लेखन साहित्य में Ghost Writing का दौर हमेशा से रहा है। और इस दर्द को एक लेखक ही अच्छे से समझ सकता है। लेखक नरेन्द्र कोहली जी के उपन्यास 'आतंक' में ऐसा ही एक किस्सा नजर आया, जो Ghost writer के दर्द को बहुत अच्छे से व्यक्त करता है, वहीं लेखक और प्रकाशक के संबंधों का यथार्थवादी चित्रण भी करता है।बलराम अपने प्रकाशक के यहाँ पहुँचा तो उसका काफ़ी तपाक से स्वागत हुआ।
“आपकी बड़ी प्रतीक्षा थी मुझे।” उसके प्रकाशक जगदीश जी ने दोनों पैर समेटकर कुर्सी पर पालथी मार ली। दाहिने हाथ से सिर पर काफ़ी पीछे रखी हुई गाँधी टोपी को और पीछे की ओर खिसकाया और हथेलियों की मुट्ठियाँ बाँधकर अपनी टाँगों को, परात में पड़े आटे के समान गूँधने लगे।
“कहिए।”
“ऐ भाई।” जगदीश जी ने शून्य में आवाज़ लगाई, “ज़रा वह किताब लाइयो, जो मथुरा से छपकर आज आई है।”
दुकान में काम करने वाला लड़का उन्हें एक पुस्तक दे गया। यह ‘ऐ भाई’ सम्बोधन उसी लड़के के लिये था, वह जानता था। और दुकान पर आने-जाने वाला हर अन्य व्यक्ति भी जल्दी ही समझ जाता था।
बलराम ने जगदीश जी के हाथ में पकड़ी हुई पुस्तक को देखा—कोई पॉकेट बुक थी। काफ़ी चिकना और रंगदार कवर था।
जगदीश जी कुछ देर तक उस पुस्तक को निहारते रहे और फिर उन्होंने पुस्तक उसकी ओर बढ़ा दी, “यह देखो।”
“कहिए।”
“ऐ भाई।” जगदीश जी ने शून्य में आवाज़ लगाई, “ज़रा वह किताब लाइयो, जो मथुरा से छपकर आज आई है।”
दुकान में काम करने वाला लड़का उन्हें एक पुस्तक दे गया। यह ‘ऐ भाई’ सम्बोधन उसी लड़के के लिये था, वह जानता था। और दुकान पर आने-जाने वाला हर अन्य व्यक्ति भी जल्दी ही समझ जाता था।
बलराम ने जगदीश जी के हाथ में पकड़ी हुई पुस्तक को देखा—कोई पॉकेट बुक थी। काफ़ी चिकना और रंगदार कवर था।
जगदीश जी कुछ देर तक उस पुस्तक को निहारते रहे और फिर उन्होंने पुस्तक उसकी ओर बढ़ा दी, “यह देखो।”