वो आखिरी मुलाकात।
अंतिम अंक, प्रस्तुति- योगेश मित्तल
योगेश मित्तल जी द्वारा लिखित संस्मरण 'यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की' शृंखला का पुस्तक रूप में प्रकाशन किया जा चुका है। इसलिए इस शृंखला को यहीं पूर्ण किया जा रहा है। आप इस शृंखला को योगेश मित्तल जी द्वारा लिखित 'वेदप्रकाश शर्मा- यादें, बातें और अनकहे किस्से' (पृष्ठ-300) नामक रचना में पढ सकते हैं।
यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की -25 अंक उस पुस्तक में से लिया गया।
फिर महीनों बीत गये।
'एक ही नारा - केशव हमारा' भी छपकर, बिक-बिकाकर खत्म हो गई। मैं अपनी लिखी किताबों की राइटर्स कॉपी लेने भी नहीं गया। बाद में जब मेरठ गया, तब शगुन नेकहा- 'अंकल, अभी कॉपी नहीं है। वापसी आयेगी तो मैं आपके एडरेस पर पाँच कॉपी भिजवा दूँगा ।'
'नहीं, कोई जरूरत नहीं है। मैं खुद ही आते-जाते, मिल-मिलाकर ले लूँगा।' मैंने कहा। मुझे अच्छी तरह याद नहीं कि उसके बाद मेरा अगला चक्कर कितने महीनों या साल के बाद लगा, पर याद है कि तब शास्त्रीनगर में ही वेद के परिचितों में से किसी के यहाँ चोरी की घटना घटी थी। खास बात यह थी कि जिनके यहाँ चोरी हुई थी, वे मेरठ से बाहर थे। अड़ोस-पड़ोस के कुछ लोगों के साथ वेद भी उस कोठी में पहुँचे, जिसमें चोरी हुई थी और वेद के साथ उस समय मैं भी था। जिनके यहाँ चोरी हुई थी, उनके घर में प्रवेश द्वार के साथ ही सम्भवतः बायीं ओर भगवान का मन्दिर था, जिसके द्वार पारदर्शी शीशे के थे, अतः मन्दिर के द्वार बन्द होने पर भी सभी देवी-देवताओं के दर्शन होते रहते थे।
इस बार सुबह से दोपहर बाद तक हम उसी चोरी के घटनास्थल के आस-पास ही मौजूद रहे, इसलिए बातचीत का विषय चोरी से हटकर दूसरा न हो सका। उस दिन वेद ने दोपहर का खाना भी नहीं खाया।
वेद प्रकाश शर्मा, जो एक बेहतरीन इन्सान तो हमेशा से था ही, एक बेहद जिम्मेदार पड़ोसी भी है, यह मुझे उस दिन महसूस हुआ और मैं वेद से इजाजत माँगकर लगभग तीन बजे उससे अलग हो गया। रिक्शा पकड़ मैं अपनी बड़ी बहन प्रतिमा जैन के यहाँ देवीनगर पहुँचा, फिर उनके यहाँ खाना खाकर कुछ देर आराम करने के बाद मैंने दिल्ली के लिए प्रस्थान किया।
शगुन की शादी के कई साल बाद जब अचानक मैं वेद के यहाँ पहुँचा तो वेद मुझे देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। वह काफी समय बम्बई (मुम्बई) बिताकर आया था। वहाँ के अपने कुछ एक्सपीरियंस वेद ने मुझसे साझा किये, लेकिन बहुत सी बातें वेद की जीवनी में ही पढ़ी जायें तो अच्छी लगेंगी, इसलिए हम कुछ आगे बढ़ जायें।
उस दिन शगुन वहाँ नहीं था। याद नहीं अपनी ससुराल गया हुआ था या किसी काम से कहीं। उस दिन बातों का दौर काफी लम्बा चला, लेकिन उस दिन मेरे सामने जो वेद बैठा था, वह उपन्यासकार वेद प्रकाश शर्मा नहीं था। वह दोस्तों का दोस्त था। योगेश मित्तल का जिगरी था। अपनी पत्नी के प्रति अपनी सभी जिम्मेदारियों का ईमानदारी से निर्वहन करने वाला पति था। अपनी बेटियों करिश्मा, गरिमा, खुश्बू और बेटे शगुन से बेपनाह प्यार करने वाला पिता था।
उसकी बातों में एक सन्तोष तो था कि अपनी सभी जिम्मेदारियों से उसने मुक्ति पा ली, लेकिन फिर भी कुछ न कुछ उसके अन्दर कसक रहा था, जो शायद वह मुझसे कहना चाहता था, किन्तु शायद वह यह चाहता हो कि योगेश समझ जाये और खुद ही कुछ पूछे, लेकिन जिन्दगी के प्रति हमेशा 'पॉजिटिव थॉट' रखनेवाले योगेश मित्तल ने उसकी उदासीन बातों का कोई गहरा अर्थ नहीं लगाया। योगेश मित्तल हँसी-मजाक करता रहा। उस दिन उसने मुझे सिगरेट पेश नहीं की। मेरे लिए चाय जब मँगवाई थी, अपने लिए भी मँगवाई थी, पर आधी चाय उसने कप में ही छोड़ दी थी। उस दिन बातों का दौर खत्म होने पर जब मैंने जाने के लिए इजाजत माँगी, उसने
पूछा- 'देवीनगर जायेगा... सिस्टर के यहाँ -- ?'
'नहीं...!' मैंने कहा।
'मामाजी के यहाँ...?'
'नहीं। सीधे रोडवेज जाऊँगा। वहाँ से दिल्ली।' मैंने कहा।
'चल, मैं तुझे रोडवेज छोड़ देता हूँ।' वेद ने कहा और स्वयं ही ड्राइव करके अपनी कार कोठी से बाहर निकाली। मुझे अपने साथ ही बैठाया। रास्ते में वेद जिन्दगी के प्रति दार्शनिकता भरी बातें करता रहा और मैं उसकी बातों
की गम्भीरता जरा भी नहीं समझ पाया।
आज सोचता हूँ - दुनिया में मूर्ख कैसे होते हैं।
सचमुच मेरे जैसे होते हैं।
एक प्यारा... बहुत प्यारा दोस्त शायद आपसे अपना दर्द बाँटना चाहता हो और आप उसकी इशारों ही इशारों में कही गई कोई बात समझ न पाये। यह कोई छोटी-मोटी बेवकूफी नहीं है। ऐसी बेवकूफी कभी नहीं होनी चाहिये।
उस रोज सड़क पर भी जाम बहुत था। पुल बेगम से पहले वेद की कार जाम में फँस गई। रोडवेज बस अड्डा वहाँ से ज्यादा
दूर नहीं था । वेद ने कहा- 'योगेश, अभी तो कार मोड़ने का भी चांस नहीं है। तू ऐसा कर, यहीं उतर जा और इधर से सीधा चला जा, पाँच मिनट से पहले तू रोडवेज बस अड्डे पर होगा।'
मैं कार से उतर गया।
वेद ने ड्राइविंग सीट पर से ही हाथ हिलाया। पलटकर देखते हुए मैंने भी एक बार हाथ हिलाया। फिर आगे बढ़ गया। काफी आगे बढ़ने के बाद मैंने एक बार फिर पलटकर देखा। कार जाम में वहीं की वहीं खड़ी थी और वेद ड्राइविंग सीट पर बैठा निरन्तर हाथ हिला रहा था।
वो मेरी और वेद की आखिरी मुलाकात थी।
उसके बाद समय कितनी तेजी से छलांगे मारता कितना आगे निकल गया, मुझे याद नहीं। एक दिन टीवी में न्यूज देखते हुए वेद प्रकाश शर्मा के निधन की खबर सुनी। कानों पर यकीन नहीं हुआ। लगा कुछ गलत सुना है। कुछ देर के लिए तो दिमाग एकदम फ्रीज हो गया। उस समय मैं भी काफी बीमार था। अस्थमा का तगड़ा अटैक हुआ था और मैं बेड पर था। एक हफ्ते मेरी तबियत काफी ढीली रही। फिर जब ठीक से साँस लेने लायक हुआ तो शगुन को फोन लगाया। कई बार फोन लगाया। सम्पर्क नहीं हुआ। हारकर फोन करना बन्द कर दिया। फिर बरसों बाद एक दिन फेसबुक पर अपने हाथों से खींची वेद की फोटो डाली तो शगुन की रिस्पांस से पता चला कि वह भी मेरे फेसबुक मित्रों में से एक है। मुझे पूरी उम्मीद है कि मेरी यह पुस्तक देखने के बाद वेद प्रकाश शर्मा के परिवार के सभी सदस्य तथा मित्रगण बहुत प्रसन्न होंगे और वेद के जीवन को एक उपन्यास की तरह लिखवाने में दिलचस्पी लेंगे।
वेद की जीवनी उनके परिवार के सहयोग के बिना नहीं लिखी जा सकी और दमे का रेगुलर मरीज होने के कारण मैं फिलहाल उनके परिवार से सम्पर्क करने की स्थिति में नहीं हूँ। फिर भी जितना उनके निधन पर अखबारों ने छापा, वह तो मैं प्रस्तुत कर ही सकता हूँ ।
'वेदप्रकाश शर्मा : यादें, बातें और अनकहे किस्से'- पुस्तक से ।
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