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शनिवार, 27 नवंबर 2021

यादें वेद प्रकाश शर्मा जी की - 9

 यादें वेद प्रकाश शर्मा जी की - 09

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मेरा स्टैण्ड अब भी वही है, जो पहले था।” वेद भाई ने कहा - “मैं अब भी ट्रेडमार्क के सख्त खिलाफ हूँ, मगर ऐसा कोई लेखक नज़र तो आवै, जिसे पढ़ते ही लगे कि बस, इसे चांस मिलना जरूरी है। यह जरूर तहलका मचायेगा।”

यार, किसी को चांस मिलेगा, तभी न वह तहलका मचायेगा।” - मैंने कहा। 

तो ठीक है, मैं तुझे दे रहा हूँ चांस। बोल - लिखेगा?”

मेरी बात और है।” मैंने कहा - “मैं बहुत ज्यादा सेक्रीफाइस करने की स्थिति में नहीं हूँ।”

सेक्रीफाइस किस बात का... कौन सेक्रीफाइस करने के लिए कह रहा है?”  वेद ने कहा - “तू बता, क्या लेगा - एक उपन्यास के?”

कम से कम एक हज़ार तो मिलना ही चाहिए...।” मैंने झिझकते-झिझकते कहा। 

मैं दो हज़ार दूंगा...। बोल, कब दे रहा है उपन्यास...?”

मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम। वेद से ऐसी किसी बात की मैंने कल्पना तक नहीं की थी। 

चुप क्यों है...। बता कब दे रहा है उपन्यास...। मुझे हर महीने एक चाहिए...। और तेरी पहली किताब तब छापूंगा, जब तेरे तीन उपन्यास मेरे पास हो जायेंगे।”

            “फिर तो अभी काफी लम्बा इन्तजार करना पड़ेगा।” मैं गम्भीर होकर बोला-”आज तो मैं दिल्ली जाने की सोच रहा हूँ। खेल-खिलाड़ी का काम लटका होगा, जाते ही कम्पलीट करना होगा और कुछ और प्रकाशक भी अपनी पत्रिकाओं का काम मुझसे ही करवाते हैं।”

ठीक है। यह फैसला तो तूने करना है कि कब किसका क्या काम करना है। पर याद रहे, मैं तुझे चांस दे रहा हूँ, पर यह चांस हरएक को नहीं दे सकता।”

क्यों भला...?” मैंने पूछा।  

देख योगेश, लिखने वाले बहुत हैं, पर लिख क्या रहे हैं, यह जानने से पहले यह समझ कि लिख कैसे रहे हैं।”

कैसे लिख रहे हैं..?” मैंने पूछा। 

रविवार, 21 नवंबर 2021

यादें वेद प्रकाश शर्मा जी की - 08

 कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा जी के साथ की - 8

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रॉयल पाकेट बुक्स की बाहरी बैठक को अपना ठिकाना बनाने के बाद मुझे सबसे पहले उन्हीं का काम पूरा करना चाहिए था, पर उन्होंने काम पूरा करने के लिए एक हफ्ते का वक़्त दिया था, इसलिये मैं निश्चिन्त तो था, पर दिमाग में यही था कि सबसे पहले अपने लैण्डलॉर्ड का काम ही पूरा किया जाये, लेकिन सुबह दस बजे के करीब गंगा पॉकेट बुक्स के स्वामी सुशील जैन मेरे कमरे पर आ पहुँचे।   


मैंने रायल पाकेट बुक्स की उन किताबों में से एक किताब सामने रखी हुई थी और उसे पढ़ रहा था, कहानी बढ़ाने का काम बिना पढ़े तो हो ही नहीं सकता था। हालांकि मुझे दो बार ऐसा दुर्लभ कार्य भी करना पड़ा था, जब विमल पॉकेट बुक्स, में प्रकाशित होने वाले उपन्यास `कलंकिनी` के अन्तिम सोलह पेज कहानी पढ़े बिना ही लिखने पड़े थे और एक बार हरीश पॉकेट बुक्स (राज पॉकेट बुक्स की एक अन्य संस्था) में प्रकाशित हो रहे एस. सी. बेदी के एक उपन्यास का अन्त उपन्यास पढ़े बिना लिखना पड़ा था। पर वो किस्सा फिर कभी...। 

मेरठ के प्रकाशकों में तो लक्ष्मी पॉकेट बुक्स के स्वामी सतीश जैन उर्फ मामा ने मैटर बढ़ाने-घटाने में मुझे Best होने तक का तमगा दे दिया था और उन्हीं की यह कारस्तानी या करिश्मा था कि ईश्वरपुरी के प्रकाशकों में भी मेरी चर्चा फैल गई थी। 

फिर मेरे बारे में एक यह बात भी सतीश जैन ने फैला दी थी कि योगेश मित्तल से तो जो चाहे काम करवा लो, न पैसे के लिए हुज्जत करता है, ना ही मना करता है और यह मशहूरी गंगा पॉकेट बुक्स के स्वामी सुशील जैन तक भी पहुँच चुकी थी। 

रॉयल पाकेट बुक्स का किरायेदार होने के सबसे पहले ही दिन सुबह सुबह सुशील जैन मेरे कमरे पर आ पहुँचे, तब तक मैंने किसी भी प्रकाशक को अपने वहाँ रहने के बारे में बताया तक नहीं था, इसलिये सुशील जैन को देख, एकदम हक्का-बक्का हो उठा। 

“आप यहाँ कैसे....? यहाँ के बारे में तो मैंने अभी किसी से कोई चर्चा भी नहीं की।" -मैंने अचरज से कहा तो बड़ी मीठी मुस्कान छिड़कते हुए सुशील जैन बोले - "दिल्ली का कोई लेखक मेरठ में हो और हमें पता न चले, यह तो हो ही नहीं सकता। हमारे जासूस कदम-कदम पर फैले हुए हैं। फिर यह तो ईश्वरपुरी से ईश्वरपुरी का मामला है। हमारी नाक के नीचे रहकर भी तू हमारी नज़रों से छिप जायेगा, ऐसा तो तुझे सोचना भी नहीं चाहिए।" 

अपनी बात कहते-कहते सुशील जैन मेरे पलंग पर मेरे करीब बैठ गये। 

शनिवार, 20 नवंबर 2021

कैसे बना मैं उपन्यासकार- तरुण इंजिनियर

 'मैं उपन्यासकार कैसे बना' शृंखला के इस अंक में आप पढेंगे उपन्यासकार तरुण इंजिनियर के उपन्यासकार जीवन के आरम्भिक अंश कैसे बन उपन्यासकार बने।

कैसे बना मैं उपन्यासकार

दोस्तो,

मैं आपको बता दू कि मेरा जन्म बिजनौर के एक छोटे से कस्बे किरतपुर के रस्तोगी परिवार में सन् 1960 में हुआ था,मेरा पूरा नाम तरुण कुमार रस्तोगी है

बचपन से ही मैं नटखट व लेखक प्रवृत्ति क रहा हूँ। जिसकी वजह से मेरे पिता श्री रामनाथ रस्तोगी ने मुझे घर से दूर, नैनीताल पढने के भेज दिया था। उनका मानना था कि घर से दूर रहकर शायद मेरे जहन से लेखक रूपी कीड़ा एकदम‌ मर जायेगा, पर ऐसा हुआ नहीं।

      नैनिताल की वादियों में पहुंचकर, मेरे दिमाग ने शब्दरूपी झील में, कलम की परवार चलानी फिर शुरु कर दी क्योंकि नैनिताल का वातावरण ही कुछ ऐसा है, यहां की प्राकृतिक सुंदरता को देखकर ना कुछ लिखने वाला भी लिखना शुरु कर देता है।

      यही मेरे साथ हुआ। पढाई के साथ-साथ मेरी लघु कहानियाँ, कवितायें व गजलें देश की नामी-गिरामी पत्रिकाओं 'साप्ताहिक हिंदुस्तान', 'कादम्बिनी' व 'नंदन' में प्रकाशित होने लगी। प्रशंसकों के पत्र  आते रहे। मैं एक के बाद एक कहानियाँ लिखता गया। कुछ हास्य लेख मेरे 'अमर उजाला', 'नवभारत टाइम्स' व 'पंजाब केसरी' में भी छपे। दिन कटते रहे...साल कटते रहे, अचानक एक दिन मेरी मुलाकात हिंदी के लोकप्रिय उपन्यासकार रानू से हो गयी। जो उस समय नैनिताल की एक सत्य घटना पर आधारित 'पूजा' उपन्यास लिखने के लिये आये हुये थे। मेरी उनसे मुलाकातें होती रही, फिर मुलाकातें दोस्ती में बदल गयी और कुछ ही दिनों में रानू जी मेरे अच्छे दोस्तों में से एक बन गये। जितना मैं उनके सम्पर्क में आता गया,‌ मेरे अंदर भी उपन्यासकार बनने की ललक जागने लगी। मैं उनके साथ बैठकर छोटे-छोटे शाॅट लिखने लगा। उन्हें पसंद आये और उन्होंने मेरी प्रशंसा की, मेरा हौसला बढ  गया। 

गुरुवार, 11 नवंबर 2021

प्रायश्चित - रानू, उन्यास समीक्षा

रानू – प्रायश्चित- 1977

सन् 1970 व 1980 ईं के दशक के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार रानू की प्रसिद्धि इतनी ज्यादा थी कि इस समय उनके नाम से कई जाली उपन्यास भी हाथोहाथ बिक जाते थे। उनकी पत्नी सरला रानू भी उन्यासकार थी। पति-पत्नी दोनों एलीगन रोड़ इलाहाबाद में रहते थे। उनकी पत्नी को भी उनकी प्रसिद्धि का भरपूर लाभ मिला। 

प्राश्चित उपन्यास का पहला संस्करण 1977ई. में हिंद पॉकेट बुक्स, दिल्ली से प्रकाशित हुआ था।

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