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रविवार, 29 सितंबर 2019
मंगलवार, 17 सितंबर 2019
लोकप्रिय साहित्य पर एक चर्चा- एम.इकराम फरीदी
लोकप्रिय साहित्य पर एक चर्चा
हिंदी सप्ताह चल रहा है।
इस मौक़े पर हिंदी साहित्य की दुर्दशा का मज़ाकरात किया जाता है।
हिंदी भाषा जितनी विराट ह्रदय की रही है कि उसने सदा बाहरी शब्दों को समाहित और आलिंगन करने में संकोच नहीं किया है, उतना ही हिंदी किताबों के प्रकाशक संकुचित मन के रहे हैं जिन्होंने हिंदी किताबों की लुटिया डुबोने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जहां गंभीर साहित्य के नाम पर अधिकांशतः विश्वविद्यालयों या विद्यालयों के प्रवक्ता का दबदबा रहा है जबकि प्रतिभा तो कहीं भी जन्म ले सकती है लेकिन जिस प्रकार कोई बड़ा धर्मगुरु किसी छोटी ज़मीन से नहीं आता है, आला हज़रत का बेटा, नवासा ही बड़ा मुक़र्रिर हो सकता है, किसी ग़रीब का बेटा ज़िंदगी भर सिर्फ हाथ ही चूमता रह सकता है, उसी तरह गंभीर साहित्य में भी अपवाद को छोड़कर बड़े नाम विश्वविद्यालयों या अन्य उच्चपदों से मंसूब नज़र आते हैं।
लेकिन लोकप्रिय साहित्य को यह ज़रूर गौरव हासिल रहा कि वहां प्रतिभाओं की कद्र हुई | वेद प्रकाश शर्मा नाम का जो धूमकेतु आकाशगंगा में चमकता नज़र आता है, सन 65 की बारिश में उनका कच्चा घर गिर गया था ओर सड़क पर रातें गुज़ारी थी| सुरेंद्र मोहन पाठक साहब भी अपने नौकरी के कर्तव्य की इतिश्री के साथ सिर्फ अपने जुनून के चलते आराम के समय को लेखन के हार्ड वर्क के नाम खर्च किया करते थे। काम्बोज साहब और ओ पी शर्मा जी भी संघर्ष के पर्याय रहे हैं।
चूंकि लोकप्रिय साहित्य में वही प्रतिभाएं प्रकाशमान हुईं जो विधिवत आगे बढ़ीं। यही कारण रहा कि दिल से लिखा और दिल में उतरा| इब्ने सफी साहब के बारे में कहा जाता है कि उनके रीडर उनके नाविल की बाइंडिंग तक का भी सब्र नहीं कर पाते थे और यूँ ही फार्म (16 पेज )को ले जाकर पढ़ा करते थे और खुद ही सिल लिया करते थे।
लेकिन इस पाॅकेट बुक्स ने जब लोकप्रियता के शिखर को छुआ तो इसके प्रकाशकों की बदनीयती ने आज इस धंधे को उस रसातल में पहुंचा दिया है कि अब इसके उभरने की बहुत आशाएं बांधी जाए तब भी वह आशाएं एक पर्सेंट से अधिक नहीं बढ़ पाती।
जब पॉकेट बुक्स का सितारा बुलंदियों पर था और इसके चुनिंदा लेखक अपना लेखकीय जीवन 30-35 वर्ष से अधिक का जी चुके थे कदाचित कहना चाहिए कि हर शिखर के बाद अवसान की यात्रा शुरू होती है , कोई भी फनकार एक समय के बाद खुद को रिपीट करना शुरू कर देता है कदाचित उसे जो कहना था वह कह चुका होता है , फिर सिर्फ अपनी लोकप्रियता को भुनाता है। ऐसे में उस फील्ड को नए फनकारों की ज़रूरत होती है जो जेनेटिक स्तर पर उस पुराने फनकार से 30 वर्ष आगे का नज़रिया लेकर पैदा हुआ होता है। उस समय फील्ड का दारोमदार नए फनकार के कंधों पर ही होता है और वही उसे अपनी अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का उपक्रम कर सकता है लेकिन सन 90 से ऐसे सुअवसर पर पॉकेट बुक्स के प्रकाशकों ने नए लेखकों के लिए अपने दरवाज़े सदा के लिए बंद कर लिए और फिर वे दरवाज़े यूँ बंद हुए कि अंततः उनमें ताले पड़ गये।
उस समय प्रकाशकों ने नये लेखकों के आगे ट्रेड नेम का ऑप्शन रखना शुरु कर दिया था क्योंकि वे गुलशन नंदा, पाठक जी, काम्बोज जी, शर्मा जी की तरह कोई अगला भाव खाते लेखक का सामना नहीं करना चाहते थे। वे चाहते थे लेखक उनकी उंगलियों पर नाचे , लेखक उन्हे छोड़कर कहीं का न रहे। आज की डेट में राकेश पाठक को कौन जानता है लेकिन केशव पण्डित ( ट्रेड नेम) को सब जानते हैं | जब राकेश पाठक को कोई जानता ही नहीं है तो कौन प्रकाशक उन्हे घास डालने बैठा है।
घोस्ट राइटिंग में कभी भी प्रतिभाशाली राइटिंग नहीं होती है। राइटर की नज़र बस इस बात पर होती है कि मैंने आज 10 पेज लिख दिए तो इतने रुपये कमा लिये | उसे न प्रशंसा मिल रही है ना आलोचना। यह भी कोई गारंटी नहीं है कि उसी ट्रेड नेम से अगला उपन्यास कौन लिखेगा ?
परिणाम यह हुआ कि जिन उपन्यासों को पहले ईर्ष्या के चलते हेय दृष्टि से देखा जाता था , वो सचमुच हेय का पात्र बन गए और पाठक का ऐसा मन खटटा हुआ कि आज इस पाॅकेट बुक्स के नाम लेवा में लाखों की तादाद से घटकर गिने चुने लोग बाक़ी रह गये हैं।
मैं नहीं समझता कि इसका दौर कभी लौटेगा। इस मुर्दे की अब तदफ़ीन हो चुकी है। कुछ शौक़िया लोग आते और जाते रहेंगे और कुछ हम जैसे जिनका मदावा ही लेखन है , 15 दिन ना लिखा जाए तो मौत के किनारे आ लगते हैं। प्रतिभा अभिशाप बन गई है। विवशतावश लिखते रहेंगे। खैर...
जय हिंदी
जय मातृभाषा
लेखक- एम. इकराम फरीदी
प्रस्तुत आलेख लेखक के फेसबुक वाॅल से लिया गया है।
फेसबुक लिंक
हिंदी सप्ताह चल रहा है।
इस मौक़े पर हिंदी साहित्य की दुर्दशा का मज़ाकरात किया जाता है।
हिंदी भाषा जितनी विराट ह्रदय की रही है कि उसने सदा बाहरी शब्दों को समाहित और आलिंगन करने में संकोच नहीं किया है, उतना ही हिंदी किताबों के प्रकाशक संकुचित मन के रहे हैं जिन्होंने हिंदी किताबों की लुटिया डुबोने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जहां गंभीर साहित्य के नाम पर अधिकांशतः विश्वविद्यालयों या विद्यालयों के प्रवक्ता का दबदबा रहा है जबकि प्रतिभा तो कहीं भी जन्म ले सकती है लेकिन जिस प्रकार कोई बड़ा धर्मगुरु किसी छोटी ज़मीन से नहीं आता है, आला हज़रत का बेटा, नवासा ही बड़ा मुक़र्रिर हो सकता है, किसी ग़रीब का बेटा ज़िंदगी भर सिर्फ हाथ ही चूमता रह सकता है, उसी तरह गंभीर साहित्य में भी अपवाद को छोड़कर बड़े नाम विश्वविद्यालयों या अन्य उच्चपदों से मंसूब नज़र आते हैं।
लेकिन लोकप्रिय साहित्य को यह ज़रूर गौरव हासिल रहा कि वहां प्रतिभाओं की कद्र हुई | वेद प्रकाश शर्मा नाम का जो धूमकेतु आकाशगंगा में चमकता नज़र आता है, सन 65 की बारिश में उनका कच्चा घर गिर गया था ओर सड़क पर रातें गुज़ारी थी| सुरेंद्र मोहन पाठक साहब भी अपने नौकरी के कर्तव्य की इतिश्री के साथ सिर्फ अपने जुनून के चलते आराम के समय को लेखन के हार्ड वर्क के नाम खर्च किया करते थे। काम्बोज साहब और ओ पी शर्मा जी भी संघर्ष के पर्याय रहे हैं।
चूंकि लोकप्रिय साहित्य में वही प्रतिभाएं प्रकाशमान हुईं जो विधिवत आगे बढ़ीं। यही कारण रहा कि दिल से लिखा और दिल में उतरा| इब्ने सफी साहब के बारे में कहा जाता है कि उनके रीडर उनके नाविल की बाइंडिंग तक का भी सब्र नहीं कर पाते थे और यूँ ही फार्म (16 पेज )को ले जाकर पढ़ा करते थे और खुद ही सिल लिया करते थे।
लेकिन इस पाॅकेट बुक्स ने जब लोकप्रियता के शिखर को छुआ तो इसके प्रकाशकों की बदनीयती ने आज इस धंधे को उस रसातल में पहुंचा दिया है कि अब इसके उभरने की बहुत आशाएं बांधी जाए तब भी वह आशाएं एक पर्सेंट से अधिक नहीं बढ़ पाती।
जब पॉकेट बुक्स का सितारा बुलंदियों पर था और इसके चुनिंदा लेखक अपना लेखकीय जीवन 30-35 वर्ष से अधिक का जी चुके थे कदाचित कहना चाहिए कि हर शिखर के बाद अवसान की यात्रा शुरू होती है , कोई भी फनकार एक समय के बाद खुद को रिपीट करना शुरू कर देता है कदाचित उसे जो कहना था वह कह चुका होता है , फिर सिर्फ अपनी लोकप्रियता को भुनाता है। ऐसे में उस फील्ड को नए फनकारों की ज़रूरत होती है जो जेनेटिक स्तर पर उस पुराने फनकार से 30 वर्ष आगे का नज़रिया लेकर पैदा हुआ होता है। उस समय फील्ड का दारोमदार नए फनकार के कंधों पर ही होता है और वही उसे अपनी अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का उपक्रम कर सकता है लेकिन सन 90 से ऐसे सुअवसर पर पॉकेट बुक्स के प्रकाशकों ने नए लेखकों के लिए अपने दरवाज़े सदा के लिए बंद कर लिए और फिर वे दरवाज़े यूँ बंद हुए कि अंततः उनमें ताले पड़ गये।
उस समय प्रकाशकों ने नये लेखकों के आगे ट्रेड नेम का ऑप्शन रखना शुरु कर दिया था क्योंकि वे गुलशन नंदा, पाठक जी, काम्बोज जी, शर्मा जी की तरह कोई अगला भाव खाते लेखक का सामना नहीं करना चाहते थे। वे चाहते थे लेखक उनकी उंगलियों पर नाचे , लेखक उन्हे छोड़कर कहीं का न रहे। आज की डेट में राकेश पाठक को कौन जानता है लेकिन केशव पण्डित ( ट्रेड नेम) को सब जानते हैं | जब राकेश पाठक को कोई जानता ही नहीं है तो कौन प्रकाशक उन्हे घास डालने बैठा है।
घोस्ट राइटिंग में कभी भी प्रतिभाशाली राइटिंग नहीं होती है। राइटर की नज़र बस इस बात पर होती है कि मैंने आज 10 पेज लिख दिए तो इतने रुपये कमा लिये | उसे न प्रशंसा मिल रही है ना आलोचना। यह भी कोई गारंटी नहीं है कि उसी ट्रेड नेम से अगला उपन्यास कौन लिखेगा ?
परिणाम यह हुआ कि जिन उपन्यासों को पहले ईर्ष्या के चलते हेय दृष्टि से देखा जाता था , वो सचमुच हेय का पात्र बन गए और पाठक का ऐसा मन खटटा हुआ कि आज इस पाॅकेट बुक्स के नाम लेवा में लाखों की तादाद से घटकर गिने चुने लोग बाक़ी रह गये हैं।
मैं नहीं समझता कि इसका दौर कभी लौटेगा। इस मुर्दे की अब तदफ़ीन हो चुकी है। कुछ शौक़िया लोग आते और जाते रहेंगे और कुछ हम जैसे जिनका मदावा ही लेखन है , 15 दिन ना लिखा जाए तो मौत के किनारे आ लगते हैं। प्रतिभा अभिशाप बन गई है। विवशतावश लिखते रहेंगे। खैर...
जय हिंदी
जय मातृभाषा
लेखक- एम. इकराम फरीदी
प्रस्तुत आलेख लेखक के फेसबुक वाॅल से लिया गया है।
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रविवार, 15 सितंबर 2019
मैं जासूसी उपन्यासकार क्यों बना?- अमित खान
मैं जासूसी उपन्यासकार ही क्यों बना ?
मैं समझता हूँ, उपन्यास लेखन अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है । जिसमें पात्रों के माध्यम से आप अपने मन की बात कहते हैं । दूसरे शब्दों में, उपन्यास-लेखन एक जादू की तरह है । जैसे काला जादू ! उपन्यासकार एक जादूगर की तरह रंगमंच पर खड़ा होता है और वह अपने दिमाग रूपी हैट में-से घटनाओं का ऐसा चमत्कारी जाल निकालकर दिखाता है, ऐसा महिमा-मंडल चारों तरफ बुनता है कि सब बेहद मन्त्र-मुग्ध होकर कागज़ पर लिखे शब्दों को पढ़ते हैं ।
जिस उपन्यासकार में पाठकों को शब्दों से चिपकाने का जितना ज्यादा कौशल होगा, वह उतना ही कामयाब उपन्यासकार बनेगा ।
कहने को सब कुछ काफी आसान है, लेकिन फिर भी यह जादू बिखेरना कोई बच्चों का खेल नहीं । उसके लिये उपन्यासकार के पास कठोर परिश्रम, अगाध कल्पनाशीलता और पाठकों की नब्ज परखने का ख़ास आला होना चाहिए ।
बचपन से ही मुझे अच्छा लगता था, रहस्यमयी रचनाओं का ताना-बाना बुनना । मैं घंटों के लिये ऐसे कल्पना-लोक में खो जाता, जो एक अजब ही दुनिया होती । थ्रिल (रोमांच) से मुझे प्यार था, आज भी है । ज़रा सोचिये, आम जिन्दगी में भी कितना थ्रिल होता है । जिन्दगी में कितने अद्भुत होते हैं वो क्षण, जब आपको मालूम ही नहीं होता कि अगले पल क्या होने वाला है ? क्या घटने वाला है ? सब कुछ सस्पेंसफुल होता है । फिर चाहे वह सस्पेंस कैरियर को लेकर हो या जिन्दगी और मौत को लेकर । थ्रिल आखिर जिन्दगी में कहाँ नहीं है ? हर जगह रोमांच है । हर जगह सस्पेंस है । और जब हमारी जिन्दगी ही इतनी रोमांचकारी होती है, तो फिर व्यवसाय भी कोई रोमांचकारी ही क्यों न चुना जाये । यही सोचकर मैं जासूसी उपन्यासकार बन गया ।
श्रद्धेय देवकीनंदन खत्री से शुरू हुआ भारत में जासूसी उपन्यास का यह सफ़र इब्ने सफी और ओमप्रकाश शर्मा से लेकर आज तक जारी है ।
फिर भी एक बात का दुःख अवश्य है । भारत में जासूसी साहित्य को वह सम्मान आज भी नहीं मिला, जो मिलना चाहिए था । जबकि वेद प्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक जैसे शलाका पुरुष इस क्षेत्र में हुए हैं, जिन्होंने अद्भुत लेखन-कार्य किया है । आज भी जासूसी साहित्य को भारत में साहित्य के नाम पर कूड़ा परोसने वाला एक व्यवसाय समझा जाता है । जबकि विदेशों में जासूसी साहित्यकारों ने अथाह मान-सम्मान प्राप्त किया है । अगाथा क्रिस्टी, इयान फ्लेमिंग और जेम्स हेडली चेइज जैसे दर्जनों उपन्यासकार इस बात के साक्षी हैं । इतना ही नहीं, शरलाक होम्ज पात्र के रचयिता आर्थर कानन डायल को इंग्लैंड में ‘सर’ जैसी मानद उपाधि से भी अलंकृत किया गया ।
क्या भारत में ऐसा संभव है ?
हरगिज नहीं ।
अभी जासूसी साहित्य के लिये यहाँ एक खुली मानसिकता की आवश्यकता है । स्वस्थ्य बहस की आवश्यकता है ।
फिर भी मुझे इस बात पर गर्व है कि मैं एक जासूसी उपन्यासकार हूँ और मुझे दया आती है उन कुंठित मानसिकता वाले लोगों पर, जो जासूसी उपन्यासों को सिर्फ इसलिये नहीं पढ़ते, क्योंकि उनकी निगाह में यह एक स्तरहीन साहित्य है ।
ज़रा सोचिये, वह मनोरंजन के कितने महत्वपूर्ण साधन से वंचित हैं ।
मैं इस कामना के साथ इस लेखकीय को बंद करता हूँ कि एक दिन हालात सुधरेंगे । एक दिन जासूसी साहित्य को भारत में वही दर्जा हासिल होगा, जो विदेशों में हासिल है ।
अब आज्ञा चाहूंगा ।
आपका अपना
अमित खान
मुंबई – 400104
सम्पर्क सूत्र : foramitkhan@gmail.com
यह खास लेखकीय, जो "मैडम नताशा का प्रेमीे" उपन्यास का हिस्सा है।
मैं समझता हूँ, उपन्यास लेखन अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है । जिसमें पात्रों के माध्यम से आप अपने मन की बात कहते हैं । दूसरे शब्दों में, उपन्यास-लेखन एक जादू की तरह है । जैसे काला जादू ! उपन्यासकार एक जादूगर की तरह रंगमंच पर खड़ा होता है और वह अपने दिमाग रूपी हैट में-से घटनाओं का ऐसा चमत्कारी जाल निकालकर दिखाता है, ऐसा महिमा-मंडल चारों तरफ बुनता है कि सब बेहद मन्त्र-मुग्ध होकर कागज़ पर लिखे शब्दों को पढ़ते हैं ।
जिस उपन्यासकार में पाठकों को शब्दों से चिपकाने का जितना ज्यादा कौशल होगा, वह उतना ही कामयाब उपन्यासकार बनेगा ।
कहने को सब कुछ काफी आसान है, लेकिन फिर भी यह जादू बिखेरना कोई बच्चों का खेल नहीं । उसके लिये उपन्यासकार के पास कठोर परिश्रम, अगाध कल्पनाशीलता और पाठकों की नब्ज परखने का ख़ास आला होना चाहिए ।
बचपन से ही मुझे अच्छा लगता था, रहस्यमयी रचनाओं का ताना-बाना बुनना । मैं घंटों के लिये ऐसे कल्पना-लोक में खो जाता, जो एक अजब ही दुनिया होती । थ्रिल (रोमांच) से मुझे प्यार था, आज भी है । ज़रा सोचिये, आम जिन्दगी में भी कितना थ्रिल होता है । जिन्दगी में कितने अद्भुत होते हैं वो क्षण, जब आपको मालूम ही नहीं होता कि अगले पल क्या होने वाला है ? क्या घटने वाला है ? सब कुछ सस्पेंसफुल होता है । फिर चाहे वह सस्पेंस कैरियर को लेकर हो या जिन्दगी और मौत को लेकर । थ्रिल आखिर जिन्दगी में कहाँ नहीं है ? हर जगह रोमांच है । हर जगह सस्पेंस है । और जब हमारी जिन्दगी ही इतनी रोमांचकारी होती है, तो फिर व्यवसाय भी कोई रोमांचकारी ही क्यों न चुना जाये । यही सोचकर मैं जासूसी उपन्यासकार बन गया ।
श्रद्धेय देवकीनंदन खत्री से शुरू हुआ भारत में जासूसी उपन्यास का यह सफ़र इब्ने सफी और ओमप्रकाश शर्मा से लेकर आज तक जारी है ।
फिर भी एक बात का दुःख अवश्य है । भारत में जासूसी साहित्य को वह सम्मान आज भी नहीं मिला, जो मिलना चाहिए था । जबकि वेद प्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक जैसे शलाका पुरुष इस क्षेत्र में हुए हैं, जिन्होंने अद्भुत लेखन-कार्य किया है । आज भी जासूसी साहित्य को भारत में साहित्य के नाम पर कूड़ा परोसने वाला एक व्यवसाय समझा जाता है । जबकि विदेशों में जासूसी साहित्यकारों ने अथाह मान-सम्मान प्राप्त किया है । अगाथा क्रिस्टी, इयान फ्लेमिंग और जेम्स हेडली चेइज जैसे दर्जनों उपन्यासकार इस बात के साक्षी हैं । इतना ही नहीं, शरलाक होम्ज पात्र के रचयिता आर्थर कानन डायल को इंग्लैंड में ‘सर’ जैसी मानद उपाधि से भी अलंकृत किया गया ।
क्या भारत में ऐसा संभव है ?
हरगिज नहीं ।
अभी जासूसी साहित्य के लिये यहाँ एक खुली मानसिकता की आवश्यकता है । स्वस्थ्य बहस की आवश्यकता है ।
फिर भी मुझे इस बात पर गर्व है कि मैं एक जासूसी उपन्यासकार हूँ और मुझे दया आती है उन कुंठित मानसिकता वाले लोगों पर, जो जासूसी उपन्यासों को सिर्फ इसलिये नहीं पढ़ते, क्योंकि उनकी निगाह में यह एक स्तरहीन साहित्य है ।
ज़रा सोचिये, वह मनोरंजन के कितने महत्वपूर्ण साधन से वंचित हैं ।
मैं इस कामना के साथ इस लेखकीय को बंद करता हूँ कि एक दिन हालात सुधरेंगे । एक दिन जासूसी साहित्य को भारत में वही दर्जा हासिल होगा, जो विदेशों में हासिल है ।
अब आज्ञा चाहूंगा ।
आपका अपना
अमित खान
मुंबई – 400104
सम्पर्क सूत्र : foramitkhan@gmail.com
यह खास लेखकीय, जो "मैडम नताशा का प्रेमीे" उपन्यास का हिस्सा है।
शनिवार, 14 सितंबर 2019
नये उपन्यास- 2019
जासूसी उपन्यास साहित्य में एक के बाद एक बेहतरीन उपन्यासों का प्रकाशित होना एक अच्छी खबर है। उस बार तो उपन्यास ही नहीं बल्कि प्रकाशन संस्थान भी नया है।
नये उपन्यास
1. चैलेंज होटल- एम. इकराम फरीदी
प्रकाशन तिथि- 15.09.2019
यह उपन्यास लेखक के जीवन में घटित एक सत्य घटना पर आधारित है। एम. इकराम फरीदी पहली बार हाॅरर कथानक के साथ उपस्थित हैं।
उम्मीद है यह उपन्यास पाठको को पसंद आयेगा। इसी उपन्यास के साथ फरीदी जी ने अपने प्रकाशन संस्थान 'थ्रिल वर्ल्ड' की शुरुआत की है।
फरीदी जी का आगामी उपन्यास 'अवैध' है।
एमेजन लिंक
नये उपन्यास
1. चैलेंज होटल- एम. इकराम फरीदी
प्रकाशन तिथि- 15.09.2019
यह उपन्यास लेखक के जीवन में घटित एक सत्य घटना पर आधारित है। एम. इकराम फरीदी पहली बार हाॅरर कथानक के साथ उपस्थित हैं।
उम्मीद है यह उपन्यास पाठको को पसंद आयेगा। इसी उपन्यास के साथ फरीदी जी ने अपने प्रकाशन संस्थान 'थ्रिल वर्ल्ड' की शुरुआत की है।
फरीदी जी का आगामी उपन्यास 'अवैध' है।
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बुधवार, 4 सितंबर 2019
साहित्य प्रचार में पाठक का योगदान
साहित्य प्रचार- प्रसार में आपका योगदान - संतोष पाठक
साहित्य के प्रचार-प्रसार में एक पाठक का क्या योगदान होना चाहिए। इसके क्या अर्थ हैं। इसी विषय पर उपन्यासकार संतोष पाठक जी का एक आलेख प्रस्तुत है।
कुछ कहना चाहता हूं।
आज के लेखन और लेखकों के संदर्भ में, आज के प्रकाशकों के संदर्भ में। वैंटीलेटर पर कृतिम ढंग से सांस लेते मनोरंजक साहित्य के संदर्भ में।
ये तीनों ही बड़ी कठिनता से - आपस में सामंजस्य बैठाने की मुश्किल कोशिश करते हुए - घिसट-घिसट कर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।
उक्त हालात के लिए कौन जिम्मेदार है और कौन नहीं, फिलहाल यह मेरा मुद्दा नहीं है।
मैं बात करना चाहता हूं, लेखक, प्रकाशक और उनके सामंजस्य से छपकर सामने आ रहीं, आने वाली रचनाओं की। उन किताबों की जिनकी कुछ हजार प्रतियां छापकर, उनमें से कुछ सौ प्रतियां बेचकर प्रकाशक चैन की सांस लेता है कि चलो पब्लिशिंग का खर्चा तो निकला। दूसरी तरफ लेखक उस किताब को सोशल मीडिया पर डालकर, हजारों लोगों में से कुछ की प्रशंसा और कुछ पाठकों की आलोचना झेलकर ये सोचकर अपने को तसल्ली दे लेता है कि चलो, किताब छपकर मार्केट में आई तो सही।
सवाल ये है कि इससे हासिल क्या हुआ?
लेखक ने राॅयल्टी नहीं कमाई, प्रकाशक ने ऊंचे दाम पर किताब बेचकर भी बस प्रकाशन का खर्चा भर वसूल लिया। लेखक को लेखक कहलाने का गौरव - जो कि अधिकतर मामलों में बस मुंहदेखी बात होती है - हासिल हुआ। प्रकाशक को प्रकाशक कहलाने का गौरव - जो वास्तव में किसी गिनती में नहीं आता - हासिल हुआ।
चेहरे पर दिखावे की मुस्कान और बेस्ट सेलर होने का दावा, किताब के आउट आॅफ स्टाॅक तो जैसे कोई बड़ी उपलब्धि हो - भले ही वह किताब पांच सौ ही छापी गई हो - सोशल मीडिया पर प्रमुखता से प्रचारित होने लगता है।
वह भी ऐसे ऐसे ग्रुप में जहां हर पाठक अपने आप में एक लेखक है लिहाजा किताब का पोस्टमार्टम शुरू हो जाता है। इसके विपरीत 'तू मेरी पीठ खुजा मैं तेरी पीठ खुजाऊंगा' की तर्ज पर वाहवाही भी मिलती है। नतीजा ये होता है कि एक अच्छी किताब पाठकों तक पहुंचने से पहले ही अपना वजूद खो देती है। इसके विपरीत ऐसी किताब जिसके आपको पांच पन्ने भी पढ़ना गवारा न हो कुछ नये पाठकों के हाथों तक पहुंच जाती है।
नतीजा फिर भी वही रहता है ढाक के तीन पात।
और हम क्या करते हैं?
भसड़ फैलाने वाली पोस्ट को शेयर कर के दुनिया भर में फैला देते हैं। राजनीति पर ऐसे ऐसे कमेंट करते हैं कि हमारे नेताओं ने अगरी बेशरमी में डिप्लोमा ना कर रखा हो तो अब तक जाने कितने सुसाईड कर चुके होते।
संप्रदायिकता की भावनाओं को भड़काने वाले पोस्ट को लाईक करते हैं, कमेंट करते हैं, शेयर करते हैं। पोस्ट किसी खूबसूरत दिखने वाली मोहतरमा की हो तो उनकी छींक की खबर पर भी पूछ बैठते हैं कि डाॅक्टर को दिखाया या नहीं, या फिर हकीम लुकमान बनकर दो चार सलाह दे डालते हैं।
मगर एक बार भी हम वहां दिखाई दे रही किसी पुस्तक को या उसके रीव्यू को शेयर करने की जहमत नहीं उठाते। कहीं हमारे ऐसा करने से किताब की सेल ना बढ़ जाय। अरे भाई किताब नहीं पढ़ी कोई बात नहीं, अच्छी नहीं लगी कोई बात नहीं, बहुत अच्छी लगी तो भी कोई बात नहीं मगर सामने दिखाई दे रही किताब को शेयर कर देंगे तो हमारे पाॅकेट से क्या गया। कुछ और लोग किताब के बारे में जान जायेंगे हो सकता है उन हजार लोगों में से कोई एक किताब खरीद भी ले। हमारा क्या गया? सिवाय इसके कि हमारेे इस किंचित प्रयास से अमुक किताब की एक प्रति ज्यादा बिक गई।
हम किताब पढ़ते हैं, अच्छी लगे तो हम सैकड़ों लोगों में से एक उसके बारे में दो लाईन लिख देता है। बुरी लगे तो लेखक को बुरा ना लगे इस भावना के तहत अधिकतर लोग किताब के बारे में कुछ नहीं लिखते।
जबकि जरूरत दोनों ही बातों की है। ईमानदारी पूर्वक की गई हमारी समीक्षा हमेशा लेखन को बढ़ावा देती है, लेखक को और अच्छा लिखने की प्रेरणा देती है, भले ही किताब की बुराई सुनकर थोड़ी देर के लिए उसका मन खिन्न हो जाए।
इसलिए सोशल मीडिया पर दिखाई देने वाली हर किताब को शेयर करें। भले ही उसका लेखक हमारे संपर्क में हो या न हो! हम उसे व्यक्तिगत तौर पर जानते हों या नहीं जानते हों।
आइए मिलकर मनोरंजक साहित्य को फिर से बुलंदियों पर पहुंचाने की कवायद में जुट जाएं।
लेखक का फायदा - किताबें ज्यादा बिकेंगी तो राॅयल्टी ज्यादा मिलेगी। वह ज्यादा मेहनत से अपने लेखन कार्य को अंजाम दे सकेगा।
प्रकाशक का फायदा - किताबें ज्यादा बिकेंगी तो वह ज्यादा कमाई करेगा और पुस्तक का मूल्य कम करने में कामयाब होगा। आज दो सौ बीस में बिकने वाली किताबें कल डेढ़ सौ, एक सौ तीस में मिलने लगेंगी।
पाठक का फायदा - पढ़ने के लिए कम पैसे खरचने पड़ेंगे। आज जिस मूल्य में एक किताब खरीदते हैं हो सकता है कल को उसी कीमत में उसी स्तर की दो किताबें हासिल हो जायं।
प्रस्तुति- संतोष पाठक
साहित्य के प्रचार-प्रसार में एक पाठक का क्या योगदान होना चाहिए। इसके क्या अर्थ हैं। इसी विषय पर उपन्यासकार संतोष पाठक जी का एक आलेख प्रस्तुत है।
कुछ कहना चाहता हूं।
आज के लेखन और लेखकों के संदर्भ में, आज के प्रकाशकों के संदर्भ में। वैंटीलेटर पर कृतिम ढंग से सांस लेते मनोरंजक साहित्य के संदर्भ में।
ये तीनों ही बड़ी कठिनता से - आपस में सामंजस्य बैठाने की मुश्किल कोशिश करते हुए - घिसट-घिसट कर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।
उक्त हालात के लिए कौन जिम्मेदार है और कौन नहीं, फिलहाल यह मेरा मुद्दा नहीं है।
मैं बात करना चाहता हूं, लेखक, प्रकाशक और उनके सामंजस्य से छपकर सामने आ रहीं, आने वाली रचनाओं की। उन किताबों की जिनकी कुछ हजार प्रतियां छापकर, उनमें से कुछ सौ प्रतियां बेचकर प्रकाशक चैन की सांस लेता है कि चलो पब्लिशिंग का खर्चा तो निकला। दूसरी तरफ लेखक उस किताब को सोशल मीडिया पर डालकर, हजारों लोगों में से कुछ की प्रशंसा और कुछ पाठकों की आलोचना झेलकर ये सोचकर अपने को तसल्ली दे लेता है कि चलो, किताब छपकर मार्केट में आई तो सही।
सवाल ये है कि इससे हासिल क्या हुआ?
लेखक ने राॅयल्टी नहीं कमाई, प्रकाशक ने ऊंचे दाम पर किताब बेचकर भी बस प्रकाशन का खर्चा भर वसूल लिया। लेखक को लेखक कहलाने का गौरव - जो कि अधिकतर मामलों में बस मुंहदेखी बात होती है - हासिल हुआ। प्रकाशक को प्रकाशक कहलाने का गौरव - जो वास्तव में किसी गिनती में नहीं आता - हासिल हुआ।
चेहरे पर दिखावे की मुस्कान और बेस्ट सेलर होने का दावा, किताब के आउट आॅफ स्टाॅक तो जैसे कोई बड़ी उपलब्धि हो - भले ही वह किताब पांच सौ ही छापी गई हो - सोशल मीडिया पर प्रमुखता से प्रचारित होने लगता है।
वह भी ऐसे ऐसे ग्रुप में जहां हर पाठक अपने आप में एक लेखक है लिहाजा किताब का पोस्टमार्टम शुरू हो जाता है। इसके विपरीत 'तू मेरी पीठ खुजा मैं तेरी पीठ खुजाऊंगा' की तर्ज पर वाहवाही भी मिलती है। नतीजा ये होता है कि एक अच्छी किताब पाठकों तक पहुंचने से पहले ही अपना वजूद खो देती है। इसके विपरीत ऐसी किताब जिसके आपको पांच पन्ने भी पढ़ना गवारा न हो कुछ नये पाठकों के हाथों तक पहुंच जाती है।
नतीजा फिर भी वही रहता है ढाक के तीन पात।
और हम क्या करते हैं?
भसड़ फैलाने वाली पोस्ट को शेयर कर के दुनिया भर में फैला देते हैं। राजनीति पर ऐसे ऐसे कमेंट करते हैं कि हमारे नेताओं ने अगरी बेशरमी में डिप्लोमा ना कर रखा हो तो अब तक जाने कितने सुसाईड कर चुके होते।
संप्रदायिकता की भावनाओं को भड़काने वाले पोस्ट को लाईक करते हैं, कमेंट करते हैं, शेयर करते हैं। पोस्ट किसी खूबसूरत दिखने वाली मोहतरमा की हो तो उनकी छींक की खबर पर भी पूछ बैठते हैं कि डाॅक्टर को दिखाया या नहीं, या फिर हकीम लुकमान बनकर दो चार सलाह दे डालते हैं।
मगर एक बार भी हम वहां दिखाई दे रही किसी पुस्तक को या उसके रीव्यू को शेयर करने की जहमत नहीं उठाते। कहीं हमारे ऐसा करने से किताब की सेल ना बढ़ जाय। अरे भाई किताब नहीं पढ़ी कोई बात नहीं, अच्छी नहीं लगी कोई बात नहीं, बहुत अच्छी लगी तो भी कोई बात नहीं मगर सामने दिखाई दे रही किताब को शेयर कर देंगे तो हमारे पाॅकेट से क्या गया। कुछ और लोग किताब के बारे में जान जायेंगे हो सकता है उन हजार लोगों में से कोई एक किताब खरीद भी ले। हमारा क्या गया? सिवाय इसके कि हमारेे इस किंचित प्रयास से अमुक किताब की एक प्रति ज्यादा बिक गई।
हम किताब पढ़ते हैं, अच्छी लगे तो हम सैकड़ों लोगों में से एक उसके बारे में दो लाईन लिख देता है। बुरी लगे तो लेखक को बुरा ना लगे इस भावना के तहत अधिकतर लोग किताब के बारे में कुछ नहीं लिखते।
जबकि जरूरत दोनों ही बातों की है। ईमानदारी पूर्वक की गई हमारी समीक्षा हमेशा लेखन को बढ़ावा देती है, लेखक को और अच्छा लिखने की प्रेरणा देती है, भले ही किताब की बुराई सुनकर थोड़ी देर के लिए उसका मन खिन्न हो जाए।
इसलिए सोशल मीडिया पर दिखाई देने वाली हर किताब को शेयर करें। भले ही उसका लेखक हमारे संपर्क में हो या न हो! हम उसे व्यक्तिगत तौर पर जानते हों या नहीं जानते हों।
आइए मिलकर मनोरंजक साहित्य को फिर से बुलंदियों पर पहुंचाने की कवायद में जुट जाएं।
लेखक का फायदा - किताबें ज्यादा बिकेंगी तो राॅयल्टी ज्यादा मिलेगी। वह ज्यादा मेहनत से अपने लेखन कार्य को अंजाम दे सकेगा।
प्रकाशक का फायदा - किताबें ज्यादा बिकेंगी तो वह ज्यादा कमाई करेगा और पुस्तक का मूल्य कम करने में कामयाब होगा। आज दो सौ बीस में बिकने वाली किताबें कल डेढ़ सौ, एक सौ तीस में मिलने लगेंगी।
पाठक का फायदा - पढ़ने के लिए कम पैसे खरचने पड़ेंगे। आज जिस मूल्य में एक किताब खरीदते हैं हो सकता है कल को उसी कीमत में उसी स्तर की दो किताबें हासिल हो जायं।
प्रस्तुति- संतोष पाठक
लेखक- संतोष पाठक |
फेसबुक की मूल पोस्ट |
रविवार, 1 सितंबर 2019
जासूसी दुनिया पत्रिका
जासूसी दुनिया पत्रिका की रोचक जानकारी।
आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि जासूसी दुनिया पहले राही मासूम रजा लिखने वाले थे. उन्होंने लिखा नहीं था. उनसे अब्बास हुसैनी ने नमूना माँगा था और उन्हें व इब्ने सफी को फाइनल किया गया. लेकिन अंत में सफी साहब को इसलिए फाइनल किया गया क्योंकि उनमें जासूसी के साथ हास्य की भी समझ थी. और यह अच्छा ही हुआ. इससे उर्दू ही नहीं हिंदी को भी बेहतरीन जासूसी लेखक मिला. कल्ट लेखक भी कह सकते हैं. वो इकलौते लेखक हैं जिनका उपन्यास छपते छपते बिकना शुरू हो जाता था।
तब ट्रेडल पर धीमी छपाई होती थी. इलाहबाद के खासकर इक्के वाले शाम ही से प्रेस के पास मंडराने लगते थे और छपाई के बाद बाइंडिंग का भी इंतज़ार नहीं करते थे और वैसे ही खरीद कर ले जाते थे. हालाँकि बाइंडिंग के नाम पर इसमें सिर्फ पिन ही लगती थी. लेकिन लोग इतना भी सब्र नहीं दिखाते थे. हॉट केक का नाम सबने सुना होगा, लेकिन हॉट केक की तरह बिकने वाला हिंदुस्तान का एकमात्र लेखक था इब्ने सफी।
- प्रस्तुति- विनोद भास्कर
आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि जासूसी दुनिया पहले राही मासूम रजा लिखने वाले थे. उन्होंने लिखा नहीं था. उनसे अब्बास हुसैनी ने नमूना माँगा था और उन्हें व इब्ने सफी को फाइनल किया गया. लेकिन अंत में सफी साहब को इसलिए फाइनल किया गया क्योंकि उनमें जासूसी के साथ हास्य की भी समझ थी. और यह अच्छा ही हुआ. इससे उर्दू ही नहीं हिंदी को भी बेहतरीन जासूसी लेखक मिला. कल्ट लेखक भी कह सकते हैं. वो इकलौते लेखक हैं जिनका उपन्यास छपते छपते बिकना शुरू हो जाता था।
तब ट्रेडल पर धीमी छपाई होती थी. इलाहबाद के खासकर इक्के वाले शाम ही से प्रेस के पास मंडराने लगते थे और छपाई के बाद बाइंडिंग का भी इंतज़ार नहीं करते थे और वैसे ही खरीद कर ले जाते थे. हालाँकि बाइंडिंग के नाम पर इसमें सिर्फ पिन ही लगती थी. लेकिन लोग इतना भी सब्र नहीं दिखाते थे. हॉट केक का नाम सबने सुना होगा, लेकिन हॉट केक की तरह बिकने वाला हिंदुस्तान का एकमात्र लेखक था इब्ने सफी।
- प्रस्तुति- विनोद भास्कर
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