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शनिवार, 31 जुलाई 2021

कलाकार और मौत- पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र'

 कलाकार और मौत - पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र'

पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' का यह आर्टिकल कुशवाहा कांत के अंतिम उपन्यास `जंजीर` में प्रकाशित हुआ था। 'जंजीर'(1954) को कुशवाहा कांत के भाई जयंत कुशवाहा ने पूर्ण किया था। 

    गत फरवरी के प्रथम सप्ताह में संवाद पढने को मिला कि एक अमरीकी उपन्यासकार और सुलेखक तथा उसकी परम सुंदर पत्नी की हत्या किसी ने रातो रात कर डाली। हत्या के पूर्व उन्हें निर्दयता से पीटा गया, फिर छुरे घुसेड़े गये और फिर गोली मारी गयी। जरा हिंसा का शृंगार, 'फिनिश' तो देखिये। 'वीभत्स' का कैसा विस्तार ! चित्रकार जैसे रंग-रंग से चित्र रगे, गवैया जैसे ढंग-ढंग तान पलेट लेकर संगीत सँवारे, कवि जैसे अक्षर, छंद, ध्वनि और रस से काव्य करे वैसी ही शांति, व्यवस्था और मनोयोग से हत्यारा हत्या भी करे! समाचार पढने के बाद मेरे मन में आया कि उस अमरीकी कलाकार की मृतात्मा से कभी भेंट होती तो मैं उससे पूछता कि जीवन में अधिक मजा था या मृत्यु में? यश में अधिक आनंद था या हंटरों से निर्दय पीटे जाने में? स्वार्थ और छुरे में से छाती की छलनी अधिक उन्माद से कौन करता है? खूबसूरत औरत और पिस्तौल की गोली में कितना फर्क है? उस अभागिनी सुंदरी से भी मैं जरूर पूछता कि रूप और मृत्यु में (ओ आर्या रूपवती शत्रु!) कोई भेद है भी?

  कुशवाहा कांत

     हिंदी कथा साहित्य से अगर आपका जरा भी संबंध है, तो आपने कुशवाहा कांत का नाम जरूर सुना होगा। यह दूसरी बात है कि आपने उक्त नाम अप्रसन्नता से सुना हो या प्रसन्नता से। 'उग्र गुरुड़म' में नहीं विश्वास करते बला से- यह लोग कुशवाहा कांत की 'उग्र स्कूल' का कलाकार मानते थे। हिंदी में फिलहाल मेरी नजरों में कमोबेश `उग्र स्कूल` का ही बोलबाला है। यद्यपि `उग्र` बीसियों  बरसों से नहीं के बराबर लिखते हैं। पर स्वयं मैं उसे अपने स्कूल के महज एक शाखा का विद्यार्थी मानता था। उस शाखा का नाम रख लीजिये `यौन सनसनी`। वर्तमान विश्व का बौद्धिक बाजार- खासकर दूसरे महायुद्ध के बाद- इसी सनसनी से सनक रहा है।  मगर पहले मुझे कुशवाहा कांत की खबर लेने दीजिये।

  कल और कलदार

मेर बातों का आप विश्वास करे तो मैंने अपनी रचनाओं में समाज को `ज्यो का त्यों` दर्शाने के फेर में `यौन सनसनी` को सजाया था, कलदार कमाने के लिये नहीं, पर दुर्याग्य से, `यौन सनसनी` चित्रण में-अपना सा मुहँ देखकर-बाजार के खरीददार चकाचक रस लेते हैं। रचनाओं की बिक्री तब ही होती है। पैसों की तो बरसात हो जाती है। एक बार मैंने ही कितने रुपये कमाये थे और कितने वक्त में। श्री ॠषभ जैन का उत्थान पर्व भी आपको भूला न होगा।  वैसे ही कुशवाहा कांत ने खूब रुपये कमाये। कहने वाले तो सैकड़ों हजार की कहानियां सुनाते हैं। मुझे इतना मालूम है कि एक दिन एक टाइप के पाठक काशी से कन्याकुमारी तक कुशवाहा कांत को हिंदी का श्रेष्ठ उपन्यासकार मानते थे? जब हिंदी के बिगड़े साहित्यिक  और  कलाकार उसको असफल, अश्लील कह रहे थे, तब वह बनारस में अपना बड़ा सा प्रेस खोलकर चौथाई मासिक पत्र और सैकड़ों पुस्तकें प्रकाशित कर,कलाकारों को हैरान और रोजगारों को परेशान कर रहा था।

 हत्या

       मनचले, रंगीले लेखक `उग्र` की साहित्यिक हत्या कर डाली गयी, इसे `उग्र` न भी माने, तो दुनिया मानती है। श्री ॠषभ चरण के दुःखद दर्शन सामने है। और कुशवाहा कांत की तो सचमुच हत्या ही की गयी थी। आने वाली होली के दिन उसकी तीसरी या चौथी मरण-तिथि पड़ेगी। वह `सफल बाजारू` किस तरह से मारा गया था, किस बुरी तरह मरा कि स्मरण पत्र से मेंरे तो रोंगेट खड़े हो जाते हैं। उस वर्ष की होली के आठ-दस दिन पूर्व, रात के वक्त कुशवाहा कांत के साथ आधे भड़ैत की तरह में बैठकर किसी ने उस पर अनेक घातक आक्रमण किये। सर में छुरा, सीने में छुरा, पेट में छुरा। फिर जख्म सोजन के बाद अस्पताल में डेढ हफ्ते तक पीड़ा और प्यास से तड़फता। फिर ऐन होली के दिन मरण।

 अरे ओ जाने वाले,

रुख से आँचल को हटा देना,

तुझे अपनी जवानी कि कसम।

औरत

आर्टिस्ट को धन जितना नहीं मारता, यश जितना नहीं, नशा भी नहीं, उसे बहुत आसानी से है औरत! इसलिये खूबसूरत स्त्री के कारण प्राण होने वाले कलाकारों की चर्चा में कुशवाहा कांत की याद आ गई। मालूम नहीं उसके मुकदमें में क्या प्रकाशित हुआ, क्या नहीं, पर जब  उसकी हत्या हुई  मैं कलकते में था तब यही अफवाह जोरों पर थी। धन, यश, नशा, औरत प्रतिभाशाली को वैसे ही सुलभ जैसे भूत साधनेवाले को भौतिक सुख। पर, आपने सुना होगा, भूत साधन प्रेत से प्राप्त चीजों का स्वयं उपयोग करते हुये मारे भय के काँपते हैं। प्रेत की कमाई खाने वाला प्रेत से मारा भी जाता है। फिर प्रतिभा बाजार में या विश्वविद्यालयों में तो बिकती-मिलती नहीं। यह तो ईश्वर की कृपा से मुफ्त मिलती है। और बाइबिल में लिखा है कि `अनायास मिली वस्तु का वितरण अमूल्य होना चाहिये।` किसी रंग का प्रतिभाशाली जब अपनी प्रतिभा से बाजारू लाभ उठाने लगता है तब नष्ट भी होने लग जाता है। प्रतिभा से नाजायज फायदा उठाना ही नहीं चाहिये। प्रतिभा की चाँदी बनाने वाले डाक्टरों का वश नहीं चलता, साधुओं का स्वर्ग नष्ट हो जाता है और कलाकार प्रतिभाहत ही नहीं पागल तक हो जाते हैं। `फ्लोबा`-फ्रांस के महान् लेखक ने जीवन से ऊबकर आत्महत्या को खूब माना था। यही गति श्रेष्ठ फ्रांसीसी कलाकार मोपासा की हुयी थी। अद्भुत इंग्लिश लेखक आस्कर वाइल्ड ने घोर अपमानजनक जेल जीवन भी भोगा सो तो दरकिनार, फ्रांस में जब वह मरा तो उसकी काया सड़ कर गल गयी थी। आस्कर वाइल्ड का शव कंधे पर उठाकर कब्रगाह ले  जाने वाले चंद चार नजदीकी यार मात्र थे और वर्षा हो रही थी धुँआधार, दुर्दिन, चारों तरफ अँधकार...अँधकार।

ताव और भाव

  वह मेरे ही बिहड़ मिर्जापुर जिले का अल्हड़ लेखक था-वही खुशवाहा कांत। वह अभी नौजवान था। गधापचीसी से महज चंद जूते आगे। भले मानसों की राय में वह बुरा लेखक था इसलिये नहीं कि वह यौवन सनसनी लिखता था बल्कि इसलिये कि वह बाजार में सफल था। कुशवाहा कांत के आगे-पीछे `यौन सनसनी` लेखक अनेक पर उन नामधारी भले आदमियों की नजर नहीं। सबकी आँखों का कांटा था वह। उसके मारे  जाने से बहुतों को खुशी भी हुयी हो, तो कोई ताज्जुब नहीं। उसे अगर आदर देकर बढावा दिया गया होता तो संभव था वह `यौन सनसनी` से हटकर और भी उत्तम साहित्यिक मार्ग ग्रहण करता। पर, हमारे यहाँ ऐसी चाल नहीं।

     कुशवाहा कांत ने क्या बुरा किया था। किसकी गाय मारी थी उसने? वह उत्तेजक साहित्य लिखता था- यही न, हिंदी में कितने पाठक हैं, सारे भारत को बतलाइये। पहले यही बतलाइये कि सारे भारत में पढे-लिखे लोग ही कितने हैं? 15 प्रतिशत, उसमें कितने हिंदी जानते हैं? उनमें खरीदकर कितने पढने वाले हैं? मैं दावे  से कहता हूँ, आज का सत्ताधारी स्वदेशी राजनीतिक अपने दुष्ठ कर्मों से सारे भारत की जनता का जितना नुकसान कर रहा है, हिंदी का कोई भी साहित्यिक उसका पासंग भी नहीं कर सकता, फिर भी कुशवाहा कांत को बुरा करने वाले भले मानस ऐसे अनैतिक अधिकारियों से घृणा कर नहीं सकते। उलटे पापियों, जनलूटकों, भ्रष्टाचारियों को महिमान्, श्रीमान्, क्या-क्या नहीं करते हैं। फोटो छापते हैं, जीवनी छापते हैं, अभिनंदन ग्रंथ और  मानपत्र समर्पित करते हैं।

  मैं कहता हूँ आज के अनेक मिनिस्टर या डिप्लामेंट यदि मरने के पहले ही मार* न डाले गये तो मरते ही युग के स्मृति-पट से यूँ मिट जायेंगे जैसे जानवर विशेष के सिर से सींग गायब-कोई उसका  नामलेवा न रह जायेगा। पर कुशवाहा कांत के पाठक उसके मर जाने पर भी कम होने वाले नहीं। भले ही आप उसे किसी दर्जे का लेखक कहें और उन्हें किसी दर्जे का पाठक।

  फागुन के दिन चार

      उस दिन रंग नहीं था तो कुशवाहा कांत उपन्यासकार के कफन पर बाकी सारी विलासी रंग-रंगीली लाल रही-नीली पीली थी। उन्माद नहीं था तो उस मैखार की काया में बाकी सारा शहर उन्मत्त था। अस्सी से वरुणा तक, करुणा केवल कुशवाहा कांत की अर्थी के निकट, बाकी चारों ओर उल्लास, हास, विलास, रास। शहर में इतना जीवन था कि उस मुर्दे की सुधि जिगरी दोस्तों को भी न आई हो, तो आश्चर्य क्या। होली के रंगीन विशेषांकों में उसके लिये अखबार वाले  ब्लैक बार्डर लगाते भी तो क्योंकर। सो, जब उसकी उम्र वाले तरुण अपने प्रिय और प्रियतमों से गले लग रहे थे तब कुशवाहा कांत को चिंता पर सुलाकर जलाया जा रहा था।

कुशवाहा कांत
लो?

  बाजार जीतते वक्त औ जीत लेने के बाद भी अनेक बार पत्र लिख और पुस्तकें भेजकर उसने मुझे गुरु माना पर मेरा मुहँ सहज सीधा होने वाला कहाँ। कभी मैंने न तो उसके पत्रों का उत्तर दिया और न आशीर्वाद ही। मिर्जापुर का वह भी, मैं भी। मैं `मतवाला` निकालता था, वह `चिनगारी`। पर हमने न तो कभी एक दूसरे को देखा न बातें की। इतनी बातें आज मैं लिख रहा हूँ उसके मर जाने के तीन या चार साल बाद।

`समाज`

                                 पाण्डेय बेचन शर्मा `उग्र`

*भावुकता की बहस में कही पाठकगण गोड़से पंथ के अनुगामी न बन जाये।                                

 पाण्डेय बेचन शर्मा `उग्र` का यह आर्टिकल कुशवाहा कांत के अंतिम उपन्यास `जंजीर` में प्रकाशित हुआ था। `जंजीर`(1954) को कुशवाहा कांत के भाई जयंत कुशवाहा ने पूर्ण किया था। 

   

2 टिप्‍पणियां:

  1. कुशवाहा कांत के विषय में जितना पढ़ता हूँ उन्हें पढ़ने की इच्छा उतनी बलवती होने लगती है। कभी मौका लगा तो उन्हें जरूर पढ़ूँगा।

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