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बुधवार, 28 सितंबर 2022

यादें वेदप्रकाश शर्मा जी -24

 यादें वेद प्रकाश शर्मा जी  की - 24
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'यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की'  संस्मरण के रचयिता योगेश मित्तल जी इस अंक में बता रहे हैं वेद जी से जुड़े रोचक पल।
 वेद ने कहा और मैं लग गया धन्धे पे। कीबोर्ड पर अब मेरी अंगुलियाँ पहले से फास्ट चलने लगी थीं। अंग्रेजी के कीबोर्ड के किस-किस अल्फाबेट से हिन्दी के स्वर और व्यंजन के कौन-कौन से अक्षर आते हैंसारा विवरण मेरी मेमोरी में ऐसे फिक्स हो गया था कि टाइपिंग करते हुए अंगुलियों को सेकेण्ड मात्र ही लगता थालेकिन एक समस्या थीवह यह कि मैंने बाकायदा टाइपिंग नहीं सीखी थीइसलिये दोनों हाथों की अंगुलियों से टाइपिंग नहीं करता थादायें हाथ की तर्जनी ही मेरी टाइपिंग का एकमात्र औजार थी और यह स्थिति आज भी बरकरार है और अब बाकायदा टाइपिंग सीखने और दोनों हाथों की सारी अंगुलियाँ चलाने की आवश्यकता महसूस ही नहीं होती। 
यह मैंने इसलिये लिखा हैक्योंकि जो मित्र टाइपिंग नहीं जानतेलेकिन कम्प्यूटर पर काम करना चाहते हैंवे मन में किसी प्रकार की निराशा नहीं रखेंएक अंगुली से भी टाइपिंग का भरपूर मज़ा लिया जा सकता है। इसका मतलब यह नहीं कि कम्प्यूटर पर काम करते हुए मैंने दोनों हाथों की अंगुलियों का प्रयोग कभी नहीं किया। 
किया है - तब कम्प्यूटर में आलरेडी लोडेड गेम्स में एक गेम होता था - पिनबॉल। पिनबॉल खेलते हुए मुझे हमेशा दोनों हाथों की अंगुलियों से काम लेना पड़ता था और गेम समझने के बाद मेरी अंगुलियाँ पिनबॉल के अनुरूप चलने की अभ्यस्त हो गयी थीं। 
                      इसी के साथ यह भी बता दूँ कि कम्प्यूटर लेने के आरम्भिक कुछ वर्षों तक मैं भी बच्चों की तरह कम्प्यूटर पर गेम खेला करता थालेकिन अधिकांशतः ताश के गेम या पिनबॉललेकिन मेरी इकलौती बेटी मेघना जब कम्प्यूटर पर गेम खेलने लगी तो कम्प्यूटर की इतनी एक्सपर्ट हो गई कि अपने हमउम्र बच्चों से तो क्या अपने बाप से भी मीलों आगे निकल गई। 
बच्चों की यह सुपीरियटी मैं आज के बच्चों में भी देख रहा हूँ तो कभी-कभी बहुत अच्छा भी लगता है। 
आजकल मैं तीन-तीन साल के बच्चों को मोबाइल पर गेम खेलते और सेल्फी खींचते देख चुका हूँ। 
खास बात यह है कि मैंजोकि वर्षों पहले स्पीडएपार्चर वाले प्रोफेशनल कैमरों से फोटोग्राफी कर चुका हूँमोबाइल से सेल्फी खींचने में एकदम निकम्मा हूँ।
                          खैरअगले तीन दिन बड़े मज़े से टाइपिंग चलती रही। वेद प्रकाश शर्मा के लिये आरम्भ किया गया उपन्यास आगे बढ़ता रहा। चौथे दिन जब मैं बल्लू की दुकान पर पान खाने गयाअचानक देवदत्त गोयल उधर से गुजरता दिखाई दिया। हम दोनों की नज़रें मिलीं तो नमस्ते-जयराम जी की हुई। 
नमस्ते-जयराम जी की के बाद मैं पान के लिए बल्लू की ओर मुड़ा ही था कि अचानक देवदत्त गोयल ने कहा -"सरजीआप अपना सिस्टम फास्ट करने के लिए कह रहे थे न...?”
हाँअभी तो स्टार्ट होने में ही काफी टाइम लगता है।”- मैंने कहा। 
मेरे पास एक बढ़िया मदरबोर्ड आया हुआ है..। आप बोलो तो बदलवा देता हूँ..। फर्स्ट क्लास टनाटन सैट हो जायेगा।” - देवदत्त गोयल ने कहा। 
खर्चा कितना आयेगा...?”-  मैंने पूछा।
आपसे ज्यादा नहीं लेंगे..। बसडिफरेंस का डेढ़ सौ रुपये दे दीजियेगा..।” - देवदत्त गोयल ने कहा। 
सिर्फ डेढ सौ ही नमेरा मतलब एक सौ पचास रुपये...।” - मैं बुदबुदाया। सिर्फ डेढ सौ रूपये खर्च करके कम्प्यूटर फास्ट किया जा सकता हैयह जान मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा थाकिन्तु मैंने अपने मनोभाव छिपाये रखने की भरपूर चेष्टा की। 
हाँआपको केवल डेढ़ सौ रुपये देना होगा और आपका मदरबोर्ड हमारा हो जायेगा।”-  देवदत्त गोयल ने कहा। 
तो ठीक है। बदलवा दो।” - मैंने कहा। 
ठीक हैथोड़ी देर बाद मैं मनोज को आपके घर भेजूंगा..। आप उसे सीपीयू उठवा देना। आधे घंटे में हम मदरबोर्ड बदलकर सीपीयू आपके पास पहुँचा देंगे।”-  देवदत्त गोयल ने कहा। 
पान चबाने के बाद मैं फटाफट घर पहुँच गया और मनोज का इन्तजार करने लगा। 
               थोड़ी ही देर में मनोज आ गया और सीपीयू मेरे यहाँ से ले गयालेकिन सीपीयू वापस लेकर जब वह आधे घंटे तक नहीं लौटा तो मुझे बेचैनी होने लगी। मैं अपने ही घर में बेचैनी से चहलकदमी करने लगा।
                  लगभग एक घंटे बाद मनोज सीपीयू लेकर वापस लौटा और कनेक्शन जोड़कर उसने मानीटर ऑन किया और मानीटर स्क्रीन पर रोशनी चमकने के साथ पहले की अपेक्षा काफी तेजी से डेस्कटॉप आइकॉन आ गये। 
कहिये मित्तल जीआपका सिस्टम पहले से फास्ट हुआ कि नहीं..?”
मनोज ने उस दिन पहली बार मुझे 'सरजीकी जगह 'मित्तल जीकहा था और तब से अब तक मैं मनोज के लिये 'मित्तल जीही हूँ।
                सचमुच सिस्टम बहुत फास्ट हो गया थाजहाँ पहले मानीटर पर लाइट चमकने में कुछ मिनट लगते थे। आइकॉन आने में भी वक़्त लगता थामदरबोर्ड बदलने के बाद कम समय लगने लगा थापर अब भी ऐसा नहीं था कि कम्प्यूटर स्टार्ट करते ही मानीटर पर तुरन्त लाइट चमक जाती थी और आइकॉन आ जाते थे। रामगोपाल के यहाँ के कम्प्यूटर अब भी मेरे सिस्टम से ज्यादा फास्ट थेपर फिर भी मैं सन्तुष्ट हो गया। 
           अगले तीन चार दिन मैंने ड्रीमलैण्ड पब्लिकेशन के लिये श्रीगणेश महापुराण के पेज लिखेबल्कि यूँ कहिये कि टाइप कियेफिर सारा मैटर फ्लॉपी में कापी करके कीर्तिनगर इण्डस्ट्रियल एरिया स्थित ड्रीमलैण्ड पब्लिकेशन के आफिस पहुँचा। 
ड्रीमलैण्ड पब्लिकेशन के श्री वेद प्रकाश चावला बड़े ही मिलनसार व्यक्ति हैं। उनसे आप जब जब मिलेंगेप्रसन्नता ही होगी। कम से कम उनके साथ बिताये प्रत्येक क्षण का मेरा अनुभव बहुत ही बढ़िया रहा है। कभी उन पर भी लिखूँगा तो आप को उनके बारे में बहुत कुछ जानने को मिलेगा। 
           उस दिन भी औपचारिक वार्ता के बाद उन्होंने अपने बहुत से कम्प्यूटर सिस्टम्स पर काम करने वाले बहुत से लोगों में से एक को बुला कर फ्लॉपी उसके हवाले की और सारा मैटर श्रीगणेश महापुराण की फाइल में कापी करने के लिए कहा। 
उस शख्स ने मैटर कापी करने के बाद फ्लॉपी वापस मुझे लाकर दे दी और चाय आदि के दौर के बादमैं वापस लौट गया। 
उसके बाद मैंने उस दिन रात को वेद प्रकाश शर्मा के लिए लिखे जा रहे उपन्यास का मैटर कम्प्यूटर पर लिखता रहामतलब टाइप करता रहा। 
            वेद का उपन्यास लगभग समाप्ति की ओर था। चूंकि मैं टाइपिंग पेजमेकर मेंपॉकेट बुक्स साइज का तैंतीस लाइनों के हिसाब सेपेज सेट करके पुस्तक तैयार कर रहा थाइसलिए मैटर का अंदाज़ कतई भी गलत लगने की कोई संभावना नहीं थी।    
                 दो दिन बाद मैंने जब एक चैप्टर क्लोज किया तो देखा एक सौ अट्ठावन पेज हो रहे थे। अर्थात दस फ़ार्म में दो पेज कम। मुझे उपन्यास बारह फ़ार्म अर्थात एक सौ बानवे पेज में कम्प्लीट करना था। 
                   बहुत ज्यादा काम नहीं रह गया था। मैंने सोचा - मैटर फ्लॉपी में कॉपी करके रामगोपाल के यहाँ से इनके प्रिंटआउट निकलवा लूँ। कल मेरठ चक्कर लगाकर वेद भाई को आगे का मैटर भी पढ़ने के लिए दे आऊँगा। उन्हें तसल्ली भी होगी कि अब कुछ दिन में उपन्यास उनकी टेबल पर होगा। 
फिर सोचा - 'अभी कॉपी क्या करना...प्रिंटआउट कल निकलवा लूँगाउसी समय कॉपी कर लूँगाकॉपी करने में कौन सा अधिक समय लगना है। आज एक चक्कर पटेलनगर लगा लूँ। उन दिनों खेल-खिलाड़ी छाप रहे सरदार मनोहर सिंह की आर्थिक स्थिति काफी खस्ता थी। पत्रिका का प्रकाशन बंद ही था। सोचा - सरदार मनोहर सिंह का हाल भी पता चल जाएगा और राजभारती जी से भी मिल लूँगा।
कम्प्यूटर बन्द करके बाहर निकला ही था कि सामने एक शख्स दिखाई दिया। 
भाईसाहब यहाँ कहाँ...?”-  उसने पूछा। वह किसी युवा दम्पत्ति के साथ था। 
घर है मेरा...?” मैंने अपने घर के विशाल लोहे के गेट की तरफ इशारा करते हुए कहा। उन दिनों नंदराम पार्कबी ब्लॉक उत्तमनगर की उस गली में हमारा घर ही सबसे ज्यादा ऊँचाई पर था और हमारे घर का बाहरी लोहे का गेटबाकी सबके घरों के मुख्य गेट से बड़ा और ऊँचा था। 
अच्छा।” उसने 'अच्छाका 'छाकुछ लम्बा खींचते हुए कहा। फिर एकदम तेज़ी से बोला -”कमरा-वमरा खाली है कोई आपके यहाँ...?”
नहीं सॉरी।” मैंने कहा। 
ओहो।” उसने साथ चल रहे युवा दम्पत्ति में युवक की ओर संकेत किया -”ये जीवन बत्रा हैं।” और फिर युवती की ओर संकेत करते हुए बोला -”ये मिसेज बत्रा इन्हें एक कमरा चाहिये।”
हमारे यहाँ तो नहीं है।” - मैंने कन्धे उचकाते हुए विनम्र भाव से कहा। 
नहींवो तो कोई बात नहींइन्हें कमरा तो मैंने दिखा दिया है एक। लेकिन थोड़ा छोटा हैपसन्द नहीं आया। अभी इधर और कोई नहीं है। अब और पता करेंगे। आप कहाँ जा रहे हो?” आख़िरी वाक्य में वह सीधे-सीधे मुझसे ही सम्बोधित था। 
बसपटेलनगर तक जा रहा हूँ।” 
पटेलनगर बाद में जानाज़रा साथ चलो ना।” - उसने कहा।
कोई काम...?”-  मैंने पूछा। 
हाँचलो तो सही।”-  वह बोला।    
वह महेश जिंदल (परिवर्तित नाम) था। प्रॉपर्टी डीलर। बिंदापुर रोड पर नंदराम पार्क में एक मोड़ पर उसकी टू साइड ओपन दुकान थीजिसे ऑफिस भी कहा जा सकता था। उसमें पीछे की दीवार से सटी एक हत्थीदार लकड़ी की कुर्सी थीजिसके आगे एक बड़ी टेबल थी और टेबल के बाहरी तरफ चार फोल्डिंग कुर्सियाँ बिछी रहती थींजिन पर आम तौर पर हर समय कोई न कोई खाली और निठल्ला बैठा ही रहता था। एक दो फोल्डिंग कुर्सियाँ फोल्डेड पोजीशन में साथ की  दीवार के सहारे टिकी रहती थींउन्हें तभी खोला जाता थाजब कोई अयाचित आगमन हो जाता और सारी कुर्सियाँ पहले से भरी हुई हों।
                   महेश जिन्दल के ऑफिस में बॉस की कुर्सी पर उसका छोटा भाई सुरेश जिन्दल बैठा था। बिछी हुई चारों कुर्सियों में से तीन पर बेढंगी शक्लों वाले तीन नमूने बैठे थेजिनमें से एक परकाफी मोटा और बेडौल अधेड़ व्यक्ति बैठा थाजिसका पेट भी कुर्सी से आठ इंच आगे तक निकला हुआ थादूसरी कुर्सी पर एक छहफुटिया सींकसलाई सा हड्डियों के ढाँचे जैसा नौजवान थाजिसकी दाढ़ी जन्नतनशीं अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की याद दिला रही थी। तीसरी कुर्सी पर गोल चेहरे वाले गंजे और चश्माधारी बुजुर्ग बैठे थेलेकिन चौथी कुर्सी पर जो शख्सियत थीउसे देखकर मुझे अचम्भा हुआ। 
वह संतोष (परिवर्तित नाम) थी। छोटे कद और भारी-भरकम शरीर की लगभग पैंतीस वर्षीय गोरी-चिट्टी महिलाजिसके किस्से उत्तमनगर के नंदराम पार्क क्षेत्र में काफी विख्यात या कुख्यात थे। मैं उससे अलग-अलग मौकों पर अलग़-अलग लोगों के साथ अनेक बार मिल चुका था और सच कहूँ तो मैं उससे बहुत ही घबराता था। बड़ी ही दिलफेंक महिला थी। किसी अजनबी से भी मिलती थी तो दस मिनट में उसे अपना बना लेती थी। शायद उसकी अब तक की ज़िंदगी में मैं ही एक अपवाद रहा होऊंगालेकिन उसके भी कई कारण थेवरना उसकी खूबसूरती और अदाओं में ऐसी कोई कमी न थीजो किसी भी पुरुष को अपना न बना ले। 
मुझे देख वह जोर से चिल्लाई -"इधर आ जाओ लेखक बाबू।” और उसने अपनी एक जाँघ पर हाथ मारा। मैंने तत्काल मुँह घुमामहेश जिन्दल की ओर कर लिया और पूछा -"किधर चलना है...काम क्या है...?” 
एक मिनट।” संतोष को देख महेश जिन्दल बहक गया और अपने साथ चल रहे युवा दम्पत्ति को भी क्षणेक के लिए भूल गया और चहक कर बोला -"अहा..। संतोष भाभी भी आई बैठी है। जल्दी तो ना है न भाभी। मैं अभी आया - जाइयो ना कहीं।”     
ठीक है। इन लेखक बाबू को साथ लेकर आनाइनसे तो मैंने अपनी कहानी लिखवानी है।” - संतोष अपनी खनकदार आवाज़ में चिल्लाकर बोली। 
मैं मुँह घुमाये खड़ा रहा। संतोष के बारे मेंमैं बहुत कुछ जानता था और जितना जानता थाएक लम्बी कहानी या लघु उपन्यास के लिए बहुत थालेकिन वह अक्सर मेरे पीछे पडी रहती थी कि मैं उसके घर आऊँ और उसकी कहानी सुनूँ और उसकी कहानी पर एक अच्छा सा उपन्यास लिखूँ। एक बार मैं उसकी बातों और सौंदर्य के प्रभाव में उसके साथ उसके घर चला भी गया थालेकिन वहाँ उसने जो नज़ारे दिखाए मैं भाग खड़ा हुआ। फिर भी उस दिन के काफी समय बाद एक बार फिर मैं उसके घर गया था और उसकी बरबादी की पूरी कहानीउसी की ज़ुबानी सुनी थी। तब वह बहुत बीमार थीलगभग मरणासन्न।  तब उसने मुझसे एक बड़ी गहरी बात कही थी। उसने कहा था -"लेखक बाबू । प्यार तो किसी को भी किसी से हो सकता हैलेकिन प्यार शरीर से नहीं होता है। प्यार तो शरीर के अन्दर जो इन्सान होता हैउससे होता है। एक आत्मा को दूसरी आत्मा से होता हैउसमें शरीर का कोई महत्त्व नहीं होता।” आगे भी बहुत कुछ कहा था उसनेलेकिन वो किस्सा फिर कभी। संतोष का किस्सा बड़ा लम्बा किस्सा है। वह मुझे हमेशा 'लेखक बाबू' ही कहती थी। सच कहूँ तो बहुत ही मासूममगर बदकिस्मत शख्सियत थी वह। यदि मुझे पढ़ने वालों ने चाहा तो कभी वह भी लिखूँगा। इस समय इतना जरूर बताऊँगा कि संतोष दो बेहद खूबसूरत बेटों की माँ थीलेकिन कुछ उसके अतीत के चलतेकुछ उसकी अपनी आदतों की वजह से धक्के मारकर ससुराल से भगा दी गयी थी।
आओ लेखक बाबू।” महेश जिन्दल भी संतोष के से अंदाज़ में मुझे 'लेखक बाबूसम्बोधित करआगे बढ़ता हुआ बोला। बत्रा दम्पत्ति भी उसके साथ आगे बढे और अनमना सा मैं भी। 
यारकाम क्या है...किधर ले जा रहे हो...?” आगे बढ़ते-बढ़ते कुछ खीझते हुए मैं बोला तो महेश जिन्दल तुरन्त बोला -"याररामगोपाल से आपकी तो अच्छी छनती है।”
हाँ तो...।”-  मैं एकदम चौकन्ना हो गया। । 
चलो यारदो मिनट।”
रामगोपाल का घरवहाँ से तीसरा ही था। 
मैं महेश जिन्दल को साथ लिए रामगोपाल के कम्प्यूटर कैफे में पहुँचा।
                   रामगोपाल कैफे में मौजूद था। वह एक कुर्सी पर बैठाआगे रखी छोटी सी टेबल पर पिन अप किये कागज़ों पर नज़र दौड़ा रहा था। उसके तीनों कम्प्यूटर पर तीन लड़कियाँ बबिताआशा और कुसुम बैठी हुई थीं। बबिता और कुसुम मुझसे काफी घुली-मिली थीं। आशा थोड़ी शर्मीली थी। वह कम बोलती थीलेकिन मुझे देखते ही तीनों लगभग एक साथ ही बोलीं -"अंकल जीनमस्ते।”
            इससे पहले कि मैं उनकी नमस्ते का ठीक-ठाक जवाब दे पातारामगोपाल भी बोल पड़ा -"गज़ब है मित्तल साहबबड़ी लम्बी उम्र है आपकी। कसम से मैं आपको ही याद कर रहा थाबल्कि आपके यहाँ आने ही वाला था।”
अच्छा।” मैंने कहा -"हम आपस की बातें फिर कर लेंगेपहले इनसे मिलोमहेश जिन्दल प्रॉपर्टी डीलर हैं।” कहते हुए मैंने महेश जिन्दल की ओर इशारा किया -"इन्हें आपसे कोई काम है।”
इन्हें तो मैं जानूँ हूँ।” रामगोपाल ने कहा -”नुक्कड़ पे ही प्रॉपर्टी डीलर की दुकान है।”
दुकान नहींऑफिस।” - महेश जिन्दल ने संशोधन किया। 
अरे ख़ाक ऑफिस...।” रामगोपाल ने मुँह चिढ़ाया -"चार-छह कुर्सियाँ डाल लींएक टेबल डाल ली। ऑफिस हो गया। ऑफिस तो तब होवै हैजब पानी पिलाने को एक पियून होवै और अन्दर घुसते ही बात करने के लिए एक बहुत सुन्दर सीये जो हमारी बबिता बैठी है - कम से कम इतनी सुन्दर तो रिशेप्सनिस्ट होजो हमारी बरबाद सी शक्ल देखते ही पूछे - हाँ जीक्या काम है...?” 
रामगोपाल की बात पर अलग-अलग सिस्टम्स पर बैठीं तीनों लड़कियाँ हंसीं। महेश जिन्दल और मेरे चेहरे पर भी मुस्कान उभर आई। तभी रामगोपाल ने पूछ लिया महेश जिन्दल से -"मेरे से कोई काम है आपको...?”
हाँआपके यहां कोई कमरा खाली है...?” -महेश जिन्दल ने पूछा -"दरअसल मियाँ-बीवी हैंबस कुछ महीनों के लिए चाहिए।”
ना जीअभी तो नहीं है। हाँ एक कमरा ऊपर डलवाने की सोच रहा हूँपर वो भी किसी को देने के लिए नहीं। ये जो लड़कियाँ काम करती हैं। कभी इन्हें भी आराम करना हो तो अलग से कमरे में थोड़ा प्राइवेसी के साथ आराम कर सकै हैं।”। 
आपकी पहचान के किसी के यहाँ खाली हो...?” - महेश जिन्दल ने पूछा। 
हाँकई हैंपर फिफ्टी परसेंट मेरी कमीशन होनी चाहिए।”- रामगोपाल ने कहा। 
अरे पक्काबिना कहे आपकी टेबल पर पहुँचेगी।”- महेश जिन्दल ने कहा। 
         रामगोपाल ने महेश जिन्दल को पांच-छह मकानों में खाली कमरों के बारे में बताया। जानकर महेश जिन्दल वहाँ से चला गया। मैं वहीं रह गया और मैंने रामगोपाल से पूछा -"हाँबताओ। आप मेरे यहाँ क्यों आने वाले थे...?”       
        रामगोपाल ने अपने सामंने टेबल पर पड़े प्रूफ दिखाते हुए अपनी कुर्सी खाली कर दी -"आप यहाँ बैठो मित्तल साहब। और ये प्रूफ फ़टाफ़ट पढ़ दो। मेरे पढ़ने में तो जरूर बहुत सारी गलतियाँ रह जायेंगी।”
वैसे आप मेरे घर आ जाते तो ज्यादा अच्छा रहता।”-  मैंने कुर्सी पर बैठते हुए कहा -"मैं भी प्रिंटआउट निकलवाने के लिएआपके यहाँ आने वाला थालेकिन अचानक मूड बदल गया। आप आ जाते तो फ्लॉपी आपको से देताप्रिंट निकल जाते।”
तो अब चलोले आओ फ्लॉपी...।”
नहीं यारअब मैं पटेलनगर जाने के  लिए निकला था। ये रास्ते में महेश जिन्दल मिल गए और ये इधर ले आये।”
चलो अच्छा हुआ। मेरा काम होना था। आप भी ले आओ फ्लॉपी। प्रिंट निकलने में कौन-सा ज्यादा टाइम लगना है।”
नहीं यारअब कल निकलवा लूंगा।”-  मैंने कहा। 
सोच लो मित्तल साहब...?” - रामगोपाल ने कहा। वह मुझे हमेशा ‘मित्तल साहब’ ही कहता था। एक क्षण चुप रहकर वह फिर बोला -"ज्ञानी लोग कह गए हैं - आज का काम कल पर नहीं टालना चाहिए। वो चुटकुला नहीं सुना आपने - काल करै सो आज करआज करै सो अबपल में परलय आएगीबहुरि करोगे कब ?”
चुटकुला नहींदोहा...।”- मैंने रामगोपाल के कहे में संशोधन करते हुएहँसी दिल्लगी के लहज़े में कहा -"और भाईमौसम की भविष्यवाणी में किसी भूकम्प या प्रलय का जिक्र नहीं हैकोई प्रलय नहीं आनी है और ज्ञानी लोग यह भी कह गए हैं कि योगेश मित्तल जो करता हैसही करता है।” 
तब पता नहीं था कि मज़ाक में ही सहीमेरे शब्दों में अहंकार का जो पुट आ गया थामुझे सबक सिखाकर जायेगा।
रामगोपाल के यहाँ प्रूफ पढ़ने के  बाद मैं सीधा उत्तमनगर बस टर्मिनल गया। वहाँ से पटेलनगर की बस पकड़ी और वेस्ट पटेलनगर के स्टॉप पर उतरा। वहाँ से राजभारती जी के यहाँ पहुँचने में अधिक देर नहीं लगी। खेल-खिलाड़ी के स्वामी सरदार मनोहर सिंह तो उस समय घर और ऑफिस कहीं भी नहीं थे। हाँराजभारती जी मौजूद थेपर वह उस समय कहीं जाने के लिए तैयार थे। मैंने पूछा तो बोले -"यारजामा मस्जिद जाने की सोच रहा थावहाँ उर्दू का नया माल आ गया होगा। इससे पहले कि खत्म हो जायेएक चक्कर मार लेते हैं। अपने काम का हुआ तो ले लेंगेवरना घूमना हो जायेगापर तूने अच्छा कियाजो आ गयामैं पहले तेरी तरफ ही आने वाला  था।” 
उसके बाद मैं और राजभारती जी जामा मस्जिद की बस पकड़जामा मस्जिद की ओर निकल गये। वहाँ हमें लगभग डेढ़ घंटा लगा। राज भारती जी ने उर्दू की कई किताबें लीं। दो किताबें मैंने भी लीं। उर्दू में छपनेवाली मासिक पत्रिकाओं 'महकता आँचलऔर 'खूबसूरतके दो पुराने अंकों के कम रेट में मिल रहे हिन्दी वर्जन खरीदे। उन पत्रिकाओं में लगभग सभी कहानियाँ मुस्लिम परिवेश की होती थींलेकिन हम जैसे लेखक ऐसी पुस्तकें सिर्फ विषय-टॉपिक-शैली का अध्ययन करने के लियेलिया करते हैं। 
उसके बाद हमें जामा मस्जिद से 838 नम्बर की बस मिल गयीजोकि पटेलनगर होकरउत्तमनगर तक जाती थी। टिकट राज भारती जी ने ही लिये। एक पटेलनगर काएक उत्तमनगर का। 
                  उत्तमनगर से नंदराम पार्क अपने घर के लिये मैं रिक्शा बहुत कम और तभी लेता थाजब तबियत खराब हो। उस दिन भी पैदल ही चला तो वाणी विहार खड़ंजे में बल्लू पनवाड़ी का खोखा खुला मिल गया।  मैं उससे पान लगवा ही रहा था कि देवदत्त गोयल दिखाई दे गया। मुझे देखते हे उसने आवाज़ लगाई -"मित्तल जीज़रा सुनना।”
पान लगवाकर उसके पास पहुँचा तो वह बोला -"एक मदरबोर्ड आया हुआ हैइससे आपका सिस्टम और भी फास्ट हो जायेगा।”
वो तो ठीक हैपर खर्च भी तो पडेगा।”- मैंने कहा। मैं उस समय और खर्च करने के न तो मूड में था और न ही आर्थिक स्थिति उसके अनुकूल थी।
हाँपर आपसे भाईबन्दी में पिछले हिसाब में ही एडजस्ट कर लेंगे।” - देवदत्त गोयल ने कहा। 
मतलब..?”
आप मित्तल होमैं गोयल। गोत्र अलग है। बिरादरी तो एक ही है। इसलिए विदआउट चार्ज बदल दूँगा।”-  देवदत्त ने कहा।
उस समय मेरा सिस्टम ठीक-ठाक काम कर रहा था। इलेक्ट्रॉनिक आइटम्स के बारे में कहते हैं कि जब ठीक-ठाक काम कर  रही होंज्यादा छेड़छाड़ करने से बचना चाहिएलेकिन न तो मुझे किसी पागल कुत्ते ने काटा थाना ही मेरा दिमाग ख़राब हुआ थापर कहावत है न - विनाशकाले विपरीत बुद्धि। मैं सारी समझदारी भूल गया। देवदत्त गोयल ने कहा -'आप मित्तल होमैं गोयल। गोत्र अलग है। बिरादरी तो एक ही है। इसलिए विदआउट चार्ज बदल दूँगा।तो मैं फटाक से बोल उठा -"ठीक हैबदल दो।”
ठीक हैफिर मैं सुबह मनोज को भेजता हूँ।”
सुबह क्यों अभी भेज दो।” मैंने कहा। और मेरा यह कहना उसी तरह था कि सामने बैल सींग उठाये मारने को खड़ा हो और बहादुरों के पड़दादा मित्तल साहब सीना तानकर उसके सामने खड़े हों कि आ बैल मुझे मार। जी  हाँकुछ ऐसा ही हुआ था बाद में। मेरी बात सुन देवदत्त गोयल ने कहा -”ठीक हैमैं मनोज को भेजता हूँ।”
मेरे घर पहुँचने के पंद्रह मिनट बाद ही मनोज मेरे घर पहुँच गया। मुझसे पूछा -”मित्तलजीमदरबोर्ड फिर चेंज करवा रहे हो ?”
हाँ।” मैंने कहा। 
क्यों करवा रहे हो अच्छा भला तो चल रहा है आपका सिस्टम। कोई प्रॉब्लम हो तब करवा लेना।”-  मनोज ने कहा। 
कर दे यार। देवदत्त फ्री में चेंज कर रहा है तो क्या बुराई है सिस्टम कुछ और बढ़िया हो जाएगा।”
ऐसी गारन्टी है क्या ?”-  मनोज ने पूछा। 
जब देवदत्त ने कहा है तो चेंजेज के बाद कुछ तो फर्क पडेगा।” मैंने कहा। 
ठीक हैफिर बदल देता हूँ।”-  मनोज ने कहा और पुराना मदर बोर्ड निकालनया मदरबोर्ड लगा करसिस्टम स्टार्ट किया। जरूरी सॉफ्टवेयर डाले। फॉण्ट लोड किये। फिर सिस्टम रीस्टार्ट करके चल दिया। मनोज के काम करते  समय मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया थालेकिन इस बार सिस्टम स्टार्ट हुआ तो मेरा माथा ठनकाक्योंकि सिस्टम ने स्टार्ट होने में पहले से ज्यादा समय लिया था। मतलब साफ़ था कि नया मदरबोर्ड पुराने से कमजोर था। 
                     मेरा मूड खराब हो गयालेकिन मनोज जा चुका था। वो मोबाइल फोन का ज़माना नहीं था कि हर हाथ में मोबाइल होता होकिसी को आवाज़ देनी हो तो एक रिंग मार दी। जामा मस्जिद घूम फिर कर आया था। एकदम शिकायत के लिए मनोज या देवदत्त गोयल तक दौडने का मूड नहीं हुआ। सोचा -'थोड़ा काम करके देखते हैं। हो सकता है - दूसरी बार स्टार्ट करने पर सिस्टम पहले से जल्दी ऑन हो जाये।' आपलोग मेरे इस विचार पर हँसना मत दोस्तों...। उस समय कम्प्यूटर एक नई चीज़ थी। आज की तरह घर-घर की वस्तु नहीं थी। 
                      सिस्टम स्टार्ट करके मैं पेजमेकर में अपनी फाइलें ढूँढने लगालेकिन कोई भी फाइल कहीं नहीं मिली। एक बार ढूँढ। दो बार ढूँढा। बार-बार ढूँढालेकिन न तो वेद के लिये लिखे जा रहे उपन्यास की फाइल कहीं मिलीना ही श्रीगणेश महापुराण की। मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम।
काफी देर तक अपनी फाइलें ढूँढने में दिमाग खराब करने के बाद मैं सिस्टम ऑफ करके देवदत्त के यहाँ दौड़ा। देवदत्त अपने घर पर मिल गया। मैंने उसे देखते ही नाराज़गी ज़ाहिर की -"ये कैसा मदरबोर्ड लगाया हैमेरा सारा डाटासारी फाइलें गायब हैं।”  
क्यों डाटा कॉपी नहीं किया था आपने ?”- देवदत्त ने कहा। 
मुझे क्यों कॉपी करना था।” मैं चिल्लाया -"पहले भी तो आपने मदरबोर्ड बदला था। तब तो सारा डाटा ज्यों का त्यों मिल गया था। तब तो कुछ गायब नहीं था।”
आहिस्ता सरजीआहिस्ता।”- देवदत्त कुछ सख्ती से बोला -"ये मेरा घर भी हैकोई मछली बाज़ार नहीं है।”
देवदत्त गोयल की टोन देखमेरा जोश ठण्डा पड़ गया। धीरे से बोला -"यारमेरा सारा डाटा गायब है।”
तो आपको पहले सारा सकता फ्लॉपी में कॉपी करके रखना थाफिर मदरबोर्ड चेंज कराना था।” -देवदत्त गोयल ने बर्फ से ठण्डे स्वर में कहा। 
मुझे क्या पता डाटा कॉपी करना होता है। पहले भी तो आपने मदरबोर्ड चेंज किया थायब भी मैंने डाटा कॉपी नहीं किया थालेकिन सारा डाटा सिस्टम में था।”
सरजीपहले हम आपका सिस्टम अपने ऑफिस में लाये थेतब पहले हमने आपका डाटा एक फ्लॉपी में कॉपी करने के बाद मदरबोर्ड चेंज किया थालेकिन इस बार तो मनोज ने आपके यहाँ जाकरआपके यहाँ मदरबोर्ड चेंज किया है तो डाटा कॉपी करने की ज़िम्मेदारी तो आपकी ही बनती है।” देवदत्त ने मुझे डाँट पिलाई।
मैं रुआँसा हो गया। सच तो यह है कि आँसू मेरी पलकों पर आ गए थेबसटपकने से रह गये थे। मैं लगभग गिड़गिड़ाने वाले भाव में बोला -”और यारये जो तुमने मदरबोर्ड लगवाया हैइसके बाद तो सिस्टम पहले जैसा स्लो हो गया है। तुम ऐसा करोमेरे सिस्टम में वो ही पहले वाला मदरबोर्ड लगा दो। शायद मेरा डाटा वापस लौट आये।”
 
देवदत्त गोयल हंसने लगा -"ऐसा नहीं होता। फिर भी हम आपका डाटा हार्ड डिस्क से रिकवर करने की कोशिश करेंगे। पर वो मदरबोर्ड अब आपके सिस्टम में नहीं लग सकतावो मैंने किसी और के सिस्टम में लगा दिया है।”
इतनी जल्दी...?”- मैं चौंका। 
हाँकिसी और का सिस्टम भी आया हुआ था - मदरबोर्ड बदलने के लिए। आपका निकाल करउसमें लगा दिया। आपके में बढ़िया वाला लगा करआपका मदरबोर्ड दूसरे के सिस्टम में लगा दिया।”
मेरे सिस्टम में आपने बढ़िया वाला लगाया है या घटिया वाला?” मैं अपना गुस्सा दबाते हुए शांत रहकर बोला -"मेरा सिस्टम मदरबोर्ड बदलने से पहले अच्छा चल रहा था। आपको कहीं और अच्छा मदरबोर्ड लगाना थाइसलिये मेरा अच्छा वाला निकाल दूसरे के सिस्टम में लगा दिया और मेरे में पहले जैसा खराब लगा दिया। अब मेरा सिस्टम फिर से स्लो है और मेरा सारा डाटा गायब है...।” कहना तो मैं यह भी चाहता था कि तभी आपने फ्री में मदरबोर्ड बदल दिया हैलेकिन मैं मुश्किल में थाजरूरत मेरी थीइसलिये चुभती हुई बात कहने से खुद को रोके रखा। 
नहीं-नहींआपका मदरबोर्ड ज्यादा बढ़िया हैपर आपको नहीं पसन्द तो जैसे ही कोई नया मदरबोर्ड आयामैं फिर से फ्री ऑफ़ कास्ट बदल दूंगा।” -देवदत्त गोयल ने कहा। 
खैरवह दिन ही नहीं अगले दो चार दिन बहुत खराब रहे। मनोज सीपीयू मेरे घर से उठा ले गया और अगले चार दिन देवदत्त गोयल और उसकी टीम गायब हुआ डाटा रिकवर करने के लिये जीतोड़ कोशिश करते रहेपर डाटा रिकवर नहीं हुआ। सिस्टम वापस ज्यों का त्यों मेरी टेबल पर आ गया। 
चार दिनों तक मैं अपने घर से देवदत्त गोयल के घर और देवदत्त गोयल के घर से अपने घर तक लगातार कितनी चहलकदमी करता रहाबताना कठिन है। हर बार देवदत्त गोयल के यहाँ पहुँच कर मैं पूछता -"कुछ हुआ...कुछ रिकवर हुआ...?”
देवदत्त गोयल हर बार यही कहता, “अभी कोशिश कर रहे हैं। थोड़ा धैर्य रखिये।” 
तब हार्ड डिस्क से डाटा रिकवर करने के उतने साफ्टवेयर नहीं थेजितने आज हैं। 
हर तरह से निराशा मिलने के बाद मैं पांचवे दिन ड्रीमलैण्ड पब्लिकेशंस के आफिस गया । वहाँ वेद प्रकाश चावला जी ने हमेशा की तरह बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया और पूछा -"आज कितना मैटर लाये हैं?”
आज मैटर लाया नहींलेने आया हूँ...।” -कहते हुए मैंने साथ लाई फ्लापी निकाल कर टेबल पर रख दी। 
क्या मतलब...?” -वेद प्रकाश चावला चौंक से गये। 
मैने बड़े ही उदास लहज़े में सारी आपबीती बता दी और उनसे कहा -"अब मुझे वो एक्युरेट लाइनें भी पता नहींजिससे आगे मुझे लिखना है।”
वेद प्रकाश चावला जी ने मुझे उस दिन हमेशा से कुछ बहुत अच्छा चाय नाश्ता करवाया और समझाया -"जो हुआसो हुआउसे लेकर टेन्शन मत लीजिये और आगे दुगुने जोश से काम पर जुट जाइये।”
मेरी फ्लापी में उन्होंने श्रीगणेश महापुराण का सारा मैटर कापी करवा कर दिया। 
                          अब मुझे मेरठ जाकर वेद प्रकाश शर्मा से मिलना था। उसे बताना था कि उसके लिये लिखे उपन्यास का सारा डाटा मेरे कम्प्यूटर से उड़ गया हैपर समस्या यह थी कि प्रकाशकों की नजरों में उन दिनों अधिकांश लेखक झूठे और बहानेबाज हुआ करते थे। जब भी कोई लेखक  किसी प्रकाशक को समय पर स्क्रिप्ट नहीं दे पाता थातब दस तरह के सच्चे या झूठे 'बहानेया विवरण पेश करता थाजो कि प्रकाशक की नज़रों में सफेद झूठ ही होता था और मुझे लग रहा था कि मैं वेद से जो कुछ भी कहूँगाउसे झूठ ही लगेगाइसलिये मैंने मनोज से रिक्वेस्ट की कि वह मेरे साथ मेरठ चले। 
मनोज तैयार हो गयाजबकि तब तक वह मुझसे इतना घनिष्ठ नहीं हुआ थाजितना आज है। 
मनोज को मैं अपनी सच्चाई के सबूत के रूप में साथ ले गया था। 
हम दोनों मेरठ पहुँचे। 
संयोग से उस दिन वेद आफिस में अकेले ही थे। मुझे देखते ही वेद की आंखों में चमक आ गई -"ले आया उपन्यास?” 
नहीं यार... वो....”
बहाना नहींयोगेश जीकोई बहाना नहीं।” मेरी बात काटते हुए वेद ने दांये बायें सिर हिलाते हुए कहा। 
मैं कोई बहाना बनाने नहीं जा रहा हूँ। यारदो मिनट शान्ति से मेरी बात तो सुन लो।” मैंने कहा। 
पहले इनसे मिलो....।” मैंने अपने साथ बुत से खड़े मनोज की ओर संकेत करते हुए कहा -"ये मनोज गुर्जर जी हैंमेरे कम्प्यूटर इंजीनियर...।”
वेद ने मनोज से हाथ मिलाया और बैठने को कहा -"बैठो यार...।”
मनोज मेरी ओर देखने लगाबैठा  नहींक्योंकि उस समय तक मैं भी खड़ा था। तभी वेद ने मेरी ओर भी हाथ बढ़ाया और हाथ मिलाकर बोला -"बैठ...।”
मैं और मनोज लगभग साथ-साथ ही सामने पड़ी खाली कुर्सियों में से अपने निकट की कुर्सी पर बैठे।
अब बोलउपन्यास नहीं लेकर आने का कौन सा सालिड बहाना है तेरे पास...?”- वेद ने अपनी नज़रें मेरे चेहरे पर गड़ाते हुए पूछा। 
शेष आगामी अंक में
 पाठक मित्रो आदरणीय योगेश मित्तल जी द्वारा लिखित यह संस्मरण पुस्तक रुप में भी उपलब्ध है। जिसमें संशोधन कर अतिरिक्त चर्चाएँ शामिल हैं। नीलम जासूस कार्यालय-दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस रचना को आप संपर्क कर मंगवा सकते हैं।
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