आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 41
=================================।मेरठ में हम बस अड्डे पर ही उतरे। उसके बाद जब हम ठठेरवाड़ा के लिए रिक्शा ढूँढने लगे तो जल्दी ही कोई रिक्शा नहीं मिला।
पांचवें या छठे रिक्शेवाले ने ठठेरवाड़ा चलने के लिए हामी भरी तो हमारी जान में जान आई।
"बैठो योगेश जी !" बिमल ने मुझसे कहा।
बिमल की यह खास आदत थी, जब कोई साथ होता था तो अधिकांशतः खुद बाद में ही बैठते थे, दूसरे शख्स को पहले बैठाते थे।
दोनों के बैठने के बाद रिक्शेवाले ने रिक्शा दौड़ाया तो बिमल ने मुझसे कहा-"चलो, रिक्शा तो मिला।"
" बाबूजी, पहले आप जिन लोगों से बातें किये थे, सब पुलबेगम की तरफ रिक्शा चलाते हैं। उनमें शहर का कोई नहीं था।" बिमल की बात सुन रिक्शेवाला अचानक बोल उठा।
"ओह...अच्छा...!" बिमल ने कहा।
तभी रिक्शेवाले ने सवाल किया-"बाबूजी आप दिल्ली से आ रहे हैं...?"
"हाँ...!" बिमल ने कहा।
"फिर आपको दिल्ली चुंगी पर उतरना चाहिए था। दिल्ली से आने वाली बस दिल्ली चुंगी और डी.एन. कालेज पर भी रुकती है। उधर से ठठेरवाड़ा पास पड़ता।"
"अच्छा... !" बिमल मुस्कुराये और रिक्शेवाले से बोले-"पर अगर हम वहाँ उतर जाते तो आपके रिक्शे में कैसे बैठते बाबा। "
"हाँ, यह तो है।" रिक्शेवाला भी हंसा-"आज सुबह से मेरी भी बोहनी नहीं हुई थी । ऊपरवाला बड़ा कारसाज है। सबका ख्याल रखता है।"
रिक्शेवाला बड़ा बातूनी था। रास्ते भर कोई न कोई बात करता रहा।
बहुत से रिक्शेवाले बातूनी होते हैं, किन्तु बैठने वाली सवारी को उनसे सड़क, रास्तों, फिल्मों से ज्यादा बातें नहीं करनी चाहिए।
यह बात मुझे बिमल चटर्जी ने बाद में कभी समझाई थी।
और व्यक्तिगत तथा पारिवारिक बातों के अलावा राजनैतिक बातें भी हर किसी नये राह चलते मिलने वाले से नहीं करनी चाहिए।
आज के राजनैतिक उथल-पुथल वाले वातावरण में अक्सर मैं सीमा से बाहर निकल जाता हूँ, तब हमेशा बिमल की बातें याद आ जाती हैं। खैर, उस दिन रास्ते भर रिक्शेवाले का रेडियो चालू रहा। हम लोगों की तन्द्रा भंग तब हुई, जब रिक्शेवाले ने एक स्थान पर रिक्शा रोक कर कहा कि "बाबूजी, यही है ठठेरवाड़ा।"
शहर मेरठ की आम संकरी गलियों के मुकाबले वह सड़क कुछ चौड़ी अवश्य थी, पर दो गाड़ियों के दायें-बायें खड़े होने पर रास्ता लगभग बन्द ही हो जाता था।
रिक्शेवाले को पैसे देने के बाद हम वहाँ ज्योति पाकेट बुक्स का बोर्ड ढूँढने लगे, पर बोर्ड वहाँ कहीं होता तो नज़र आता। बोर्ड कहीं नज़र नहीं आया तो हम वहाँ आते-जाते इक्का-दुक्का लोगों से ज्योति पाकेट बुक्स के बारे में पूछने लगे, किन्तु तब भी हमें अपनी मंजिल का पता नहीं लगा तो मैंने बिमल से कहा-"पोस्ट कार्ड पर नीचे विपिन चन्द जैन का नाम लिखा है, क्यों न विपिन चन्द जैन के बारे में पूछें।"
बात बिमल को सही लगी।
हम जहाँ खड़े थे, वहीं सामने एक पन्द्रह-बीस फुट की एक बेहद संकरी गली थी, जो आगे से बन्द थी। अचानक उसी गली से भारी बदन का एक चौदह-पन्द्रह वर्षीय लड़का बाहर आया।
बिमल ने उसी को रोक, उससे पूछा -"सुनो भइया, यहाँ कोई विपिन चन्द जैन रहते हैं।"
सुनते ही वह लड़का तपाक से बोला-"भइया से मिलना है। अभी बुलाता हूँ।"
और अपनी कह, वह किशोर एक झटके से मुड़ गया और गली के किसी मकान में दाखिल हो गया।
वह मुन्ना था।
ज्योति पाकेट बुक्स के स्वामी विपिन चन्द जैन का छोटा भाई।
हमने सही व्यक्ति को पकड़ा था।
बकुछ ही क्षणों में मुन्ना के साथ एक काफी लम्बे गठीले शरीर का एक व्यक्ति सामने आया। आते ही उसने बिमल चटर्जी की ओर हाथ बढ़ा दिया और हाथ मिलाते हुए पूछा - "अभी आ रहे हो?"
बिमल को वह शक्ल से ही पहचान गया था ! तब तक उषा पॉकेट बुक्स में छपे दो उपन्यासों "खून की प्यास" और "कातिलों की घाटी" के बैक कवर पर बिमल की फोटो छप चुकी थी !
"हाँ...!" बिमल ने कहा।
"पता ढूँढने में कोई परेशानी तो नहीं हुई..?" उसने पूछा।
"परेशानी तो बहुत हुई।" बिमल ने कहा-"हम तो ज्योति पाकेट बुक्स का बोर्ड ढूँढ रहे थे। कहीं बोर्ड दिखा ही नहीं...!"
"हाँ, अभी कोई आफिस नहीं बनाया, इसलिए बोर्ड नहीं दिखा आपको। अभी बोर्ड बनवाया भी नहीं है ! पहले काम तो शुरू हो ! बोर्ड-वोर्ड तो बनते रहेंगे ! अगली बार आफिस में ही मिलेंगे। तो बोर्ड भी लगा मिलेगा !" वह लम्बा व्यक्ति बोला। फिर एक पल रुक कर पुनः बोला-"आइये, बैठकर बातें करते हैं।"
फिर उसने मेरी ओर देखा। उसका आशय, उसके बिना बोले ही बिमल जान गये और बोले-"यह योगेश जी है। इनके कद पर मत जाना। बहुत बड़े लेखक हैं। माँ सरस्वती की इन पर बहुत ज्यादा कृपा है।"
वह लम्बा व्यक्ति ज्योति पाकेट बुक्स का मालिक विपिन चन्द जैन था। उसने मेरी ओर हाथ बढ़ाया। मुझसे हाथ मिलाया, किन्तु मुझसे हाथ मिलाने में उसने वो गर्मजोशी नहीं दिखाई, जैसी बिमल के साथ हाथ मिलाते हुए नज़र आई थी।
विपिन जैन हमें एक धर्मशाला के बाहर बने एक टी स्टाल तक ले आये।
टी स्टाल के बाहर पड़ी बेंच पर हम बैठे। विपिन ने चाय वाले को तीन स्पेशल चाय बनाने का आर्डर दिया। फिर वार्तालाप का क्रम शुरू करते हुए बोला-"बिमल जी, ऐसा है - हम आपके लिखे इमरान-विनोद-हमीद सीरीज़ के उपन्यास छापना चाहते हैं, पर हम नावल सीरीज में छापना चाहते हैं, जैसी सीरीज़ परशुराम शर्मा की आई है।"
दोस्तों, उन दिनों उपन्यास जगत में एक नये लेखक परशुराम शर्मा की जबरदस्त धूम थी।
परशुराम शर्मा की "आग सीरीज" ने हर पुस्तक विक्रेता और पाठक की जुबान पर परशुराम शर्मा का नाम चस्पाँ कर दिया था। सीरीज इतनी ज्यादा पसन्द की जा रही थी कि हर पाठक पुस्तक विक्रेता के सामने पहुँचते ही पहला सवाल यही करता था कि परशुराम शर्मा का कोई नया नावल आया।
मुझे और बिमल को यह इसलिए भी पता था, क्योंकि बिमल स्वयं भी लाइब्रेरियन थे और हमारा वास्ता भी रोज ही ऐसे पाठकों से पड़ रहा था।
पर परशुराम शर्मा के उपन्यास की मांग का यह हाल था कि तब तक बिमल और मैने परशुराम शर्मा की "आग सीरीज" का एक भी उपन्यास नहीं पढ़ा था।
विपिन जैन ने जब परशुराम शर्मा की "आग" सीरीज़ जैसी सीरीज़ लिखने की बात की तो बिमल ने एक क्षण गम्भीर होकर कुछ सोचा, फिर पूछा - "एक नावल कितने फार्म का होगा और एक पेज में कितनी लाइन होंगी...?"
"ऐसा है - हमारा इरादा तो सत्ताइस- अट्ठाइस लाइन से आठ-नौ फार्म छापने का है। आप लिखना शुरू कीजिये। लाइनें और फार्म जरूरत पड़ी तो बढ़ाये भी जा सकते हैं। पर नावल के नाम आप अभी दे दीजिये। मैं टाइटिल बनने दे दूंगा। आर्टिस्ट भी हफ्ते भर का टाइम तो लेगा ही। उसके बाद प्रोसेसिंग और टाइटिल की छपाई में भी वक़्त लगेगा। तब तक आप चारों नावल भी तैयार कर दीजिएगा। तीन नावल एक साथ छापेंगे। चौथा और आखिरी उपन्यास विशेषांक होगा। मोटा होगा। उसमें आपको ज्यादा मैटर देना होगा। वो हम महीने बाद छापेंगे।"
"ठीक है!" बिमल ने कहा। फिर एकदम मेरे कन्धे पर हाथ रखकर विपिन से कहा-"ये योगेश जी हैं। जहाँ मैं लिखता हूँ - वहीं ये भी लिखते हैं। इनके लिए भी कुछ बताइये।"
बिमल ने इतने मुंहफट ढंग से मेरे लिए काम माँगा था कि विपिन जैन अचकचा गया और बोला-"इनके लिए तो अभी कुछ भी प्लानिंग नहीं है। आगे काम बढ़ेगा तो इनके लिए भी कुछ सोच लेंगे।"
बिमल ने सिर दायें-बायें हिलाया और बड़ी ही दिलफरेब मुस्कान के साथ मीठे स्वर में बोले-"जैन साहब, योगेश जी के बिना तो मेरा एक कदम भी बढ़ना मुश्किल है। योगेश जी तो मेरा दायाँ-बायाँ हाथ हैं, इन्हें मेरा छोटा भाई समझिये। फिर सोचिये - इनके लिए कोई काम नहीं है तो मुझे भी आपके लिए लिखने के बारे में सोचना पड़ेगा।"
तभी चाय वाले ने कांच के तीन गिलासों में चाय हम तीनों को थमा दी।
"चाय पीजिये।" विपिन ने कहा और फिर पूछा-"साथ में कुछ लेंगे..?"
किन्तु सवाल पूछने के साथ ही विपिन ने चाय वाले से कहा-"भई कुछ मट्ठी-बिस्कुट भी दो।"
चाय वाले ने एक प्लेट में मट्ठी-बिस्कुट रखकर पेश कर दिये।
मेरी मनोस्थिति उस समय बड़ी विचित्र हो गई थी। मुझे साफ लग रहा था कि विपिन जैन मुझे छापने की स्थिति में नहीं है और बिमल ने उसे असमंजस की स्थिति में डाल दिया था, ऐसे में मैं खुद को एक विलेन जैसा महसूस कर रहा था।
प्लेट से एक मट्ठी उठा मेरी ओर बढ़ाते हुए विपिन पहली बार सीधे मुझसे मुखातिब हुआ-"योगेश जी, आप क्या-क्या लिख लेते हैं?"
किन्तु विपिन जैन के इस सवाल का मुझसे पहले बिमल ने जवाब दे दिया-"योगेश जी सब कुछ लिख सकते हैं। आप यह बताइये लिखना क्या है?"
"ऐसा है बिमल जी, हम पहला सैट ज्यादा से ज्यादा छ: किताबों का निकालेंगे। तीन तो बिमल जी की हो जायेंगी। बाकी दो किताबें भी तैयार हो जायेंगी। एक किताब हम विक्रांत सीरीज़ की निकालने की सोच रहे हैं, जो ओम प्रकाश शर्मा के नाम से छापेंगे। वो आप लिख सको तो फिर कोई प्राब्लम नहीं है।"
दोस्तों, उस समय तक मुझे पता ही नहीं था कि विक्रांत सीरीज़ क्या है। मैंने विक्रांत सीरीज़ का कोई उपन्यास नहीं पढ़ा था, इसलिए मै यह बात विपिन जैन को बताना ही चाहता था कि बिमल ने कह दिया-"ठीक है, विक्रांत सीरीज़ योगेश जी लिखेंगे।"
और तुरन्त ही मैंने होंठ सी लिए।
बिमल की बात के जवाब में विपिन जैन ने मुंह खोला-"तो ठीक है! आप नाम भी बता दीजिये।"
नामकरण संस्कार बिमल ने ही किया। बिमल ने अपने लिए चार उपन्यासों के नाम सुझाये-"पहली चोट, दूसरी चोट, तीसरी चोट और चौथा विशेषांक वाला नाम चोट पर चोट।
इसके बाद मेरे उपन्यास के लिए नाम सुझाया - विक्रांत और वेताल।
सारी बातें हो चुकने के बाद
पारिश्रमिक की बात भी हुई।
विपिन मुझे एक उपन्यास के पिचहत्तर रुपये देना चाहता था, पर बिमल अकड़ गये कि एक उपन्यास के कम से कम सौ रुपये तो होने ही चाहिए। अन्ततः विपिन जैन ने सौ रुपये के लिए हामी भर दी।
उसके बाद बिमल ने अपनी चिर-परिचित बेहद खुबसूरत मुस्कान उभारते हुए बड़े प्यार से कहा-"जैन साहब, कुछ बोहनी भी करा दीजिये।"
"हां- हां जरूर...!" विपिन जैन ने कहा और बिमल को सौ का नोट एडवांस थमा दिया। तब बिमल ने गर्दन घुमा मेरी ओर इशारा किया तो विपिन जैन ने मुस्कराते हुए मुझे भी पच्चीस रुपये थमा दिये।
(शेष फिर)
दोस्तों, इस किश्त का समापन, मैं जहां करना चाहता था, वहां तक नहीं पहुँच पाया ! कुछ तो सर्दी में ठिठुरन कुछ ज्यादा है और दूकान पर भी व्यस्तता अधिक रहने के कारण करेक्शन का काम देर रात तक करना पड़ता है ! कभी-कभी सोने में रात के दो बज जाते हैं ! पर सुबह मैं अमूमन पांच-साढ़े पांच तक उठ ही जाता हूँ और नींद व थकान अल्प समय भी दूर कर लेता हूँ ! इसे गॉड गिफ्ट ही कहिये कि मेरा मनोबल बहुत मजबूत है और मानसिक रूप से मैं खुद को कभी थका हुआ नहीं महसूस करता ! अतः उम्मीद है स्वास्थ्य आजकल जैसा भी रहा तो जल्दी ही अगली किश्त भी प्रस्तुत करूंगा
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