मैं राही की तरह चलता रहा, पीछे का निशान मिटता रहा।- आबिद रिजवी
साक्षात्कार शृंखला-01
साहित्य देश ब्लॉग साक्षात्कार की इस प्रथम प्रस्तुति में आपके समक्ष लेकर आया है लोकप्रिय साहित्य के इन्साक्लोपीडिया आबिद रिजवी से हुयी बातचीत का साक्षात्कार रूप
---------------------------------
मेरठ निवासी आबिद रिजवी जी लोकप्रिय उपन्यास जगत के एक ऐसे शख्स हैं जिनके पास उपन्यास जगत की यादों का विशाल खजाना है। अगर आप एक बात पूछोगे तो वे उससे संबंधित कई आख्यान आपको सुनाते चलेंगे।
रिजवी साहब के पास जितना यादों का विशाल खजाना है उतने ही वे सहृदय और सरल व्यक्तित्व के स्वामी भी हैं।
मेरी उनसे कुछ दिन पूर्व उपन्यास साहित्य को लेकर चर्चा हुयी, हालांकि यह चर्चा मुख्य तौर पर उनके जीवन से संबंधित ही थी।
आबिद रिजवी जी की छात्रावस्था में ही लेखन की ओर रूचि थी और वे कक्षा 12 के दौरान ही विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं के लिए अपने आलेख व कहानियाँ भेजने लग गये थे। उसके बाद लेखन का चला यह दौर आज तक यथावत जारी है।
मूल रूप से इलाहाबाद के निवासी आबिद रिजवी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा इलाहाबाद से ही पूर्ण की और वहीं से ही अपनी लेखन यात्रा की शुरुआत की।
उन्होंने बताया की तब के प्रसिद्ध सामाजिक उपन्यासकार प्यारे लाल आवारा से मेरा संपर्क हुआ। प्यारे लाल आवारा तब अधेङावस्था की ओर थे और मैं युवा अवस्था की ओर। मैं सुबह आठ बजे ही उनकी सेवा में हाजिर हो जाता और उन्होंने ही मुझे लेखन की विभिन्न बारीकियों से परिचित करवाया।
मैं तब विद्यार्थी ही था और मेरी आर्थिक स्थिति को देखते हुए प्यारे लाल आवारा ने मुझे तात्कालिक प्रसिद्ध पत्रिका ' जासूसी दुनिया' के कार्यालय भेज दिया। जहाँ मेरा संपर्क उर्दू के प्रसिद्ध लेखक इब्ने सफी और इब्ने सईद से हुआ। ये दोनों प्यारे लाल जी के मित्र थे।
रिजवी साहब की प्रतिभा को देखते हुए इन्होंने प्यारे लाल आवारा जी को कहा था ये लङका तो " .... ना ए तराश है।" अर्थात यह तो एक ऐसा हीरा है जिसे तराशा नहीं गया।
और इस हीरे ने इस कथन को सत्य भी साबित कर दिया। आप स्वयं देखिए जो शख्स इब्ने सफी से लेकर सुरेन्द्र मोहन पाठक, वेदप्रकाश शर्मा से होते हुए कंवल शर्मा, सबा खान और नये लेखक अनुराग कुमार जीनियस के समय में भी उतनी ही ऊर्जा से कार्यरत है। वहीं रिजवी साहब के जमाने के असंख्य लेखक आज गुमनामी के अंधेर में खो गये। खैर.......
सन् 1963-64 के समय में रिजवी जी को जासूसी दुनिया के कार्यालय से 60 रुपये प्रतिमाह वेतन मिलता था।
स्नातक स्तरीय शिक्षा इन्होंने गोरखपुर के .....काॅलेज से पूर्ण की जहां इनका परिचय हिंदी के विद्वान डाॅ. रामकुमार वर्मा पद्मविभूष, जगदीश गुप्त और डाॅ. रघुवंश से हुआ। रिजवी साहब अपने समय के युनिवर्सिटी में एक मात्र मुस्लिम युवक थे जो हिंदी के छात्र थे।
इस विषय पर उन्होंने बङी ही शांति से कहा, -" मुझे आत्मसंतोष है की मुझे साहित्य जगत का सानिध्य मिला।"
यही सानिध्य आबिद रिजवी को बहुप्रतिभा वाला लेखक बनाता है।
इन्होंने युवावस्था में ही चार उपन्यास लिखे।
अजजाही-अनजानी राह, धुंधला चेहरा-धुंधला रूप, अतीत की परछाईयां, सरिता।
- "आप के ये उपन्यास आज कहां से उपलब्ध हो सकते हैं।"- मैंने पूछा।
-रिजवी जी ने उत्तर दिया,-" मैं राही की तरह चलता रहा, पीछे का निशान मिटता रहा। अब आप इसे शौक, स्वभाव या अक्ल मानिए मैंने कभी अपना लिखा संग्रह करने का उस वक्त सोचा तक भी नहीं। यही मेरी जिंदगी का पहलू है। खैर.....।"
उस दौर के लेखक इतने डिग्रधारी नहीं थे लेकिन रिजवी साहब ने उच्चस्तरीय डिग्री भी ली और स्कूल- काॅलेज में पढाया भी, लेकिन साथ-साथ अपने लेखक को जिंदा रखा।
बुंदेलखंड के एक इंटर काॅलेज में 120₹ माहवार पर पढाने लगे और वहाँ के अध्यापकों की प्रेरणा से इन्होंने B.Ed.भी किया। हजारी लाल इंटर काॅलेज ...... से B.ed के पश्चात वहीं पर नौकरी भी लग गयी लेकिन इनके अंदर का लेखक ज्यादा दिन तक एक बंद जिंदगी जैसी नौकरी से खुश न था। काॅलेज के अत्यधिक आग्रह के पश्चात ये ग्रीष्मकालीन छुट्टियों के दौरान काॅलेज से त्यागपत्र दे आये।
सन् 1967 में शादी हो गयी। इन्होंने अपने समय की प्रसिद्ध पत्रिका 'पेरेमेशन और खान वाले सीरीज' के लिए लिखना आरम्भ कर दिया।
"जिंदगी गुजरती रही और मैं लिखता रहा। आज से लगभग 45 वर्ष पूर्व इलाहाबाद से मेरठ आ गया। उस समय मेरठ में तीस से उपर प्रकाशन थे और ये मेरा सौभाग्य है की मैंने लगभग प्रकाशन के लिए लिखा। शायद ही ऐसा कोई विषय हो जिस पर मैंने नहीं लिखा।"