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रविवार, 4 जुलाई 2021

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा-08

मैं आवारा, इक बनजारा- 08
अशोक कुमार शर्मा, आत्मकथा
मेरा उपन्यास पढ़ने का सिलसिला इसके बाद के दिनों में भी जारी रहा।
     स्कूल लाइब्रेरी से ला - लाकर अब मैं प्रेमचंद, रांगेय राघव, जयशंकर प्रसाद, शरद चंद्र, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, रविन्द्र नाथ टैगोर, आचार्य चतुर सेन, गुरुदत्त, मंटो और शौकत थानवी जैसे कई महान लेखकों को पढ़ने लगा,  जिसकी वजह से मेरी लेखन शैली में कुछ निखार, कुछ सुधार और कुछ परिपक्वता आ गई । फिर मैंने बड़े ही मनोयोग से एक तेज रफ्तार वाला थ्रीलर उपन्यास लिख डाला । जिसका कि शीर्षक था - 'वतन के आंसू'।
 
वतन के आंसू
वतन के आंसू
[ वतन के आंसू टाइटिल वाले इस उपन्यास की आज मेरे पास एक भी प्रति नहीं है, अगर किसी भाई के पास हो, तो मुझे डाक द्वारा भेजने की कृपा करे । मैं उस भाई का अनुग्रहित रहूंगा। ]
अपना दूसरा उपन्यास मैंने गुलशन नंदा स्टाइल में लिखा। जिसका कि शीर्षक था - सावन की घटा ।
        'सावन की घटा' नाम वाला उपन्यास मैंने दिमाग से नहीं, बल्कि दिल से लिखा था और यकीन कीजिए दोस्तों कि उस उपन्यास की कहानी इतनी ज्यादा भावुक और गमगीन थी कि उसको लिखते वक्त कभी-कभी मैं खुद भी रो पड़ता था।
        इन दोनों उपन्यासों को प्रकाशित कराने के लिए मैंने डायमंड, हिंद, स्टार और साधना जैसे कई पॉकेट बुक्स वालो के दफ्तरों में चक्कर लगाए, पर किसी भी प्रकाशक ने मुझे तवज्जो नहीं दी।
     शायद छोटी उम्र का होने के नाते मुझे उन्होंने लेखक समझा ही नहीं, इसलिए उन्होंने बिना मेरे उपन्यास पढ़े ही मेरे दोनों उपन्यासों को बड़ी ही बेदर्दी से खारिज कर दिया।
आपकी जानकारी के लिए मैं। बता दूं कि उन दिनों अपना उपन्यास प्रकाशित कराना उतना ही मुश्किल कार्य था, जितना कि आज किसी फिल्म का हीरो बनना ।
मुझे एकमात्र तवज्जो दी 'राजा पॉकेट बुक्स' के मालिक श्री राजकुमार जी गुप्ता ने।
      उन्होंने लगभग आधा घंटा मुझे मेन गेट पर इंतजार करवाया, फिर जाकर कहीं उन्होंने मुझे अन्दर बुलवाया।
उनकी पर्सनलिटी देखते ही मैं दंग रह गया, क्यों कि उनकी पर्सनलिटी बड़ी शानदार, जानदार और प्रभावशाली थी।
वे उन गिने चुने लोगो में से एक थे, जिनकी इंप्रेसिव पर्सनलिटी  से मैं बहुत ही ज्यादा इंप्रेस हुआ था, पर उनके स्वभाव का ठीक - ठीक अंदाजा मैं कभी भी नहीं लगा पाया था, क्यों कि कभी - कभी तो वे बहुत ही ज्यादा मधुर व्यवहार करते थे, तो कभी - कभी इतना ज्यादा कठोर कि अंदर तक रूह भी कांप जाए।
     पर मेरा अंदाजा है कि वे अपना व्यवहार अपनी व्यवसाय की जरूरत के हिसाब से तय करते थे।
खैर !
जो कुछ भी हो, पर उन्होंने बड़े ही प्यार और अपनत्व के भाव से मुझसे मुलाकात की और बड़े ही ध्यान से मेरे उन दोनों उपन्यासों को शुरू में और फिर बीच-बीच में से पढ़ा।
      उनको मेरे उपन्यासों की कहानी और लेखन शैली दोनों ही बेहद पसंद आई, पर उन्होंने साफ-साफ लफ्जो में और रौबीले स्वर में मुझसे कहा कि इन दोनों उपन्यासों को मैं अपने ट्रेडमार्क के तहत प्रकाशित करने के लिए तैयार हूं, जिन पर तुम्हारा नाम और फोटो दोनों ही नहीं दिए जाएंगे। इन दोनों की जगह सिर्फ मेरे ट्रेडमार्क का नाम छपेगा और इसके बदले तुम्हे दोनों उपन्यासों के एक हजार रूपए मिलेंगे। बोलो, क्या तुम्हें मंजूर है ?
मैंने डरते डरते कहा कि मुझे आपका एक रुपया भी नहीं चाहिए, पर मेहरबानी करके आप मेरे इन दोनों उपन्यासों को मेरे नाम और फोटो के साथ प्रकाशित कर दीजिए, मैं ता जिंदगी आपका शुक्रगुजार रहूंगा।
पर उन्होंने मेरे इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया और इस प्रकार मुझे मजबूर होकर उनका ये प्रस्ताव अपनी अनिच्छा के बावजूद भी कबूल करना पड़ा।
      उन्होंने मुझे आश्वासन देते हुए कहा कि भले ही अभी तुम्हें कम पैसे दिए जा रहे है, पर तुम हमारे साथ आगे भी यूं ही जुड़े रहोगे तो न केवल तुम्हारा मेहनताना बढ़ा दिया जाएगा, बल्कि उपन्यास लेखन के ऐसे - ऐसे टिप्स भी बताए जाएंगे, जिनका प्रयोग कर तुम एक दिन बड़े - बड़े लेखकों के भी कान कतरने लगोगे।
       उसके बाद उन्होंने मुझे उपन्यास लेखन के बहुत से टिप्स बताए भी और उन फिल्मों की लिस्ट भी बनाकर दी, जिनको आने वाले समय में मुझे देखना था, ताकि मेरी लेखनी में और भी ज्यादा  धार, सुधार और निखार आ
सके।
कुल मिलाकर वे फिल्मों के ग्रेट शोमैन राजकपूर की तरह उपन्यास जगत के ग्रेट शो मैन थे।
       उसके बाद बातों ही बातों में उन्होंने मुझे अपने जीवन की भी संघर्ष गाथा सुनाई और बताया कि सबसे पहले उन्होंने रद्दी का एक छोटा सा कारोबार शुरू किया था और फिर उस व्यवसाय को धीरे - धीरे पॉकेट बुक्स के व्यवसाय में तब्दील कर और उसकी उन्नति के लिए रात - दिन मेहनत और संघर्ष कर यहां तक का सफर तय किया था।
उनकी संघर्ष भरी ये कहानी वास्तव मैं ही रोचक और प्रेरणादायक थी।
      मैं समझता हूं कि स्कूली पाठ्यक्रम में भी ऐसी प्रेरणादायक कहानियां जरूर शामिल करनी चाहिए, ताकि बच्चे महान और संपन्न लोगों की जीवनियां पढ़ कर ये जान सके कि जिसने भी अपने जीवन में सफलता हासिल की है, उनकी उस सफलता के पीछे संघर्षों की एक विराट दास्तां भी छुपी हुई रहती है, जो कि दुनियावालों की नजरों से ओझल रहा करती है। दुनिया वाले शायद ये नहीं जानते कि सफलता नाम की वो शै, जिसे हर कोई पाना चाहता है, हिमालय की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर रहती है, जिसे सिर्फ और सिर्फ वो ही शूरवीर पा सकता है, जिसमें तेन सिंह शेरपा और डेसमंड हिलेरी जितना ही अदम्य साहस, उन जैसा ही जुनून और उन जितना ही मेहनत करने का गुण मौजूद हो।
      आलसी, कामचोर और निराश आदमी के पास सिर्फ नींद, बीमारी और गरीबी आ सकती, सफलता, शौहरत और ऐश्वर्य नहीं।
ख़ैर !
     इसके बाद उन्होंने मुझे अपने खरीदे हुए वे चौदह कम्प्यूटर भी दिखाए, जिनकी कीमत उस वक्त लाखों में थी और जिनका उपयोग उनके यहां से प्रकाशित होने वाली कॉमिक्स में होनेवाला था।
मैंने अपने जीवन में पहली बार कम्प्यूटर उनके यहां ही देखे थे और जिनकी कार्यप्रणाली देखकर मैं दंग रह गया था।
        उन्होंने आगे मुझे ये भी बताया था कि उनके यहां से प्रकाशित  वेदप्रकाश शर्मा के उपन्यास केशव पंडित और कानून का बेटा सुपर - डुपर हिट रहे थे और जिसके कारण उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस का आयोजन कर पत्रकारों को पार्टी भी दी थी।
     और इस तरह सन 1994 में  राजा पॉकेट बुक्स से मेरा प्रथम उपन्यास 'वतन के आंसू' प्रकाशित हुआ, जिस पर बतौर लेखक मेरे नाम की जगह उनके ट्रेडमार्क 'धीरज' का नाम लिखा हुआ था।
     ये उपन्यास उस समय चल रही पंजाब समस्या की पृष्टभूमि पर आधारित था और जिसमें ये दर्शाया गया था कि हर सिख आतंकवादी नहीं होता। सिर्फ धरम के आधार पर किसी को आतंकवादी समझकर नफ़रत करना बहुत बड़ी भूल है, और इस भूल को देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए सुधारे जाने की बहुत बड़ी जरूरत है।
मेरा उनको दिया हुआ दूसरा उपन्यास 'सावन की घटा' कभी प्रकाशित हुआ या नहीं इस बात की खबर मुझे आज तक भी नहीं है।
       यूं  ट्रेडमार्क से उपन्यास प्रकाशित होने से मुझे थोड़ी सी खुशी तो जरूर हुई, पर उस खुशी से ज्यादा दिल में यह मलाल था कि मेरे उस प्रकाशित उपन्यास पर न तो मेरा नाम ही है और न ही मेरी फोटो। इसे देखकर किसको यकीन होगा की यह उपन्यास मैंने ही लिखा है। इस वजह से मैंने अब मन ही मन ये दृढ़ निश्चय कर लिया था कि आइंदा में अपने उपन्यास मेरे नाम और फोटो के साथ ही प्रकाशित करवाउंगा, वरना कभी कराऊंगा ही नहीं।

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