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शुक्रवार, 28 मई 2021

कहानी उपन्यासकार राजहंस की- 06

 राजहंस बनाम विजय पाकेट बुक्स - 5  ========================
हिन्द व मनोज  Vs. विजय पाकेट बुक्स

ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग की बात पर मैं मुस्कुराया- "जरूर चन्दर ने बताया होगा आपको...?"
"तुझे कैसे मालूम....? " अब की बार चौंकने की बारी ज्ञान की थी! 
मैं मुस्कुराया -"चन्दर की दुकान, मनोज की दुकान से बिल्कुल सटी हुई है! उसके कान मनोज में होने वाली बातों पर अक्सर लगी रहती हैं! और मनोज में लगभग सभी बुलन्द आवाज में बात करने वाले हैं! चन्दर ने कुछ टूटा-फूटा सुना और आपको वही सुना दिया!"
"मतलब बात सही है ना! मुकदमा शुरू हो गया!" 
"नहीं, अभी कोई मुकदमा शुरू नहीं हुआ!" मैंने कहा -"पर पासिबिल्टी है! और भाईसाहब, जब मुकदमा शुरू होगा ना, तब मैं स्पेशली दरीबे आऊँगा - आपको बताने के लिए!"
"हैंएएए....!" ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग मेरी बात और मिज़ाज नहीं समझे और जब तक वह कुछ समझते मैं उठते हुए दोबारा बोला - "अच्छा, चलता हूँ, मुझे राज और गौरी भाई साहब मेरा इन्तजार कर रहे होंगे! उन्हीं के साथ शक्तिनगर से आया हूँ!"
और मैं तुरन्त ही पीछे लौट पड़ा! 
"अरे योगेश, सुन, सुन तो... " ज्ञान पीछे से चिल्लाये, मगर मैं पलट कर "बाय-बाय" के अन्दाज़ में हाथ हिलाते हुए बोला -"बाद में..!" और आगे बढ़ गया!
ज्ञान ने बाद में भी आवाज दीं, पर मैंने सुनकर भी अनसुनी कर दीं और मनोज में पहुँचा! 
वहाँ राज और गौरी कहीं दिखाई नहीं दिये! काउन्टर पर सबसे आगे पन्नालाल जी बैठे थे! राजकुमार, गौरीशंकर और विनय कुमार गुप्ता के पिताजी! उनके पीछे बैठे थे जगदीश जी, जोकि रिश्ते में शायद राज, गौरी, विनय के भाई लगते थे! 
मैंने पन्नालाल जी को नमस्कार किया और विनम्र स्वर में उनसे पूछा - "भाई साहब कहाँ हैं?"
"कौन से भाई साहब?" पन्नालाल जी ने पूछा! 
"राज और गौरी भाई साहब!"
"वो तो गये...?" जवाब पीछे बैठे जगदीश जी ने कहा! 
"गये.....कहाँ....?" मुझे झटका सा लगा! मैं उनके साथ आया था और जब मैं शक्तिनगर जाता था, अगर कभी वे सीट पर नहीं होते तो मैं उनका इन्तजार करता था और आज मैं उनके साथ ही शक्तिनगर से दरीबा कलां आया था, पर दरीबा कलां से वह मुझसे कुछ भी कहे बिना एकदम कहाँ गायब हो गये? 
तब मैं बहुत ज्यादा भावुक इन्सान था! छोटी छोटी बातें मुझे चुभ जाती थीं! इसलिए बहुत खराब लगा! फिर भी मैंने यूँ ही जगदीश जी से सवाल कर लिया - "कहाँ गये हैं?"
"पटेलनगर....!"
जगदीश जी से यह जवाब सुनकर तो मुझे दूसरा झटका लगा! 
"अरे पटेलनगर मुझे भी ले जाते तो मुझे साथ न भी रखते तो मैं खेल खिलाड़ी के आफिस में बैठकर भारती साहब के लौटने का इन्तजार कर सकता था या वह पटेलनगर की जगह वापस शक्तिनगर जाते तो भी मुझे साथ ले सकते थे, वहाँ से मैं आगे विजय पाकेट बुक्स तो पैदल ही जा सकता था! 
बहरहाल जगदीश जी के जवाब के बाद अनमने मन से 838 नम्बर बस के स्टाप पर पहुँचा! बस पहले से खड़ी थी! उसमें बैठने की सीट थी! मैंने रमेशनगर का टिकट लिया और बैठ गया! 838 की कोई बस तिलकनगर और कोई उत्तमनगर जाती थी और उसका रास्ता पटेलनगर, रमेशनगर से था। पटेलनगर आने से पहले मेरे मन में आया कि पटेलनगर उतर जाता हूँ और पटेलनगर आने पर मैं आगे जाकर अगले दरवाजे से नीचे उतर गया, किन्तु बस चलने से पहले ही मेरा मूड बदल गया और मैं पिछले दरवाजे से फिर उसी बस में चढ़ गया! 
कभी-कभी ऐसी स्थिति कि सामना हर एक इन्सान को करना पड़ता है, जब मन दोतरफा हो जाता है! 
अगले दिन मैं इस इन्तजार में रहा कि शायद भारती साहब आयेंगे या शायद वालिया साहब ही आ जायें! 
इन्तजार करते-करते मैंने मनोज पाकेट बुक्स के लिए अपनी अगली बाल पाकेट बुक्स का मैटर लिखना आरम्भ कर दिया और देर तक लिखता ही रहा! 
दोपहर हुई! खाना खाया! फिर दोबारा पेन उठा लिया! शाम हुई! चाय पी! फिर लिखना आरम्भ कर दिया! 
राजहंस और विजय पाकेट बुक्स के बीच का ऊंट किस करवट बैठा है, मुझे कुछ भी मालूम नहीं हुआ, क्योंकि उस दिन भी भारती साहब या वालिया साहब के दर्शन नहीं हुए! मेरे मन में बहुत ज्यादा निराशा उत्पन्न हुई और इसका मुख्य कारण था - बहुत सारे प्रकाशकों की लल्लोचप्पो और तारीफ भरी बातों, उनसे निरन्तर सम्मान मिलते रहने के कारण मेरी इम्पोर्टेन्स, मेरी अपनी ही नज़रों में बहुत ज्यादा बढ़ा दी थी! मुझे अपनी ही नज़रों में बहुत विशेष बना दिया था! बेशक मैं नाम से नहीं छपता था, लेकिन हर प्रकाशक से मेरे बहुत अच्छे रिश्ते थे! करीबी रिश्ते थे! इसलिये मैं खुद को किसी अफलातून से कम नहीं समझता था, मगरइस घटना ने मुझे मेरी औकात बता दी! 
इस बारे में मैंने भारती साहब, वालिया साहब या अन्य किसी से कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन यह घटना मेरे दिल-ओ-दिमाग में एक सबक बनकर अंकित हो गई! 
उस रात बिस्तर पर पहुँचने के बाद मैंने बहुत सोचा और निर्णय किया कि छोटी-छोटी बातों से कभी अपना दिमाग खराब नहीं होने दूंगा! और तब से ही मैं बहुत ज्यादा समझदार भी हो गया!
अगला दिन भी मेरा यूँ ही बाल उपन्यास लिखते हुए बीत जाता, अगर अचानक एस. सी. बेदी जी न आये होते! 
दोपहर दो बजे तक कोई नहीं आया, न भारती साहब, ना ही वालिया साहब! मगर दो बजे के बाद मैं दोपहर का खाना खा कर निपटा ही था कि एस. सी. बेदी जी की हकलाती हुई आवाज कानों में आई - "योगेश...!"
मैं झट से बाहर आया! बेदी साहब को देख खुशी का इज़हार करते हुए उन्हें अन्दर बुला लिया! 
दोपहर के वक़्त मेरे पिताजी व मम्मी व भाई बहन दूसरे कमरे में थे! खाना-पीना और दोपहर का आराम, उसी कमरे में होता था! पहले कमरे का एक द्वार सड़क की ओर खुलता था, उसी में पिताजी ने अपना क्लिनिक बना रखा था, जहाँ एक टेबल के अलावा कुछ फोल्डिंग कुर्सियाँ और एक बेंच थी! 
मैं और बेदी साहब साथ-साथ बेंच पर ही बैठे! 
"यार, वालिया साहब का पता है कहाँ हैं! घर गया था! वहाँ तो ताला लगा है!"
"ताला लगा है, तब तो सब कर्मपुरा गये होंगे!" मैंने अनुमान प्रकट किया! कर्मपुरा में यशपाल वालिया जी के माता पिता व छोटी बहन रहते थे! 
"नहीं...! पड़ोस में वो जो लड़का मनोज रहता है! उसकी मम्मी टैरेस पर थीं! वहीं से उन्होंने बताया कि वालिया साहब तो सुबह ही घर से निकल गये थे और मिसेज वालिया विग्गू को लेने स्कूल गई हैं! ( विग्गू - वालिया साहब के बड़े बेटे 'भारत' का घरेलू नाम था!) और बाहर जो पनवाड़ीे है, जिससे पान खाये बिना वालिया साहब आगे नहीं जाते, वो भी बता रहा था - वालिया साहब साढ़े नौ-दस बजे के करीब अपने स्कूटर से मोतीनगर की तरफ गये थे!" बेदी साहब ने यह सारी बातें धीरे धीरे अटक-अटककर किश्तों में बताई थीं, जो मैं एकमुश्त आपको बता रहा हूँ!
"तब तो वो जरूर पटेलनगर गये होंगे!" मैंने बेदी साहब से कहा- "भारती साहब के यहाँ! पर यह बताइये - आप वालिया साहब को क्यों ढूँढ रहे हैं?"
"एवैंइ यार... सुबह नावल कम्पलीट किया था तो सोचा थोड़ा घूम लिया जाये! रिलैक्स हो लेइये!" बेदी साहब ने कहा! फिर बोले - "चल, बाहर चलते हैं!"
मैं मम्मी-पिताजी से कहकर बेदी साहब के साथ घर से बाहर निकल गया! बाहर निकलने के बाद कुछ कदम आगे बढकर बेदी साहब ने जेब से सिगरेट निकाल कर होठों से लगाते हुए बोले - "बड़ी देर से तलब लग रही थी! घर पर आपके मम्मी पापा थे, इसलिए...!" 
वालिया साहब, बेदी साहब के अन्दर बड़ों के पैर छूने, उनके सामने सिगरेट न पीने की आदत थी! बल्कि मैंने अपने जीवन में यह आदत अपने लगभग सभी पंजाबी और सिख दोस्तों में पाई है! नहीं कह सकता, यह  पंजाबी संस्कृति का अंग है या मेरे दोस्तों की ही विशेषता थी! 
विशेषताओं की बात आई तो एक बात और बता दूँ - यशपाल वालिया 120 नम्बर तम्बाकू का पान खाते थे और वह जहाँ-जहाँ जाते थे, पनवाड़ीे एक ही होता था! बालीनगर में बालीनगर बस स्टैण्ड के ठीक पीछे एक पनवाड़ीे की दुकान थी! इसी तरह रमेशं नगर, कर्मपुरा, राणाप्रताप बाग में भी, पटेलनगर में भी और मेरठ में भी पनवाड़ीे फिक्स थे! किसी नई जगह से वह पान तभी बनवाते थे, जब कहीं लम्बे रास्ते में पान का एक्स्ट्रा बीड़ा जेब में नहीं होता था! 
इसी तरह बेदी साहब में उन दिनों एक खास और मुख्य आदत थी, हर उपन्यास कम्पलीट करने पर एक दिन मौज-मस्ती में यार-दोस्तों के साथ जरूर बिताते थे! 
रमेशनगर से हम बाहर मेन रोड पर आ गये! रास्ते में मैंने बेदी साहब को अपना अनुमान बता दिया कि भारती साहब और वालिया साहब विजय पाकेट बुक्स गये होंगे और अनुमान का कारण भी बता दिया! 
सब कुछ जानकर एस. सी. बेदी बोले - "हमलोग चलें राणा प्रताप बाग...?"
उस समय साढ़े तीन से ऊपर का समय हो चुका था! मैंने कहा - "राणा प्रताप बाग पहुँचते हुए हमें पांच बजेंगे! ऐसा न हो, हम वहाँ पहुँचे और वहाँ कोई मिले ही नहीं या सब उठने वाले हों!"
"हाँ, यह तो है! चल पिक्चर चलते हैं! यहीं नटराज सिनेमा पर..!" बेदी साहब ने कहा! तब रमेशनगर और मोतीनगर के बीच कीर्तिनगर में नटराज सिनेमा था! 
"जब तक पहुँचेंगे, फिल्म आधी निकल चुकी होगी!" फिल्म की बात पर मैं बोला! 
"हाँ, यह तो है!" बेदी साहब ने कहा -"चल, चाय पीते हैं!"
फिर बेदी साहब मुझे एक टी स्टाल में ले गये! वहाँ हम काफी देर बैठे! बेदी साहब अगले उपन्यास का प्लाट सुनाते रहे और मैं बीच-बीच में मशवरा देता रहा!
चाय पीने के बाद बेदी साहब और मैं टी स्टाल से बाहर निकले और बेदी साहब ने मोतीनगर के लिए एक थ्रीव्हीलर रुकवाया और अलग होते हुए बोले - "वालिया साहब आयें तो बोलना, मुझसे मिलें!" बेदी साहब जानते थे कि मेरा और वालिया साहब का लगभग रोज ही मिलना जुलना होता था! लम्बा गैप कभी कभी ही होता था! 
पर उस दिन और उसके अगले दिन भी भारती साहब और वालिया साहब नहीं आये! मुझे विजय पाकेट बुक्स और राजहंस के बीच के तनाव में आगे क्या हुआ! कुछ पता नहीं चला! 
पूरे पांच-छ: दिन मेरा किसी से भी मिलना नहीं हुआ! फिर एक दिन सुबह-सुबह भारती साहब आये! 
"क्या चल रहा है?" उन्होंने मुझसे पूछा! 
"मैं तो मनोज के लिए ही लिख रहा हूँ!" मैंने कहा! 
"घूमने का मूड है तो आ चल, चलते हैं!" भारती साहब ने कहा! 
"कहाँ...?"
"विजय में... राणा प्रताप बाग....!*
" पर आज सण्डे है!"
"तो क्या हुआ? सरकारी आफिस थोड़े ही है! आज तेरी वासुदेव और हरविन्दर से भी मुलाकात करवा देंगे! मिला है - उनसे कभी!"
'नहीं....!" मैंने कहा!
"चल फिर....!"
मैं फटाफट तैयार हो गया! रास्ते में मैंने भारती साहब से पूछा - "राजहंस से मीटिंग तो कई हो चुकी होंगी!"
"हाँ, पर कोई फायदा नहीं हुआ! बेल किसी मुंडेर पर नहीं चढ़ी!" भारती साहब बोले - "वालिये ने भी केवल को बहुत समझाया कि हिन्द और मनोज में जाने से उसकी पहले जैसी वैल्यू नहीं रहेगी! राजहंस और विजय पाकेट बुक्स, दोनों को ही नुक्सान होगा, पर केवल को कोई समझा नहीँ पाया!"
"फिर अब क्या होगा? विजय बाबू मनोज, हिन्द और राजहंस पर मुकदमा करेंगे क्या?" मैंने पूछा! 
"मुकदमा करना इतना आसान है क्या? विजय अगर मुकदमा करेगा तो उसे मनोज, हिन्द और राजहंस तीनों पर अलग-अलग मुकदमा करना पड़ेगा! हमलोग विचार कर रहे हैं - कुछ ऐसा भी किया जाये कि तीन-तीन तारीखों का लफड़ा न पड़े! वासुदेव और हरविन्दर को भी विजय ने इसीलिए सलाह-मशवरे के लिए बुलाया है! वो भी अब विजय पाकेट बुक्स परिवार का ही एक हिस्सा हैं! वालिये को आज सुबह कर्मपुरे किसी काम से जाना था, वो बाद में सीधे पहुँचेगा!"
शक्तिनगर बस से उतर मैं और भारती साहब आगे बढ़े! चौराहे तक पहुँच हम बायीं ओर मुड़ गये! 
शक्तिनगर चौराहे से दायीं ओर का  रास्ता कमलानगर से होते हुए आगे बस अड्डे की ओर जाने वाले रास्ते से मिल जाता था! 
सीधा रास्ता रूपनगर - कमलानगर के बीच से होते हुए बैंग्लो रोड की ओर जाता था! 
बायीं ओर के रास्ते में आगे जाकर एक नाले के ऊपर बने पुल को क्रास करने पर राणा प्रताप बाग का एरिया शुरू हो जाता था! 
अक्सर हम शक्तिनगर से राणा प्रताप बाग के लिए रिक्शा कर लेते थे! पर उस दिन खाली रिक्शा मिला नहीं और रिक्शे को ढूँढते हम आगे बढ़ते चले गये! 
शक्तिनगर की अग्रवाल मार्ग की गली पार कर हम आगे बढ़े ही था कि सामने से आते जगदीश जी दिखाई पड़ गये! 
मैं जगदीश जी की नजरों से बचना ही चाह रहा था, पर उन्होंने मुझे देख लिया और बोले - "आज तो सण्डे है योगेश जी! आफिस बन्द है! यहाँ कहाँ घूम रहे हैं?"
"हाँ, अभी याद आया, अब यहीं हम चाय पीकर लौट जायेंगे!" जवाब राज भारती साहब ने दिया और मेरा हाथ पकड़कर  साथ ही दिख रही चाय की दुकान में दाखिल हो गये और बोले - "चाय पीकर ही चलते हैं!"
ख्वामखाह हमने चाय पी! चाय पीते-पीते मैंने कहा - "बेकार चाय पीने घुसे, विजय पाकेट बुक्स में तो पता नहीं कितनी बार चाय चलेगी!"
"हाँ, पर वो जगदीश एकदम सामने आ गया तो यही मुझे सही लगा! यह एक मनोज में ही काम करता है ना! दरीबे में देखा है कई बार...!" भारती साहब बोले! 
"रिश्ते में भाई हैं जगदीश जी...!" मैंने कहा - "राज और गौरी से कहेंगे तो जरूर कि राज भारती और योगेश को देखा और फिर वो लोग, जो सोचें, वो जाने!" मैंने कहा! 
चाय पीकर हम पैदल ही चहलकदमी करते हुए राणा प्रताप बाग पहुँचे! 
विजय पाकेट बुक्स का मुख्य द्वार खुला हुआ था, लेकिन उस बड़े हाल के साइड में स्थित छोटे से आफिस का द्वार बन्द था! आज उस हाल में ही बहुत सारी कुर्सियाँ  बिछी हुई थीं, जहाँ डिस्पैच के लिए वीपी पैकेट और रेलवे के बण्डल  बनाये जाते थे! 
आज वहाँ वासुदेव और हरविन्दर पहले से ही उपस्थित थे! 
बीच में एक सेन्टर टेबल पड़ी थी, जिस पर एक नया सर्कुलर पड़ा था! सर्कुलर में सबसे ऊपर राजहंस के नये उपन्यास का आधे पेज पर विज्ञापन था और नीचे दो कालम बना चार उपन्यासों का नाम और लेखकों का नाम था! 
सबसे नीचे आर्डर देने वाले एजेन्ट के नाम और पते के लिए लाइनें बनी हुई थीं! 
सबसे ऊपर राजहंस के जिस नये  उपन्यास का नाम दिया गया था - वह उपन्यास था - तलाश! 
आर्डर के लिए राजहंस वाले खाने में "प्रतियाँ" लिखकर .......... डाट-डाट-डाट लाइन  खिंची हुई थी! उसके नीचे के चारों बाक्स में भी आर्डर के लिए लाइन बनी हुईं थीं! 
और उन चार लेखकों में दो नाम थे! मनोज पाकेट बुक्स में छपने वाले दो ट्रेडमार्क लेखक - मनोज और सूरज और अन्य दो नाम थे -  हिन्द पाकेट बुक्स में छपने वाले कर्नल रंजीत और शेखर! 
(शेष फिर) 
और फिर क्या विजय पाकेट बुक्स से पांच किताबों का वह नया सैट निकला? 
प्रस्तुति- योगेश  मित्तल

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