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सोमवार, 8 जून 2020

यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की-01

कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा जी-01
मुझसे एक फेसबुक मित्र ने कहा कि मैं बहुत दिल से लिखता हूँ और वे अतीत में मेरे द्वारा लिखे उपन्यास पढ़ना चाहते हैं तो मैं यह बताना चाहूँगा कि मैंने कितने नामों से लिखा, किस किस लेखक और किस किस ट्रेंड मार्क के लिए लिखा और कितने उपन्यास लिखे, कभी रिकॉर्ड नहीं रखा और बीते हुए दौर को बहुत ज्यादा याद रखने में मेरी विशेष दिलचस्पी भी नहीं है।
      किन्तु आप यह जान लीजिये कि उस दौर के तकरीबन सभी प्रकाशक मुझे शक्ल और नाम से जानते थे और बहुतों से दोस्ताना अन्दाज में ही बात चीत होती थी।
और दिल से लिखने की बात के विषय बेबाकी से कहना चाहूँगा कि आज के बहुत से लेखक दिल से लिखते हैं, लेकिन तब ऐसा नहीं था कि लेखक - जो लिख रहा हो, दिल से ही लिखा गया हो, दरअसल तब एक नहीं, अनेक लेखक ने ऐसे वक़्त का शिकार थे कि उनकी जिन्दगी में कई बार ऐसा कठिन वक़्त भी आया, जब घर में बच्चों की फीस के लिए, राशन के लिए पैसे के लिए उन्हें उपन्यास की पेमेन्ट का इन्तजार रहता था, तब कई बार लिखने का मन भी नहीं हो पाता था, पर बेमन से पन्ने भर कर उपन्यास पूरा करना होता था! 
इसलिए अच्छे लेखकों द्वारा भी अक्सर घटिया उपन्यास भी लिखे जाते थे।

       बेशक सुरेन्द्र मोहन पाठक, ओम प्रकाश शर्मा या वेद प्रकाश काम्बोज ऐसे बहुत ही  worst समय का शिकार नहीं रहे और उन्होंने घटिया नहीं लिखा।
      परन्तु वेद प्रकाश शर्मा  जब स्वामीपाड़ा में बहुत छोटी सी जगह में रहते थे, तब एक टीन की परछत्ती के नीचे रहकर लिखते थे, जोकि बारिश में टपकती भी थी! बारिश के ही दिनों में मुझे एक दिन वेद के साथ वहाँ समय बिताने का अवसर मिला था! दोपहर का खाना हमने साथ ही खाया था! तब वेद का विवाह नहीं हुआ था।
वेद का विवाह भी किसी फिल्मी कथा से कम नहीं था! 
मुझे लगता है - यदि वेद के परिवार के लोग मुझसे सहयोग करें और कोई फिल्मी हस्ती रुचि ले तो वेद की जीवनी पर भी एक ऐसी फिल्म बन सकती है, जो सचिन, संजू और महेन्द्र सिंह धोनी पर बनी फिल्मों को बहुत पीछे छोड़ दे! 
सरल स्वभाव के वेद और मेरे बीच अनेक बार कार में साथ साथ सफर करते हुए या आफिस में घर में या किसी अन्य जगह बहुत सारे ऐसे मौके आये, जब वेद ने मेरे सामने अपना दिल खोल कर रख दिया।
       सच कहूँ तो वेद मेरी नजरों में दिल का हीरा था! बस, लेखक से प्रकाशक बनने के अन्तराल में एक व्यापारिक सोच ने उसे कुछ भिन्न कर दिया था, जो शायद स्वाभाविक ही था, पर उसे मैं अगर वेद की जीवनी लिखूँ, तभी जाहिर करना चाहूँगा

        लेखकों के दिल से लिखने की बात पर बताना चाहूँगा कि अक्सर ऐसा होता नहीं था! कई बार उपन्यासकार को नोटों की इतनी सख्त जरूरत होती थी कि सोचने की जरा भी गुंजाइश नहीं होती थी और आवश्यक पन्ने भर, जल्द से जल्द प्रकाशक से पेमेन्ट लेनी होती थी, तब उपन्यास कैसा बन पड़ेगा, इसकी भी चिन्ता नहीं होती थी! 
पर उपन्यास अक्सर ठीक ठाक भी बन जाता था, उसके लिए लेखक क्या टेक्नीक इस्तेमाल करते थे, इस पर कभी एक पूरा लेख लिखूँगा, जिससे आज के लेखकों को भी शायद विशेष लाभ हो! 
पर कभी कभी सारी सावधानियां बरतने पर भी ऐसी जल्दबाजी में लिखे उपन्यास घटिया और निम्नस्तरीय लिखे जाते थे! 
मैंने भी अपने जीवन में  अपने सामर्थ्य से कमतर काफी कुछ घटिया भी लिखा है! 
अब जरा वेद प्रकाश शर्मा जी की ही बात हो जाये - जब मैं दिल्ली के नामधारी कालोनी कीर्तिनगर में रहता था, तब वेद प्रकाश शर्मा एक दिन दरीबे में मिल गये थे! तब काफी निराश और उदास से थे! 
मनोज वालों से वेद की पहली पहचान मैंने ही करवाई थी! तय बातों के हिसाब से वेद के उपन्यास मनोज पाकेट बुक्स में ही छपने थे!
किन्तु उस समय मनोज पाकेट बुक्स का काम देखने वाले राजकुमार गुप्ता जी और गौरीशंकर  गुप्ता जी हर काम बहुत दूर तक की प्लानिंग से करने वाले लोगों में से थे! 
उन्होंने अगले तीन चार सैट्स की न केवल प्लानिंग कर रखी थी, बल्कि सरकुलर भी तैयार थे! अत: राजकुमार गुप्ता जी ने वेद से कहा - "वेद भाई, मनोज में छपने के लिहाज से तो कार्यक्रम थोड़ा लेट हो जायेगा! हम ऐसा करते हैं, आप के तीन चार उपन्यास जीजाजी के विमल पाकेट बुक्स में छाप लेते हैं! उन्हें एक मजबूत  और ओरिजिनल नाम की जरूरत भी है! तब तक हम मनोज में प्लानिंग कर लेंगे! प्रोडक्शन की आप चिन्ता मत करो, वहाँ का काम भी मैं ही देखता हूँ, इसलिए प्रोडक्शन तो बिल्कुल मनोज के टक्कर की होगी, बल्कि इक्कीस ही होगी और हम उपन्यास में मैटर भी मेरठ से डबल देंगे!"
वेद दिल्ली छपना चाहते थे, इसलिए उन्होंने कम्प्रोमाइज़ कर लिया और उनका विमल पाकेट बुक्स में उपन्यास... शायद "दहकते शहर" था, जिसमें मैटर मेरठ के उपन्यासों की ही कीमत पर, मेरठ से दुगुना था, लेकिन पारिश्रमिक जो मिला, मेरठ से बहुत कम था, किन्तु यहाँ भी वेद ने कम्प्रोमाइज़ किया! 
पर मनोज पाकेट बुक्स द्वारा उनके उपन्यास अपने प्रकाशन में छाप कर जीजाजी के प्रकाशन विमल पाकेट बुक्स में छपवा दिये जाने की वेद के मन में एक टीस बन गई! उन्हें प्रति उपन्यास सिर्फ आठ हजार मिले थे, जबकि तब वेद मेरठ में एक उपन्यास के दस हजार से अधिक ले रहे थे और मेरठ में एक महीने में दो उपन्यास छप जाते थे, जबकि विमल पाकेट बुक्स के लिए वेद ने जान लड़ाकर दुगुनी मेहनत से उपन्यास लिखे थे और विमल पाकेट बुक्स से छ: -सात महीने में तीन उपन्यास छपे थे! 
और बिक्री औसत दर्जे की थी, जिसे मेरठ से बेहतर नही कहा जा सकता था! 
खैर, उदास वेद को दरीबे से पहले किशनगंज के आसपास रहने वाले अपने साले के यहाँ गये, किन्तु वहाँ ठहरे नहीं, मेरे साथ जाने की बात कह वापस लौट आये और मेरे साथ नामधारी कालोनी आये! वहाँ मैंने अपने मिनोल्टा कैमरे से वेद की एक तस्वीर भी खींची थी, जिसे शायद मैं राज भारती फैन क्लब में पोस्ट कर चुका हूँ! 
उस दिन वेद ने मेरी माता जी के हाथ का बना खाना मेरे साथ साथ खाया! हम चार पांच घंटे गपशप करते रहे! तब मैंने वेद से कहा - मैं मनोज में राज भाईसाहब और गौरी भाई साहब से बात करूँगा! 
वेद की इच्छा थी कि विमल पॉकेट बुक्स में अगला उपन्यास न दें ! मुझसे पूछा तो मैंने उनकी इस सोच पर स्वीकृति की मोहर लगा दी ! कहा - "यही बहुत अच्छा कदम होगा !"
वेद दोबारा मेरठ में उपन्यास छपवाने लगे, लेकिन यह राजकुमार गुप्ता जी और गौरी शंकर गुप्ता जी को झटका देने के लिए किया गया था! 
नतीजा बेहतर रहा! बाद में मैं ही वेद प्रकाश शर्मा जी को दोबारा मनोज और राजा पाकेट बुक्स में ले गया और कहीं भी ऐसा नहीं हुआ कि प्रकाशक या लेखक किसी की भी नाक नीची हुई हो! बल्कि जब मनोज पाकेट बुक्स में भाई-भाई अलग हो गये और मनोज पाकेट बुक्स के स्वामी मंझले भाई गौरीशंकर गुप्ता और छोटे भाई विनय कुमार हो गये तथा बड़े भाई राजकुमार गुप्ता जी को अपने लिए एक अलग पाकेट बुक्स - राज पाकेट बुक्स खोलनी पड़ी, बाद में राज पाकेट बुक्स ही राजा पाकेट बुक्स में परिवर्तित कर दी गई! 
खास बात यह है कि मनोज पाकेट बुक्स को आरम्भ करते वक़्त - मनोज पाकेट बुक्स नाम, राजकुमार गुप्ता जी के तीन बेटों, संजय, मनोज और मनीष में से बीच वाले मनोज के नाम पर रखा गया था! मनीष का तब शायद जन्म भी नहीं हुआ था! 
कुछ समय राज और राजा दोनों के सैट भी निकले तथा उसी पते पर एक हरीश पाकेट बुक्स भी निकाली गई, जिसमें आरम्भ से ही एस. सी. बेदी के राजन- इकबाल सीरीज के उपन्यासों को प्राथमिकता दी गई! 
और तब जब वेद की दोबारा मनोज में बात हो गयी तथा वेद के मनोज में कई उपन्यास छप गए, तब भी वेद अंदर से दुखी थे ! मनोज में वह जैसी उम्मीद कर रहे थे, स्थिति उससे बहुत भिन्न थी ! 
वेद तब मनोज से खुश नहीं थे और काफी दिनों से मनोज में नहीं गये थे और मनोज में जाने का इरादा छोड़, फिर से मेरठ में ही छपने का निश्चय कर चुके थे! उन्हें लग रहा था - मनोज में मेरठ से बेहतर 'सेल' नहीं मिल रही है !
मैं तब दरीबे में गर्ग एंड कंपनी में आया हुआ था ! वेद नारंग पुस्तक भण्डार गए थे ! वहां से कोई पुस्तक खरीदी तो नहीं, हालांकि गए खरीदने के इरादे से ही गए थे ! मेरी  ही नज़र वेद पर पडी ! मैंने वेद को आवाज़ दी, क्योंकि ज्ञानेंद्र प्रताप गर्ग भी वेद से मिलना चाहते थे !
वेद तब उपन्यास जगत की सेलिब्रिटी तो बन ही चुके थे !    
मैं वेद के पीछे लपका और तेज़ी से दस-बीस कदम चल हीरा टिया स्टाल के निकट वेद का हाथ थाम लिया ! मुझे देख वेद चौंके ! 
मैंने कहा - "क्या बात है हवाई जहाज की तरह उड़े जा रहे हो ? सब कुछ ठीक ठाक तो है !"
"नहीं यार, यहां दिल्ली में मज़ा नहीं आया !" वेद का पहला डायलॉग था !
"आएगा मज़ा !" मैंने कहा _:हमारे ज्ञान बाबू तुमसे मिलना चाहते हैं ?"
:हह...! उससे क्या मिलना ! सिर्फ गप्पें मारने के लिए बर्बाद करने के लिए फिलहाल टाइम नहीं है ! योगेश जी हालत बड़ी खराब है ! खर्चे बहुत बढ़ गए हैं और दिल्ली वालों ने कमाई ससुरी आधी कर से भी कम कर दी है ! अब रेपुटेशन ऐसी हो गयी है कि किसी से उधार मांगते हुए भी शर्म आवै है ! और पब्लिशरों से कहो तो नॉवल मांगे हैं या कहें कॉपीराइट लिख दो, नॉवल हम किसी से लिखा लेंगे !" 
दरअसल उन दिनों मेरठ में एक और सिस्टम ने जन्म लिया था, जिसके जनक थे ब्लैक टाइगर विशाल और इमरान, विनोद हमीद फ़ोमांचू सीरीज लिखने वाले लेखक बिमल चटर्जी ने !
बिमल चटर्जी को एक बार पैसों की सख्त जरूरत महसूस हुई तो उन्होंने कुछ प्रकाशकों को अपने कुछ उपन्यासों के नाम लिख कर उसके कॉपीराइट दे दिए तथा प्रकाशकों को इजाजत दे दी कि वे उन नामों के लिए किसी से भी उपन्यास लिखवा कर बिमल चटर्जी के नाम से छाप सकते हैं ! बाद में और कितने उपन्यासकारों ने इस सिस्टम का फायदा उठाया, इस बारे में फिर कभी ! पर एक मशहूर लेखक के नाम के लिए गरीब और घोस्ट या फेक नाम से लिखने वाले लेखकों को इस सिस्टम की वजह से खूब काम मिला !
खैर बातों के उस दौर में मैंने वेद से पूछा कि "तो अब आगे क्या सोचा है ? किसे दे रहे हो नॉवल ?"
"वहीं मेरठ में देंगे ! मनोज में तो बंद कर रहा हूँ ! कालांकि उनका एक लेटर आया है और दिल्ली आते हुए मैंने सोचा  था कि एक बार मिल लूंगा ! पर नहीं मिल रहा हूँ! जब उनके लिए लिख ही नहीं रहा हूँ ! लिखना ही नहीं है तो टाइम वेस्ट क्यों करुँ !"  
और तभी वेद ने एक अनावश्यक सा काम किया, जो जरूरी नहीं था, किन्तु उसी ने वेद की उस दिन की दिनचर्या बदल दी !
वेद ने  जेब से एक मुड़ा -तुड़ा सा कागज़ निकाल कर मेरे हाथ में  दे दिया और कहा - "देख, क्या लैटर भेजा है !"
वह साधारण से पेपर पर सम्बोधन के बाद एक लाइन लिखा पत्र था-
कृपया शीघ्र आकर मिलें !
                    राज कुमार गुप्ता !
मैंने पत्र पढ़ते ही कहा -"ये मनोज वालों का पत्र नहीं है - राज बाबू का है !" 
"फर्क है क्या दोनों में ...?" वेद ने पूछा !
"हाँ, यह राज पॉकेट बुक्स के लिए राज बाबू ने भेजा है !"
"पर मुझसे तो मनोज में भी राज बाबू ही बात करते थे !"
"तब वह मनोज में बॉस थे ! पर अब भाइयों में बंटवारा हो गया है और राज बाबू की फर्म अलग है !" 
"तो अब क्या करना चाहिए ?"
"चल मेरे साथ....!" मैंने वेद का हाथ पकड़ा और हम दरीबे से निकले ! बाहर से शक्ति नगर का ऑटो पकड़ा और शक्तिनगर !
राज बाबू मुझे और वेद को देख प्रसन्न हो गए और मेरी पीठ थपथपा कर बोले - "ये तूने बढ़िया काम किया ! मैं तुझे याद ही कर रहा था !"
फिर वेद का स्वागत करने के बाद चाय पिलाने के बाद राज बाबू मुझसे बोले - "योगेश बेटा, एक मिनट सुनना और वह दूर पैकिंग कर रहे मुलखराज के निकट बोले - ऐसा है बेटा, वेद जी से तो हमारी लम्बी बात चलेगी ! तीन चार घंटे लगेंगे ! तुझे को काम हो तो निपटा आ ! यहाँ बैठे बैठे बेकार बोर होगा !"
मेरे लिए यह इशारा था, जो मैं समझ गया ! वेद के निकट जा उसके कान में फुसफुसा कर बोला -"मैं चलता हूँ... गुड न्यूज़ देना !"   
"तू रुक ना...!" वेद ने कहा !
"राज बाबू तुझसे अकेले में बात करना चाहते हैं !" मैं धीरे से फुसफुसाया और बना झिझके पूछ लिया -"ऑटो के लिए पैसे वैसे हैं ना ?" 
वेद को बड़े जोर की हंसी आई -"बेइज़्ज़ती कर रहा है !"
"नहीं यार, यूं ही पूछ लिया, सॉरी !" मैंने कहा -"चलता हूँ !"
वेद ने कसकर हाथ मिलाया और मैं राज बाबू से भी विदा ले चल दिया !
उन दिनों राज बाबू का ऑफिस शक्तिनगर में किराए के बेसमेंट में था, जहां कोई केबिन नहीं था ! 
यह पहला अवसर था, जब राज बाबू ने किसी लेखक से बात करने के लिए  'इनडायरेक्ट वे' में मुझे जाने के लिए कह दिया था, वरना जब वह मनोज पॉकेट बुक्स के सर्वेसर्वा थे और आदरणीय गुलशन नंदा जी मनोज में छपने वाले अपने उपन्यास मेहंदी के सिलसिले में दिल्ली आने वाले थे तो गौरी भाई और राह बाबू दोनों ही अलग अलग मुझसे कहा था - "योगेश, फलाने दिन तू सुबह ही आ जाइयो, वो क्या है कि गुलशन नंदा जी आने वाले हैं, उनके स्वागत के लिए मनोज के लेखकों में से भी तो कोई होना चाहिए !"
और नंदा जी जब आये तो राज बाबू ने मेरा परिचय यह कहकर कराया कि "यह हमारे यहाँ का शब्दों का जादूगर है योगेश ! है छोटा, पर बड़े काम का है !"
तभी गौरीशंकर जी ने भी मेरा परिचय यह कहकर कराया कि"अजी नंदा जी, यह तो हमारे यहां का आलराउंडर है, कहानी लिखा लो, नॉवल लिखा लो, बच्चों का, जासूसी, सामाजिक, कविता, कॉमिक्स या और कुछ..!"            
दिल से लिखने या घटिया लिखने वाले विषय में वेद का जिक्र इसलिए कि बेहद परेशानी के दिनों में भी उसने जो भी लिखा उस में पाठकों को मनोरंजन की कमी कहीं नज़र नहीं आई !
वेद का जिक्र इसलिए भी कि मुश्किल वक़्त में वेद ने भी अपनी काबलियत से हल्के स्तर के कई उपन्यास लिखे, किन्तु फिर भी वह इन्टरटेनिंग रहे! 
किन्तु हर लेखक वेद जैसे शान्त चित्त का नहीं होता, इसलिए बड़े से बड़े लेखकों ने अक्सर बहुत घटिया भी लिखा है, उनमें मैं भी हूँ!
(शेष फिर कभी )

वेद की फर्म तुलसी पेपर बुक्स में सोनू पंडित में सभी उपन्यास मेरे लिखे हैं ! लेकिन इस उपन्यास शगूफा में वेद ने काफी ज्यादा फ़ार्म छापने थे ! अतः मैटर बहुत ज्यादा लिखवाया था, पर बाद में मुझे बताया कि मैटर बहुत ज्यादा हो रहा था, इसलिए आदरणीय गुरुदेव आबिद रिज़वी साहब से चालीस पचास पेज कटवाकर लिंक मिलवा लिया था।
तो कभी कभी ऐसा भी होता था की मैटर कटवा लिया जाता था और कभी मैटर कम पड़ने पर मुख्य लेखक से पूछ कर, किसी भी लेखक से बढ़वा लिया जाता था।
संस्मरण
योगेश मित्तल
(उपन्यासकार, दिल्ली निवासी)

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