उपन्यास साहित्य का रोचक संसार,भाग -39,40
योगेश मित्तल जी के स्मृति कोष से
आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 39
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अगले कुछ दिनों में बस एक विशेष बात हुई ! पिताजी कलकत्ते से हमेशा के लिए दिल्ली आ गये ! कलकत्ते में हमारे घर में जो-जो सामान था, अधिकांश वहीं बेच दिया या मुफ्त में किसी पड़ोसी को दे दिया ! सिर्फ कपड़े और कुछ एक हल्की-फुल्की चीजें साथ ले आये थे, जिनमें शार्प झंकार का वह रेडियो भी था, जो बचपन के दिनों में हमारी सबसे प्रिय वस्तु हुआ करता था !
घर में रेडियो आ गया था, हम सब रेडियो पर फिल्मी गाने व हवामहल जैसे प्रोग्राम सुनना चाहते थे, लेकिन यह सम्भव न हुआ !
मकानमालिक जगदीश गुप्ता ने कहा -"रेडियो चलाओगे तो दस रुपये महीना देने होंगे !"
और दस रुपये उन दिनों बहुत होते थे !
पास ही के एक जाट रणवीर सिंह की गाय-भैंस के दूध की डेयरी से घर की चाय के लिए दूध लाया जाता था और सबके सामने रणवीर सिंह दूध दुह कर बेचा करता था, वह दूध उन दिनों पचास पैसे किलो होता था !
पिताजी डाॅक्टर थे ! बहुत भाग-दौड़ करने पर शीला सिनेमा टाकीज, पहाड़गंज, नई दिल्ली स्टेशन के पीछे जा रही एक सड़क पर उन्हें एक छोटी-सी दुकान किराए पर मिल गयी, जहाँ उन्होंने अपना क्लिनिक खोल लिया !
वे दिन हमारी आर्थिक परेशानियों के बड़े भारी दिन थे !
हम जगदीश गुप्ता के जिस मकान में किराए पर रह रहे थे, उससे पहले हम वहीं आगे की एक गली में सरदार जीतसिंह के मकान में रह चुके थे ! तब सरदार जीतसिंह के बच्चों बिमला, कान्ता और काले को मैं पढ़ाया भी करता था !
सरदार जीतसिंह के मकान के बिल्कुल साथ वाला मकान एक मुल्तानी विधवा का था, जिनके चार बच्चे थे ! सबसे बड़ी इन्दिरा दीदी, उनसे छोटा राम, उससे छोटा किशोर और सबसे छोटी बेबी !
राम की मेरे छोटे भाई राकेश से गहरी दोस्ती हो गई थी !
राकेश गाँधीनगर में हमारे शुरुआती दिनों में ही पुश्ते में रहनेवाले पारिवारिक मित्र अब्बास अहमद के यहाँ जरी के काम की एम्ब्रायडरी मशीन पर काम करने लगा था !
बाद में पड़ोस में रहनेवाले राम ने भी मशीन लगा ली और वह राकेश से काम सीखने लगा ! राम बहुत होशियार लड़का था ! बहुत जल्दी वह काम सीख गया ! बाद में वह किसी परिचित के यहाँ जालन्धर चला गया और वहीं मशीनें लगा लीं और मेरे छोटे भाई राकेश को भी अपने साथ वहीं ले गया ! राकेश की उम्र उस समय मुश्किल से चौदह साल रही होगी !
उन दिनों हमारे घर के पास ही एक्सपोर्ट का माल बनवाने वाला सिलाई का एक कारखाना था, जहाँ दिन-रात सिलाई का काम होता था और वहाँ रेडीमेड शर्ट तैयार की जाती थीं !
उन शर्ट्स पर काज-बटन करने का काम मोहल्ले की औरतें करती थीं !
उन्हीं औरतों में से एक ने मेरी मम्मी और बड़ी बहन मधु को भी काज-बटन का काम दिलवा दिया ! एक शर्ट में काज-बटन करने के तब दस पैसे मिलते थे ! दस रुपये कमाने के लिए सौ शर्ट्स पर काज-बटन करने पड़ते थे !
उन्हीं शुरुआती दिनों में मुझे भी घर की बुरी आर्थिक स्थिति के कारण रोज मालीवाड़े जाकर आरी मशीन के एक कारखानेदार सोमनाथ रस्तोगी के यहाँ काम करना पड़ा था !
उन दिनों गोल्डेन और सिल्वर जरी तथा रेशम के धागे लच्छियों में आते थे, जिन्हें एक चरखड़ी में चढ़ाकर आरी मशीन में लगनेवाली लकड़ी की डिक्कट में भरना होता था !
वहाँ मुझे भी एक डिक्कट भरने के दस पैसे मिलते थे और पूरे दिन में मैं सत्तर से अस्सी के बीच ही डिक्कट भर पाता था, लेकिन बिमल चटर्जी की दोस्ती और कहानियाँ लिखने की शुरुआत ने मुझे उस उबाऊ काम से बाहर निकाल दिया था !
पर यह सब जिक्र इसलिए कि पिताजी जब परमानेन्ट दिल्ली आ गये, लेकिन पिताजी के दिल्ली आगमन से पहले से ही पारिवारिक सहमति से छोटा भाई राकेश राम के साथ जालन्धर रहने लगा था !
जालन्धर में गर्म शाॅलों पर कढ़ाई का काम उन दिनों बहुत जोरों पर था !
हम सभी घर के लोग राकेश को बहुत 'मिस' करते थे, लेकिन घर में हर दिन पैसों की कमी ने सब सहन करना सिखा दिया था !
रामनगर में पिताजी की प्रैक्टिस अच्छी चलने लगी तो आर्थिक हालात बहुत बेहतर हो गए और हमने घर में रेडियो चलाने के दस रुपये भी खर्च करने शुरू कर दिए !
रेडियो चलने से विविध भारती के सतरंगी प्रोग्राम सुनने का अवसर मिलने लगा ! रात नौ बजे नाटकों का कार्यक्रम हवामहल और दस या साढ़े दस बजे आनेवाला पुराने गीतों का कार्यक्रम छायागीत हमारे घर में सभी को बहुत पसन्द था !
पिताजी आ गये तो मेरे सभी दोस्त समय-समय पर उनसे मिलने घर आये ! खास बात यह रही कि वे सभी - जो मेरी मम्मी को मम्मी जी ही कहते थे, पिताजी को भी 'पिताजी' ही कहने लगे !
वह 'अंकल-आंटी' के सम्बोधन का जमाना नहीं था ! निकटतम पारिवारिक मित्रों और पड़ोसियों को चाचाजी-चाचीजी या ताऊजी-ताईजी का कहने का रिवाज था, पर मेरे माता-पिता को मेरे सभी दोस्तों से मम्मी-पिताजी का सम्बोधन ही मिला !
पिताजी के आने के बाद लिखने की गति कुछ दिनों मन्द रही !
जब पिताजी रोज रामनगर अपने क्लीनिक जाने लगे, तब दिनचर्या फिर से पहले जैसी हो गई !
पिताजी सुबह-शाम क्लीनिक खोलते थे, पर वह घर से दिन का खाना साथ लेकर सुबह ही निकल जाते थे !
सुबह नौ से एक बजे तक मरीजों को देखते थे ! फिर वहीं आराम करते थे ! उसके बाद शाम चार से आठ बजे तक क्लीनिक टाइम था !
सुबह साढ़े सात-आठ के बीच घर से निकले पिताजी रात नौ बजे के बाद ही घर आते थे !
पिताजी को जासूसी उपन्यास पढ़ने का बहुत शौक था ! मुझे भी पढ़ने की लत पिताजी से ही लगी थी ! कलकत्ते में तो पिताजी के द्वारा लाये उपन्यास उनकी नज़रें बचाकर, चोरी-छिपे ही पढता था, पर दिल्ली में मेरी बन आई थी, क्योंकि पिताजी जान चुके थे कि अब मैं भी कहानियां और उपन्यास लिखने लगा हूँ, इसलिए उनकी ओर से मेरे पढ़ने पर कोई रोक-टोक नहीं रही थी ! हाँ, पिताजी ने एक बार पढ़ाई शुरू करने को कहा तो मैंने उन्हें बता दिया कि गांधीनगर में वीपी कॉलेज नाम के एक प्राइवेट कोचिंग सेंटर में बात की थी तो वह दसवीं कक्षा में एडमिशन देने के लिए चार सौ रुपये मांग रहे थे, जोकि हमारे पास नहीं थे और कलकत्ते श्री डीडू माहेश्वरी पंचायत विद्यालय को मैंने मार्कशीट और स्कूल छोड़ने का सर्टिफिकेट भेजने का पत्र लिखा था, उसका अब तक कोई जवाब नहीं आया है !
वह समय बंगाल में नक्सलवादी गतिविधियों का था !
बिमल चटर्जी की लाइब्रेरी से मैं रोज एक उपन्यास लाकर पिताजी को दे देता था, जो पिताजी अपने क्लिनिक ले जाते थे, जब मरीज नहीं होते या दोपहर के आराम के वक्त वह उपन्यास पढ़ते थे, जो रात को घर आने तक अक्सर पूरा पढ़ा जा चुका होता था !
एक दिन पिताजी ने फरमाइश की कि सुरेन्द्र मोहन पाठक का कोई उपन्यास हो तो ले आऊं !
मैं उसी दिन बिमल चटर्जी से सुरेन्द्र मोहन पाठक के पांच-छह नए-पुराने उपन्यास, पिताजी के लिए मांगकर ले आया और पिताजी के लिए लाया था तो खुद क्यों न पढ़ता ! खुद भी पढ़े तो अचानक मन में सुरेन्द्र मोहन पाठक से मिलने का विचार आया !
सुरेन्द्र मोहन पाठक के कई उपन्यासों में पाठकों के नाम उनका पत्र भी होता था और पत्र के आखिर में घर का पता - एच 2/4 कृष्णानगर भी लिखा होता था !
एक दिन अरुण घर आया हुआ था, तब उससे सुरेन्द्र मोहन पाठक का जिक्र छिड़ गया तो मैंने उससे पूछा -"यार यह कृष्णानगर का इलाका तूने देखा है ?"
"बहुत अच्छी तरह !" अरुण ने कहा !
"तो चल, किसी दिन सुरेन्द्र मोहन पाठक के यहां चलते हैं ! बड़ा मन कर रहा है उनसे मिलने का ?"
"ठीक है संडे को सुबह चलते हैं ! छुट्टी के दिन तो पाठक साहब घर पर ही मिलेंगे ! बाकी दिन का तो कुछ भी पता नहीं...!"
और फिर तय यह हुआ कि रविवार के दिन सुबह नौ-दस बजे तक अरुण मेरे घर आ जाएगा और फिर हम दोनों कृष्णनगर जाएंगे !
तय प्रोग्राम के अनुसार रविवार को अरुण मेरे घर आ गया ! उस रोज वह एक साइकिल पर आया था ! उसने मुझसे साइकिल में पीछे के कैरियर पर बैठने को कहा, लेकिन मेरे छोटे कद ने मुझे आस-पास से गुजरते लोगों में हंसी का पात्र बना दिया !
मैंने उछल-उछलकर साइकिल पर बैठने की कोशिश की, किन्तु नहीं बैठ पाया ! आस-पास से गुजरनेवाले लोग, जिनमे बच्चे भी थे, हंसने लगे तो अरुण को बुरा लगा ! उसने मुझे आगे आने को कहा ! मैं आगे आया तो उसने अपने लम्बे और मजबूत हाथ से कंधे के पास से मेरी बांह थामी और खींचकर मुझे साइकिल के हैंडल और सीट के बीच के डंडे पर बैठा लिया तथा तत्काल पैडल पर पैर मारकर साइकिल दौड़ा दी !
कृष्णनगर पहुँच एक स्थान पर पहुँच अरुण ने साइकिल रोक दी, फिर दूर से ही एक मकान के गेट की तरफ इशारा किया -"वो है पाठक साहब का घर !"
"तू पहले भी आया था क्या यहां ?" मैंने आश्चर्य से पूछा !
"हाँ, कल आकर देख गया था !" अरुण सहजता से बोला - "तुझे पाठक साहब से मिलाना जो था ! नहीं आता तो आज घर ढूंढने के लिए भी भटकना पड़ता !"
"अच्छा ! तो कल तू पाठक साहब से मिला भी होगा ?" मैंने पूछा !
"नहीं !" अरुण ने कहा !
"नहीं !" मुझे आश्चर्य हुआ -"तू यहां तक आया और पाठक साहब से मिला भी नहीं ?"
"हाँ, और आज भी मुझे नहीं मिलना ! तू जा और मिल आ ! मैं यहीं तेरा इंतज़ार करूंगा !" अरुण ने कहा !
"पर क्यों ? साथ चल ना ! अकेले मुझे अच्छा नहीं लगेगा !"
"और साथ जाते मुझे भी अच्छा नहीं लगेगा ! एक तो मैंने पाठक साहब का अभी तक कोई उपन्यास नहीं पढ़ा ! दूसरे अपने बारे में क्या बताऊंगा - यह कि बेरोजगार हूँ और इधर-उधर से नक़ल मारकर कहानियां लिखता हूँ, वो भी योगेश से ठीक करवानी पड़ती हैं ! तू तो बड़ा लेखक है - आसानी से कह देगा कि आनेवाले वक्त का इब्ने सफी या मुंशी प्रेमचंद तूने ही होना है, पर मैं ऐसा कुछ नहीं कह सकता ! अपन तो तभी किसी बड़े राइटर से मिलेंगे - जब उसे हमसे मिलकर खुशी होगी !"
"तू मेरा मज़ाक उड़ा रहा है ?" अरुण की इब्ने सफी और मुंशी प्रेमचंद वाली बात से खिन्न होकर मैंने कहा !
"हाँ !" अरुण ने कहा !
"क्या हाँ ?" मैंने प्रश्नवाचक नज़रों से अरुण को देखा तो वह बहुत ही सहज शब्दों में बोला -"मैं तेरा मज़ाक ही उड़ा रहा हूँ ! अबे साले, अभी तुझे जानता ही कौन है ? सिर उठाकर पाठक साहब से मिलने चला आया, जैसे वो खाली बैठे हैं - तुझसे मिलने के लिए ! क्या कहेगा - क्या है तू ? क्यों मिलने आया है पाठक साहब से ?"
"मैं कहूंगा, पाठक साहब मैं आपका बहुत बड़ा 'फैन' हूँ ! मिलने आया हूँ ! इसके अलावा कुछ भी कहना जरूरी नहीं है !" मैंने कहा !
"हाँ, ठीक है, तू यह कह सकता है ! तूने पाठक साहब के नॉवल पढ़े हैं ! मैंने नहीं पढ़े - मैं यह भी नहीं कह सकता ! आज तू मिल आ ! अगली बार दोनों मिलेंगे !" अरुण ने कहा ! फिर अंगुली के इशारे से बताया - "वो गेट है ! वहां जाकर गेट थपथपा और जोर से आवाज़ लगा !"
मैंने अरुण से बहस नहीं की ! जानता था कि वह ज़िद्द का पक्का है !
गेट के पास पहुँच मैंने गेट के लैच को हिला-हिलाकर बजाया और आवाज़ लगाई -"पाठक साहब !"
लोहे के मेनगेट के बाद अंदर सामने दो दरवाजे थे ! एक बायीं ओर तीसरा दरवाज़ा भी था !
वही तीसरा दरवाज़ा खुला और उसमें से फ़िल्मी हीरो संजीवकुमार की से पर्सनालिटी का एक शख्स प्रकट हुआ और निकट आकर उसने लोहे के फाटक का लैच हटाया !
मुझे देखते ही उसने प्रश्नपूर्ण निगाहों से मुझे देखा ! इससे पहले कि वह कुछ बोलता मैंने कहा -"सुरेन्द्र मोहन पाठक...?"
उसने कोई जवाब दिए बिना फाटक खोल नम्रता से कहा -"आइये अंदर आइये !"
मैं उसके पीछे-पीछे हो लिया ! मन ही मन सोच रहा था कि यही सुरेन्द्र मोहन पाठक है या उनका कोई भाई ?
पाठक साहब से कभी मिला तो था नहीं ! सिर्फ एक बार दरीबे में एक झलक देखी थी !
कोने के जिस दरवाजे से वह शख्स प्रकट हुआ था, उसी में मुझे ले गया !
वह आधा-अधूरा ड्राइंग रूम जैसा कमरा था ! दरवाजे की साइड में ही एक टेबल और उसके पीछे एक कुर्सी थी ! उसके पीछे दीवार में आलमारी थी, जिसमें बहुत सी किताबें पुष्ट के बल ऐसे रखीं थी कि नाम साफ़-साफ़ पढ़ा जाता था ! दरवाजे के साथ की दीवार से सटा लकड़ी का एक सोफा था, जिस पर बिछी गद्दियों और बैक पिलो के कवर का रंग गहरा था !
"बैठिये !" उस शख्स ने मेज पर ढक कर रखे एक जग के ऊपर की प्लेट हटाई और वहीं पलटकर रखे एक कांच के गिलास को सीधा किया और जग से गिलास में पानी उड़ेलकर मेरी ओर बढ़ाया !
गिलास थामते हुए मैंने अटकते-अटकते शब्दों में कहा -"सुरेन्द्र मोहन पाठक जी से मुलाक़ात हो सकती है ?"
"नाचीज़ सामने खड़ा है !" उस शख्स ने कहा और मेरे लिए यह अचम्भा ही था कि इतना बड़ा लेखक खुद मेरे लिए दरवाज़ा खोलने आया और मेरे लिए पानी का गिलास तैयार किया !
मैं एकदम उठ खड़ा हुआ -"आप पाठक साहब, मैं सोच तो रहा था, पर फिर सोचा कि..."
तभी पाठक साहब ने मेरी बात काट दी ! मुझसे बोले -"आपकी शक्ल कुछ देखी-देखी सी लग रही है ! हम और आप पहले कभी मिले हैं क्या ?"
"नहीं, मिलने की तरह तो नहीं मिले, पर एक बार दरीबे में आमना-सामना हुआ था ! मैं राज भारती जी के साथ था और आप रतन एंड कंपनी से लौट रहे थे !"
"राज भारती नाम बहुत सुना है, पर कभी मिलने का सौभाग्य नहीं हुआ !" सुरेन्द्र मोहन पाठक ने मुझसे कहा ! फिर पूछा -"आपका शुभ नाम क्या है ?"
"योगेश मित्तल !" मैंने बताया !
"पढ़ते हैं ?"
"नहीं, मैं भी कहानियां लिखता हूँ !" मैंने दबी जुबान से, बहुत धीमे से कहा ! सच कहूँ तो मुझे पाठक साहब के 'पढ़ते हैं' के जवाब में खुद को लेखक बताते हुए ही बहुत झिझक हो रही थी !
तभी अंदर कहीं से कोई आहट हुई !
"योगेश जी, एक मिनट मैं अभी आया !" पाठक साहब ने कहा और कमरे के एक और अंदरूनी दरवाजे की ओर बढ़ गए ! उस दरवाजे से गायब होने के बाद वह कुछ ही क्षणों बाद फिर प्रकट हुए और बड़ी विनम्रता से बोले -"योगेश जी, आज के लिए क्षमा चाहूंगा ! दरअसल आज एक पारिवारिक फंक्शन में जाना है !"
"ओह ! लगता है, मैं आज गलत समय आ गया हूँ !"मैंने मुस्कुराते हुए कहा और फिर तुरंत ही मैं भी पानी का गिलास खाली कर उठ खड़ा हुआ !
"ऐसा कुछ नहीं है योगेश जी ! मुझे तो बहुत अच्छा लगा है कि आप मुझसे मिलने आये ! रब ने मुझे इस लायक बनाया है तो हम दोबारा भी मिलेंगे, बल्कि बार-बार मिलेंगे !" यह कहकर
पाठक साहब ने बड़ी गर्मजोशी से मुझसे हाथ मिलाया ! फिर अपनी बांह मेरे कंधे पर ले जाते किसी घनिष्ठ मित्र की तरह बोले -"आज की आपकी हाज़िरी नहीं लगाई जाएगी ! फिर आइयेगा ! बैठेंगे ! कुछ गपशप करेंगे !"
और जब मैं पाठक साहब से विदा ले बाहर पहुंचा, अरुण साइकिल लिए एक पोल के निकट स्थिर खड़ा था ! मुझे देखकर बोला -"मिल आया ?"
"हाँ !" मैंने कहा !
पर मन ही मन सोच रहा था - यह मिलना भी कोई मिलना था !
(शेष फिर )
और आख़िरकार मेरठ से बिमल चटर्जी को बुलावा आया तो मेरी लाटरी मुफ्त में निकल आई !
और हाँ, अरुण को पसंद नहीं था कि मैं किसी भी दोस्त या परिचित को उससे ज्यादा महत्त्व दूँ !
आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 40
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अरुण साइकिल लिए साथ चलता रहा। मैं भी उसके साथ-साथ पैदल चलता रहा।
"क्या बात हुईं पाठक साहब से...? " कुछ देर बाद अरुण ने मन में घुमड़ रहा सवाल उगला।
"कुछ नहीं, आज उन्हें कहीं जाना था। जाने के लिए तैयार खड़े थे, इसलिए मैंने फिजूल ही रुकना उचित नहीं समझा।" कहकर मैंने शब्द-दर-शब्द पूरी बात अरुण को बता दी।
अरुण ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। बोला-"अब घर चलें..?"
"हाँ...!" मैंने स्वीकारोक्ति में गर्दन हिलाई।
"बैठ फिर.....!" उसने साइकिल पर मुझे बैठाया और फिर साइकिल दौड़ा दी।
मुझे घर छोड़ अरुण भी अपने घर चला गया।
घर पर मम्मी ने बताया बिमल चटर्जी आये थे। पूछ रहे थे -"योगेश जी कहाँ हैं?"
मैं चूंकि मम्मी को कुछ बताकर नहीं गया था, इसलिए मम्मी कुछ बता नहीं सकीं। पर बिमल मम्मी को मैसेज दे गये थे कि योगेश जी आयें तो दुकान पर भेज दें।"
मैं जब बिमल चटर्जी की विशाल लाइब्रेरी में पहुँचा तो मुझे देखते ही बिमल के चेहरे पर आने वाली मुस्कान और प्रसन्नता लाजवाब थी। मेरे दुकान में प्रविष्ट होते ही मुझे पकड़ कर सीने से लगा लिया और बोले -"योगेश जी, खुशखबरी है, बोलो, क्या खाओगे....?"
मैं हंसा -"पहले खुशखबरी तो सुनाओ।"
मेरी बात के जवाब में बिमल ने एक पोस्ट कार्ड मेरी ओर बढ़ा दिया और बोले -"कल घर के पते पर यह लैटर आया था ! रात को घर गया तो तुम्हारी भाभी ने दिया ! मैं सुबह ही गया यहां आपके घर, पर मम्मी ने बताया, आप अरुण के साथ कहीं गए हो !"
बिमल ने यह नहीं पूछा कि मैं कहाँ गया था ! उस समय मैंने बताया भी नहीं !
पोस्ट कार्ड मेरठ से आया था और उसकी फ्रन्ट साइड पर सबसे ऊपर ज्योति पाकेट बुक्स नाम और उसका पता “ठठेरवाड़ा” छपा हुआ था।
पत्र में लिखा था कि प्रकाशक महोदय बिमल चटर्जी के उपन्यास उसके नाम से छापना चाहते हैं। अत: बिमल चटर्जी मेरठ आकर मिलने की कृपा करें।
पत्र के मजमून के बाद आखिर में पत्र लिखने वाले प्रकाशक का नाम लिखा था - विपिन चन्द जैन।
पत्र पढ़कर मैंने बिमल की ओर बढ़ा दिया और मुस्कराते हुए बोला-"वाकई खुशखबरी है तो आप कब जा रहे हैं मेरठ...?"
"जब आप कहो।" बिमल ने कहा तो मैं बोला -"मैं तो कहता हूँ - आज ही निकल जाओ। आपके पीछे लाइब्रेरी मैं सम्भाल लूंगा। अब तो सारे कस्टमर्स को भी मैं पहचानता हूँ। कस्टमर्स भी मुझे पहचानते हैं।"
"ना...!" बिमल ने तत्काल अपनी गर्दन दांये-बांये घुमा दी- "जायेंगे तो दोनों भाई जायेंगे।"
"मैं क्या करूँगा जाकर।" मैंने बिमल को समझाया-"यहाँ रहूँगा। दुकान खुली रहेगी तो चार पैसे भी आयेंगे। कस्टमर्स भी परेशान नहीं होंगे।"
"कोई बात नहीं। हम अगले सण्डे को चलेंगे। दुकान की चाभी राजेन्द्र को दे जायेंगे, वही सम्भाल लेगा।"
राजेन्द्र शर्मा बिमल चटर्जी का पुराना मित्र था। मुझसे बहुत पुराना। यूँ समझिये कि उस गली में जब से बिमल ने लाइब्रेरी खोली थी, सबसे पहले बिमल के दोस्त बनने वालों में से एक था।
"पर सण्डे में अभी बहुत दिन हैं !" मैंने कहा !
"कोई बात नहीं, जिसने हमें छापना है - सण्डे तक इंतज़ार कर लेगा और तब तक हम अपने हाथ के काम निपटा लेंगे !" बिमल ने कहा !
"पर मैं मेरठ जाकर क्या करूँगा। यहीं रहकर कुछ न कुछ तो जरूर करूँगा। मेरा वहाँ कोई काम नहीं है। आप अकेले हो आइये।" मैंने बिमल को समझाने की बहुत चेष्टा की, लेकिन बिमल ने यह कहकर ‘वीटो पावर’ जाहिर कर दी कि “कोई अगर-मगर नहीं। दोनों भाई मेरठ जायेंगे। बस, हो गया फैसला।"
मैंने अन्तिम हथियार फेंका-"मम्मी-पिताजी नहीं मानेंगे।"
"मम्मी-पिताजी से मैं बात कर लूँगा।" बिमल ने कहा।
और फिर लंच के लिए लाइब्रेरी बन्द करने के बाद बिमल मेरे साथ मेरे घर ही गये और बता दिया कि आने वाले रविवार को हम लोग मेरठ जा रहे हैं।
और जैसा कि बिमल का तो आत्मविश्वास था ही, लेकिन मुझे भी पता था कि मुझे कोई मना नहीं करेगा अर्थात मेरठ जाने की परमिशन तत्काल मिल गई। हाँ, मम्मी ने यह अवश्य कहा कि मेरठ जायेगा तो रानो से भी मिल आना और मामाओं से भी मिल आना।
पिताजी ने शीला टाकीज के पीछे स्थित रामनगर में अपना क्लिनिक खोल लिया था, अतः घर पर नहीं थे, किन्तु मम्मी से बिमल चटर्जी को मुझे अपने साथ मेरठ ले जाने की इजाजत सहर्ष मिल गई थी।
मैं तो एक बार कई साल पहले, अपने पिताजी के साथ पहले भी मेरठ जा चुका था ! बिमल के लिए वह पहला सफर था या नहीं, यह याद नहीं, किन्तु मेरठ के प्रकाशकों का क्षेत्र उनके लिए बिल्कुल अनजाना था, यह बाद में मालूम हुआ।
पिताजी के साथ जब पहले मैं मेरठ आया था तो वहाँ रहनेवाले अपने रिश्ते के मामाओं से भी मिला था। मामाओं का घर उन दिनों भी मेरी स्मृति में था, किन्तु पहले जब मैं मेरठ आया था, तब मेरी सबसे बड़ी बहन रानो जीजी की शादी नहीं हुई थी।
‘रानो’ मेरी सबसे बड़ी बहन का घरेलू नाम है। उनका वास्तविक नाम प्रतिमा है और तब वह यूपी रोडवेज में काम करनवाले श्री शान्ति भूषण जैन के साथ विवाहित थीं और तब उनके दो छोटे-छोटे बच्चे थे। लगभग पांच साल की नन्ही-मुन्नी सोनिया और उससे छोटा आशू उर्फ अनुराग जैन, तीसरा राजू उर्फ रोहित, उस समय तक पैदा नहीं हुआ था !
जीजाजी का उन्हीं दिनों रानीखेत ट्रांसफर हुआ था, इसलिए वह मेरठ में नहीं थे। रानीखेत में उन दिनों ठण्ड ज्यादा थी और जीजाजी को वहां रहने की सेटिंग करनी थी, इसलिए जीजी बच्चों के साथ मेरठ आ गयी थीं !
मेरठ में एक तरह से जीजी की ससुराल थी, क्योंकि जीजी की सास और सबसे छोटी अविवाहित ननद अनीता वहीं जीजाजी के सबसे छोटे विजय भूषण जैन की भी तब तक शादी नहीं हुई थी !
विजय भूषण जैन मेरठ रोडवेज में कैशियर थे। जीजी के ससुर जी स्वर्गवासी हो चुके थे।
उन दिनों रिश्तेदारों के नाम-पते एक डायरी में नोट किये जाते थे। जब मेरठ जाना तय हो ही चुका था तो मैंने सबसे पहले पते की डायरी से अपने मेरठ स्थित सभी रिश्तेदारों के नाम पते एक कागज पर साफ-साफ नोट किये।
जीजी के घर का पता था - 16 कागजी बाजार, जो पहली बार के बाद तो इस तरह रट गया कि आज भी रटा पड़ा है।
खैर, रविवार आया। बिमल चटर्जी ने पहले ही कह दिया था कि हमलोग सात बजे तक निकल जायेंगे, अत: मैं सात बजे से पहले तैयार हो जाऊँ। बिमल चटर्जी तैयार होकर मेरे घर आयेंगे और वहीं से हम दोनों निकल लेंगे।
मुझे हमेशा से अपनी सभी बहनों से बहुत ज्यादा प्यार रहा है। आज भी वैसा ही है। अतः मेरठ जाने पर रानो जीजी से भी मिलना होगा, इसी उत्साह में, मैं साढ़े छह बजे तक ही तैयार हो गया, किन्तु जब साढ़े सात बजे तक बिमल नहीं आये तो मैं उनके घर पहुँचा। बिमल तब नहा रहे थे।
उसके बाद तो हम भाभीजी का बनाया स्वादिष्ट नाश्ता करने के बाद साढ़े आठ बजे तक ही घर से निकल पाये।
कश्मीरी गेट बस अड्डे पहुँचने पर बस जल्दी ही मिल गई। उन दिनों दिल्ली से मेरठ का किराया सिर्फ दो रुपये पैंसठ पैसे था।
( शेष फिर)
और फिर...
मेरठ में पहुँच हम ज्योति पाकेट बुक्स ढूँढ-ढूँढ कर थक गये।
मगर....
16 कागजी बाजार में ही थी - मेरठ के सम्मानित-मशहूर पुस्तक विक्रेता रमेश चन्द की पुस्तकों की दूकान "गोपाल बुक डिपो" ! रमेश चन्द से मेरी दोस्ती बरसों बरस चली, मगर अब उनके बारे में काफी दिनों से कोई जानकारी नहीं है !
और
16 कागजी बाजार में ही था विख्यात जासूसी लेखक - जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा के जनप्रिय प्रकाशन का ऑफिस, जहाँ उन दिनों ओमप्रकाश शर्मा जी के सबसे बड़े सुपुत्र श्री महेंद्र शर्मा जी बैठते थे ! उनसे उस दिन मुलाक़ात नहीं हुई, मगर बाद में कई बार काफी-काफी बातें हुईं ! महेंद्र मेरे साथ काफी मिलनसार और उन्मुक्त रहे ! हर विषय पर काफी खुलकर बात किया करते थे।
आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 39
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अगले कुछ दिनों में बस एक विशेष बात हुई ! पिताजी कलकत्ते से हमेशा के लिए दिल्ली आ गये ! कलकत्ते में हमारे घर में जो-जो सामान था, अधिकांश वहीं बेच दिया या मुफ्त में किसी पड़ोसी को दे दिया ! सिर्फ कपड़े और कुछ एक हल्की-फुल्की चीजें साथ ले आये थे, जिनमें शार्प झंकार का वह रेडियो भी था, जो बचपन के दिनों में हमारी सबसे प्रिय वस्तु हुआ करता था !
घर में रेडियो आ गया था, हम सब रेडियो पर फिल्मी गाने व हवामहल जैसे प्रोग्राम सुनना चाहते थे, लेकिन यह सम्भव न हुआ !
मकानमालिक जगदीश गुप्ता ने कहा -"रेडियो चलाओगे तो दस रुपये महीना देने होंगे !"
और दस रुपये उन दिनों बहुत होते थे !
पास ही के एक जाट रणवीर सिंह की गाय-भैंस के दूध की डेयरी से घर की चाय के लिए दूध लाया जाता था और सबके सामने रणवीर सिंह दूध दुह कर बेचा करता था, वह दूध उन दिनों पचास पैसे किलो होता था !
पिताजी डाॅक्टर थे ! बहुत भाग-दौड़ करने पर शीला सिनेमा टाकीज, पहाड़गंज, नई दिल्ली स्टेशन के पीछे जा रही एक सड़क पर उन्हें एक छोटी-सी दुकान किराए पर मिल गयी, जहाँ उन्होंने अपना क्लिनिक खोल लिया !
वे दिन हमारी आर्थिक परेशानियों के बड़े भारी दिन थे !
हम जगदीश गुप्ता के जिस मकान में किराए पर रह रहे थे, उससे पहले हम वहीं आगे की एक गली में सरदार जीतसिंह के मकान में रह चुके थे ! तब सरदार जीतसिंह के बच्चों बिमला, कान्ता और काले को मैं पढ़ाया भी करता था !
सरदार जीतसिंह के मकान के बिल्कुल साथ वाला मकान एक मुल्तानी विधवा का था, जिनके चार बच्चे थे ! सबसे बड़ी इन्दिरा दीदी, उनसे छोटा राम, उससे छोटा किशोर और सबसे छोटी बेबी !
राम की मेरे छोटे भाई राकेश से गहरी दोस्ती हो गई थी !
राकेश गाँधीनगर में हमारे शुरुआती दिनों में ही पुश्ते में रहनेवाले पारिवारिक मित्र अब्बास अहमद के यहाँ जरी के काम की एम्ब्रायडरी मशीन पर काम करने लगा था !
बाद में पड़ोस में रहनेवाले राम ने भी मशीन लगा ली और वह राकेश से काम सीखने लगा ! राम बहुत होशियार लड़का था ! बहुत जल्दी वह काम सीख गया ! बाद में वह किसी परिचित के यहाँ जालन्धर चला गया और वहीं मशीनें लगा लीं और मेरे छोटे भाई राकेश को भी अपने साथ वहीं ले गया ! राकेश की उम्र उस समय मुश्किल से चौदह साल रही होगी !
उन दिनों हमारे घर के पास ही एक्सपोर्ट का माल बनवाने वाला सिलाई का एक कारखाना था, जहाँ दिन-रात सिलाई का काम होता था और वहाँ रेडीमेड शर्ट तैयार की जाती थीं !
उन शर्ट्स पर काज-बटन करने का काम मोहल्ले की औरतें करती थीं !
उन्हीं औरतों में से एक ने मेरी मम्मी और बड़ी बहन मधु को भी काज-बटन का काम दिलवा दिया ! एक शर्ट में काज-बटन करने के तब दस पैसे मिलते थे ! दस रुपये कमाने के लिए सौ शर्ट्स पर काज-बटन करने पड़ते थे !
उन्हीं शुरुआती दिनों में मुझे भी घर की बुरी आर्थिक स्थिति के कारण रोज मालीवाड़े जाकर आरी मशीन के एक कारखानेदार सोमनाथ रस्तोगी के यहाँ काम करना पड़ा था !
उन दिनों गोल्डेन और सिल्वर जरी तथा रेशम के धागे लच्छियों में आते थे, जिन्हें एक चरखड़ी में चढ़ाकर आरी मशीन में लगनेवाली लकड़ी की डिक्कट में भरना होता था !
वहाँ मुझे भी एक डिक्कट भरने के दस पैसे मिलते थे और पूरे दिन में मैं सत्तर से अस्सी के बीच ही डिक्कट भर पाता था, लेकिन बिमल चटर्जी की दोस्ती और कहानियाँ लिखने की शुरुआत ने मुझे उस उबाऊ काम से बाहर निकाल दिया था !
पर यह सब जिक्र इसलिए कि पिताजी जब परमानेन्ट दिल्ली आ गये, लेकिन पिताजी के दिल्ली आगमन से पहले से ही पारिवारिक सहमति से छोटा भाई राकेश राम के साथ जालन्धर रहने लगा था !
जालन्धर में गर्म शाॅलों पर कढ़ाई का काम उन दिनों बहुत जोरों पर था !
हम सभी घर के लोग राकेश को बहुत 'मिस' करते थे, लेकिन घर में हर दिन पैसों की कमी ने सब सहन करना सिखा दिया था !
रामनगर में पिताजी की प्रैक्टिस अच्छी चलने लगी तो आर्थिक हालात बहुत बेहतर हो गए और हमने घर में रेडियो चलाने के दस रुपये भी खर्च करने शुरू कर दिए !
रेडियो चलने से विविध भारती के सतरंगी प्रोग्राम सुनने का अवसर मिलने लगा ! रात नौ बजे नाटकों का कार्यक्रम हवामहल और दस या साढ़े दस बजे आनेवाला पुराने गीतों का कार्यक्रम छायागीत हमारे घर में सभी को बहुत पसन्द था !
पिताजी आ गये तो मेरे सभी दोस्त समय-समय पर उनसे मिलने घर आये ! खास बात यह रही कि वे सभी - जो मेरी मम्मी को मम्मी जी ही कहते थे, पिताजी को भी 'पिताजी' ही कहने लगे !
वह 'अंकल-आंटी' के सम्बोधन का जमाना नहीं था ! निकटतम पारिवारिक मित्रों और पड़ोसियों को चाचाजी-चाचीजी या ताऊजी-ताईजी का कहने का रिवाज था, पर मेरे माता-पिता को मेरे सभी दोस्तों से मम्मी-पिताजी का सम्बोधन ही मिला !
पिताजी के आने के बाद लिखने की गति कुछ दिनों मन्द रही !
जब पिताजी रोज रामनगर अपने क्लीनिक जाने लगे, तब दिनचर्या फिर से पहले जैसी हो गई !
पिताजी सुबह-शाम क्लीनिक खोलते थे, पर वह घर से दिन का खाना साथ लेकर सुबह ही निकल जाते थे !
सुबह नौ से एक बजे तक मरीजों को देखते थे ! फिर वहीं आराम करते थे ! उसके बाद शाम चार से आठ बजे तक क्लीनिक टाइम था !
सुबह साढ़े सात-आठ के बीच घर से निकले पिताजी रात नौ बजे के बाद ही घर आते थे !
पिताजी को जासूसी उपन्यास पढ़ने का बहुत शौक था ! मुझे भी पढ़ने की लत पिताजी से ही लगी थी ! कलकत्ते में तो पिताजी के द्वारा लाये उपन्यास उनकी नज़रें बचाकर, चोरी-छिपे ही पढता था, पर दिल्ली में मेरी बन आई थी, क्योंकि पिताजी जान चुके थे कि अब मैं भी कहानियां और उपन्यास लिखने लगा हूँ, इसलिए उनकी ओर से मेरे पढ़ने पर कोई रोक-टोक नहीं रही थी ! हाँ, पिताजी ने एक बार पढ़ाई शुरू करने को कहा तो मैंने उन्हें बता दिया कि गांधीनगर में वीपी कॉलेज नाम के एक प्राइवेट कोचिंग सेंटर में बात की थी तो वह दसवीं कक्षा में एडमिशन देने के लिए चार सौ रुपये मांग रहे थे, जोकि हमारे पास नहीं थे और कलकत्ते श्री डीडू माहेश्वरी पंचायत विद्यालय को मैंने मार्कशीट और स्कूल छोड़ने का सर्टिफिकेट भेजने का पत्र लिखा था, उसका अब तक कोई जवाब नहीं आया है !
वह समय बंगाल में नक्सलवादी गतिविधियों का था !
बिमल चटर्जी की लाइब्रेरी से मैं रोज एक उपन्यास लाकर पिताजी को दे देता था, जो पिताजी अपने क्लिनिक ले जाते थे, जब मरीज नहीं होते या दोपहर के आराम के वक्त वह उपन्यास पढ़ते थे, जो रात को घर आने तक अक्सर पूरा पढ़ा जा चुका होता था !
एक दिन पिताजी ने फरमाइश की कि सुरेन्द्र मोहन पाठक का कोई उपन्यास हो तो ले आऊं !
मैं उसी दिन बिमल चटर्जी से सुरेन्द्र मोहन पाठक के पांच-छह नए-पुराने उपन्यास, पिताजी के लिए मांगकर ले आया और पिताजी के लिए लाया था तो खुद क्यों न पढ़ता ! खुद भी पढ़े तो अचानक मन में सुरेन्द्र मोहन पाठक से मिलने का विचार आया !
सुरेन्द्र मोहन पाठक के कई उपन्यासों में पाठकों के नाम उनका पत्र भी होता था और पत्र के आखिर में घर का पता - एच 2/4 कृष्णानगर भी लिखा होता था !
एक दिन अरुण घर आया हुआ था, तब उससे सुरेन्द्र मोहन पाठक का जिक्र छिड़ गया तो मैंने उससे पूछा -"यार यह कृष्णानगर का इलाका तूने देखा है ?"
"बहुत अच्छी तरह !" अरुण ने कहा !
"तो चल, किसी दिन सुरेन्द्र मोहन पाठक के यहां चलते हैं ! बड़ा मन कर रहा है उनसे मिलने का ?"
"ठीक है संडे को सुबह चलते हैं ! छुट्टी के दिन तो पाठक साहब घर पर ही मिलेंगे ! बाकी दिन का तो कुछ भी पता नहीं...!"
और फिर तय यह हुआ कि रविवार के दिन सुबह नौ-दस बजे तक अरुण मेरे घर आ जाएगा और फिर हम दोनों कृष्णनगर जाएंगे !
तय प्रोग्राम के अनुसार रविवार को अरुण मेरे घर आ गया ! उस रोज वह एक साइकिल पर आया था ! उसने मुझसे साइकिल में पीछे के कैरियर पर बैठने को कहा, लेकिन मेरे छोटे कद ने मुझे आस-पास से गुजरते लोगों में हंसी का पात्र बना दिया !
मैंने उछल-उछलकर साइकिल पर बैठने की कोशिश की, किन्तु नहीं बैठ पाया ! आस-पास से गुजरनेवाले लोग, जिनमे बच्चे भी थे, हंसने लगे तो अरुण को बुरा लगा ! उसने मुझे आगे आने को कहा ! मैं आगे आया तो उसने अपने लम्बे और मजबूत हाथ से कंधे के पास से मेरी बांह थामी और खींचकर मुझे साइकिल के हैंडल और सीट के बीच के डंडे पर बैठा लिया तथा तत्काल पैडल पर पैर मारकर साइकिल दौड़ा दी !
कृष्णनगर पहुँच एक स्थान पर पहुँच अरुण ने साइकिल रोक दी, फिर दूर से ही एक मकान के गेट की तरफ इशारा किया -"वो है पाठक साहब का घर !"
"तू पहले भी आया था क्या यहां ?" मैंने आश्चर्य से पूछा !
"हाँ, कल आकर देख गया था !" अरुण सहजता से बोला - "तुझे पाठक साहब से मिलाना जो था ! नहीं आता तो आज घर ढूंढने के लिए भी भटकना पड़ता !"
"अच्छा ! तो कल तू पाठक साहब से मिला भी होगा ?" मैंने पूछा !
"नहीं !" अरुण ने कहा !
"नहीं !" मुझे आश्चर्य हुआ -"तू यहां तक आया और पाठक साहब से मिला भी नहीं ?"
"हाँ, और आज भी मुझे नहीं मिलना ! तू जा और मिल आ ! मैं यहीं तेरा इंतज़ार करूंगा !" अरुण ने कहा !
"पर क्यों ? साथ चल ना ! अकेले मुझे अच्छा नहीं लगेगा !"
"और साथ जाते मुझे भी अच्छा नहीं लगेगा ! एक तो मैंने पाठक साहब का अभी तक कोई उपन्यास नहीं पढ़ा ! दूसरे अपने बारे में क्या बताऊंगा - यह कि बेरोजगार हूँ और इधर-उधर से नक़ल मारकर कहानियां लिखता हूँ, वो भी योगेश से ठीक करवानी पड़ती हैं ! तू तो बड़ा लेखक है - आसानी से कह देगा कि आनेवाले वक्त का इब्ने सफी या मुंशी प्रेमचंद तूने ही होना है, पर मैं ऐसा कुछ नहीं कह सकता ! अपन तो तभी किसी बड़े राइटर से मिलेंगे - जब उसे हमसे मिलकर खुशी होगी !"
"तू मेरा मज़ाक उड़ा रहा है ?" अरुण की इब्ने सफी और मुंशी प्रेमचंद वाली बात से खिन्न होकर मैंने कहा !
"हाँ !" अरुण ने कहा !
"क्या हाँ ?" मैंने प्रश्नवाचक नज़रों से अरुण को देखा तो वह बहुत ही सहज शब्दों में बोला -"मैं तेरा मज़ाक ही उड़ा रहा हूँ ! अबे साले, अभी तुझे जानता ही कौन है ? सिर उठाकर पाठक साहब से मिलने चला आया, जैसे वो खाली बैठे हैं - तुझसे मिलने के लिए ! क्या कहेगा - क्या है तू ? क्यों मिलने आया है पाठक साहब से ?"
"मैं कहूंगा, पाठक साहब मैं आपका बहुत बड़ा 'फैन' हूँ ! मिलने आया हूँ ! इसके अलावा कुछ भी कहना जरूरी नहीं है !" मैंने कहा !
"हाँ, ठीक है, तू यह कह सकता है ! तूने पाठक साहब के नॉवल पढ़े हैं ! मैंने नहीं पढ़े - मैं यह भी नहीं कह सकता ! आज तू मिल आ ! अगली बार दोनों मिलेंगे !" अरुण ने कहा ! फिर अंगुली के इशारे से बताया - "वो गेट है ! वहां जाकर गेट थपथपा और जोर से आवाज़ लगा !"
मैंने अरुण से बहस नहीं की ! जानता था कि वह ज़िद्द का पक्का है !
गेट के पास पहुँच मैंने गेट के लैच को हिला-हिलाकर बजाया और आवाज़ लगाई -"पाठक साहब !"
लोहे के मेनगेट के बाद अंदर सामने दो दरवाजे थे ! एक बायीं ओर तीसरा दरवाज़ा भी था !
वही तीसरा दरवाज़ा खुला और उसमें से फ़िल्मी हीरो संजीवकुमार की से पर्सनालिटी का एक शख्स प्रकट हुआ और निकट आकर उसने लोहे के फाटक का लैच हटाया !
मुझे देखते ही उसने प्रश्नपूर्ण निगाहों से मुझे देखा ! इससे पहले कि वह कुछ बोलता मैंने कहा -"सुरेन्द्र मोहन पाठक...?"
उसने कोई जवाब दिए बिना फाटक खोल नम्रता से कहा -"आइये अंदर आइये !"
मैं उसके पीछे-पीछे हो लिया ! मन ही मन सोच रहा था कि यही सुरेन्द्र मोहन पाठक है या उनका कोई भाई ?
पाठक साहब से कभी मिला तो था नहीं ! सिर्फ एक बार दरीबे में एक झलक देखी थी !
कोने के जिस दरवाजे से वह शख्स प्रकट हुआ था, उसी में मुझे ले गया !
वह आधा-अधूरा ड्राइंग रूम जैसा कमरा था ! दरवाजे की साइड में ही एक टेबल और उसके पीछे एक कुर्सी थी ! उसके पीछे दीवार में आलमारी थी, जिसमें बहुत सी किताबें पुष्ट के बल ऐसे रखीं थी कि नाम साफ़-साफ़ पढ़ा जाता था ! दरवाजे के साथ की दीवार से सटा लकड़ी का एक सोफा था, जिस पर बिछी गद्दियों और बैक पिलो के कवर का रंग गहरा था !
"बैठिये !" उस शख्स ने मेज पर ढक कर रखे एक जग के ऊपर की प्लेट हटाई और वहीं पलटकर रखे एक कांच के गिलास को सीधा किया और जग से गिलास में पानी उड़ेलकर मेरी ओर बढ़ाया !
गिलास थामते हुए मैंने अटकते-अटकते शब्दों में कहा -"सुरेन्द्र मोहन पाठक जी से मुलाक़ात हो सकती है ?"
"नाचीज़ सामने खड़ा है !" उस शख्स ने कहा और मेरे लिए यह अचम्भा ही था कि इतना बड़ा लेखक खुद मेरे लिए दरवाज़ा खोलने आया और मेरे लिए पानी का गिलास तैयार किया !
मैं एकदम उठ खड़ा हुआ -"आप पाठक साहब, मैं सोच तो रहा था, पर फिर सोचा कि..."
तभी पाठक साहब ने मेरी बात काट दी ! मुझसे बोले -"आपकी शक्ल कुछ देखी-देखी सी लग रही है ! हम और आप पहले कभी मिले हैं क्या ?"
"नहीं, मिलने की तरह तो नहीं मिले, पर एक बार दरीबे में आमना-सामना हुआ था ! मैं राज भारती जी के साथ था और आप रतन एंड कंपनी से लौट रहे थे !"
"राज भारती नाम बहुत सुना है, पर कभी मिलने का सौभाग्य नहीं हुआ !" सुरेन्द्र मोहन पाठक ने मुझसे कहा ! फिर पूछा -"आपका शुभ नाम क्या है ?"
"योगेश मित्तल !" मैंने बताया !
"पढ़ते हैं ?"
"नहीं, मैं भी कहानियां लिखता हूँ !" मैंने दबी जुबान से, बहुत धीमे से कहा ! सच कहूँ तो मुझे पाठक साहब के 'पढ़ते हैं' के जवाब में खुद को लेखक बताते हुए ही बहुत झिझक हो रही थी !
तभी अंदर कहीं से कोई आहट हुई !
"योगेश जी, एक मिनट मैं अभी आया !" पाठक साहब ने कहा और कमरे के एक और अंदरूनी दरवाजे की ओर बढ़ गए ! उस दरवाजे से गायब होने के बाद वह कुछ ही क्षणों बाद फिर प्रकट हुए और बड़ी विनम्रता से बोले -"योगेश जी, आज के लिए क्षमा चाहूंगा ! दरअसल आज एक पारिवारिक फंक्शन में जाना है !"
"ओह ! लगता है, मैं आज गलत समय आ गया हूँ !"मैंने मुस्कुराते हुए कहा और फिर तुरंत ही मैं भी पानी का गिलास खाली कर उठ खड़ा हुआ !
"ऐसा कुछ नहीं है योगेश जी ! मुझे तो बहुत अच्छा लगा है कि आप मुझसे मिलने आये ! रब ने मुझे इस लायक बनाया है तो हम दोबारा भी मिलेंगे, बल्कि बार-बार मिलेंगे !" यह कहकर
पाठक साहब ने बड़ी गर्मजोशी से मुझसे हाथ मिलाया ! फिर अपनी बांह मेरे कंधे पर ले जाते किसी घनिष्ठ मित्र की तरह बोले -"आज की आपकी हाज़िरी नहीं लगाई जाएगी ! फिर आइयेगा ! बैठेंगे ! कुछ गपशप करेंगे !"
और जब मैं पाठक साहब से विदा ले बाहर पहुंचा, अरुण साइकिल लिए एक पोल के निकट स्थिर खड़ा था ! मुझे देखकर बोला -"मिल आया ?"
"हाँ !" मैंने कहा !
पर मन ही मन सोच रहा था - यह मिलना भी कोई मिलना था !
(शेष फिर )
और आख़िरकार मेरठ से बिमल चटर्जी को बुलावा आया तो मेरी लाटरी मुफ्त में निकल आई !
और हाँ, अरुण को पसंद नहीं था कि मैं किसी भी दोस्त या परिचित को उससे ज्यादा महत्त्व दूँ !
आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 40
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अरुण साइकिल लिए साथ चलता रहा। मैं भी उसके साथ-साथ पैदल चलता रहा।
"क्या बात हुईं पाठक साहब से...? " कुछ देर बाद अरुण ने मन में घुमड़ रहा सवाल उगला।
"कुछ नहीं, आज उन्हें कहीं जाना था। जाने के लिए तैयार खड़े थे, इसलिए मैंने फिजूल ही रुकना उचित नहीं समझा।" कहकर मैंने शब्द-दर-शब्द पूरी बात अरुण को बता दी।
अरुण ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। बोला-"अब घर चलें..?"
"हाँ...!" मैंने स्वीकारोक्ति में गर्दन हिलाई।
"बैठ फिर.....!" उसने साइकिल पर मुझे बैठाया और फिर साइकिल दौड़ा दी।
मुझे घर छोड़ अरुण भी अपने घर चला गया।
घर पर मम्मी ने बताया बिमल चटर्जी आये थे। पूछ रहे थे -"योगेश जी कहाँ हैं?"
मैं चूंकि मम्मी को कुछ बताकर नहीं गया था, इसलिए मम्मी कुछ बता नहीं सकीं। पर बिमल मम्मी को मैसेज दे गये थे कि योगेश जी आयें तो दुकान पर भेज दें।"
मैं जब बिमल चटर्जी की विशाल लाइब्रेरी में पहुँचा तो मुझे देखते ही बिमल के चेहरे पर आने वाली मुस्कान और प्रसन्नता लाजवाब थी। मेरे दुकान में प्रविष्ट होते ही मुझे पकड़ कर सीने से लगा लिया और बोले -"योगेश जी, खुशखबरी है, बोलो, क्या खाओगे....?"
मैं हंसा -"पहले खुशखबरी तो सुनाओ।"
मेरी बात के जवाब में बिमल ने एक पोस्ट कार्ड मेरी ओर बढ़ा दिया और बोले -"कल घर के पते पर यह लैटर आया था ! रात को घर गया तो तुम्हारी भाभी ने दिया ! मैं सुबह ही गया यहां आपके घर, पर मम्मी ने बताया, आप अरुण के साथ कहीं गए हो !"
बिमल ने यह नहीं पूछा कि मैं कहाँ गया था ! उस समय मैंने बताया भी नहीं !
पोस्ट कार्ड मेरठ से आया था और उसकी फ्रन्ट साइड पर सबसे ऊपर ज्योति पाकेट बुक्स नाम और उसका पता “ठठेरवाड़ा” छपा हुआ था।
पत्र में लिखा था कि प्रकाशक महोदय बिमल चटर्जी के उपन्यास उसके नाम से छापना चाहते हैं। अत: बिमल चटर्जी मेरठ आकर मिलने की कृपा करें।
पत्र के मजमून के बाद आखिर में पत्र लिखने वाले प्रकाशक का नाम लिखा था - विपिन चन्द जैन।
पत्र पढ़कर मैंने बिमल की ओर बढ़ा दिया और मुस्कराते हुए बोला-"वाकई खुशखबरी है तो आप कब जा रहे हैं मेरठ...?"
"जब आप कहो।" बिमल ने कहा तो मैं बोला -"मैं तो कहता हूँ - आज ही निकल जाओ। आपके पीछे लाइब्रेरी मैं सम्भाल लूंगा। अब तो सारे कस्टमर्स को भी मैं पहचानता हूँ। कस्टमर्स भी मुझे पहचानते हैं।"
"ना...!" बिमल ने तत्काल अपनी गर्दन दांये-बांये घुमा दी- "जायेंगे तो दोनों भाई जायेंगे।"
"मैं क्या करूँगा जाकर।" मैंने बिमल को समझाया-"यहाँ रहूँगा। दुकान खुली रहेगी तो चार पैसे भी आयेंगे। कस्टमर्स भी परेशान नहीं होंगे।"
"कोई बात नहीं। हम अगले सण्डे को चलेंगे। दुकान की चाभी राजेन्द्र को दे जायेंगे, वही सम्भाल लेगा।"
राजेन्द्र शर्मा बिमल चटर्जी का पुराना मित्र था। मुझसे बहुत पुराना। यूँ समझिये कि उस गली में जब से बिमल ने लाइब्रेरी खोली थी, सबसे पहले बिमल के दोस्त बनने वालों में से एक था।
"पर सण्डे में अभी बहुत दिन हैं !" मैंने कहा !
"कोई बात नहीं, जिसने हमें छापना है - सण्डे तक इंतज़ार कर लेगा और तब तक हम अपने हाथ के काम निपटा लेंगे !" बिमल ने कहा !
"पर मैं मेरठ जाकर क्या करूँगा। यहीं रहकर कुछ न कुछ तो जरूर करूँगा। मेरा वहाँ कोई काम नहीं है। आप अकेले हो आइये।" मैंने बिमल को समझाने की बहुत चेष्टा की, लेकिन बिमल ने यह कहकर ‘वीटो पावर’ जाहिर कर दी कि “कोई अगर-मगर नहीं। दोनों भाई मेरठ जायेंगे। बस, हो गया फैसला।"
मैंने अन्तिम हथियार फेंका-"मम्मी-पिताजी नहीं मानेंगे।"
"मम्मी-पिताजी से मैं बात कर लूँगा।" बिमल ने कहा।
और फिर लंच के लिए लाइब्रेरी बन्द करने के बाद बिमल मेरे साथ मेरे घर ही गये और बता दिया कि आने वाले रविवार को हम लोग मेरठ जा रहे हैं।
और जैसा कि बिमल का तो आत्मविश्वास था ही, लेकिन मुझे भी पता था कि मुझे कोई मना नहीं करेगा अर्थात मेरठ जाने की परमिशन तत्काल मिल गई। हाँ, मम्मी ने यह अवश्य कहा कि मेरठ जायेगा तो रानो से भी मिल आना और मामाओं से भी मिल आना।
पिताजी ने शीला टाकीज के पीछे स्थित रामनगर में अपना क्लिनिक खोल लिया था, अतः घर पर नहीं थे, किन्तु मम्मी से बिमल चटर्जी को मुझे अपने साथ मेरठ ले जाने की इजाजत सहर्ष मिल गई थी।
मैं तो एक बार कई साल पहले, अपने पिताजी के साथ पहले भी मेरठ जा चुका था ! बिमल के लिए वह पहला सफर था या नहीं, यह याद नहीं, किन्तु मेरठ के प्रकाशकों का क्षेत्र उनके लिए बिल्कुल अनजाना था, यह बाद में मालूम हुआ।
पिताजी के साथ जब पहले मैं मेरठ आया था तो वहाँ रहनेवाले अपने रिश्ते के मामाओं से भी मिला था। मामाओं का घर उन दिनों भी मेरी स्मृति में था, किन्तु पहले जब मैं मेरठ आया था, तब मेरी सबसे बड़ी बहन रानो जीजी की शादी नहीं हुई थी।
‘रानो’ मेरी सबसे बड़ी बहन का घरेलू नाम है। उनका वास्तविक नाम प्रतिमा है और तब वह यूपी रोडवेज में काम करनवाले श्री शान्ति भूषण जैन के साथ विवाहित थीं और तब उनके दो छोटे-छोटे बच्चे थे। लगभग पांच साल की नन्ही-मुन्नी सोनिया और उससे छोटा आशू उर्फ अनुराग जैन, तीसरा राजू उर्फ रोहित, उस समय तक पैदा नहीं हुआ था !
जीजाजी का उन्हीं दिनों रानीखेत ट्रांसफर हुआ था, इसलिए वह मेरठ में नहीं थे। रानीखेत में उन दिनों ठण्ड ज्यादा थी और जीजाजी को वहां रहने की सेटिंग करनी थी, इसलिए जीजी बच्चों के साथ मेरठ आ गयी थीं !
मेरठ में एक तरह से जीजी की ससुराल थी, क्योंकि जीजी की सास और सबसे छोटी अविवाहित ननद अनीता वहीं जीजाजी के सबसे छोटे विजय भूषण जैन की भी तब तक शादी नहीं हुई थी !
विजय भूषण जैन मेरठ रोडवेज में कैशियर थे। जीजी के ससुर जी स्वर्गवासी हो चुके थे।
उन दिनों रिश्तेदारों के नाम-पते एक डायरी में नोट किये जाते थे। जब मेरठ जाना तय हो ही चुका था तो मैंने सबसे पहले पते की डायरी से अपने मेरठ स्थित सभी रिश्तेदारों के नाम पते एक कागज पर साफ-साफ नोट किये।
जीजी के घर का पता था - 16 कागजी बाजार, जो पहली बार के बाद तो इस तरह रट गया कि आज भी रटा पड़ा है।
खैर, रविवार आया। बिमल चटर्जी ने पहले ही कह दिया था कि हमलोग सात बजे तक निकल जायेंगे, अत: मैं सात बजे से पहले तैयार हो जाऊँ। बिमल चटर्जी तैयार होकर मेरे घर आयेंगे और वहीं से हम दोनों निकल लेंगे।
मुझे हमेशा से अपनी सभी बहनों से बहुत ज्यादा प्यार रहा है। आज भी वैसा ही है। अतः मेरठ जाने पर रानो जीजी से भी मिलना होगा, इसी उत्साह में, मैं साढ़े छह बजे तक ही तैयार हो गया, किन्तु जब साढ़े सात बजे तक बिमल नहीं आये तो मैं उनके घर पहुँचा। बिमल तब नहा रहे थे।
उसके बाद तो हम भाभीजी का बनाया स्वादिष्ट नाश्ता करने के बाद साढ़े आठ बजे तक ही घर से निकल पाये।
कश्मीरी गेट बस अड्डे पहुँचने पर बस जल्दी ही मिल गई। उन दिनों दिल्ली से मेरठ का किराया सिर्फ दो रुपये पैंसठ पैसे था।
( शेष फिर)
और फिर...
मेरठ में पहुँच हम ज्योति पाकेट बुक्स ढूँढ-ढूँढ कर थक गये।
मगर....
16 कागजी बाजार में ही थी - मेरठ के सम्मानित-मशहूर पुस्तक विक्रेता रमेश चन्द की पुस्तकों की दूकान "गोपाल बुक डिपो" ! रमेश चन्द से मेरी दोस्ती बरसों बरस चली, मगर अब उनके बारे में काफी दिनों से कोई जानकारी नहीं है !
और
16 कागजी बाजार में ही था विख्यात जासूसी लेखक - जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा के जनप्रिय प्रकाशन का ऑफिस, जहाँ उन दिनों ओमप्रकाश शर्मा जी के सबसे बड़े सुपुत्र श्री महेंद्र शर्मा जी बैठते थे ! उनसे उस दिन मुलाक़ात नहीं हुई, मगर बाद में कई बार काफी-काफी बातें हुईं ! महेंद्र मेरे साथ काफी मिलनसार और उन्मुक्त रहे ! हर विषय पर काफी खुलकर बात किया करते थे।
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