सावन की घटा ।
        'सावन की घटा' नाम वाला उपन्यास मैंने दिमाग से नहीं, बल्कि दिल से लिखा था और यकीन कीजिए दोस्तों कि उस उपन्यास की कहानी इतनी ज्यादा भावुक और गमगीन थी कि उसको लिखते वक्त कभी-कभी मैं खुद भी रो पड़ता था।
        इन दोनों उपन्यासों को प्रकाशित कराने के लिए मैंने डायमंड, हिंद, स्टार और साधना जैसे कई पॉकेट बुक्स वालो के दफ्तरों में चक्कर लगाए, पर किसी भी प्रकाशक ने मुझे तवज्जो नहीं दी।
     शायद छोटी उम्र का होने के नाते मुझे उन्होंने लेखक समझा ही नहीं, इसलिए उन्होंने बिना मेरे उपन्यास पढ़े ही मेरे दोनों उपन्यासों को बड़ी ही बेदर्दी से खारिज कर दिया।
आपकी जानकारी के लिए मैं। बता दूं कि उन दिनों अपना उपन्यास प्रकाशित कराना उतना ही मुश्किल कार्य था, जितना कि आज किसी फिल्म का हीरो बनना ।
मुझे एकमात्र तवज्जो दी 'राजा पॉकेट बुक्स' के मालिक श्री राजकुमार जी गुप्ता ने।
      उन्होंने लगभग आधा घंटा मुझे मेन गेट पर इंतजार करवाया, फिर जाकर कहीं उन्होंने मुझे अन्दर बुलवाया।
उनकी पर्सनलिटी देखते ही मैं दंग रह गया, क्यों कि उनकी पर्सनलिटी बड़ी शानदार, जानदार और प्रभावशाली थी।
वे उन गिने चुने लोगो में से एक थे, जिनकी इंप्रेसिव पर्सनलिटी  से मैं बहुत ही ज्यादा इंप्रेस हुआ था, पर उनके स्वभाव का ठीक - ठीक अंदाजा मैं कभी भी नहीं लगा पाया था, क्यों कि कभी - कभी तो वे बहुत ही ज्यादा मधुर व्यवहार करते थे, तो कभी - कभी इतना ज्यादा कठोर कि अंदर तक रूह भी कांप जाए।
     पर मेरा अंदाजा है कि वे अपना व्यवहार अपनी व्यवसाय की जरूरत के हिसाब से तय करते थे।
खैर !
जो कुछ भी हो, पर उन्होंने बड़े ही प्यार और अपनत्व के भाव से मुझसे मुलाकात की और बड़े ही ध्यान से मेरे उन दोनों उपन्यासों को शुरू में और फिर बीच-बीच में से पढ़ा।
      उनको मेरे उपन्यासों की कहानी और लेखन शैली दोनों ही बेहद पसंद आई, पर उन्होंने साफ-साफ लफ्जो में और रौबीले स्वर में मुझसे कहा कि इन दोनों उपन्यासों को मैं अपने ट्रेडमार्क के तहत प्रकाशित करने के लिए तैयार हूं, जिन पर तुम्हारा नाम और फोटो दोनों ही नहीं दिए जाएंगे। इन दोनों की जगह सिर्फ मेरे ट्रेडमार्क का नाम छपेगा और इसके बदले तुम्हे दोनों उपन्यासों के एक हजार रूपए मिलेंगे। बोलो, क्या तुम्हें मंजूर है ?
मैंने डरते डरते कहा कि मुझे आपका एक रुपया भी नहीं चाहिए, पर मेहरबानी करके आप मेरे इन दोनों उपन्यासों को मेरे नाम और फोटो के साथ प्रकाशित कर दीजिए, मैं ता जिंदगी आपका शुक्रगुजार रहूंगा।
पर उन्होंने मेरे इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया और इस प्रकार मुझे मजबूर होकर उनका ये प्रस्ताव अपनी अनिच्छा के बावजूद भी कबूल करना पड़ा।
      उन्होंने मुझे आश्वासन देते हुए कहा कि भले ही अभी तुम्हें कम पैसे दिए जा रहे है, पर तुम हमारे साथ आगे भी यूं ही जुड़े रहोगे तो न केवल तुम्हारा मेहनताना बढ़ा दिया जाएगा, बल्कि उपन्यास लेखन के ऐसे - ऐसे टिप्स भी बताए जाएंगे, जिनका प्रयोग कर तुम एक दिन बड़े - बड़े लेखकों के भी कान कतरने लगोगे।
       उसके बाद उन्होंने मुझे उपन्यास लेखन के बहुत से टिप्स बताए भी और उन फिल्मों की लिस्ट भी बनाकर दी, जिनको आने वाले समय में मुझे देखना था, ताकि मेरी लेखनी में और भी ज्यादा  धार, सुधार और निखार आ
सके।
कुल मिलाकर वे फिल्मों के ग्रेट शोमैन राजकपूर की तरह उपन्यास जगत के ग्रेट शो मैन थे।
       उसके बाद बातों ही बातों में उन्होंने मुझे अपने जीवन की भी संघर्ष गाथा सुनाई और बताया कि सबसे पहले उन्होंने रद्दी का एक छोटा सा कारोबार शुरू किया था और फिर उस व्यवसाय को धीरे - धीरे पॉकेट बुक्स के व्यवसाय में तब्दील कर और उसकी उन्नति के लिए रात - दिन मेहनत और संघर्ष कर यहां तक का सफर तय किया था।
उनकी संघर्ष भरी ये कहानी वास्तव मैं ही रोचक और प्रेरणादायक थी।
      मैं समझता हूं कि स्कूली पाठ्यक्रम में भी ऐसी प्रेरणादायक कहानियां जरूर शामिल करनी चाहिए, ताकि बच्चे महान और संपन्न लोगों की जीवनियां पढ़ कर ये जान सके कि जिसने भी अपने जीवन में सफलता हासिल की है, उनकी उस सफलता के पीछे संघर्षों की एक विराट दास्तां भी छुपी हुई रहती है, जो कि दुनियावालों की नजरों से ओझल रहा करती है। दुनिया वाले शायद ये नहीं जानते कि सफलता नाम की वो शै, जिसे हर कोई पाना चाहता है, हिमालय की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर रहती है, जिसे सिर्फ और सिर्फ वो ही शूरवीर पा सकता है, जिसमें तेन सिंह शेरपा और डेसमंड हिलेरी जितना ही अदम्य साहस, उन जैसा ही जुनून और उन जितना ही मेहनत करने का गुण मौजूद हो।
      आलसी, कामचोर और निराश आदमी के पास सिर्फ नींद, बीमारी और गरीबी आ सकती, सफलता, शौहरत और ऐश्वर्य नहीं।
ख़ैर !
     इसके बाद उन्होंने मुझे अपने खरीदे हुए वे चौदह कम्प्यूटर भी दिखाए, जिनकी कीमत उस वक्त लाखों में थी और जिनका उपयोग उनके यहां से प्रकाशित होने वाली कॉमिक्स में होनेवाला था।
मैंने अपने जीवन में पहली बार कम्प्यूटर उनके यहां ही देखे थे और जिनकी कार्यप्रणाली देखकर मैं दंग रह गया था।
        उन्होंने आगे मुझे ये भी बताया था कि उनके यहां से प्रकाशित  वेदप्रकाश शर्मा के उपन्यास केशव पंडित और कानून का बेटा सुपर - डुपर हिट रहे थे और जिसके कारण उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस का आयोजन कर पत्रकारों को पार्टी भी दी थी।
     और इस तरह सन 1994 में  राजा पॉकेट बुक्स से मेरा प्रथम उपन्यास 'वतन के आंसू' प्रकाशित हुआ, जिस पर बतौर लेखक मेरे नाम की जगह उनके ट्रेडमार्क 'धीरज' का नाम लिखा हुआ था।
     ये उपन्यास उस समय चल रही पंजाब समस्या की पृष्टभूमि पर आधारित था और जिसमें ये दर्शाया गया था कि हर सिख आतंकवादी नहीं होता। सिर्फ धरम के आधार पर किसी को आतंकवादी समझकर नफ़रत करना बहुत बड़ी भूल है, और इस भूल को देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए सुधारे जाने की बहुत बड़ी जरूरत है।
मेरा उनको दिया हुआ दूसरा उपन्यास 'सावन की घटा' कभी प्रकाशित हुआ या नहीं इस बात की खबर मुझे आज तक भी नहीं है।
       यूं  ट्रेडमार्क से उपन्यास प्रकाशित होने से मुझे थोड़ी सी खुशी तो जरूर हुई, पर उस खुशी से ज्यादा दिल में यह मलाल था कि मेरे उस प्रकाशित उपन्यास पर न तो मेरा नाम ही है और न ही मेरी फोटो। इसे देखकर किसको यकीन होगा की यह उपन्यास मैंने ही लिखा है। इस वजह से मैंने अब मन ही मन ये दृढ़ निश्चय कर लिया था कि आइंदा में अपने उपन्यास मेरे नाम और फोटो के साथ ही प्रकाशित करवाउंगा, वरना कभी कराऊंगा ही नहीं।

शनिवार, 3 जुलाई 2021

एक थे गुलशन नंदा- एस. डी. ओझा

                एक थे गुलशन नंदा 
उपन्यास लेखन में जो नाम गुलशन नंदा ने कमाया वह अन्यत्र दुर्लभ है। एक ज़माना था जब हम कोर्स की किताबों में गुलशन नंदा के उपन्यास रख कर पढ़ा करते थे। रेलवे स्टेशन व बस स्टॉप के बुक स्टालों पर गुलशन नंदा के उपन्यासों की भरमार रहती थी।  
   हर कोई इन बुक स्टालों पर यही पूछता था -''गुलशन नंदा का कोई नया उपन्यास आया क्या?" 
 
मैंने गुलशन नंदा का सर्व प्रथम 'जलती चट्टान' उपन्यास पढ़ा था  और उसके बाद मैं उनके उपन्यासों का मुरीद हो गया। 
      गुलशन नंदा के उपन्यासों की जो धूम भारत में मची कि उसके आगे इब्ने सफी बी ए के जासूसी उपन्यास फीके पड़ने लगे।  इनके उपन्यासों पर धड़ाधड़ फ़िल्में बनने लगीं। उस समय के गुलशन नंदा कीर्तिमान के पर्याय व प्रतीक हो गए थे। कटी पतंग, दाग, झील के उस पार  और नया जमाना आदि  सुपर डुपर हिट फिल्मों के अतिरिक्त कुल 20 सिल्वर जुबली फिल्में इनके उपन्यासों पर बन चुकी हैं। इनके मरणोपरांत फ़िल्म 'पाले खां' भी हिट रही थी।  

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मेरठ उपन्यास यात्रा-01

 लोकप्रिय उपन्यास साहित्य को समर्पित मेरा एक ब्लॉग है 'साहित्य देश'। साहित्य देश और साहित्य हेतु लम्बे समय से एक विचार था उपन्यासकार...