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मंगलवार, 5 फ़रवरी 2019

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-11,12

आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 11
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गुप्ता जी ने जब यह कहा कि उन्होंने स्क्रिप्ट पढ़ी है तो तत्काल ही मैंने पूछा - "कैसी लगी ?"
"ठीक है...!" गुप्ता जी ने ढीले-ढाले अन्दाज़ में कहा !
तभी वहाँ भारती साहब भी आ गये।  पर आज वह अकेले थे !
उन्होंने भी मुझसे हाथ मिलाया। भारती साहब से उस समय हाथ मिलाकर मैंने स्वयं को कितना गर्वित महसूस किया, बताने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं।
मैंने लकड़ी की कुर्सी भारती साहब के लिए छोड़ दी और खुद एक फोल्डिंग चेयर बिछाकर उस पर बैठ गया।

"अभी आया है ?" भारती साहब ने मेरी ओर देखते हुए पूछा !
"हाँ, बस कुछ ही देर हुई है।" -मैंने कहा।
"सुस्त लग रहा है ?"
"नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं।"
"चाय पी ?" भारती साहब ने मुझसे पूछा !
जवाब गुप्ता जी ने दिया -"मैं अभी मंगाने वाला था !"
"मंगाने वाला था, क्या होता है, आर्डर कर !" 
"पंडित जी !" गुप्ता जी ने आवाज़ दी !

पंडित जी आये ! गुप्ता जी ने उन्हें चाय का आर्डर दिया ! फिर मेरी तरफ उन्मुख होकर बोले -" योगेश जी, एक बात पूछूं ! सच-सच बताना !" 
"क्या ?" मैंने पूछा !
और फिर गुप्ता जी ने जो  सवाल पूछा, उसके जवाब में मेरे होठों ने जो बदमाशी की, गुप्ता जी का चेहरा बायीं ओर कंधे पर लटक गया ! गुप्ता जी की यह अलग ही अदा थी, जो भविष्य में भी उनसे सम्बन्धित लोगों को बार-बार देखने को मिली !

गुप्ता जी ने मुझसे कहा -"योगेश जी, अगर आपको लिखने के लिए दो महीने का समय मिला होता तो क्या यह स्क्रिप्ट और बेहतर लिखी जा सकती थी ?"
और जवाब में हठात ही मेरे होठों से निकल गया -"हाँ !"

साफ़ सी बात थी, दस दिन में  तो सोचने के लिए कोई ख़ास वक्त ही नहीं था ! लिखना था, बस लिखते जाना था ! बिना रुके लिखते जाना था ! पर दो महीने का समय होता तो एक-एक सीन सोच-सोचकर लिखा जा सकता था !  
लेकिन मेरे जवाब ने गुप्ता जी को नाखुश कर दिया ! गुप्ता जी का चेहरा पहले बाएं से दाएं घूमा ! फिर चेहरा बायीं ओर लटक गया और बोले - "इसका मतलब है, आपने यह स्क्रिप्ट दिल से नहीं लिखी है !"
"नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है !" मैंने कहा !  
"ऐसी ही बात है योगेश जी ! आपने खुद कहा है टाइम ज्यादा मिलता तो स्टोरी और अच्छी होती !" गुप्ता जी ने कहा !
मेरा हलक सूख गया ! पता नहीं अब गुप्ता जी क्या निर्णय लेने वाले हैं ! 
तभी भारती साहब ने गुप्ता जी से प्रश्न किया -"तूने स्क्रिप्ट पढ़ी है ?" 
"हाँ !" गुप्ता जी ने कहा ! 
"पूरी पढ़ी है ?"
"हाँ !"
"कैसी है स्टोरी ?"
"अच्छी है, पर मुझे लगता है, कुछ कमी है !"
"क्या कमी है ?"
"पता नहीं, पर कुछ कमी है जरूर !" गुप्ता जी अपनी बात पर वज़न देते हुए बोले ! 

अब भारती साहब मेरी ओर घूमे -"एन्ड-वेन्ड तो सही है ?"
"आपने तो पढ़ी थी !" मैं मरी-मरी सी आवाज़ में बोला ! उस समय शब्द हलक में अटकने लगे थे ! लगा था - आज पैसे नहीं मिलने ! स्क्रिप्ट मेरे मुंह पर मारी जाएगी !  
"मैंने एन्ड नहीं पढ़ा ! बीच-बीच से पढ़ी थी और वो सब बहुत अच्छा था !" भारती साहब ने कहा !
"तो फिर एन्ड भी पढ़कर देख लीजिये - जरूर पसंद आएगा !" मैं हिम्मत करके बोला ! हालांकि दिल रोने-रोने का हो रहा था !
"क्यों पसंद आएगा ?" भारती साहब ने अजीब सा प्रश्न दाग दिया !
"क्योंकि बीच में तो 'हम स्टोरी बढ़ाने और पेज भरने के लिए फालतू डायलॉगबाजी' डाल देते हैं, पर एन्ड में तो सारी स्टोरी समेटनी होती है, वो भी इस तरह कि कहीं कोई लिंक न छूट जाए और एन्ड पढ़कर हर रीडर का दिल खुश हो जाए !" मैंने कहा !
आपलोग तो समझ रहे होंगे कि मैंने उस समय क्या गलत कहा था, पर उस समय मुझे सचमुच पता नहीं चला था कि मैंने क्या गलत कहा है !      
कुछ देर के लिए सन्नाटा छा गया ! न भारती साहब कुछ बोले, न गुप्ता जी ने कुछ कहा ! कुछ क्षण बाद गुप्ता जी ने जुबान खोली -"इसका मतलब है, बीच में आपने फालतू डायलॉगबाजी से पेज भरे हैं !"
"नहीं !" मैंने तुरंत कहा और फिर खामोश हो गया ! 

मुझे समझ आ गया था कि मैं क्या गलत कह गया हूँ !

तभी भारती साहब ने गुप्ता जी से फिर पूछा - "तूने पूरी स्क्रिप्ट ठीक से तो पढ़ी है न ?"
"हाँ !" गुप्ता जी ने कहा !
"छापने लायक तो है न ?"
हाँ, सो तो है !" गुप्ताजी ने कहा -"पर कुछ तो कमी है ? कुछ खल रहा है मुझे !"
"जगत का रोमांस कम होगा !" भारती साहब ने मेरी तरफ गौर से देखते हुए कहा और गुप्ता जी उछल पड़े –“बिलकुल...! बिलकुल यही बात है, मैं कह यहा था तेरे से, कुछ तो कमी है !"    
भारती साहब हंसे -"इसकी शादी नहीं हुई ! माशूका कोई है नहीं ! रोमांस का एक्सपीरियंस कैसे होगा ? और बिना एक्सपीरियंस के लिखेगा क्या ? अब इसके लिए कोई इसके साइज की लड़की देख ! फिर कराते हैं इसका रोमांस और फिर देखियो तू... इससे अच्छा रोमांस कोई लिखेगा ही नहीं !" कहते हुए भारती साहब ने मेरी पीठ थपथपाई !       
मेरी सांस में सांस आई !      

उसी समय चाय आ गयी ! चाय पीते-पीते भारती साहब ने गुप्ता जी से पूछा -"आर्डर कैसे आ रहे हैं ?" 
गुप्ता जी उन्हें एजेंटों के लैटर दिखाने लगे ! मेरी पेमेंट का अभी तक कोई जिक्र नहीं था और मुझ में तो हिम्मत ही नहीं थी कि कहूँ कि गुप्ता जी पैसे दे दो !
चाय ख़त्म होते-होते भारती साहब और गुप्ता जी की बातें भी ख़त्म हो गयी थीं !
और तब...
गुप्ता जी ने दराज से दस-दस के सात नए और पांच का एक नया करारा नोट निकाला और उपन्यास का पारिश्रमिक नगद मेरी ओर बढ़ा दिया !  उसके बाद एक बाउचर स्लिप निकाली !
"तूने अभी तक इसे पैसे नहीं दिए थे ?" भारती साहब गुप्ता जी को मेरी तरफ नोट बढ़ाते देख बोले -"तभी मैं आते ही सोच रहा था, लड़का सुस्त लग रहा है !"

गुप्ता जी हँस दिए ! तभी भारती साहब ने नोट मेरे हाथ से पकड़ लिए, गिने और बोले -"ये क्या दे रहा है ?"
"मेरी योगेश जी से बात हो चुकी है !" गुप्ता जी ने कहा ! 
भारती साहब ने नोट वापस मुझे पकड़ा दिए और बोले -"संभाल के रख !"
पर मुझे लगा कि वह प्रसन्न नहीं हैं ! मेरा अनुमान सही था ! पर वह प्रसन्न क्यों नहीं थे, यह जानने के लिए अभी आपको थोड़ा इंतज़ार करना होगा !

मेरे द्वारा रुपये अपनी जेब में रखने के बाद, गुप्ता जी ने मुझसे कहा -"योगेश जी, अगली स्टोरी के लिए कोई अच्छा-सा नाम दिमाग में हो तो बता दीजिये ! अगली स्टोरी के लिए हम आपको पूरे दो महीने का टाइम देते हैं ! दिल से लिखियेगा और हाँ, रोमांस और सेक्स भी !"  
फिर उन्होंने बाउचर स्लिप मेरी ओर बढ़ा दी,  जिस पर पिचहत्तर रुपये अंकों और शब्दों में पहले से लिखा था ! 
मुझे बताया कि कहाँ साइन करने हैं ! मैंने साइन कर दिए तो गुप्ता जी भारती साहब से बोले -करतार, योगेश जी तो फिर कोई धाँय-धाँय-धाँय जैसा नाम सुझाएंगे, तू ही कोई नाम बता दे !"
"जगत के दुश्मन !" भारती साहब ने नाम सुझाया और मुझसे पूछा -"ठीक है ?"
"ठीक है !" मैंने कहा और मेरे चेहरे पर मुस्कान छा गयी ! 
यह मुस्कान जेब में आये पिचहत्तर रुपयों की गर्मी की भी थी !

भाग-12
आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 12
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मेरी जेब में पिचहत्तर रूपये आ गये थे और मेरा दिल जल्द से जल्द भारती पाॅकेट बुक्स के आॅफिस से निकल भागना चाहता था !
जाते हुए घर में कुछ लेकर जाना चाहता था, पर क्या ? दिमाग काम नहीं कर रहा था ! 

तभी भारती साहब ने मुझसे पूछा -"एक-एक चाय और हो जाये ?"
"नहीं, मैं चलूँगा !" मैंने कहा !
"चलूँगा ! पैसे मिल गये तो चलूँगा ! पार्टी-वार्टी नहीं देनी !" भारती साहब बोले ! फिर मेरे कुछ भी कहने से पहले ही दोबारा बोले -"चल, कोई बात नहीं, मैं भी चलता हूँ !"
और भारती साहब उठ खड़े हुए ! मैं भी उठ खड़ा हुआ ! 

लालाराम गुप्ता जी से हाथ मिला, हम दोनों बाहर निकले !
भारती पॉकेट बुक्स की संकरी गली से निकलकर, मैं बाएं मुड़ने लगा, भारती साहब दाएं, लेकिन मुझे बायीं ओर मुड़ते देख. वह ठिठक गए -"इधर किधर जा रहा है !"
"सीताराम बाजार ! बाहर निकल चांदनी चौक का रिक्शा पकड़ लूंगा !" मैंने कहा !
"इधर चल, मेरे साथ ! आज तुझे नया रास्ता दिखाता हूँ !" भारती साहब मेरा हाथ पकड़कर बोले ! उस समय मैंने चाहा हो या न चाहा हो, इंकार की कोई गुंजाइश ही नहीं थी ! मैं भारती साहब के साथ खिंचता चला गया !

थोड़ी देर बाद उन्होंने हाथ छोड़ दिया और हम साथ-साथ चलने लगे ! 
उस दिन पहली बार मैंने भारती पॉकेट बुक्स से हिम्मतगढ़ की तरफ निकलने वाला रास्ता देखा !
हिम्मतगढ़ के चौक से भारती साहब ने वहां से गुजरते एक रिक्शेवाले को आवाज़ दी और बोले -"डिलाइट !" फिर मुझसे बोले -"चल, बैठ !"

मैं रिक्शे में बैठा, उसके बाद वह भी बैठे ! रिक्शा चल पड़ा ! 
उस समय मुझे नहीं पता था कि यह "डिलाइट" क्या है !   
पहली बार मैंने डिलाइट सिनेमा हाल देखा ! 
'भारती साहब मुझे यहां क्यों लाये हैं ?" मैंने सोचा - "फिल्म दिखाने....???"

पर मेरी सोच सेकेंडों में धूमिल हो गयी, जब भारती साहब मुझे डिलाइट के पीछे की ओर ले गए ! आज वह जगह अच्छी तरह याद नहीं, पर भारती साहब जहां ले गए थे, वह छोले भठूरे और चाय की दुकान थी ! बैठने की जगह भी थी ! अंदर मेज-कुर्सी लगी थीं ! एक मेज के दोनों ओर दो-दो कुर्सियां लगी थीं ! भारती साहब मुझे लेकर अंदर गए ! दोनों साथ-साथ की कुर्सी पर बैठे ! भारती साहब ने मुझसे कुछ पूछा नहीं ! दो प्लेट भठूरों का आर्डर दे दिया ! 

मैंने सोचा - 'तो भारती साहब,  मुझसे पार्टी लेने के लिए यहां लाये हैं !' 

उस समय जितनी अक्ल थी मुझ में मैं उसी हिसाब से सोच रहा था और मन ही मन कोफ़्त हो रही थी कि पता नहीं कितने रुपये खर्च हो जाएँ ! रिक्शे का किराया तो भारती साहब ने ही दिया था, पर मुझे यकीन था कि यहां के खाने-पीने का बिल तो मुझे ही देना होगा !          
छोले- भठूरे लाने से पहले उस दूकान में काम करने वाला एक छोटा लड़का स्टील के दो गिलासों में पानी दे गया !
पानी का गिलास उठाते हुए भारती साहब बोले - "पब्लिशर्स के सामने थोड़ा सोच-समझ के बोलने की आदत डाल ले ! लालाराम तो फिर भी बहुत सीधा है, पर सारे पब्लिशर ऐसे नहीं होते !"
"जी..!" मैं केवल 'जी" बोलकर रह गया !  

फिर भारती साहब मुझसे कुछ घर-परिवार की बातें पूछने लगे ! बातों के बीच ही लड़का छोले-भठूरों की प्लेटें रख गया !
"चल, शुरू कर !" भारती साहब ने कहा ! 
छोले-भठूरे ख़त्म होने से पहले से पहले ही भारती साहब ने चाय आर्डर कर दी ! 
फिर जब बिल देने का समय आया तो  मैंने जेब में हाथ डाल पैसे निकाले, तभी भारती साहब बोले - "क्यों ?" क्यों का 'यों' उन्होंने कुछ ज्यादा ही लंबा खींचा, फिर मुस्कुराये -"पैसे कुछ ज्यादा ही आ गए हैं ! रख जेब में !" आख़िरी वाक्य उन्होंने मीठी फटकार के साथ कहा था ! 

मतलब - अगर वह पार्टी थी तो पार्टी का सारा खर्च भारती साहब ने ही उठाया था !

उसके बाद हम फिर डिलाइट के फ्रंट गेट की ओर आये !
"यहां से घर चला जायेगा ?" भारती साहब ने पूछा !
"यहां से...कैसे...गांधीनगर...?" मैं टूटते हुए शब्दों में बोला ! वह इलाका मेरे लिए नया था ! यहां से गांधीनगर कैसे जाऊंगा ? मुझे तो सोचकर ही घबराहट हो रही थी !      

"अच्छा चल, इधर आ...!" मेरा हाथ थाम भारती साहब डिलाइट से आगे एक बस स्टैंड पर ले गए और बोले -"यहां से कौड़िया पुल की बस मिल जायेगी ! कौड़िया पुल से गांधीनगर के लिए बहुत तांगे और फोरव्हीलर मिलेंगे ! कौड़िया पुल से तो कोई दिक्कत नहीं होगी !"
"नहीं !" मैंने कहा !
"बस के टिकट के लिए खुले पैसे हैं ?" भारती साहब ने पूछा !
"खुले पैसे..!" मैं सोच में पड़ गया और जेब टटोलने लगा !
"ले !" भारती साहब मुझे खुले पैसे देते हुए बोले -" टिकट के लिए कंडक्टर नोट खुला नहीं करेगा !"
तब टिकट पंद्रह-बीस पैसे के होते थे !

(दोस्तों, भारती साहब की यह खूबी बाद में भी, बहुत बार मेरे सामने आई ! छोटी-छोटी बातों का ख्याल रखने की उनकी इस आदत पर मैं चाहूंगा कि आप सब अपने विचार लिखें ! एक ख़ास बात और, यह जो खुले पैसों अथवा दो-दो-चार-चार रुपये की मदद वह करते थे, वापसी की उम्मीद न रखते हुए ! और यदि कोई कभी वापस करने लगता था तो कहते थे -"छोड़ यार !") 
   
घर पहुँचा तो कुमारप्रिय मेरे घर में, कमरे के बाहर बरामदे में पड़ी चारपाई पर अधलेटे से बैठे मेरा इन्तजार कर रहे थे !

मुझे देखते ही सीधे होकर बैठ गये और बहुत तेज मुस्कान चेहरे पर लाकर बोले -"आइये-आइये ! हम आपका ही इन्तजार कर रहे थे ! अब तो आप बहुत बड़े लेखक हो गये हैं ! रविवार को भी बिजी रहते हैं !"

कुमारप्रिय के शब्दों में व्यंग था, पर स्वर और लहज़े में मिठास था !

कुमारप्रिय हमेशा चेहरे पर काला चश्मा चढ़ाये रखते थे, जैसा उनके उपन्यासों के बैक कवर पर छपी उनकी तस्वीर में नज़र आता है ! चश्मे की वजह से उनकी आँखें छिपी रहती थीं और मनोभाव पता नहीं चलते थे !
दिन भर में बहुत कम ऐसे अवसर आते थे, जब कुमारप्रिय अपने चेहरे से काला चश्मा उतारते थे ! उतारते थे भी तो चश्मे पर आ गई धूल को रुमाल से साफ करने के लिए !

मैंने कुमारप्रिय को भारती पाॅकेट बुक्स में एक नाॅवल ओके हो जाने और पेमेन्ट मिल जाने के बारे में बताया तो कुमारप्रिय खीझकर बोले -"योगेश जी, क्या जरूरत थी भारती-वारती के चक्कर में पड़ने की ? कौन-सा वो आपके नाम से कुछ छाप रहे हैं ? यहीं पंकज पाॅकेट बुक्स से आगे देखिये - आपका नाम भी शुरु करवा देंगे ! फिर आपको टाइम ही कहाँ मिलेगा, फालतू-फण्ड के लोगों के लिए लिखने का ?"
"जब ऐसा होगा तो देख लेंगे !" मैंने कहा -"अभी तो पैसे मिल रहे हैं तो क्यों न कमाए जायें ?"
"आपको समझाना बेकार है !" कुमारप्रिय बोले -"पता नहीं क्यों ऐसे छोटे-मोटे लोगों के लिए आप अपनी प्रतिभा नष्ट कर रहे हैं ! अरे पंकज पाॅकेट बुक्स बिमल जैन को आपने शुरु करवाई है ! इस पर ध्यान दीजिये !"

कुमारप्रिय का कहना आधा सही था ! वास्तव में बिमल जैन हमारे परिचित थे, लेकिन प्रकाशन का भूत उनके सिर पर कुमारप्रिय ने पैदा किया था, लेकिन यह भूत जल्दी ही उतर गया ! 

कुमारप्रिय के उपन्यास "राख की दुल्हन" और एच. इकबाल के नाम से छपनेवाले मेरे उपन्यास "धाँय-धाँय-धाँय" का सैट पंकज पाॅकेट बुक्स का दूसरा और अन्तिम सैट था !

उन दिनों पाॅकेट बुक्स की कीमत मात्र दो रुपये होती थी ! किताबें हद से हद बाईस सौ छपती थीं ! वह भी इसलिए कि प्रिन्टिंग प्रेस वाले दो हजार के प्रिन्टिंग चार्ज पर बाईस सौ छाप देते थे ! 

दिल्ली में सोल एजेन्ट को चालीस से पचास परसेन्ट तक कमीशन देना पड़ता था, जबकि दिल्ली से बाहर वीपी पैकेट पच्चीस से तीस परसेन्ट पर भेजे जाते थे, किन्तु बड़े शहरों कलकत्ता, बम्बई, इन्दौर, लखनऊ, इलाहाबाद आदि हिन्दी पुस्तकें अधिक पढ़ी जानेवाले क्षेत्रों में माल रेलवे से भेजा जाता था और बुकिंग स्लिप रजिस्ट्री से भेजी जाती थी ! 

सभी बड़े शहरों में माल उधार जाता था, जिसकी पेमेन्ट सारा माल बिक चुकने के बाद कम से कम तीन महीने बाद आती थी ! अक्सर बचा हुआ माल यदि ज्यादा होता तो वो भी वापस भेज दिया जाता ! 

पाॅकेट बुक्स की लागत साठ से नब्बे पैसे तक बैठ जाती थी, इसलिए प्रोडक्शन में लागत ज्यादा खर्च करनेवाले प्रकाशकों की स्थिति मामूली से मुनाफे या घाटे में रहती थी !

जिन प्रकाशनों में मालिक सारा काम प्रोफेशनल लोगों से करवाते थे, वहाँ अधिकांशतः घाटे की स्थिति जल्दी ही आती थी ! 
बिमल जैन किराये के घर में रहते थे, दो सैट्स में उनके घर बची हुई और वापसी आई लगभग तीन-साढ़े तीन हजार पुस्तकों का अम्बार लग गया तो रहने की जगह छोटी पड़ने लगी ! उन्होंने बाईस-बाईस सौ की संख्या में कुल पाँच किताबें छापी थीं, जितनी बिकी थीं, वह नुक्सान में नहीं थे, पर बचा हुआ और वापसी आया माल उन्होंने दरीबे के नारंग पुस्तक भंडार के मालिक चन्दर को लगभग चालीस रुपये सैकड़े के हिसाब से बेचकर प्रकाशन बन्द कर दिया था !

कुमारप्रिय कोई नई कहानी शुरु करने जा रहे थे -"बदनसीब" ! उसका प्लाॅट मुझे सुनाने लगे ! वह बंगाली उपन्यासकार शरतचन्द्र से बहुत प्रभावित थे और वह प्लाॅट शरतचन्द्र के "देवदास" से प्रभावित था !

उस दिन कुमारप्रिय मेरे साथ "बदनसीब" का प्लाॅट डिस्कस करने के बाद चले गये ! तब कुमारप्रिय को भी यह पता नहीं था कि उनका यह उपन्यास दो भागों में फैल जायेगा और पंकज पाॅकेट बुक्स में नहीं छपेगा, बल्कि एक बिल्कुल नई फर्म जनता पाॅकेट बुक्स में छपेगा !

अगले दिन मैं सुबह दस-साढ़े दस बजे के लगभग विशाल लाइब्रेरी पहुँचा ! 

सोमवार की सुबह थी ! उस समय एक भी कस्टमर नहीं था ! 
बिमल कागज़ सामने रखे, पैन थामे कुछ सोच रहे थे !
मुझे देखते ही बोले -"आओ योगेशजी, मैं आपको ही याद कर रहा था !"
काउन्टर में ही दायीं ओर अन्दर प्रवेश का रास्ता था !
मैं अन्दर दांखिल हुआ ! अपने लिए निश्चित स्टूल पर बैठा ! तभी बिमल बोले -"योगेश जी, आप बैठो ! मैं जरा सिगरेट लेकर आता हूँ !"

बिमल सिगरेट पीते तो थे, पर बहुत कम पिया करते थे, किन्तु लेखक बनने के बाद कुछ ज्यादा ही पीने लगे थे, पर तब वे मुझसे कभी सिगरेट नहीं मँगाते थे ! तब मैं सिगरेट छूता भी नहीं था और खुद भी नहीं जानता था कि एक दिन ऐसा आयेगा, जब मैं चेनस्मोकर बन जाऊँगा और दिन में सौ-डेढ़ सौ सिगरेट फूँक दिया करूँगा !

बिमल को सिगरेट लाने गये थोड़ी ही देर हुई थी कि एक बेहद खूबसूरत गोरा-चिट्टा नौजवान काउन्टर पर आया ! उसके हाथ में कुछ किताबें और एक बड़ी डायरी थी ! हाथ का सामान काउन्टर पर रख, उसने मुझे देख, ऊपर से नीचे सिर हिलाया और बड़ी मीठी आवाज़ में बोला -"छोटे भाई ! आपके मालिक कहाँ हैं ?"

वह मुझे बिमल चटर्जी का नौकर समझ रहा था ! 
मुझे गुस्सा आ गया ! 
बोला -"मैं नौकर नहीं हूँ ! बिमल चटर्जी का दोस्त हूँ !"
"दोस्त !" उसने ऊपर से नीचे मेरा मुआयना किया और पहले दोनों हाथ जोड़े ! फिर दोनों हाथों से कानों को छुआ और विनम्र भाव से बोला -"गलती हो गई छोटे भाई ! माफ कर दीजिये !"

तभी बिमल आ गये ! उस शख़्स को देखते ही बोले - "आप कब आये ?"
"बस, अभी-अभी आया हूँ !" उसने कहा !
तभी बिमल चटर्जी ने मुझसे कहा -"योगेश जी, आपको तो कविताओं और शायरी का भी बहुत शौक है ! इनसे मिलो - इनसे आपकी खूब निभेगी ! ये हैं मशहूर शायर साजन पेशावरी !" फिर बिमल साजन से बोले -"साजन ! ये हैं योगेश जी ! देखने में ही छोटे हैं ! काम बहुत बड़े-बड़े कर रहे हैं ! कुछ भी लिखने में इनका जवाब नहीं है ! सबसे खास बात यह है कि माँ सरस्वती की इन पर कुछ ज्यादा ही कृपा है !"

और तब साजन पेशावरी ने फिर से अपने दोनों हाथ जोड़े ! शायराना अन्दाज़ में सिर झुकाया, फिर दायां हाथ मेरी ओर बढ़ा, स्वर में ढेर सारी चाशनी घोलते हुए कहा -"योगेश जी, क्या मैं आपसे हाथ मिला सकता हूँ !"
मैंने हाथ आगे बढ़ा दिया ! पर बिमल चटर्जी ने जिस तरह साजन से मेरा परिचय कराया था, मैं अति प्रसन्न एवं मंत्रमुग्ध सा हो गया था !

साजन पेशावरी से वह मेरी पहली मुलाकात थी ! उसके बाद दर्जनों मुलाकातें हुईं ! जो लोग साजन पेशावरी से कभी न कभी मिलें हैं, जानते ही होंगे कि उस शख़्स की आवाज में सदैव ढेर सारी मिठास रहती थी ! 

मैंने कभी भी साजन को अनमने मूड में नहीं देखा ! वह एक खुशदिल इन्सान था, जिससे मिलकर हर कोई खुश होता था !

(शेष फिर )

और फिर 
एक दिन मैं और बिमल चटर्जी भारती पॉकेट बुक्स एक साथ गए ! तब लालाराम गुप्ता ने मुझे एक खुशखबरी दी ! पर उस खुशखबरी का असली कारण भारती साहब थे.

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-भाग-13,14

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