हिंदी साहित्य और जासूसी उपन्यास – गोविंद सिंह
समय के साथ-साथ इस विधा में परिवर्तन आया।
लेखन-मुद्रण की प्रगति का प्रभाव पड़ा। साहित्य ने जन्म लिया और कथा साहित्य की एक
प्रमुख, सबसे लोकप्रिय विधा बन गयी।
हिंदी साहित्य में कथा का लिखित मौलिक, रचना का
इतिहास मुंशी इंशाअल्ला खाँ की रचना `रानी केतनी की कहानी` से माना जाता है। इसी
प्रकार हिंदी साहित्य में रहस्य-रोमांच, ऐयारी (जासूसी) तिलिस्मी कथानक का इतिहास
बाबू देवकीनंदन खत्री की रचना `चन्द्रकांता` से शुरू होता है। हिंदी में इसकी नींव
उन्होंने ही डाली, जो अत्यंत लोकप्रिय हुई। उनके समकालीन बाबू गोपालराम गहमरी ने
जासूसी उपन्यास लिखे और सर्वप्रथम `उपन्यास दर्पण` नामक एक जासूसी मासिक पत्र
मूल्य दो आना प्रकाशित किया। इस विधा की लोकप्रियता के कारण अनेक लोग इस क्षेत्र
में आये। इस शताब्दी के तीसरे-चौथे दशक में बंगला के जासूसी उपन्यास पाँच कौड़ी के
द्वारा रचित हिंदी में में अनूदित होकर आये।
इसी समय के आसपास डाक्टर आर. एस. बर्मन, खलकिया, हावड़ा(कलकता) ने `लंदन
रहस्य` प्रकाशित किया। तब कलकता जासूसी उपन्यासों का गढ बन गया। लगभग इसी समय
बनारस में `उपन्यास बहार ऑफिस` ने विदेशी जासूसी उपन्यासों का अनुवाद प्रकाशित कर
धूमा मचा दी। रॉबर्ट ब्लैक, सैक्सन ब्लैक के उपन्यास मूल्य चार आना अत्यंत
लोकप्रिय हुये। इसी लोकप्रियता का लाभ इलाहाबाद से प्रकाशित `सरस्वती सीरीज` ने उठाया। साथ ही
`मित्र प्रकाशन` द्वारा माया प्रेस से `मोहन डाकू सीरीज` प्रकाशित हुई। आर्थर कानन डायल का `शरलॉक होम्स` भी हिंदी में
आ गया। फ्रेंच कथाकार `लिबलॉक` के भी हिंदी अनुवाद आये। स्वाधीनता से पूर्व भी
हिंदी में विदेशी जासूसी उपन्यास अत्यंत लोकप्रिय थे। इसके बावजूद हिंदी में मुंशी
तीर्थराम फीरोजपुरी, जमनादास `अख्तर` और कैलाशनाथ गुप्त मौलिक रचनाएँ लिखते रहे।
स्वाधीनता के उपरांत इस दिशा में तेजी से
परिवर्तन आया। इलाहाबाद से प्रकाशित `जासूसी दुनिया` नामक मासिक पत्रिका ने नियमित
रूप से प्रतिमाह इब्ने सफी बी.ए. के जासूसी उपन्यास प्रकाशित करना शुरू कर दिया।
इब्ने सफी की `विनोद-हमीद` सीरीज काफी लोकप्रिय हुई और जासूसी दुनिया की प्रसार संख्या
उन दिनों अस्सी हजार तक आ गयी। पहली बार `मौत की माला` नामक उपन्यास का प्रचार-प्रसार
हवाई जहाज से परचे गिराकर, गुब्बारे उड़ाकर किया गया। इसके बाद तो हिदीं में जासूसी उपन्यासों की बाढ
सी आ गयी। इलाहाबाद इनका मुख्य गढ हो गया।
नियमित रूप से जासूसी मासिक पत्र प्रकाशित होने लगे। प्रत्येक अंक में सम्पूर्ण
उपन्यास। इलाहाबाद का `मास्टर जासूस` काफी लोकप्रिय रहा। पाँचवें दशक की समाप्ति
के आसपास `जासूसी दुनिया` की टक्कर में कई पत्र आ गये। छठवें दशक में तो प्यारे
लाल आवारा के `गुप्तचर` और दिल्ली के `राजेश` `नीलम जासूस` ने काफी धाक जमा ली।
`राजेश` के ही माध्यम से ओमप्रकाश शर्मा प्रकाश
में आये। उनके राजेश, जगत, जयंत पात्र काफी लोकप्रिय हुये। उनके शिष्य वेदप्रकाश काम्बोज ने `विनोद-हमीद`
की नकल पर अपना लोकप्रिय जासूस विजय खड़ा किया।
इब्ने सफी के पात्रों और उनके चरित्रों को
चुराकर हिंदी में जासूसी उपन्यासों की बाढ आ गयी। आरिफ माहरवी, अकरम इलाहाबादी
जैसे अनेक लेखक लोकप्रिय बने। जासूसी
पत्रिकाओं की लोकप्रियता का एक प्रमाण यह भी है कि उन दिनों `राजेश` के आवरण प्रसिद्ध
चित्रकार `इमरोज` बनाया करते थे।
हिंदी में पॉकेट बुक्स की लोकप्रियता ने अनगिनत
जासूसी उपन्यासकारों को जन्म दिया। इनमें एस. एन. कंवल, वेदप्रकाश शर्मा आदि
प्रमुख रहे। ओमप्रकाश शर्मा के पात्रों को लेकर अनेक लेखकों ने अपना जौहर दिखलाया।
पहली बार ओमप्रकाश शर्मा के नाम पर नकली उपन्यासों तक से बाजार भर गया।
कालातंर में जासूसी मासिक पत्रिकाएं बंद हो गयी।
सर्वत्र पॉकेट बुक्स का बोलबाला हो गया। पॉकेट बुक्स प्रकाशन के प्रारम्भिक बरसों
में जासूसी उपन्यासों का अम्बार लग गया, `ट्रेड नाम` देकर जासूसी उपन्यास आने लगे।
इंस्पेक्टर गिरीश, कर्नल रंजीत, कर्नल जोरावर, चंदर आ गये। चंदर के नाम से आनन्दप्रकाश
जैन ने जासूसी उपन्यास दिये। उनका पात्र भोलानाथ काफी लोकप्रिय हुआ। मनहर चौहान ने
भी अनेक जासूसी उपन्यास ट्रेड नाम से लिखे। यह आपाधापी आज भी चल रही है।
बाबू देवकीनंदन खत्री के अभ्युदय से लेकर अब
तक एक लाख से ऊपर जासूसी, वैज्ञानिक, रोमांच उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। कैलाशनाथ
गुप्त, मिर्जापुर के 318 उपन्यास हैं। इस सबके बावजूद जासूसी उपन्यास को हिंदी में
वह प्रतिष्ठा नहीं है, जो पाश्चात्य साहित्य में है। आज भी हिंदी में OO7 जेम्स बॉड के बाद जेम्स हेडली चेइज
के अनुदित उपन्यास अत्यंत लोकप्रिय हैं। आज भी वह खूब छप और बिक रहे हैं।
जासूसी साहित्य, हिंदी के कर्णधारों द्वारा
उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है और हिंदी साहित्य के इतिहास में इस विधा का या रचनाकारों
का कहीं कोई नामलेवा भी नहीं। उसका मुख्य कारण इस साहित्य की उपेक्षा नहीं है, वरन
जिस प्रकार से यह साहित्य अब तक सामने आया है, वही इसका मुख्य कारण है। इसके साथ
यह निर्विवाद कटु सत्य है कि हिन्दी में मौलिक जासूसी साहित्य नहीं के बराबर
है। इसका पहला कारण हमारे देश में वैसी
स्थितियां नहीं है, जैसी विदेश में है, जिसके आधार पर अच्छा जासूसी उपन्यास खड़ा
हो सकता है। दूसरे अभी तक यहाँ प्राइवेट जासूसों
का उतना चलन भी नहीं है। फलतः अधिकाश लेखक विदेशी उपन्यासों का कथानकों का चरबा
उतारते हैं। इसके अलावा अधिकाश लेखक कम पढे लिखे हैं। उन्हें अपराध विज्ञान, जासूसी, अस्त्रशस्त्र का
ज्ञान भी नहीं है।
अतएव प्रबुद्ध पाठक इनको पढकर दुबारा न पढने के
लिये विवश हो जाते हैं। साथ ही इस साहित्य में नकलमारी बहुत हुई है।
धन्यवाद।
इस आर्टिकल के लेखक गोविंद सिंह अपने समय के एक
चर्चित सामाजिक उपन्यासकार रहे हैं।
हम जासूसी उपन्यासकार प्रकाश भारती जी के आभारी
हैं जिन्होंने यह आर्टिकल हमें उपलब्ध करवाया।
हालांकि यह आर्टिकल अधूरा है, लेकिन फिर भी यह
अपने निष्कर्ष से पूर्ण है। प्रकाश भारती जी के अनुसार इस आर्टिकल का समय लगभग
1983 है।
अन्य महत्वपूर्ण लिंक
लेखक द्वारा बिल्कुल सटीक कारण बताए गए हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा जानकारी इसके लिए आपको प्रयासों की जितनी तारीफ की जाये कम है
जवाब देंहटाएंधन्यवाद 🌹🌹🌹👌
अच्छा लेख है। सटीक जानकारी दी गई है। कुछ बातें तो पहली बार पता चली इस लेख से।
जवाब देंहटाएं