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शुक्रवार, 15 मार्च 2019

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-21,22

आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 21


हम जिस मकान में रहते थे, उसमें हमारे अलावा भी कई किरायेदार थे।
एक - हरीश चन्द्र श्रीवास्तव, जो कनाट प्लेस स्थित जीवनदीप बिल्डिंग में हिन्दुस्तान स्टील के आफिस में काम करते थे।
एक देशराज थे, जिनकी परचून की दुकान थी।
एक अन्य हरिओम कश्यप, जो किसी पोस्ट आॅफिस में पोस्टमैन थे, बाद में मलकागंज के किसी पोस्ट आॅफिस में उन्होंने काफी समय तक ड्यूटी की।
एक भूरेलाल थे, जो शायद किसी प्राइवेट कम्पनी में नौकरी करते थे।

          सभी परिवार काफी हिल-मिल कर रहते थे ! हरिओम कश्यप अविवाहित थे और अकेले ही रहते थे ! वह रोज सुबह आठ बजे अपने कमरे को ताला लगाकर निकल जाते और शाम साढ़े सात बजे आते।
बाकी परिवारों के पुरुष भी नौ बजे ये पहले काम पर निकल जाते थे ! फिर भी स्त्रियाँ और परिवार के अन्य लोग घर पर ही होते थे।

       सुमेरचन्द जैन साढ़े दस बजे के बाद आये ! मुख्य द्वार से मकान की गैलरी में कदम रखते ही उन्होंने आवाज दी -"योगेश...!"
और योगेश के दिल में आया - भागकर कहीं छिप जाये ! पर ऐसा सम्भव नहीं था, मकान में बहुत लोग थे और अपने घर में भी मम्मी, बड़ी बहन मधु, छोटी बहन सरिता और छोटा भाई राकेश थे।
पिताजी तब कलकत्ता में थे।

योगेश जी सुमेरचन्द जैन के सामने पहुँचे !
चेहरे पर मीठी मुस्कान लाकर कहा -"नमस्ते जैन साहब !"
"नमस्ते !" सुमेरचन्द ने नमस्ते का जवाब कुछ रूखेपन के साथ दिया और तुरन्त अगली लाइन सुना दी -"फटाफट पैसे ले आओ ! मुझे अभी कई जगह जाना है ! टाइम नहीं है मेरे पास !"
"आइये, बैठिये तो सही ! कुमार साहब भी अभी आनेवाले हैं !" मैंने कहा।

      दरअसल मेरे मन में अब भी यह आस थी कि कुमारप्रिय वहीं कहीं आस-पास गये होंगे और अभी आकर मुझे 'सुमेरचन्द जैन' नाम की मुसीबत से बचा लेंगे, हालांकि  रोज नौ बजे से पहले हमारे यहाँ आ जानेवाले कुमारप्रिय आज साढ़े दस तक गायब थे।

घर में कोई कुर्सी नहीं थी। खुरदुरे बान की चारपाई थी, वही मैंने सुमेरचन्द जैन के लिए बिछा दी।
सुमेरचन्द कुछ नरमाई दिखाते चारपाई की ओर बढ़े, किन्तु बैठने से पहले ही पूछा -"पैसे तो हैं ना ?"
जवाब में व्यापारिक सूझ-बूझ और झूठ-फरेब से अनजान मेरे मुँह से निकल गया -"वो...कल शाम हम गये थे बिमल जैन के यहाँ ! वो अभी ससुराल से नहीं लौटे।"

सुमेरचन्द जैन एकदम उखड़ गये ! चिल्लाकर बोले - "बिमल जैन से मेरे को क्या मतलब ? पेपर के लिए तू आया था या बिमल जैन ?"
"वो... पब्लिकेशन के मालिक बिमल जैन ही हैं न...!" मैंने कहा !
"मुझे क्या मालूम - कौन मालिक है - कौन चोर है ! मेरे पास तो तू आया था पेपर के लिए ! मेरे से बोला था - दो-तीन दिन में पैसे दे देगा ! मैंने तभी बोला था - दो दिन या तीन दिन ? तूने पाँच दिन ले लिए ! अब मैं यहीं बैठ रहा हूँ - कहीं से भी पैसे लाकर दे ! पैसे लिए बिना तो मैं जाऊँगा नहीं ! और बुला कुमारप्रिय को भी ! कहाँ है भूतनी का ! उस रोज तेरे साथ वो भी तो आया था !"

सुमेरचन्द जैन धम्म से चारपाई पर बैठ गया और ऐसे बैठा कि लगा था - उसके भारी वजन से कमजोर चारपाई उसी क्षण शहीद हो जायेगी, पर इज्जत रख ली चारपाई ने ! मगर सुमेरचन्द जैन की जुबान मेरी इज्जत उतारने का काम निरन्तर करती रही !

मकान में रहनेवाले बड़े-बूढ़े-बच्चे ही नहीं, आस-पास के मकानों से भी कुछ लोग वहाँ इकट्ठे हो गये थे !
मुझे रोना आने लगा !
मैं गिड़गिड़ाया -"जैन साहब, प्लीज़, जरा धीरे बोलिये !"
"मैं क्यों धीरे बोलूँ ? कोई चोरी की है मैंने ! माल दिया है और अपना पैसा माँग रहा हूँ ! इतनी इज्जत प्यारी है तो मेरे पैसे दे दे ! अभी चला जाऊँगा !"
"जैन साहब, बिमल जैन नहीं मिले ! वो ससुराल गये हैं ! उनके आते ही पैसे मिल जायेंगे !" मैं घिघियाया !
"मैं क्या जानूँ बिमल जैन को ! मुझसे मिलवाया होता तो मैं उसी से बात करता ! तेरे पास आता भी नहीं ! तू तो उससे पैसे लेकर मुझे देने में भी कमीशन खाता होगा !" सुमेरचन्द जैन की दहाड़ जारी थी -"अरे, मुझसे पहले ही चार दिन और बाद का वक्त ले लिया होता ! मैं और चार दिन बाद आता ! फालतू का चक्कर नहीं लगता ! अब तेरे पे भरोसा करके मैंने दूसरे आदमी को आज का वक्त दे दिया ! अब मैं क्या करूँगा ! तेरी तो कोई इज्जत है नहीं, पर हमारी तो इज्जत है ! लाखों का कारोबार करते हैं, इसी जुबान पर ! आज तक कभी अपनी जुबान झूठी नहीं पड़ने दी ! आज जुबान भी झूठी पड़ जायेगी और इज्जत जायेगी, सो अलग ! नहीं भई नहीं, मैं तो यहाँ से तभी जाऊँगा, जब पैसे मिलेंगे !"

और तब जबकि मैं कुमारप्रिय को भगवान की तरह याद कर रहा था कि किसी तरह आकर मुझे सुमेरचन्द नाम की इस मुसीबत से बचा लो, अचानक मुझे मेरी मम्मी की तेज आवाज सुनाई दी -"मुन्नू ! यह सब क्या है ? कैसे पैसे माँग रहे हैं यह ?"
"मैं बताता हूँ माताजी !" मेरे बोलने से पहले सुमेरचन्द चालू हो गया और सारा किस्सा बताने लगा !
मेरा बचपन का घरेलू नाम मुन्नू है ! तब मकान में रहनेवाले सभी लोग इसी नाम से पुकारते थे ! अब तो मुझे इस नाम से पुकारने वाले सिर्फ मेरी बहनें और बहनोई हैं !
सुमेरचन्द की बातें सुन मम्मी मुझ पर ही गुस्सा होने लगीं कि ‘क्या जरूरत थी - पैसों का लेन-देन अपने हाथ में रखने की ! इन्हें बिमल जैन से क्यों नहीं मिलवाया ?’
"वो बिमल जैन हमेशा कुमार साहब को ही पैसे दे देते थे ! सबकी पेमेन्ट कुमार साहब करते थे !" मैंने मम्मी को समझाया तो वह भी गरम हो गईं -"तो कुमार साहब कहाँ है अब ?"
"वो घर पर नहीं हैं !" मैं रूँआसे स्वर में बोला !

मम्मी ने सुमेरचन्द जैन के आगे हाथ जोड़ दिये और बोलीं -"भाई साहब, इस बार माफ कर दीजिये ! दोबारा ऐसी नौबत कभी नहीं आयेगी !"
"आपकी बात मान भी लूँ माताजी ! पर मेरे घर पर तकादा करनेवाले आ गये तो मैं उन्हें क्या जवाब दूँ ! वो मेरी इज्जत उतारने में कसर छोड़ेंगे !" सुमेरचन्द जैन किसी भी कीमत पर टलने के लिए तैयार न था !

तभी एक कड़कती आवाज गूँजी -"क्या हो रहा है ? किस बात का शोर मचा रखा है ?"
मकानमालिक जगदीश प्रसाद गुप्ता को भी किसी ने खबर कर दी थी और संयोग से उस दिन वह अपने घर पर ही थे, इसलिए तुरन्त आ धमके !
सुमेरचन्द जैन उन्हें नहीं जानता था, इसलिए सिर को नीचे से ऊपर झटका देकर बोला -"आप कौन हो जी ?"
"मैं इस मकान का मालिक हूँ !" जगदीश प्रसाद गुप्ता दबंग आवाज में बोले -"यहाँ मेरी बहुत इज्जत है ! आप बताइये - किस बात का शोर है ?"

सुमेरचन्द जैन ने सारा किस्सा एक बार फिर बयान किया ! सारी बात सुनने के बाद जगदीश प्रसाद गुप्ता सुमेरचन्द जैन से बड़े ही मीठे स्वर में बोले -"आप जरा दो मिनट मेरे साथ आयेंगे !"
पता नहीं क्या जादू था जगदीश प्रसाद गुप्ता की आवाज में - सुमेरचन्द जैन चारपाई से उठ गये ! जगदीश प्रसाद गुप्ता ने अपना एक हाथ सुमेरचन्द जैन के कन्धे पर रखा और सुमेरचन्द को साथ लिये मकान से बाहर हो गये !
उनके जाते ही....घर में एकत्रित लोग मुझसे भाँति-भाँति के सवाल पूछने लगे ! मम्मी भी मुझे डाँटने लगीं कि आगे से बिमल जैन का कोई काम खुद करने की जरूरत नहीं है ! तुम्हें किताब लिखनी है - किताब लिखो, उसके पैसे लो, बस !"

लगभग एक घंटे बाद सुमेरचन्द जैन और जगदीश प्रसाद गुप्ता वापस हमारे मकान में आये ! आते ही पहले जगदीश प्रसाद गुप्ता मुझसे बोले -"मैंने जैन साहब को समझा दिया है ! अभी तो यह जा रहे हैं, लेकिन बिमल जैन से पैसे लेकर दो-चार दिन में तुम इनके घर पहुँचा देना !"

मैंने सहमति में सिर हिला दिया, लेकिन मुझे आश्चर्य था कि जगदीश प्रसाद गुप्ता ने ऐसा क्या जादू कर दिया कि आग का गोला एकदम बर्फ बन गया !

कुछ भी हो, उस समय मुझे जगदीश प्रसाद गुप्ता किसी देवदूत से कम नहीं लगे थे ! वही जगदीश प्रसाद गुप्ता -जिसने एक बार रात नौ बजे के बाद लाइट जलती मिलने पर, घर खाली करवा लेने की धमकी दी थी और मुझे उस शख्स से सख्त चिढ हो गयी थी !

वो जादू क्या था ? यह भी आप जानेंगे - लेकिन कुछ समय बाद ! उस समय तो मुझे भी कुछ पता नहीं चला था !
थोड़ी देर बाद... जब घर का वातावरण भी सामान्य हो गया, मैं घर से निकला ! क़दमों का रुख कुमारप्रिय का घर था !
मुझे उम्मीद थी कि अब शायद कुमारप्रिय घर आ चुके हों, लेकिन उनके द्वार पर अभी भी ताला झूल रहा था !

"कहाँ चले गए कुमार साहब ?' मैंने सोचा ! फिर मुझे बिमल चटर्जी का ख्याल आया ! समय ज्यादा हो चुका था, इसलिए बिमल के घर पर होने की संभावना जीरो थी, अतः मैंने विशाल लाइब्रेरी का रूख किया !

मुझे देखते ही बिमल खुश हो गए ! बोले -"कमाल की बात है योगेश जी, मैं इस समय आपको ही याद कर रहा था !" 
मैं मुस्कुराया, किन्तु बिमल से मेरी पहचान इतनी पुरानी हो चुकी थी कि वह मेरी रग-रग पहचानने लगे थे ! मुस्कान में फीकापन उन्हें तुरंत महसूस हुआ, बोले -"क्या बात है योगेश जी ? कोई परेशानी ?"
मैंने बिमल को बताया -"आज तो घर में तमाशा हो गया ? सुमेरचंद जैन कागजी ने अपना तो बैंड बजा दिया !"
"क्या हुआ ?" बिमल ने पूछा तो मैंने सारा किस्सा सविस्तार बताया !
"अरे तो आपने मुझे क्यों नहीं बुलाया ?" सारी बात जानने के बाद बिमल बोले -"सुमेरचंद को तो मैं भी अच्छी तरह जानता हूँ, उसे समझा देता !"
"आज वह समझने के मूड में नहीं था !" मैंने कहा !
"अरे तो मैं बाबा* से लेकर उसके पैसे उसके मुंह पर मारता ! हम-आप बाद में हिसाब करते रहते !" बिमल ने कहा !  (बाबा*- बिमल चटर्जी के पिताजी, रिटायर्ड फ़ौजी डॉक्टर थे और उन दिनों संपन्न लोग घर में पांच-दस हज़ार रखते थे ! बिमल को जब भी पैसे की जरूरत होती, बाबा से मांग लेते थे और तुरंत मिल जाते थे ! हालांकि बाद में वह बाबा को पैसे लौटा भी देते थे ! बाबा मना भी करते - कोई बात नहीं, रहने दे तो भी बिमल उन्हें पैसे लौटाते अवश्य थे !)
"पर मैं आपको बुलाने आता भी तो कैसे ? सुमेरचंद मुझे हिलने भी नहीं देने वाला था ! और फिर टाइम भी तो आपके लाइब्रेरी में होने का था !" मैंने बिमल के जवाब में लाचारी प्रकट की तो बिमल बोले-"अरे तो राकेश (मेरे छोटे भाई) को भेज देते !"
"उस समय तो दिमाग ही काम नहीं कर रहा था !" मैंने कहा !
"पर गुप्ताजी ने सुमेरचंद पर क्या जादू किया कि वह एकदम शांत हो गया ?" बिमल ने पूछा !
"यही तो मेरी समझ में भी नहीं आ रहा !" मैंने कहा -"गुप्ता जी तो सुमेरचंद को पहले से जानते भी नहीं थे !"
“आपका मकानमालिक बड़ी ऊंची चीज़ है ! खैर छोडो, चाय पियोगे ?"
"जरूर..!"
"तो ठीक है चिरंजीलाल को दो चाय बोल आओ ! कुछ खाना हो तो सरदार जी से समोसे भी ले आना !" बिमल गल्ले से एक नोट निकाल मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले !

मैंने नोट थाम लिया, लेकिन सिर्फ चाय के पैसे कटाकर, वापस लौटा और बाकी पैसे बिमल को दे दिए ! फिर दुकान में दाखिल हो अपने स्टूल पर बैठा तो बिमल ने एक पोस्टकार्ड मेरी ओर बढ़ा दिया और बोले -"अभी-अभी पोस्टमैन दे गया है ! इसीलिये मैं आपको याद कर रहा था ! मुझे लगता है - आपकी और मेरी दोनों की कहानियों में मैटर कम पड़ गया है, तभी गुप्ता जी ने हम दोनों को एक साथ बुलाया है !"   

मैंने पोस्टकार्ड पर नज़र डाली ! पत्र भारती पॉकेट बुक्स के प्रिंटेड पोस्टकार्ड पर था और पोस्टेज स्टाम्प पर लगी तारीख की काली मोहर बता रही थी - चिट्ठी चार दिन पहले पोस्ट की गयी थी !
यह हमारे देश की तब की पोस्टल व्यवस्था का एक निकृष्ट उदाहरण था ! शहर की शहर में, लोकल डाक एक कोने से दूसरे कोने में चार दिन में पहुँच रही थी !

चिट्ठी में लिखा था -
'प्रिय बिमल जी,
निवेदन है कि आप और योगेश जी दोनों इस रविवार को सांय चार बजे भारती पॉकेट बुक्स के ऑफिस में पहुँचने का कष्ट करें !'
बस इसके नीचे सिग्नेचर की जगह एक घुघ्घी सी मारी गयी थी।

उस दिन शनिवार था ! मतलब - अगले ही दिन हमने भारती पॉकेट बुक्स जाना था ! बिमल और मुझ में तय यह हुआ कि मैं तीन बजे तक विशाल लाइब्रेरी पहुँच जाऊंगा, फिर वहां से दोनों भाई साथ-साथ भारती पॉकेट बुक्स जाएंगे !

गर्ग एंड कंपनी के लिए दूसरी बाल पॉकेट बुक्स पूरी करनी थी। कुछ ही पेज रह गए थे, इसलिए मैं लगभग पांच बजे विशाल लाइब्रेरी से वापस घर पहुंचा ! पहुंचे अधिक देर न हुई थी कि अचानक आवाज़ आई -"बाबे दी मेहर है !"
मैं अपने कमरे में था ! कमरे से निकल बाहर आया !
सामने उत्तमचंद थे ! उत्तमचंद अपने परिचितों के दायरे में अपने नाम से कम, अपने तकियाकलाम 'बाबे दी मेहर है' की वजह से 'बाबाजी' नाम से ज्यादा मशहूर थे ! मुझे देखते ही वह बोले -"चलो योगेश जी, मिठाई खिलाओ !"
"किस खुशी में ?" मैंने पूछा !
"खुशी ही खुशी है ! आपका सेट कम्पलीट हो गया !" उत्तमचंद बोले !
"इतनी जल्दी...?" मुझे अचरज हुआ ! 
"जल्दी कहाँ, प्रेस से बुद्धवार को 'राख की दुल्हन' के लटके हुए चारों फ़ार्म आ गए थे ! आज दोपहर तक सारी बाइंडिंग निपट गयी ! अब आप मिश्रा को बुला लो ! कल रविवार है ! आज रात और कल में सारी पैकिंग कम्पलीट हो जाएगी !" उत्तमचंद बोले !
"पर मिश्रा जी का घर तो कुमार साहब को पता है ! मैंने तो आज तक देखा नहीं !" मैंने कहा !
"फिर क्या है, चिंता नहीं करनी ! अभी चलो, चलते हैं कुमार साहब के यहां !" उत्तमचंद मुस्कुराते हुए बोले !
"चलिए !" मैंने कहा -"देखते हैं, अब शायद कुमार साहब घर पर हों ! सुबह तो थे नहीं !"

      उत्तमचंद को मैंने सुबह हुए सुमेरचंद वाले लफड़े के बारे में नहीं बताया !
हम कुमारप्रिय के घर पहुंचे ! इस बार ताला खुला हुआ था !
कुमारप्रिय घर पर थे !

       मन में तो आ रहा था - सुबह सुमेरचंद ने आकर जो तमाशा किया था, जल्दी से कुमार साहब को बताऊँ, लेकिन उत्तमचंद साथ थे, इसलिए वो सब न कहकर मैंने पूछा - "सुबह कहाँ थे कुमार साहब ?"
"अरे यार, क्या बताएं ! रात को कमरे पर एक बन्दे ने आकर खबर दी इलाहाबाद से सुशीलकुमार भाईसाहब आये हैं ! उनकी तबियत खराब है ! वो करोल बाग़ किसी परिचित के यहां ठहरे हुए हैं ! तो हम उसी समय निकल गए थे ! सुबह भाईसाहब की तबियत कुछ ज्यादा खराब हो गयी तो डॉक्टर के ले गए ! फिर जब उन्हें थोड़ा आराम हुआ, तब वहां से रंगभूमि गए ! अब शाम को ही... आपके आने से थोड़ा पहले ही घर आये हैं !" कुमारप्रिय ने सुबह अपने कमरे पर न होने के बारे में स्पष्टीकरण दिया !

        उसके बाद बात उत्तमचंद ने शुरू की -"कुमार साहब, बाबे दी मेहर से सारी किताबें तैयार हो गयीं ! अब आप फ़टाफ़ट मिश्रा जी को बुला लीजिये और आज और कल में अपनी पैकिंग कम्पलीट करवाइये, मेरे यहां से जगह खाली हो !" 
"अरे !"  कुमारप्रिय हतप्रभ होकर बोले -"अभी तो वीपी स्लिप भी नहीं छपी ! पिछली बार जितनी छपवाए थे, सब लग गयी थीं ! दस-बीस बची भी होंगी तो उसमे पैकिंग कैसे होगी ! और वीपी फ़ार्म भी नहीं हैं ! कल संडे है ! परसों पोस्ट ऑफिस खुलेगा तो वीपी फार्म लिए जाएंगे और फिर अभी तो  टिकटों का हिसाब भी लगाना होगा ! एड्रेस का रजिस्टर तो बिमल जैन के यहां है ! रजिस्टर भी लाना होगा ! तभी वीपी स्लिप बनेगी !" इतना कहकर कुमारप्रिय ने उत्तमचंद को दो टूक निर्णय सुना दिया -"कल तो पैकिंग किसी हालत में नहीं हो सकती ! पोस्ट ऑफिस से डिस्पैच की 'डेट' भी लेनी होगी !" 

          उन दिनों यदि पांच-दस पैकेट डिस्पैच करने होते  थे तो किसी भी दिन हो जाते थे, किन्तु सौ-डेढ़ सौ पैकेट डिस्पैच करने होते तो पोस्ट ऑफिस में पूर्व सूचना देकर डिस्पैच की तारीख लेनी होती थी !

          हमेशा मुस्कुराते रहने वाले उत्तमचंद कुमारप्रिय की बात पर गंभीर हो गए, बोले -" आप मेरा भी तो सोचिये कुमार साहब ! आपकी किताबों से मेरा बाइंडिंग खाना भरा हुआ है ! मैं किसी और का माल मंगवाकर दूसरा काम शुरू भी नहीं कर सकता ! मैंने भी तो रोटी खानी है ! मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं !"
"चिंता नहीं करनी बाबाजी, सब ठीक हो जाएगा ! बाबे दी मेहर पे भरोसा रखो !" कुमारप्रिय मज़ाकिया अंदाज़ में बोले तो उत्तमचंद ने अनुरोध किया -"बात को मज़ाक में मत टालिए कुमार साहब ! आपका माल नहीं हटेगा तो मेरा बहुत नुक्सान हो जाएगा ! दूसरा काम हो नहीं पायेगा ! मेरे वर्कर खाली बैठे रहेंगे तो उन्हें अपनी जेब से रोटी खिलाऊंगा क्या ?"

          कुमारप्रिय ने उत्तमचंद की स्थिति की नज़ाकत को समझा और गंभीर होकर बोले -"अच्छा, आप तीन-चार दिन और माल अपने किसी पड़ोस के मकान में रखवा लीजिये, जो किराया बनेगा, हम दिलवाएंगे आपको।"
और फिर....
कुमारप्रिय ने समझा-बुझाकर उत्तमचंद को विदा किया, किन्तु मैं वहीं रुक गया !
मैंने कुमारप्रिय को सुमेरचंद जैन के आने और अपने घर पर होने वाले तमाशे के बारे में बताया तो कुमारप्रिय बोले -"अब तो कैसे न कैसे बिमल जैन को पकड़ना ही पडेगा ! चलिए, देखते हैं हो सकता है आज बिमल जैन ससुराल से आ गए हों !" 

आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 22
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इस बार बिमल जैन घर पर मिल गये !

उनके ससुराल में किसी की तबियत खराब थी, इसलिए ससुरालियों के जोर देने पर उन्हें दो दिन अधिक रुकना पड़ा था।

कुमारप्रिय ने उन्हें नये सैट की स्थिति और पैसों की जरूरत से आगाह किया !
बिमल जैन ने बिना विलम्ब किये - सुमेरचन्द जैन कागजी, बाइन्डिंग के उत्तमचन्द के बिल के पैकिंग आदि के अलावा डाक टिकटों, वीपी फार्म आदि के लिए कुमारप्रिय ने जो हिसाब बताया - उतने रुपये नगद दे दिये !
उसके बाद कुमारप्रिय के माँगने पर डिस्पैच रजिस्टर भी दे दिया !

बिमल जैन के घर से निकलने के बाद सड़क पर पहुँचकर  कुमारप्रिय  बोले -"आइये योगेश जी, अब सुमेरचन्द की खबर भी ले लें !"
कुमारप्रिय ने सुमेरचन्द की पेमेन्ट की रकम टोटल रुपयों से अलग कर, एक जेब में रख ली थी !

चाँदनी चौक से एक रिक्शा पकड़ हम कुछ ही देर में पत्थरवालान की उस संकरी गली के सामने पहुँच गये, जहाँ सुमेरचन्द जैन का घर था !

आवाज मुझे ही लगानी पड़ी, किन्तु पाँच दिन पहले एक आवाज में खिड़की से बाहर झाँकने वाले सुमेरचन्द जैन को इस बार तीन आवाजें देनी पड़ीं, तब खिड़की से बाहर चेहरा आया और एक बेहद थकी-थकी-सी आवाज सुनाई दी -"आता हूँ !"

सुमेरचन्द जैन जैसे ही नीचे आये, कुमारप्रिय राशन-पानी लेकर चढ़ गये ! एकदम गर्म होकर बोले -"क्या जैन साहब, आपको बोला था, पाँचवें दिन आपके घर पैसे पहुँच जायेंगे, फिर आप गाँधीनगर क्यों पहुँच गये ! ख्वामखाह सारे मोहल्ले में तमाशा कर दिया ! अरे, हमलोग कोई चोर नजर आते हैं ! पहले भी आपसे ही पेपर लिया है ! कभी एक दिन पेमेन्ट 'लेट' की ?"

कुमारप्रिय की आवाज अवश्य बारीक थी, लेकिन अन्दाज़ ऐसा था कि सुमेरचन्द जैन हड़बड़ा गया ! एक पल के लिए तो उसके मुँह से कोई बोल ही नहीं निकला ! फिर वह धीमे स्वर में बोले -"आपने पाँचवें दिन पेमेन्ट को बोला था, इसलिए मैं..."
"अरे तो पाँचवा दिन बीत गया क्या ? अभी भी तो पाँचवा दिन है ! हम आपको बोले थे कि आपका पैसा आपके घर पहुँच जायेगा तो आपको गाँधीनगर पहुँच योगेशजी के घर हंगामा करने की क्या जरूरत थी ? अब दिल तो कर रहा है - आपकी इस हरकत के लिए महीने भर आपको पेमेन्ट के लिए दौड़ायें ! पर हमने भी व्यापार करना है ! आपको शर्म आनी चाहिए - सुबह वाली हरकत पर !" कुमारप्रिय जेब से सुमेरचन्द जैन की पेमेन्ट की रकम निकालते हुए बोले !
"गलती हो गई कुमार साहब ! मैंने सोचा - पेमेन्ट लेने मैंने ही जाना है तो चाँदनी चौक से गाँधीनगर के चक्कर में बहुत टाइम खराब हो गया था, फिर आटो का किराया भी कम नहीं पड़ता !" पेमेन्ट मिलती देख सुमेरचन्द जैन का अन्दाज ही बदल गया !

पर कुमारप्रिय की भड़ास अभी पूरी तरह निकली नहीं थी !
पैसे निकालकर हाथ में अवश्य ले लिए थे, मगर सुमेरचन्द की ओर बढ़ाये नहीं थे !

अपने गुस्से को और बढ़ाते हुए कुमारप्रिय बोले -"अरे आप व्यापारी आदमी हैं ! इतनी अक्ल तो आपको होनी चाहिए कि कस्टमर ने पाँच दिन बोला है तो पाँच के छ: सात दिन भी हो सकते हैं ! वो बीमार हो सकता है ! उसका एक्सीडेंट भी हो सकता है ! उसके घर में कोई गमी, कोई मौत भी हो सकती है, तब भी आप ऐसे ही तमाशा करेंगे ! दो-चार दिन का मार्जिन तो आपको भी रखना चाहिए और फिर हम बोले थे कि आपकी पेमेन्ट घर पहुँच जायेगी तो आप योगेशजी के घर कैसे पहुँच गये ?" नोट अपने दायें हाथ में लिए कुमारप्रिय बायें हाथ की हथेली पर मारते हुए बोले ! अभी भी सुमेरचन्द की ओर नोट बढ़ाने की कोई क्रिया हरकत उनके हाव-भाव में नहीं थी !
"बस, क्या करूँ ! गलती हो गई कुमार साहब ! मैंने ध्यान नहीं दिया कि आपने पेमेन्ट मेरे घर पहुँचानी है !" सुमेरचन्द का स्वर भीगी बिल्ली सा था !
"आपको ध्यान रखना चाहिए ! आखिर व्यापार कर रहे हैं ! कोई घास नहीं खोद रहे कि चाहें इधर से खोद दो या उधर से खोद दो ! अभी हमारे पचासों सैट निकलने हैं ! कभी पेमेन्ट में देर-सवेर भी हो सकती है ! तब भी क्या आप बार-बार ऐसा ही तमाशा करेंगे !"
"नहीं, बिल्कुल नहीं ! बस, इस बार गलती हो गई ! आगे कभी नहीं होगी !" सुमेरचन्द ने कहा !
"ठीक है ! एक सादे कागज पर लिखकर दीजिये कि आपको आपकी पेमेन्ट फुल एण्ड फाइनल प्राप्त हुई ! नीचे तारीख़ डालकर सिग्नेचर भी कर दीजिये !" कुमारप्रिय ने कहा !
"पर कागज-पैन तो मैं लाया नहीं !" सुमेरचन्द जैन ने विवशता जाहिर की तो कुमारप्रिय बोले - "ठीक है, कागज पैन ले आइये ! इतने हम बाहर चाय वाले की बेंच पर बैठते हैं ! चाय तो पिलायेंगे न आप ?"
"हाँ-हाँ !" सुमेरचन्द जैन ने कहा और कागज पैन लाने वह अपने घर की ओर बढ़ गया !

कुमारप्रिय और मैं गली से बाहर निकल गये ! थोड़ा ही आगे छोटी सी जगह में एक चाय वाले का स्टाल था और वहीं सड़क पर एक बेंच पड़ी थी ! हम दोनों बेंच पर बैँठ गये !

"कुमार साहब ! हमने सुमेरचन्द से यह तो नहीं कहा था कि हम पेमेन्ट उसके घर पहुँचा देंगे !" मैंने कुमारप्रिय के शब्दों को ध्यान दिलाते हुए अचानक कहा तो कुमारप्रिय ने मुझे घुड़क दिया -"चुप करिये ! अभी सुमेरचन्द आ गया तो सुन लेगा और उसने तो मान लिया न….!"

थोड़ी देर बाद सुमेरचन्द एक कापी और पैन लेकर टी स्टाल पर आ गया !
टी स्टाल की बेंच पर दो ही जनों के बैठने की जगह थी ! अतः उसे खड़ा रहना पड़ा !

उसने टी स्टाल के काउन्टर पर कापी रख, कापी के एक पेज पर वह सब लिखा, जो कुमारप्रिय ने लिखवाया ! फिर तारीख़ डालकर सिग्नेचर किये और पेज फाड़कर कुमारप्रिय के हवाले किया !

कुमारप्रिय ने सुमेरचन्द के भेजे एन्टिक कागज की पूरी पेमेन्ट की ! फिर चाय के पैसे सुमेरचन्द जैन से ही दिलवाये और अन्ततः हाथ मिलाकर विदा ली !

गाँधीनगर पहुँचने के बाद कुमारप्रिय बोले -"आइये, तिवारी जी से मिलते चलें ! अभी रात को मिल गये तो सुबह-सुबह पाँच-छ: सौ वीपी स्लिप छापकर दे देंगे !"

मुझे भी यह विचार ठीक लगा !

बिमल जैन से डिस्पैच रजिस्टर हम ले ही आये थे ! यदि सुबह तक वीपी स्लिप छपकर मिल जातीं तो उनमें एजेन्टों (पुस्तक बिक्रेताओं) के पते लिखकर कल के ही दिन तैयार किया जा सकता था ! फिर केवल वीपी फार्म में ही नाम-पते-एमाउन्ट भरना रह जाता !

जो लोग प्रकाशन जगत के क्रिया-कलाप से अनजान हैं, उन्हें मैं बताना चाहूँगा कि उन दिनों जब एक प्रकाशक किसी पुस्तक बिक्रेता को वीपी पैकेट भेजता है तो सबसे पहले डिस्पैच रजिस्टर में उसका नाम पता और कौन-कौन-सी पुस्तक कितनी-कितनी भेजी गयी, प्रत्येक की संख्या और कुल कितनी पुस्तक भेजी गईं, वह संख्या तथा सभी पुस्तकों का कुल प्रिन्टेड मूल्य कितना हुआ,  फिर पुस्तक बिक्रेता को कितना कमीशन दिया गया तथा कमीशन काटकर वीपी पैकेट कितने मूल्य का बना, सब लिखा जाता है !

यदि पुस्तक बिक्रेता द्वारा वीपी पैकेट पर लिखा एमाउन्ट पोस्टमैन को देकर वीपी पैकेट छुड़ा लिया जाता था तो वीपी पैकेट पर लिखी धनराशि कुछ दिनों बाद प्रकाशक के पास आ जाती थी और प्रकाशक डिस्पैच रजिस्टर में उस पुस्तक बिक्रेता के पृष्ठ पर डिस्पैच डिटेल के आखिरी कालम में नीली स्याही के पैन से रिसीव्ड लिख देता !

यदि पुस्तक बिक्रेता पोस्टमैन से पैकेट लेने से इन्कार कर पैकेट वापस कर देता तो वह पैकेट भी प्रकाशक के पास वापस आ जाता और उस पुस्तक बिक्रेता के पृष्ठ पर डिस्पैच डिटेल के आखिरी काॅलम में लाल रंग की इंक के पैन से रिटर्न्ड लिख दिया जाता था !

वीपी स्लिप में सबसे ऊपर या सबसे नीचे प्रकाशन संस्था का नाम और पता होता था ! यदि पता ऊपर होता तो पते के ठीक नीचे एक लाइन के बाद, अंकों और शब्दों में रुपये-पैसे लिखने के लिए रुपये और पैसे लिखकर, एमाउन्ट भरने के लिए खाली स्थान होता था ! उसके नीचे अंग्रेजी का शब्द To - लिखने के बाद पुस्तक बिक्रेता का नाम पता लिखने के लिए चार पाँच .... डाॅट्स डली खाली लाइनें होती थीं !

यदि प्रकाशक का पता पुस्तक बिक्रेता के पते के नीचे होता तो सबसे ऊपर पुस्तक के पैकेट की एमाउन्ट राशि के  रुपये-पैसे की Blank लाइनें होतीं, जिनमें नीले या काले पैन की इंक से सारा विवरण लिखा जाता था ! पैकेट सुतली से बांधा जाता था ! पैकेट के नीचे की सुतली में वीपी फार्म तीन या चार तह मोड़कर, घुसा दिया जाता था !

वीपी फार्म मनीआर्डर फार्म जैसा ही होता था, जहाँ धनराशि लिखनी होती, वहाँ 'वीपी फाॅर' लिखा होता, जबकि मनीआर्डर में मनीआर्डर ही लिखा होता था ! पुस्तक बिक्रेता जब वीपी पैकेट की कीमत चुकाकर पैकेट ले लेता था तो वीपी पैकेट में अटैच्ड वीपी फार्म पोस्टमैन वापस रख लेता था और प्रकाशक के पास उसी वीपी फार्म के साथ वीपी पैकेट पर अंकित धनराशि पहुँचती थी !

गाँधीनगर की जिस गली में कुमारप्रिय का कमरा था, उसी गली में शुरु के तीसरे मकान में एक चारपेजी चेन्डर मशीन लगी हुई थी ! वहाँ जाॅब वर्क ही होता था, एक बार में उस प्रेस में चार पेजी फिल्मी गानों की किताब से अधिक मैटर की छपाई नहीं हो सकती थी !

        प्रिन्टिंग प्रेस में अधिकाँशत: दो व्यक्ति ही दिखाई पड़ते थे ! एक का नाम महिपाल, दूसरे ने अपना नाम उन दिनों हमें शैलेन्द्र तिवारी बताया गया था, उसे हम तिवारी जी कहते थे !
छपाई का सारा काम उन दिनों तिवारी जी ही करते थे !

बड़ी उम्मीद के साथ मैं और कुमारप्रिय उस प्रेस तक पहुँचे, किन्तु प्रेस के द्वार पर एक बड़ा-सा ताला झूल रहा था !

हमारी समस्त आशाएँ धूल धूसरित हो गईं !

"अब...!" कुमारप्रिय बोले -"सुबह नौ बजे से पहले तो प्रेस खुलेगी नहीं ! मान लीजिये...हम नौ बजे ही आकर तिवारी जी को पकड़ लें तो भी वीपी स्लिप का पेज टाइट करके मशीन पर चढ़ाने में पन्द्रह मिनट से आधा घंटा तक लग सकता है और एक घंटे में सौ स्लिप भी निकलीं तो पाँच घंटे से कम नहीं लगेगा !"
मैं कुछ नहीं बोला !
मुझे उस समय प्रिन्टिंग प्रेस के कामों की तनिक भी जानकारी नहीं थी !

          कुछ क्षण हम प्रिन्टिंग प्रेस के द्वार के सामने चित्रवत खड़े रहे। फिर कुमारप्रिय ही बोले -"जाइये योगेश जी ! आप भी घर जाइये ! हम भी चलते हैं ! एक काम आप सुबह नौ बजे कीजियेगा, एक चक्कर यहाँ लगा लीजियेगा ! तिवारी जी मिल जायें तो उनसे वीपी स्लिप छापने को बोलियेगा ! हम जरा रात को लिखेंगे तो सुबह आँख जल्दी नहीं खुलेगी ! बाद में हम भी चक्कर लगा लेंगे !"
"ठीक है !" मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया ! तभी कुमारप्रिय फिर बोल उठे -"नही, आप ऐसा करियेगा, यहाँ प्रेस पर से सीधे हमारे यहाँ आ जाइयेगा ! हम सो भी रहे हों तो हमें जगा दीजियेगा ! फिर देखेंगे - क्या करना है !"
मैंने फिर से सहमति में सिर हिलाया, लेकिन तभी एक बात दिमाग में आई, पूछा -"कुमार साहब, आपका मकानमालिक रात को नौ बजे के बाद आपको लाइट जलाने देता है !"
"उसे पता कहाँ है कि हम रात को लाइट जलाते हैं ! हम एक टेबललैम्प रखे हैं ! रात को वही जलाकर लिखते हैं ! दोनों दरवाजों पर मोटे पर्दे भी लगा रखे हैं और दरवाजा बन्द भी रखते हैं ! हमें नहीं लगता बाहर से किसी को पता लगेगा कि अन्दर बल्व जल रहा है !"

मुझे अफसोस हुआ कि यह टेबललैम्प वाला आइडिया मेरे दिमाग में क्यों नहीं कभी आया !

उसके बाद मैं बायीं ओर तथा कुमारप्रिय दायीं ओर मुड़ गये !

       वह पूरा दिन बहुत असामान्य गुज़रा था। घर जाकर मैंने तो एक भी पेज नहीं लिखा ! खाना खाकर, सोने के बाद रात गुजारी ! फिर सुबह रोज के वक्त उठ, फ्रेश हो, स्नान करके तैयार हुआ, लेकिन तब तक सात ही बजे थे ! मैं घर में बिमल चटर्जी के यहाँ जाने के लिए, कहकर निकला !

         बिमल चटर्जी के घर का बाहरी गेट लोहे का था, जिसमें बाहर-अन्दर से हाथ से घुमाकर खोलनेवाला लैच था, फिर एक बरामदा था, उसके बाद दायीं ओर एक दरवाजा था !  उस दरवाजे से गैलरी में प्रवेश करते ही दायीं दीवार में एक और दरवाजा था। वह बिमल चटर्जी के माता-पिता के कमरे का दरवाजा था।
         आगे एक दरवाजा शिवानी दीदी के कमरे का था, तब उनकी शादी नहीं हुई थी। बायीं ओर पहला कमरा अशीत चटर्जी और रानू भाभी का था, उसके बाद आखिर में एक कमरा बिमल और दुर्गा भाभी का था, जिसके ठीक सामने एक कमरा और था, जो उस समय संयुक्त स्टोर रूम था।

           लैच हटाकर मैंने जैसे ही गेट खोला। बिमल के पिताजी अपने कमरे से बाहर निकले ! मैंने उनके पाँव छुए ! उन्होंने आशीर्वाद देते हुए बंगाली में कुछ कहा ! फिर मेरा दायां हाथ थाम बोले -"आजा, अन्दर आजा।"
अन्दर माँ ने मुझे देखते ही कहा -"बिल्कुल सही समय आया है। आजा चाय पी ले।"

वहाँ सेन्टर टेबल नहीं थी !
एक ऊँची डाॅक्टरी टेबल थी, उसी पर एक केतली रखी थी !
टेबल पर कुछ प्याले भी रखे थे ! दो प्यालों में पहले से चाय थी

माँ ने मेरे लिए एक तीसरे प्याले में केतली से चाय डाली ! फिर बोलीं -"आज तुम्हारे बाबा तुम्हें याद कर रहे थे ! बोल रहे थे - योगेश बहुत अच्छा लड़का है तो मैंने कहा - आप योगेश को याद कर रहे हो, अभी आ जायेगा ! मैं तो जब भी योगेश को याद करता हूँ, थोड़ा देर में योगेश जरूर आ जाता है तो बाबा बोले - आज योगेश के लिए भी चाय बनाओ ! हम योगेश के साथ ही चाय पियेगा !"

माँ-बाबा का मेरे प्रति वह प्रेम आज भी मेरे दिल में बिमल चटर्जी के घर की मीठी स्मृतियों को जीवित रखे है ! जब तक मैं गाँधीनगर रहा शिवानी दीदी ने हमेशा मुझे राखी बाँधी, लेकिन कभी कुछ नहीं लिया ! एक बार मैंने उन्हें कुछ देना चाहा तो उन्होंने मेरे दायें गाल पर हल्का-सा चाँटा लगाया और बोलीं -"तू तो मेरा छोटा भाई है ! तेरे से कुछ नहीं लूँगी !"

शिवानी दीदी की शादी के अवसर पर भी माँ-बाबा और दीदी ने मुझसे कुछ नहीं लिया, बल्कि मुझे पहले से ही डाँट दिया था कि कोई सामान नहीं खरीदना ! बिमल और अशीत शिवानी दीदी से बड़े थे ! उन्होंने भी मुझसे कह दिया कि तेरे बड़े भाई हैं न...तेरे को कुछ भी देना हो, हमें बोल... हम तेरी तरफ से देंगे !"
सच, आज के युग में पता नहीं, वैसे लोग होते हैं या नहीं !

माँ-बाबा के साथ चाय पीकर मैं बिमल के कमरे में पहुँचा तो वहाँ भी मेरे लिए चाय तैयार थी ! मेरी आवाज उनके कानों तक पहले ही पहुँच गई थी और मैं माँ-बाबा के कमरे में हूँ, उन्हें पहले ही पता चल गया था !

मैंने पिछले दिन उत्तमचन्द के आने और फिर कुमारप्रिय के साथ बिमल जैन के यहाँ, फिर सुमेरचन्द जैन के यहाँ जाने की सारी बातें बिमलचटर्जी को बता दीं ! फिर तिवारी जी के प्रेस में वीपी स्लिप छपवानी है, यह भी बताया !
बिमल चटर्जी को मैं अपनी अच्छी-बुरी हर बात हमेशा बता देता था !

उसके बाद मैं वहीं बैठा नन्ही राखी के साथ खेलता रहा, तब तक बिमल चटर्जी भी नहा-धोकर तैयार हो गये ! तभी अशीत चटर्जी की पत्नी रानू भाभी ने मुझे मक्खन लगी सिंकी हुई ब्रेड लाकर थमा दीं ! मैंने मना करना चाहा तो अशीत ने डाँट लगाई -"क्या बिमल ही तुम्हारा भाई है ! मैं तुम्हारा भाई नहीं हूँ ! रानू तुम्हारी भाभी नहीं है !"

उस दिन के बाद तो बिमल चटर्जी के घर का कोना-कोना मेरा भी घर हो गया !
बिमल चटर्जी के पिताजी दूरदर्शी व्यक्ति थे !
बिमल व अशीत कमाने लगे थे, उसी के बाद उनकी शादी कर दी थी और शादी के बाद दोनों की रसोई भी अलग कर दी !
लेकिन रसोई भी उनका एकमात्र कमरा ही था !
तब गैस का जमाना नहीं था ! हर काम मिट्टी के तेल से जलने वाले स्टोव पर होता था !

सबकी अलग-अलग रसोई ही, शायद वह कारण रही हो कि मैंने बिमल-अशीत के घर कभी कोई झगड़ा नहीं देखा !

नौ बजे बिमल मेरे साथ ही निकले !
हम तिवारी जी की प्रेस पर पहुँचे !
प्रेस के द्वार पर अब भी ताला लगा हुआ था !
बिमल और मैं वहाँ से कुमारप्रिय के यहाँ पहुँचे, किन्तु उन्हें सोते से उठाना नहीं पड़ा ! वह पहले से उठे हुए थे !
मैंने कुमारप्रिय को बताया कि प्रेस में अभी भी ताला लगा हुआ है तो कुमारप्रिय बोले -"आज सण्डे भी है और काम-वाम भी नहीं होगा, लगता है इसीलिए तिवारी जी छुट्टी मार गये !

मैंने बताया कि आज मुझे बिमल चटर्जी के साथ भारती पाॅकेट बुक्स जाना है ! हम दोनों के ही उपन्यासों में कुछ मैटर कम पड़ गया है, वहीं बैठकर बढ़ा आयेंगे ! इसलिए हम जल्दी ही निकलने की सोच रहे हैं !"
"ठीक है ! आपलोग जाइये ! क्या किया जा सकता है ! यह हम देखते हैं - कहीं और से वीपी स्लिप छप जाये !" कुमारप्रिय ने कहा !

लालाराम गुप्ता के पत्र में हमें चार बजे तक पहुँचने के लिए कहा गया था, किन्तु हमने फैसला किया कि हम जल्दी ही निकलेंगे ! पता नहीं कितना मैटर लिखना पड़े ! कितना वक्त लग जाये !

मैं और बिमल ढाई बजे तक भारती पॉकेट  बुक्स पहुँच गए !
ऑफिस में पंडित जी थे  ! गुप्ता जी सामने के मकान की ऊपरी मंज़िल स्थित अपने घर में थे ! पंडित जी गुप्ता जी को बुलाने गए तो बिमल ने मुझसे कहा -"योगेश जी, हमारी किताबें तो तैयार हैं ! फिर मैटर कौन सा लिखवाना होगा गुप्ताजी को ?"

मैंने भी दायीं ओर पड़े कुछ बंडलों की तरफ देखा !
उनमें सेट की अन्य किताबों के साथ-साथ मेरी और बिमल की किताबों की पुश्त झाँक रही थीं, जिस पर किताबों  के नाम नजर आ रहे  थे !
लेकिन आॅफिस के अन्दरूनी हिस्से में, जो कि गोदाम का काम करता था, बहुत ज्यादा बण्डल नहीं थे ! स्पष्ट था भारती पाॅकेट बुक्स का हमारी किताबों वाला सैट डिस्पैच हो चुका था !

कुछ ही देर में गुप्ता जी आॅफिस में आ गये ! अपनी कुर्सी की ओर बढ़ते हुए बोले -"आपलोग तो बड़ी जल्दी आ गये ! मैंने तो चार बजे का लिखा था, सोचा था पाँच तक आ ही जाओगे ! हम हिन्दुस्तानी टाइम के मामले में लेटलतीफ कुछ ज्यादा ही होते हैं !"
"हम तो यह सोचकर जल्दी आये हैं कि जल्दी पहुँचेंगे तो जो भी काम होगा, जल्दी निपटाकर जल्दी वापस लौट लेंगे !" बिमल चटर्जी गम्भीर होकर गुप्ता जी से बोले !
"अभी तो आप आये हैं ! अभी जाने की बात मत करिये !" लालाराम गुप्ता बोले और तभी कुर्सी पर बैठने के बाद उन्होंने एक दराज खोली और उसमें से दो फार्म निकाल एक मेरी और एक बिमल की तरफ बढ़ाते हुए बोले -"जब जल्दी आ ही गये हैं तो जरा इन फार्मों के प्रूफ पढ़ डालिये !"
"प्रूफ !" बिमल चौंके -"गुप्ता जी, मुझे यह प्रूफ-व्रूफ पढ़ने नहीं आते ! मेरे तो लिखने में भी अक्सर कौमे, बिन्दी और बड़ी-छोटी मात्रा की गलती हो जाती है ! मैं तो योगेश जी की मदद से अपनी हिन्दी सुधार रहा हूँ !"
"तो ठीक है !" गुप्ता जी ने दोनों फार्म और एक पैन मेरी ओर बढ़ाये और बोले -"योगेशजी, आप ही पढ़ डालिये - ये प्रूफ !"
"गुप्ता जी, प्रूफरीडिंग तो मुझे भी नहीं आती !" मैंने धीरे से कहा !
"हैं ऐ ऐ...!" लालाराम गुप्ता ने यूँ "हैं ऐ ऐ" किया, जैसे कानों में बम फूटा हो ! फिर बोले -"वैसे मैं पढ़ लेता हूँ, पर मुझसे बहुत सारी गलतियाँ छूट जाती हैं ! वीरेन्द्र लौहचब पढ़ लेते हैं, पर कुछ दिनों से वह बीमार हैं ! मगर आपको तो प्रूफरीडिंग आनी चाहिये योगेशजी ! आपकी तो हिन्दी भी बहुत अच्छी है !"
"प्रूफरीडिंग कभी की नहीं गुप्ता जी ! पंकज पाॅकेट में भी प्रूफरीडिंग कुमार साहब करते हैं !" मैंने अपराधी के से भाव में कहा !
"पर आपको तो सीखनी चाहिए ! आपकी हिन्दी तो बहुत बढ़िया है !" लालाराम गुप्ता बोले !

तभी बिमल चटर्जी ने तोप का गोला छोड़ दिया -"गुप्ता जी, योगेश जी सब कर सकते हैं, बस आप इन्हें किसी के बहुत अच्छे पढ़े गये प्रूफ के दो-चार फार्म दिखा दीजिये !"
मुझे नहीं पता कि उस समय वे शब्द बिमल चटर्जी ने मुझ पर अति विश्वास के कारण कहे थे या मेरी खिंचाई कर रहे थे !

पर मैं फँस गया था !
मैंने नाराजगी वाले भाव में बिमल को देखा ! वह मुस्कुरा रहे थे ! मुझसे निगाहें मिलते ही उन्होंने मुँह घुमा लिया !
लेकिन बिमल की बातों ने लालाराम गुप्ता को गम्भीर कर दिया !
कुछ सोचते हुए से वह बोले -"अभी देखता हूँ, पिछली बार जब आबिद रिजवी आये थे तो कुछ फार्म उनसे पढ़वाये थे ! उनके पढ़े हुए प्रूफों से योगेशजी को बहुत कुछ सीखने को मिलेगा ! उनकी हिन्दी योगेशजी से भी बहुत अच्छी है और वह तो हर बात के मास्टर हैं !"

उन दिनों पाॅकेट बुक्स 17x27 साइज के एन्टिक पेपर पर छपती थीं ! रिम की एक शीट में एक तरफ सोलह व दूसरी तरफ भी सोलह पेज छपते थे ! रिम में पाँच सौ शीट होती थीं, लेकिन एक शीट पर चूँकि बत्तीस पेज छपते थे, इसलिए एक रिम में किसी भी पाॅकेट बुक के एक हजार फार्म तैयार हो जाते थे !
प्रकाशक हर फार्म की दो या तीन बार प्रूफरीडिंग करवाते थे !
जब पहली रीडिंग के बाद दूसरी रीडिंग के लिए प्रूफ प्रकाशक के पास आते थे तो फर्स्ट रीडिंग के पढ़े हुए प्रूफ भी साथ ही भेजे जाते थे ! बाद में - वह फर्स्ट रीडिंग के प्रूफ प्रकाशक के पास ही पड़े रह जाते थे और बहुत सारे प्रूफ इकट्ठे हो जाने पर रद्दी कागजों के रूप में बेच दिये जाते थे !
ऐसे प्रूफ किताबें तैयार हो जाने पर प्रकाशक द्वारा एक ओर एकत्रित रद्दी कागजों के ढेर में डाल दिये जाते थे !
आबिद रिजवी द्वारा पढ़े गये उन प्रूफों को ढूँढकर निकालने में लालाराम गुप्ता को वक्त लगा, पर अन्ततः उन्होंने कहीं रद्दी में फेंक दिये वे प्रूफ निकालकर मेरे सामने रख दिये !

वे एक-दो नहीं, पूरे चार फार्म थे !
लालाराम गुप्ता ने मेरी ओर बढ़ाये तो बिमल चटर्जी बोले -"योगेश जी, आबिद रिजवी को गुरु मानकर शुरु हो जाओ !"
अब मुझे पक्का महसूस हुआ कि बिमल चटर्जी सचमुच मेरी खिंचाई कर रहे हैं ! हम दोनों के बीच रिश्ता कुछ ऐसा था कि सब कुछ चलता था ! मौका पड़ने पर मैं भी बिमल की खिंचाई कर देता था !
आज मौका बिमल का था, पर मैं भी कम नहीं था !
मैंने उन प्रूफों के आगे अपने दोनों हाथ जोड़े और नाटकीय अन्दाज में बोला -"हे आबिद रिजवी गुरुदेव ! यह मेरी नहीं, आपकी इज्जत का सवाल है ! मुझे इतनी अक्ल देना कि मैं गुप्ताजी को सन्तुष्ट कर सकूँ !"

अपनी बात कहते हुए मैं बिमल की ओर देखता रहा, किन्तु बिमल चटर्जी की नजरें सामने गुप्ता जी की ओर थीं ! उन्होंने मेरी तरफ देखा तक नहीं !
मैंने वे प्रूफ पढ़े हुए फार्म उठाये ! उन्हें पढ़ना तथा लगी हुई गलतियों पर ध्यान देना आरम्भ किया !
एक बार चारों फार्म पढ़ने के बाद दोबारा फिर से गलती लगे एक-एक पेज को देखा !

"कुछ समझ में आया योगेशजी ?" लालाराम गुप्ता ने पूछा !
"पता नहीं ! पर अब मैं प्रूफरीडिंग की कोशिश कर सकता हूँ !" मैंने कहा !

लालाराम गुप्ता ने दो फार्म मेरे सामने रख दिये ! मैंने पैन उठाया और शुरु हो गया ! दो ही फार्म थे ! मुझे एक-एक पेज की दो बार रीडिंग करने में भी पन्द्रह मिनट से ज्यादा नहीं लगे !
वह विजय सीरीज़ का कोई उपन्यास था, जिसके प्रूफ लालाराम गुप्ता मुझसे पढ़वा रहे थे !

तभी वहाँ राजभारती और यशपाल वालिया भी आ गये ! लालाराम गुप्ता ने उन्हें बताया कि आज योगेशजी की परीक्षा ली जा रही है !

फोल्डिंग कुर्सियां खुल गईं ! सब बैठ गये !
करेक्शन करने के बाद मैंने प्रूफ गुप्ता जी की ओर बढ़ा दिये और पूछा - "ये भारती साहब के नाॅवल के प्रूफ हैं ?"
"नहीं !" गुप्ता जी बोले -"ये वेदप्रकाश काम्बोज के नाॅवल के प्रूफ हैं !"
"असली..?" मैंने पूछा !
"नहीं...!" लालाराम गुप्ता बोले -"नाम असली है - नाॅवल हमारे एक लेखक ने लिखा है !"
"यानि नकली...पर आप नकली क्यों छाप रहे हैं, जब राजभारती आपके पास हैं !" मैंने तुरन्त ही कहा !
उन दिनों मैं - जो दिल में आता था, तुरन्त बोल देता था ! किसी को अच्छा लगेगा या बुरा, शायद यह सोचने की अक्ल ही नहीं थी !

मैंने जो कहा, सुनकर लालाराम गुप्ता कुछ असहज हो उठे ! तभी यशपाल वालिया ने मेरी बात का अनुमोदन कर दिया -"गुप्ता जी, बात तो योगेशजी ने बिल्कुल सही कही है !"
"छोड़ो...!" राजभारती हल्की सी हँसी और फिर मुस्कान के साथ पंजाबी मिश्रित हिन्दी में बोले -"तुसी ये देखो, योगेश पास हुआ या फेल ?"

पर बात लालाराम गुप्ता को चुभ गई थी ! वह बोले -"अब जो स्क्रिप्ट हैं, ये छाप लें ! फिर वेदप्रकाश काम्बोज नहीं छापेंगे !"
लालाराम गुप्ता का मतलब था - वेदप्रकाश काम्बोज के नकली उपन्यास नहीं छापेंगे ! और जैसा लालाराम गुप्ता जी ने कहा, वैसा ही किया ! बाद में वेदप्रकाश काम्बोज के नकली उपन्यास छापने बंद कर दिए !

मेरे पढ़े हुए प्रूफों पर सबसे पहले यशपाल वालिया ने नजर डाली ! फिर सारे पन्ने देखने के बाद एक बहुत हल्का-सा घूँसा मेरी पीठ पर मारा और बोले- "पास !"
और फिर प्रूफ लालाराम गुप्ता की ओर बढ़ाने लगे, तभी राजभारती जी ने प्रूफ वालिया साहब के हाथ से ले लिये ! वह भी मेरे द्वारा पढ़े गये प्रूफों पर नजर डाली ! फिर आखिरी पेज तक देखने के बाद बोले -"शाबास ! तूने तो 'नहीं' के 'ही' पर लगनेवाली बिन्दी को भी नहीं छोड़ा ! हम से तो यह अक्सर छूट जाती है !"

राजभारती जी के बाद लालाराम गुप्ता ने प्रूफ थाम लिये और सारे पन्नों को भली-भाँति देखने के बाद गर्दन दायीं ओर झुका, बहुत धीमे से बोले -"आपने तो सचमुच कमाल कर दिया योगेशजी !"
"तो ठीक है, जिसे गुरु मानकर मैंने यह प्रूफरीडिंग की है ! उन्हें भी यहाँ बुलवाइये ! हमने तो आबिद रिजवी जी की शक्ल भी नहीं देखी !" मैंने गंभीर स्वर में कहा !
"इसके लिए तो आप करतार को बोलो ! आबिद रिजवी इनके पास ही ज्यादा आते-जाते हैं !" लालाराम गुप्ता राजभारती की ओर संकेत करते हुए बोले -"ये प्रूफ भी इन्होंने ही पढ़वाये थे !"
"तूने रिजवी से मिलना है !" राजभारती बोले -"आज तो नहीं, पर जल्दी ही किसी दिन मिलवा देंगे !"
"भारती साहब, मैं भी हूँ !" तभी बिमल चटर्जी ने कहा -"रिजवी साहब से मुझे भी मिलना है !"
"ठीक है, तुझे भी मिलवा देंगे !" राजभारती जी बोले।  उस समय तक हमने 'आबिद रिजवी' का केवल नाम ही सुना था, देखा कभी नहीं था, लेकिन नाम इतनी बार विभिन्न सन्दर्भों में सुना था कि तब मेरे और बिमल के लिए आबिद रिजवी का व्यक्तित्व वैसा ही था, जैसा आज के आम व्यक्ति के लिए अमिताभ बच्चन।

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