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शुक्रवार, 8 जून 2018

मेरी प्रथम उपन्यास यात्रा- प्रथम भाग

मेरी प्रथम उपन्यास यात्रा (भाग प्रथम)
2.06.2018 से 06.06.2018
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   मेरे मन में‌ लंबे समय से एक इच्छा थी की एक औपन्यासिक यात्रा की। एक ऐसी यात्रा जो उपन्यास जगत से संबंधित हो। उपन्यास जगत के लेखक, पाठक आदि से मिलना हो और उपन्यास जगत से संबंधित कुछ रोचक जानकारियों को एकत्र किया जाये। जब से मैंने www.sahityadesh.blogspot.in का निर्माण किया है तब से यह इच्छा प्रबल हो उठी है।
      इस यात्रा को लेकर कई बार विचार बना और ध्वस्त हुआ लेकिन यात्रा कभी न हुयी। लेकिन जब यात्रा हुयी तो अविस्मरणीय बन गयी।
      03.6.2018 को कुछ फेसबुक पाठक मित्रों का दिल्ली में‌ वेदप्रकाश कंबोज जी से मिलने का कार्यक्रम बना। जिसमें मुझे भी आमंत्रण था। 

 विद्यालय में ग्रीष्मकालीन अवकाश था। इसलिए यह यात्रा का अच्छा समय था।
मेरे शहर रायसिंहनहर से भी दिल्ली को रेल सर्विस है, लेकिन सीट न मिलने के कारण मुझे गंगानगर दूसरी ट्रेन से सीट रिजर्व करवानी पड़ी।
बगीचा- रायसिंहनहर- श्री गंगानगर- दिल्ली- मेरठ। यह था मेरा यात्रा कार्यक्रम। 
                 शाम को श्री गंगानगर पहुंचा। श्री गंगानगर बस स्टैण्ड पर दो बुक स्टाॅल है। मैं एक के पास गया। उसके पास कुछ नये-पुरा‌ने उपन्यास थे।
"आइये सर, कौनसी किताब चाहिए।"
"पुरा‌ने उपन्यास हैं?"- मैंने पूछा।
" हां,मिल जायेंगे।"- उसने उत्साह से उत्तर दिया- "देख लीजिएगा।"
उसके पास कुछ उपन्यास थे। वेदप्रकाश शर्मा, ओमप्रकाश शर्मा, अनिल सलूजा, आदि के अलावा रीमा भारती और केशव पण्डित सीरिज के उपन्यास काफी थे। मुझे कुछ उपन्यास अच्छे लगे।
"क्या रेट है इनका?"
"ले लीजिएगा सर, आपको रेट सही लगा देंगे।"- उसने कहा।
" फिर भी कुछ पता तो चले।"
"जो भी उपन्यास है उनका हाफ रेट लगेगा।"- वह बोला।
उसके पास उपन्यास की संख्या सौ से कम थी। मुझे लगा सभी उपन्यास की डील कर लू, लेकिन कुछ उपन्यास किसी काम के न थे। लेकि‌न दिल मेरा डोल रहा था। कभी चाहता की सभी उपन्यासों का सौदा कर लू , कभी लगा यह उचित नहीं।
" अगर सभी उपन्यास लू तो क्या रेट लगेगा।"-
"उपन्यास का हाफ रेट ही लगेगा, हमारे पास तो बहुत से लोग आते हैं उपन्यास खदीदने वाले। लाइब्रेरी वाले सारे ले जायेंगे। मुझे पैसों की आज जरूरत है इसलिए आपको सस्ते उपन्यास दे रहा हूँ।"-
मुझे पता था उसके पास कोई उपन्यास क्रेता नहीं आने वाला। कई वर्षों से उसके पास वह उपन्यास पड़े थे।
अनंत: यह डील प्रति उपन्‍यास दस रुपये के हिसाब से पूरी हुयी। इस सौदे से हम दोनों खुश थे। दुकानदार इसलिए प्रसन्न था की उपन्यास जैसे तैसे बिक गये उसके पास जो उपन्यास पड़े थे वे खराब ही हो रहे थे। मैं इसलिए खुश था की उपन्यास सस्ते मिल गये। इस बुक स्टाॅल से 60 उपन्यास का सौदा हुआ।
"मैं वापस आते वक्त आपसे ये उपन्यास ले जाऊंगा।"
"ठीक है जी, आपके उपन्यास सुरक्षित रहेंगे।"
श्री गंगानगर पुस्तक विक्रेता के साथ
श्री गंगानगर पुस्तक विक्रेता के साथ
                      श्री गंगानगर मुख्य बाजार के अंदर एक और दुकान है। गांधी सर्किल के पास। मैं वहाँ से कई बार किताबें और पत्रिकाएँ खरीद चुका हूँ। अब दूसरा लक्ष्य वही दुकान थी। उसके पास कुछ पुराने लेखकों के उपन्यास थे।
यह दुकानदार बुक स्टाॅल वाले से भी दो कदम आगे था। उससे ज्यादा उपन्यास थे पर मूल्य प्रिंट रेट से भी ज्यादा।  उसके पास कुशवाहा कांत के उपन्यास थे। जो मुझे चाहिए थे।
        कुशवाह कांत  प्रति उपन्यास पचास रुपये मांग रहा था। मैंने एक बार इस डील को कैंसिल कर दिया। क्योंकि आगे की यात्रा में हो सकता है कुछ पुराने लेखकों के उपन्यास मिल जायें, सस्ते मिल जायें। फिर रुपयों का भी मैनेजमेंट देखना था।
        शाम को 9 बजे श्री गंगानगर से तूफान आभा एक्सप्रेस से तीन जून को सुबह नयी दिल्ली रेल्वे स्टेशन पहुचा।
03.06.2018- रविवार सुबह
      स्नान आदि से निवृत्त होकर दरियागंज रविवार लगने वाले पुस्तक मेले में पहुंचा। यहां‌ मेरा द्वितीय चक्कर था। सन् 2010 में भी एक बार इस पुस्तक मेले में आ चुका था।
दिल्ली का पुस्तक बाजार, दरियागंज
            यह पुस्तक बाजार स्वयं में गजब है। यह पुस्तक बाजार प्रति रविवार को फुटपाथ पर लगता है। यहाँ नयी पुरानी पुस्तकें काफी सस्ते मूल्य में उपलब्ध हैं।
अभी बाजार सज रहा था, कुछ दुकानदार दुकानें लगा चुके थे, कुछ तैयारी में थे। 



दरियागंज पुस्तक बाजार में
यहाँ पुस्तकों का काफी बड़ा बाजार है। दिल्ली की नयी सड़क, दरियागंज यह क्षेत्र पुस्तकों के लिए प्रसिद्ध है। उसमें भी रविवार का पुस्तक बाजार इसकी एक विशेष पहचान है।
पुस्तक बाजार का एक दृश्य
50₹ प्रति किताब, एक सैल।
 बाजार में अंग्रेजी की किताबें बहुत ज्यादा थी। मेरे मन में एक विचार उपजा। हिंदी के पाठक को किताबों से प्यार ज्‍यादा है इसलिए पुरानी किताबें वो कम बेचते हैं। वहीं अंग्रेजी के पाठक एक बार किताब पढी तो फिर रद्दी वाले को दे दी। यही कारण रहा होगा अंग्रेजी की किताबें यहाँ ज्यादा दिखाई दी और हिंदी की कम।
अंग्रेजी के महंगे उपन्यास भी बीस रुपये के हिसाब से यहाँ सैल पर उपलब्ध थे।
मुझे यहाँ से कुछ हिंदी साहित्य की अच्छी किताबें मिली। मुझे जासूसी उपन्यासों की तलाश थी वे तो ना मिले। मात्र एक दो जगह कुछ उपन्यास मिले लेकिन वह दुर्लभ न थे। फिर भी दो-चार उपन्यास खरीदे।
यहाँ साहित्यिक रचनाएँ अच्छी उपलब्ध थी। साहित्यिक किताबें कुछ इस बाजार से और कुछ स्थायी दुकानों से किताबें खरीदी।
दिल्ली में‌ दो मित्रों से मिलना था, जिनके साथ वेदप्रकाश कंबोज जी के घर चलना था। किसी कारणवश संदीप न आ पाया पर दिनेश जी की काॅल आ गयी।
दरियागंज से शास्त्री पार्क (....) पहुंचा और वहाँ दिनेश जी पहले से टैक्सी करके तैयार खङे थे। मित्र दिनेश जी यह पहली मुलाकात थी, लेकिन जो उनमें अपनत्व था वह यादगार है।
       ‌हम‌ शाहदरा पहुंचे, बाबू राव स्कूल के सामने। वही स्कूल जिसका वर्णन SMP जी की आत्मकथा 'न‌ कोई बैरी न‌ कोई बैगाना‌' में‌ है।
               वेदप्रकाश कंबोज जी के पुत्र मेशु भईया हमें‌ लेने आ पहुंचे। मेशु भाई तो हमें दूर से ही पहचान लिया था, पहली मुलाकात में।
               मेरे मन में बहुत से विचारों का आवागमन हो रहा था। कंबोज जी कैसे दीखते होंगे, क्या चर्चा करेंगे, उनका घर कैसा होगा, विजय- अलफांसे जैसे किरदार रचने वाले लेखक कैसे होंगे...........दिमाग तो है ही ऐसा जो कभी शांत होता ही नहीं।
                 घर पहुंचे तो वहाँ पहले से ही महफिल जमी हुयी थी। वेदप्रकाश कंबोज जी, आबिद रिजवी जी, राम पुजारी जी, बलविन्द्र सिंह जी,  प्रवीण आजाद जी, कम्बोज जी के छोटे भाई श्री सुरेंद्र जी, और कम्बोज जी के बड़े सुपुत्र संजय जी मौजूद थे,
  नाश्ते का दौर चल रहा था।
"अरे! आईये गुरप्रीत जी। आपका ही इंतजार था।"- आबिद जी ने कहा।
                   हम‌ दोनों के परिचय के बाद, नाश्ते का दौर चला। नाश्ते के बाद उपन्यास जगत की न रुकने वाली चर्चा चली। वह चर्चा जिसका एक सिरा आबिद रिजवी साहब ने थाम रखा था और एक सिरा वेदप्रकाश कंबोज जी ने बाकी हम सब वह श्रोता थे जो बीच-बीच में अपनी जिज्ञासा शांत कर रहे थे।
यह एक स्नेह ही था जो हम सब पाठकों को, उन पाठकों को जो कभी एक-दूसरे से मिले नहीं सब को एक कर रहा था। वहाँ एक पल को भी ऐसा नहीं लगा की हम एक दूसरे से अनजान हैं‌।
बुलंद आवाज के स्वामी कंबोज साहब के बातों‌ में धार्मिकता और आध्यात्मिक का पुट ज्यादा था। लगता ही नहीं था की इन्होंने कभी जासूसी उपन्यास लिखे होंगे। हालांकि उ‌नकी बुलंद आवाज और जोश किसी जासूसी हीरो से कम न था। लेकिन स्वभाव उसके विपरीत बिलकुल को
वेदप्रकाश कंबोज जी के साथ यादगार पल।
आबिद रिजवी जी और दिनेश जी के साथ एक चित्र
           सभी मित्रों के मन में प्रश्न थे, जिज्ञासा थी।‌ प्रश्न उठते रहे, कंबोज जी अपनी बुलंद आवाज में उतर देते रहे और जिज्ञासा शांत होती रही।
बलविन्द्र सिंह जी के साथ।
              बलविंदर जी ने पूछा- "विजय आपका मानस पुत्र है और उस पर अनेक लेखक उपन्यास लिख रहे हैं क्या आपको कोई ऐतराज नहीं ? "
कम्बोज जी ने अपनी शैली में दिया-"मेरे रचित पात्र पर लिख कर कोई अपनी पहचान बना रहा है तो मुझे क्या परेशानी हो सकती है, मुझे तो खुशी ही मिलती है, यह अच्छी बात है।"
बलविंदर जी पूछा -"आजकल के लेखकों में काफी प्रतिस्पर्धा सी हो गई है, नये नये लेखक आ रहे हैं और आप उनके बीच में खुद को कहाँ पाते हैं ?"
          "मैंने तो 20 साल पहले ही उपन्यास लिखना छोड़ दिया अब किसी और से मैं अपनी तुलना क्यों करूँगा ?"
          कितना स्टीक उतर था। तुलना क्यों की जाये। हर लेखक अपने समय का श्रेष्ठ होता है। फिर
          "सर आपका पहला उपन्यास कौनस था।"- मैंने पूछा।
          " कंगूरा।"
राम पुजारी जी साथ-साथ नोटस भी बना रहे थे। हास्य रस का  माहौल आबिद जी और वेद जी की चर्चा में बरकरार था।      
   कंबोज जी अपने बारे में बताया की मैंने ऐसे -ऐसे प्रकाशकों के लिए भी लिखा है जो नये थे, गुमनाम थे। जब वो प्रकाशक लोकप्रिय हो गये तो उ‌नके लिए भी लिखा और फिर नये प्रकाशकों के लिए भी लिखा।

          आबिद रिजवी साहब ने बताया की उपन्यास साहित्य को सरल साहित्य भी कहा जाता था, इसके पाठक कम पढे लिखे होते थे इसलिए लेखक भी सरल भाषा शैली का प्रयोग करते थे। जनप्रिय ओमप्रकाश शर्मा भी कम पढे हुये थे।
   "पापा भी ग्यारह ही पढे हैं।" मेशु भाई ने कहा।
   "लेकिन सर का लेखन विद्वान होने की पुष्टि करता है।"-मैंने कहा।
   " यह तो निरंतर अध्ययन का परिणाम है। मुझे यह तो नहीं पता की मैंने क्या-क्या पढा है, पर यह पता है की मैंने क्या-क्या नहीं पढा।"- कंबोज सर ने कहा।
   यह सत्य है की मात्र एकेडमिक डिग्री से कुछ नहीं होता, लेखन के लिए स्वाध्याय आवश्यक है। वह स्वाध्याय कंबोज जी के लेखन में स्पष्ट झलकता है।
       बलविन्द्र सिंह जी (भोपाल) और प्रवीण आजाद (दिल्ली) ने चर्चा को नयाा रूप देते हुए कहा "कंबोज जी के कुछ उपन्यास रिप्रिंट हो जाये तो अच्छा है।"
       इस विषय पर कंबोज जी ने कहा-"जो आप लोगों को उचित लगे। मैं तो अब उपन्यास लेखन से अलग हो गया। जैसा आपको सही लगे देख लीजिएगा।"

  कंबोज जी बुलंद आवाज के स्वामी हैं, जब भी बोलते हैं कमरा गूंज उठता था।
"कुछ हमें भी बात करने दीजिएगा‌,आप ही आप बोलते रहोगे।"- आबिद रिजवी साहब ने हँसते हुए कहा।
" हां, मैं चला। आप बाते करो।"- हँसते हुए कंबोज जी कमरे से बाहर निकल गये। लेकिन‌ चंद पलों में वापस लौट आये। आबिद रिजवी जी और कंबोज साहब की मित्रता बहुत पुरानी है, और यह मुलाकात भी एक लंबे समय पश्चात हुयी। लेकिन दोनों मित्रों का आत्मिक स्नेह बहुत गहरा है। 
वेदप्रकाश कंबोज जी और आबिद रिजवी साहब
   सभी मित्र किताबें लेकर आये थे। यह स्नेह था, प्रेम था, अपनत्व था। सभी ने परस्पर किताबें भेंट की। यही पुस्तक प्रेमियों का आपसी स्नेह उन्हें परस्पर बांधता है।
किताबों का आदान-प्रदान
'अधूरा इंसाफ' के लेखक राम पुजारी जी के साथ।


वेदप्रकाश कंबोज जी का एक उपन्यास
   इस कार्यक्रम में उमाकांत पाण्डे जी ( इलाहाबाद) भी पहुंचने वाले थे लेकिन‌ समय पर रेल्वे सीट रिजर्वेशन न होने के कारण पहुंच नहीं पाये। उमाकांत जी और बलविन्द्र सिंह जी (भोपाल) दो ऐसे व्यक्तित्व है जि‌के पास कंबोज सर के उपन्यासों का अच्छा संग्रह है।  
         यह भी एक दुखद बात है की उस समय के लेखकों के पास स्वयं के लिखे उपन्यास का न तो संग्रह है और न ही कोई रिकाॅर्ड। यह तो पाठक हैं जो अपने प्रिय लेखकों की रचनाएँ आज भी सुरक्षित लिए बैठे हैं।
          मुझे आबिद रिजवी जी का एक कथन याद आता है। मैंने एक बार आबिद रिजवी साहब से पूछा की आपके लिए उपन्यास क्या आपके पास उपलब्ध हैं, तो उन्होंने कहा-"मैं राही की तरह चलता रहा, पीछे का निशान मिटता रहा।"
             यही बात कंबोज सर पर लागू होती है। यह तो कंबोज सर के सुपुत्र मेशु जी और पाठकगण का सहयोग है की कंबोज सर के उपन्यासों की लिस्ट तैयार हो गयी,कुछ उपन्यास एकत्र हो गये और कुछ को रिप्रिंट करवाने की तैयारी चल रही है।
              इस कार्यक्रम में उमाकांत जी अनुपस्थिति हमें महसूस अवश्य हुयी लेकिन विडियो काॅल के माध्यम से इस पूर्ति को भरने कि एक कोशिश की गयी।
     फिर एक लंबा दौर चला कंबोज जी के उपन्यासों की कहानियों पर। अंत में निर्णय निकला 'प्रेतों का निर्माता' को रिप्रिंट करवाया जाये।
  यह एक सही निर्णय था। अब नये पाठक भी वेदप्रकाश कंबोज जी के लेखन से परिचित हो पायेंगे।
लेखक राम पुजारी जी एक विशेषताएँ यह भी है की वे एक अच्छे लेखक के साथ साथ एक अच्छे चित्रकार भी हैं। उनके स्वभाव में अपनत्व सहज ही आकृष्ट करता है।
    प्रवीण आजाद जी जैसे दमदार शरीर के मालिक हैं वैसे ही आवाज है और वैसी ही प्रभावशाली बात करते हैं। कंबोज सर जी के भाई सुरेन्द्र जी ने भी काफी रोचक किस्से सुनाये।
ज्यादा खाना खाने के बाद रिजवी साहब।

क्रमश: 
   मेरठ गमन (द्वितीय भाग) निम्न लिंक पर है।

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही खूबसूरत यात्रा वृतांत गुरप्रीत जी, यह यात्रा क्रम चलते रहना चाहिए, दिल्ली में हमेशा आपके स्वागत में मैं खड़ा रहूंगा । आपके सहित्य जानकारी का खजाना आने वाली पीढ़ियों के लिए एक खूबसूरत सौगात होगी ।
    दिनेश कुमार

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  2. यार गुरप्रीत खूब लिखा । संस्मरण इसी को कहते हैं । हर पात्र आँखों के सामने घूमता चला जाता है । भाषा-शैली प्रभावपूर्ण ! बधाई !!

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  3. यार गुरप्रीत खूब लिखा । संस्मरण इसी को कहते हैं । भाषा-शैली प्रवाहपूर्ण । एक-एक पात्र आँखों के सामने सजीव होते चले जाते हैं । बधाई !! .....आबिद रिज़वी

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  4. Sir main Delhi me rahta hu yanha purane novel like tiger Bharat Vinay Prabhakar ke novel saste kanha mil sakte hai bata denge please

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