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शनिवार, 22 मई 2021

कहानी उपन्यासकार राजहंस की-01

राजहंस...एक शाश्वत लेखक
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विजय पॉकेट बुक्स की स्थापना सन 1967 में हुई और उन्होंने  सन 1971 में राजहंस के ट्रेड नेम का रजिस्ट्रेशन के लिए रजिस्ट्रार ऑफिस में अर्जी दी। रजिस्ट्रेशन बहरहाल तब नहीं हुआ लेकिन उन्होंने इस नाम से विभिन्न घोस्ट लेखकों से 8 किताबें लिखवा लीं थी।

केवल कृष्ण कालिया, विजय पॉकेट बुक्स के उपन्यासों के कमीशन एजेंट थे। वह उपन्यास  की बुकिंग आर्डर लाते और अपना कमीशन प्रकाशन से कमा लेते।

सन 1974 के आसपास, कालिया ने भी उपन्यास लिखने की इच्छा जाहिर की और विजय पॉकेट बुक्स से राजहंस नाम से ही लिखने की अनुमति मांगी। 

विजय पॉकेट बुक्स ने एग्रीमेंट द्वारा लिखित कई प्रतिबंध लादते हुए केवल कृष्ण कालिया को यह अनुमति दे दी। जिसके अनुसार कालिया किसी भी अन्य पार्टी-प्रिंटर या प्रकाशक के लिए नही लिख सकते। वह इस नाम का प्रयोग लेखक के रूप में स्वयं के लिए भी नहीं कर सकते न ही किसी और को लिखने के लिए उधार दे सकते हैं। इत्यादि इत्यादि।केवल कृष्ण कालिया अब राजहंस हो गए और  उनका पहला उपन्यास 'सुहागिन' फौरी लोकप्रिय साबित हुआ।
महिला प्रधान सामाजिक उपन्यास लिखने और अपने अलग लेखन शैली के कारण  राजहंस, महिलाओं तथा अन्य पाठकों में  बहुत बहुत लोकप्रिय हो गए।

सुहागिन, नजराना, अविश्वास, अंधेरी राहें और तमाशा जैसे अत्यंत लोकप्रिय 22 उपन्यास लिखने  के बाद, उनके 23वें उपन्यास 'तीसरा' का पाठक इंतजार ही कर रहे थे कि

विजय पॉकेट बुक्स ने केवल कृष्ण कालिया उर्फ़ राजहंस पर मुकदमा दायर कर दिया।

तेइसवीं किताब ‘तीसरा’ के प्रकाशन पूर्व ही विजय पॉकेट बुक्स को यह युक्तियुक्त भय हो गया था कि केवल कृष्ण कालिया उर्फ राजहंस इसी नाम से अपनी दो किताबों 'अंधेरे' और 'टूटती दीवारें' की पाण्डुलिपि दो अलग अलग प्रकाशकों को दे रहे हैं। विजय पॉकेट बुक्स ने इस बाबत कालिया से हलफनामा भी लिखवाया जो उन्होने लिख भी दिया।

मगर प्रकाशन व्यवसाय में ऐसी बातें छुपती नहीं हैं। सो जब किताबें 'अंधेरे' और 'टूटती दीवारें'  प्रिंटिंग के लिए जाने लगी तब विजय पॉकेट बुक्स ने केवल कृष्ण कालिया समेत दोनों प्रकाशकों को पार्टी बनाते हुए मुकदमा दायर  कर दिया।

विजय पॉकेट बुक्स ने अन्तरिम इंजक्शन दायर करते हुए अपने पक्ष में कहा कि कालिया अपने लिखित हलफ़नामे से मुकर रहे हैं और क्योंकि विजय पॉकेट बुक्स ने अपना  पैसा,वक्त और बुद्धि लगाकर राजहंस को देश विदेश में लोकप्रिय किया है इसलिए कालिया, विजय पॉकेट बुक्स के बाहर राजहंस के नाम का प्रयोग नहीं कर सकते।

दिल्ली हाई कोर्ट ने तत्काल प्रभाव से टूटती दीवारें और अंधरे का प्रकाशन तात्कालिक रूप से निषिद्ध कर दिया।

केवल कृष्ण कालिया ने अपने बचाव में यह कहा कि उन्होंने विजय पॉकेट बुक्स की सहमति और ज्ञान के बाद ही कलम-नाम `राजहंस' को अपनाया था। उनके विजय पॉकेट बुक्स  से 23 उपन्यास प्रकाशित हुए और पहले तीन उपन्यासों में, विजय पॉकेट बुक्स  द्वारा उपन्यासों मे उनका पेन-नेम ही छपा था। लेकिन बाकी 20 उपन्यासों में, उनकी तस्वीर भी उन्हें 'राजहंस' के रूप में पहचान देती दिखाई दी।
उन्होंने आगे आरोप लगाया कि उक्त 23 उपन्यासों के सभी पुनर्मुद्रण में, उनका नाम `राजहंस 'और उनकी तस्वीर भी दिखाई दी। उन्होंने आगे कहा है कि, 18.6.77 को उन्होंने अपनी पुस्तक के प्रकाशन के संबंध में ट्रेड मार्क `राजहंस 'के पंजीकरण के लिए आवेदन किया था  जिसे ट्रेड मार्क रजिस्ट्री द्वारा पत्र द्वारा स्वीकार किया गया है। इसलिए राजहंस की तस्वीर उनके ट्रेडमार्क का निशान माना जाये। 
उन्होने यह भी कहा कि भारत और विदेश में लाखों लोगों ने उनके उपन्यासों को अपने कलम-नाम `राजहंस 'के तहत पढ़ा है और उपन्यासों पर छपी अपनी तस्वीरों से उन्हें उन किताबों के लेखक के रूप में पहचान रहे हैं । रेलवेस्टेशन, रोडवेज बस-स्टैंड, एयरपोर्ट , आदि स्थानों पर बिक रहे उपन्यासों में भी उनकी पहचान लोगों के बीच उसी चित्र वाले लेखक की है।

आरोपों प्रत्यारोपों के बीच यह वाद एक साल तक चला। जस्टिस एफ एस गिल ने सुविधा के संतुलन का सहारा लेते हुए निर्णय केवल कृष्ण कालिया के पक्ष में देते हुए कहा-

“Every agreement by which any one is restrained from exercising a lawful profession, trade or business of any kind, is to that extent void.”
(सेक्शन 27, भारतीय संविदा अधिमियम)

- यदि केवल कृष्ण कालिया को लिखने और प्रकाशित करने से रोका जाता है, तो उनकी स्थिति दयनीय होगी क्योंकि यह उनकी आजीविका का एकमात्र स्रोत है; जबकि वादी एक स्थापित प्रकाशन गृह है और राजहंस  द्वारा लिखी गई पुस्तकों के प्रकाशन को छोड़कर भी सामान्य व्यवसाय में अपना व्यवसाय सामान्य ढंग से कर सकता है। क्योंकि अगर कालिया को लिखने और प्रकाशित करने से रोक दिया जाता है, तो उससे हुई हानि की भरपाई करना मुश्किल होगा।अतः सुविधा और कथित अपूरणीय हानि दोनों का संतुलन भी केवल कृष्ण कालिया के पक्ष में जाता है।

इस प्रकार राजहंस का ट्रेड नेम केवल कृष्ण कालिया के पक्ष में गया और वह आज भी घोस्ट लेखकों की सबसे बड़ी पूंजी हैं। केवल उनके चित्र के साथ उपन्यास आज भी आते रहते हैं। राजहंस एक चिर उपस्थित, एक शाश्वत लेखक हो गए।
प्रस्तुति- सत्य व्यास

1 टिप्पणी:

  1. इस केस के निर्णय के उपरांत राजहंस के लेखकीय जीवन विशेषकर 1988-89 के वर्षों के विषय में जानकारी उपलब्ध करावें।

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