वी. एम. अस्थाना - संक्षिप्त चर्चा
आबिद रिजवी
वी.एम. अस्थाना लेखन के शुरुआती समय से छपने तक 'हैलन' के उपन्यासों के साथ अनुवादकनामरूप से चिपके रहे जैसे इब्ने सफ़ी हिन्दी नॉवलों (जासूसी दुनिया ) के साथ 'प्रेम प्रकाश ' का नाम। 'हैलन' के उपन्यासों के साथ वी.एम.अस्थाना का नाम उसी तरह सोने की अँगूठी मे जड़े नगीने की तरह शोभायमान - मूल्यवान साबित होता रहा जैसे गौरी पॉकेट बुक्स , मेरठ के केशव पण्डित के उपन्यासों के साथ 'केशव पण्डित'।
मूल लेखक (राकेश पाठक, जो केशव पण्डित के नाम से भी लिखते थे) ने हरचन्द (भरसक) कोशिश की कि वे अपने नाम से ख़्याति अर्जित कर सकें , पर सफल न हुए। वी.एम.अस्थाना ने भी अपने नाम से मशहूरियत पाने के इच्छा लेकर नॉवल लिखे। पर कामयाब न हुए।
वी.एम.अस्थाना कानपुर के एक बैंककर्मी थे। सतीश जैन की उसी तरह कि खोज थे जैसे गौरी पॉकेट बुक्स वालों की राकेश पाठक। दोनों को ही उनके प्रकाशकों ने हरेक से गोपनीय रखने की पूरी चेष्टा की। ....पर, इस वाकिया नवीस से सब कुछ खुला रहा, इसकी वजह ये रही कि उक्त दोनों प्रकाशकों ने, उपर्युक्त संदर्भित दोनों लेखकों के शुरुआती नॉवल छापने से पहले मुझसे पढ़वाने और सुधरवाने में 'हरि इच्छा' मानी। गौरी पॉकेट बुक्स वाले अंतिम समय तक इस बात को प्रकाशकों और लेखकों के बीच कई बार खुले तौर पर कहा -- "आबिद रिज़वी ने केशव पण्डित का पहला उपन्यास को सुधारने का इतना अमॉउण्ट वसूला कि जितना मैंने उसके लिखने वाले को पारश्रमिक रूप में भी न दिया था।" अब पता नहीं ये कथन लेखक की डिवैल्यूएशन के लिए था या मेरी वैल्यूएशन केे लिए। वैसे मेरा आंकलन पहले वाले विचार पर ही है।
@आबिद रिजवी के स्मृति कोष से
आबिद रिजवी
वी.एम. अस्थाना लेखन के शुरुआती समय से छपने तक 'हैलन' के उपन्यासों के साथ अनुवादकनामरूप से चिपके रहे जैसे इब्ने सफ़ी हिन्दी नॉवलों (जासूसी दुनिया ) के साथ 'प्रेम प्रकाश ' का नाम। 'हैलन' के उपन्यासों के साथ वी.एम.अस्थाना का नाम उसी तरह सोने की अँगूठी मे जड़े नगीने की तरह शोभायमान - मूल्यवान साबित होता रहा जैसे गौरी पॉकेट बुक्स , मेरठ के केशव पण्डित के उपन्यासों के साथ 'केशव पण्डित'।
मूल लेखक (राकेश पाठक, जो केशव पण्डित के नाम से भी लिखते थे) ने हरचन्द (भरसक) कोशिश की कि वे अपने नाम से ख़्याति अर्जित कर सकें , पर सफल न हुए। वी.एम.अस्थाना ने भी अपने नाम से मशहूरियत पाने के इच्छा लेकर नॉवल लिखे। पर कामयाब न हुए।
वी.एम.अस्थाना कानपुर के एक बैंककर्मी थे। सतीश जैन की उसी तरह कि खोज थे जैसे गौरी पॉकेट बुक्स वालों की राकेश पाठक। दोनों को ही उनके प्रकाशकों ने हरेक से गोपनीय रखने की पूरी चेष्टा की। ....पर, इस वाकिया नवीस से सब कुछ खुला रहा, इसकी वजह ये रही कि उक्त दोनों प्रकाशकों ने, उपर्युक्त संदर्भित दोनों लेखकों के शुरुआती नॉवल छापने से पहले मुझसे पढ़वाने और सुधरवाने में 'हरि इच्छा' मानी। गौरी पॉकेट बुक्स वाले अंतिम समय तक इस बात को प्रकाशकों और लेखकों के बीच कई बार खुले तौर पर कहा -- "आबिद रिज़वी ने केशव पण्डित का पहला उपन्यास को सुधारने का इतना अमॉउण्ट वसूला कि जितना मैंने उसके लिखने वाले को पारश्रमिक रूप में भी न दिया था।" अब पता नहीं ये कथन लेखक की डिवैल्यूएशन के लिए था या मेरी वैल्यूएशन केे लिए। वैसे मेरा आंकलन पहले वाले विचार पर ही है।
@आबिद रिजवी के स्मृति कोष से
महत्वपूर्ण तथ्य
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