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शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

मेरठ उपन्यास यात्रा,भाग-02

 18.09.2020
  सुबह लगभग 6AM उठा तो देखा जयदेव जी मुझसे पहले ही जाग चुके थे। चाय वाले को call की तो कुछ समय पश्चात चाय आयी। हमने चाय पीते- पीते यू ट्यूब चैनल 'sahityadesh' के लिए जयदेव जी के इंटरव्यू के लिए कुछ प्रश्न भी तैयार कर लिये।  
    आप इंटरव्यू इस लिंक पर देख सकते है- जयदेव चावरिया
    विनोद प्रभाकर जी ने नाश्ता की बहुत अच्छी व्यवस्था की थी। चाय वाला लड़का कुछ समय पश्चात नाश्ता के भी व्यवस्था भी कर गया।हमने जब टिफिन खोला तो पराठों कि खुश्बू ने भूख को तेज कर दिया। चार पराठें, बड़े आकार। 
''सर, इतने बड़े पराठे?''
"हाँ,कुछ ज्यादा ही बड़े हैं। खाना मुश्किल हो जायेगा।"
दो-दो पराठों आचार के साथ खाये तो सच में पेट भर गया और उस दिन हमने उस भारी नाश्ते के अतिरिक्त कुछ नहीं खाया। दोपहर के भोजन का आवश्यक महसूस नहीं हुयी।
"जयदेव भाई, पराठों के हिसाब से साथ में चाय कम है।"
"हाँ।"- जयदेव ने पराठों का कौर खाते के पश्चात चाय का घूँट भरते हुये कहा।
   चाय-नाश्ते के कुछ समय पश्चात विनोद प्रभाकर जी ने फ्लैट में कदम रखे। समय लगभग दस बजे का था। 
"चाय-नाश्ता हो गया?" -विनोद जी ने आते ही पूछा।
''जी सर।''- जयदेव जी का संक्षिप्त उत्तर था।
जयदेव जी की यह कम बोलते हैं।  
"सर नाश्ता तो बहुत heavy था। मुझे लगता है आज शाम तक खाने की आवश्यक नहीं होगी।"
"हाँ सर, पराठॆं स्वादिष्ट भी थे और बड़े भी। थाली में एक ही पराठा आया था।"
"अब आगे क्या विचार है?" - आगे चर्चा के दौरान विनोद जी ने पू़छा।
"यहाँ से आबिद रिजवी जी के पास चलना है।"
"वापसी तो यहीं आओगे?"
"अरे! नहीं सर। 3:30PM को जयदेव जी की ट्रेन है।"- मैंने कहा।
"अच्छा, तो आप तो रुकोगे?"- विनोद जी ने पूछा।
" नहीं सर, मेरी भी ट्रेन है शाम को। टिकट कन्फर्म है।"
"आप तो गुरप्रीत जी कुछ दिन रुकते। अभी तो बहुत बातें बाकी हैं। आपको मेरठ घूमाते।"
"नहीं सर, फिर कभी। अभी तो स्कूल की छुट्टियां खत्म हो रही हैं तो स्कूल भी जाना है।''
मैंने 04.09.2022 से पन्द्रह दिवस की पितृत्व अवकाश की छुट्टियां ले  रखी थी। उन्हीं छुट्टियों में मेरठ का कार्यक्रम बना था।
  विनोद जी की हार्दिक इच्छा थी, मैं कुछ दिन और मेरठ ठहर जाऊं, पर मेरे लिए यह संभव न था। विनोद जी जितने मृदभाषी हैं उतने ही मेहमानबाजी करने में कुशल। विनोद जी के फ्लैट पर जब लेखक मित्र एकत्र हुये तो विनोद जी और इनके सुपुत्र सब लेखक मित्रों की सेवा में तत्पर रहे। चाय, नाश्ता, कोल्डड्रिंक, खाना आदि दौर समय-समय पर चलते रहे। साथी मित्र ना-ना करते रहे पर विनोद जी ने इस विषय पर किसी की बात नहीं सुनी।
   अच्छी सेवा के लिए विनोद जी को धन्यवाद। 
विनोद जी की कार से हम मेरठ आबिद रिजवी से मिलने चल दिये। रास्ते में विनोद जी के उपन्यासों की चर्चा चल पड़ी। विनोद जी के उपन्यासों पर फिल्मों की घोषणा भी हुयी, पोस्टर भी जारी हुये पर कुछ कारणों से वह योजना आगे न बढ सकी।
 "विनोद जी आप विनोद प्रभाकर के नाम से जासूसी उपन्यास लिखते थे फिर सुरेश साहिल के नाम से सामाजिक उपन्यास लिखने का विचार कैसे आया?"
विनोद प्रभाकर जी गाड़ी ड्राइव करते हुए, नजरें सामने सड़क पर लगाये हुये थे पर उनका मस्तिष्क प्रकाशक के कार्यालय में घूम रहा था।
"हाँ, यह भी यादगार बात है। मेरे जासूसी उपन्यास अच्छे चल रहे थे पर मन में कहीं न कहीं सामाजिक कहानियाँ भी घूम रही थी। तब सामाजिक उपन्यास किसी अन्य नाम से लिखने का मन किया तो 'सुरेश' भाई के नाम से लिखने आरम्भ किये। प्रकाशन ने कहा की सुरेश नाम छोटा है कुछ और साथ जोड़ों तो सुरेश के साथ साहिल नाम हमें सही लगा।"
"तो इस प्रकार विनोद प्रभाकर जी सुरेश साहिल हो गये।"- जयदेव जी ने कहा।
"आज मेरे बच्चे अपना सरनेम 'प्रभाकर' ही लगाते हैं और भाई के बच्चे अपना सरनेम 'साहिल' लगाने लग गये।"
मेरे दिमाग में तुरंत अमिताभ बच्चन और अभिषेक बच्चन का ख्याल आया। हरिवंश राय बच्चन का बचपन में 'बच्चवा' कहते थे और उन्होंने 'बच्चवा' को परिष्कृत कर 'बच्चन' बना लिया और यही 'बच्चन' आज उनकी गोत्र हो गयी। ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण है जहाँ गोत्र बदल जाते हैं।
"आपने अपने बालों का स्टाइल नहीं बदला। उपन्यास के बैक कवर में जो आपकी तस्वीर थी वहाँ जो बालों का स्टाइल था वही आज भी है।"- मैंने विनोद जी के बालों की तरफ देखते हुये कहा।
विनोद प्रभाकर जी ने हँसते हुये कहा-"बिलकुल सही कहा। यह मेरा प्रिय स्टाइल है जो आज भी वैसे का वैसा ही है।"
    विनोद प्रभाकर जी ने जहाँ जासूसी उपन्यासों में अच्छी पहचान बनाई है तो वहीं सामाजिक उपन्यासों में पाठकवर्ग 'लौट आओ सिमरन' उपन्यास के तौर पर आज भी सुरेश साहिल जी को जानता है। फिल्म लेखन में रणवीर पुष्प जी के साथ कार्य किया लेकिन किसी कारणवश यह योजना सफल न हो पायी। वहीं उपन्यासकार वेदप्रकाश वर्मा जी के साथ सफल प्रकाशन संस्थान भी चलाई और वर्तमान में दो निजी शिक्षण संस्थानों का संचालन कर रहे हैं।
   
जयदेव चावरिया, आबिद रिजवी जी और विनोद प्रभाकर जी
जयदेव चावरिया, आबिद रिजवी जी और विनोद प्रभाकर जी

             आज आबिद रिजवी जी के घर पर तीन लेखक, तीन पीढ़ियाँ एकत्र हो रही थी। आबिद रिजवी साहब जिन्होंने इब्ने सफी साहब से आशीर्वाद लिया और लेखन आरम्भ किया, विनोद प्रभाकर जी जिन्होंने उपन्यास साहित्य का एक सुनहरा समय देखा, और नये  लेखक जयदेव चावरिया जी, जिनका अभी मात्र एक ही उपन्यास प्रकाशित हुआ है। 
" ये विनोद प्रभाकर जी हैं। उपन्यासकार हैं, खुद का प्रकाशन  भी रहा है।''- मैंने परिचय करवाते हुये कहा।
"मैंने आपका नाम खूब सुना है। मेरठ में रहते हुये भी यह पहली मुलाकात है। आपने शायद मेरा नाम नहीं सुना होगा।"- विनोद जी ने कहा।
" विनोद जी सुरेश साहिल नाम से सामाजिक उपन्यास भी लिखते रहे हैं। "- मैंने कहा।
आबिद रिजवी जी ने बातें ध्यान से सुनी। और धीरे से बोले-" ऐसी बात नहीं है, यह मुलाकात पहली हो सकती है पर आपका नाम मैंने सुना है। आप तो मेरठ से प्रकाशित होते रहे हैं।"
"हाँ, धीरज पॉकेट बुक्स से मेरे उपन्यास प्रकाशित होते रहे हैं।"
आबिद रिजवी का ध्यान जयदेव चावरिया जी की ओर गया और फिर प्रश्नचाचक दृष्टि से मेरी तरफ देखा।
"यह है युवा लेखक जयदेव चावरिया जी।"
"माय फर्स्ट मर्डर केस।"- आबिद रिजवी जी ने तुरंत जयदेव जी के उपन्यास का नाम ले लिया।
"आपको तो सब याद  रहता है।"
आबिद जी धीरे से मुस्कुरा दिये।
फिर धीरे-धीरे विनोद जी और जयदेव जी से विभिन्न विषयों पर चर्चा करते रहे।
आबिद रिजवी जी का प्रिय शिष्य है बल्लू।‌ आबिद रिजवी जी के यहाँ टाइपिंग का बल्लू ही देखता था।  अब भी अक्‍सर बुलाने पर वह आ जाता है। काम के प्रति समर्पित, मिलनासार और हँसमुख बल्लू का परिवार भी प्रकाशन क्षेत्र में है। 
जब धीरज पॉकेट बुक्स की बात चली तो मैंने विनोद जी को बताया की बल्लू के पापा भी धीरज पॉकेट बुक्स में काम करते हैं।
"क्या नाम है?"- विनोद जी ने पूछा।
"....।" बल्लू ने अपने पापा का नाम बताया‌
"अच्छा, मैं उनको जानता हूँ, वह तो एकाउंट का काम देखते हैं।" - विनोद जी ने तुरंत कहा।
"उनसे मेरा जिक्र करना, तो वह जान जायेंगे।"
तब तक चाय नाश्ता आ चुका था। आबिद जी का परिवार की अतिथि सेवा में कोई कमी नहीं रखता। गर्म चाय के साथ कुछ न कुछ गर्मागर्म हाजिर होता है। 
   मैं और बल्लू मेरी किताबें ढूंढने में व्यस्त हो गये। जो किताबें कल नहीं मिली आज तो उन्हें ढूंढना ही था। अब समझ में नहीं आ रहा की वे किताबें कहां गयी।
आखिर में बल्लू को याद आया की पीछे स्नानागार के ऊपर कुछ जगह है जहाँ सामान रखा जा सकता है। और बल्लू अपने कपड़ों की परवाह न करते हुये आखिर वहाँ पहुँच ही गया।
    बल्लू की मेहनत रंग लायी और तीन साल पूर्व के वह तीन कार्टून किताबों के मिल ही गये। हमने वह साल किताबें मेरे एक बैग में रखी। मैं इन किताबों के लिए एक विशेष बैग साथ लेकर गया था।
  
आबिद रिजवी का कुछ समय से स्वास्थ्य सही नहीं है। उपन्यास साहित्य के रोचक किस्से सुनाने वाले आबिद जी इस बार ज्यादातर शांत चित्त होकर बातें सुनते रहे। आबिद जी के स्वास्थ्य की कामना करते हैं। 
जब कल मैं रामपुजारी जी और सुबोध भारतीय जी के साथ आबिद रिजवी जी के घर आया तो वह उपन्यास नहीं मिले थे। तब बल्लू ने कहा कि उपन्यास न मिलने के पीछे कोई वजह तो होगी। और वह वजह आज स्पष्ट हो गयी। एक शहर के, एक ही क्षेत्र में कार्यरत दो उपन्यासकार कभी नहीं मिले और आज वह मुलाकात हो गयी। जिनके पीछे वह तीन कार्टून उपन्यास ही थे। 
    
आबिद रिजवी जी से अनुमति लेकर हम मेरठ बस स्टेण्ड की ओर चल दिये।  रास्ते में विनोद प्रभाकर जी (सुरेश साहिल) अपने लेखन प्रकाशन समय की बातें बताते चले जा रहे थे साथ में जब जिस सड़क से मुड़ते तो उस समय की यादें उनके दिमाग में आ जाती थी।
  
     मेरठ से विदा होकर हम दिल्ली दरियागंज पहुंचे। हालांकि रास्ते में सामाजिक उपन्यासकार सत्यपाल जी से मिलना था लेकिन कुछ कारणों से यह मिलना न हो सका।
Sunday Book Market Delhi
Sunday Book Market Delhi

         दिल्ली का 'सण्डे बुक बाजार' अपनी एक विशिष्ट पहचान रखता है। मैं सन् 2010 में पहली बार यहां आया था। तब यह बाजार नयी सड़क पर था। समय के साथ स्थान परिवर्तन होता रहा। अब यह बाजार सड़क ने किनारे न होकर 'महिला हाट' नामक जगह पर लगता है।  पाठक मित्रों को स्पष्ट कर दू, महिला हाट उसी सड़क पर ही स्थित है कही अन्यत्र नहीं। 
मैं और जयदेव जी कुछ समय तक वहाँ घूमते रहे। 3:30 PM जयदेव भाई की ट्रेन थी तो वह चले गये। अब मैं बुक बाजार में अकेला रह गया। एक भारी बैग को उठाना बहुत मुश्किल काम था। जब जयदेव जी साथ थे दोनों बैग को आसानी से उठा सकते थे, पर अब तो यह बैग परेशानी पैदा कर रहा था। लेकिन जैसे भी, बैग को छोड़ा हो नहीं जा सकता उसमें एक छोटी दुकान जितनी किताबें तो थी। 
Sundaybookmarket
Sunday Book Market Delhi

   बुक बाजार में लोकप्रिय साहित्य से संबंधित कुछ दुकानों पर उपन्यास उपलब्ध थे। पर अधिकांश उपन्यास 'रीमा भारती, केशव पण्डित' और राजा पॉकेट बुक्स, रवि पॉकेट बुक्स से प्रकाशित अंतिम उपन्यास थे या फिर कुछ Ghost writing वाले। 
यहाँ से सामान्य खरीददारी की। मेरे पास राम पुजारी जी का 'ट्राइपाॅड' था, जो यूट्यूब वीडियो बनाने के लिए लिया था। 
राम पुजारी को फोन किया की यह ट्राइपोड कहां पहुंचाऊं तो उन्होंने जिद्द ही कर ली की आप 'नीलम जासूस कार्यालय' अवश्य आओ।
  मेरे लिए भारी बैग को उठाकर ले जाना मुश्किल काम था। पर राम‌ भाई का अनुग्रह। 
सण्डे बाजार से टैक्सी से पुनः कश्मीरी गेट मैट्रो स्टेशन और मैट्रो से रोहिणी पहुंचा।  वहाँ से पुनः ऑटो से नीलम कार्यालय। इस दौरान भारी बैग का जो परिवहन किया, कंधों और कमर का जो दर्द से बुरा हाल हुआ वह सिर्फ महसूस किया जा सकता है। मैट्रो के छोटे से 'entry- exit' गेट से उस बैग को लेकर जाना, बहुत ही कठिन काम था। एक बार कोशिश की कि पीठू बैग को बड़े बैग में रख‌ लू, पर बड़े बैग में इतनी किताबें थी कि छोटा बैग उस में समा ही नहीं रहा था।
  चलो, जैसे-तैसे नीलम जासूस कार्यालय- रोहिणी पहुँच ही गये। शाम के छ बज चुके थे। 
नील‌म जासूस कार्यालय प्रमुख 'सुबोध भारतीय' गर्मजोशी के साथ स्वागत किया। लम्बा कद, भारी शरीर, हास्य प्रवृत्ति और गहन अध्येता सुबोध जी मिलनसार व्यक्ति हैं।  कुछ देर के इंतजार पश्चात राम पुजारी का आगमन हुआ और फिर साहित्य चर्चा आरम्भ हुयी। 
नीलम जासूस कार्यालय लोकप्रिय उपन्यास साहित्य के अतिरिक्त अन्य साहित्यिक रचनाएँ भी प्रकाशित करता है।  self publishing की व्यवस्थाएँ भी देता है। सुबोध भारतीय जी ने इस विषय पर बहुत अच्छी बात कही।
"उपन्यास प्रकाशन तो नाश्ता है, भोजन का काम तो अन्य पुस्तकों के प्रकाशन से ही होता है।"
  तब तक नाश्ता आ चुका था। राम पुजारी जी ने अतुल जी को फोन किया तो उन्होंने कहां की वह पहुँच ही रहे हैं।
समोसे के साथ चाय का आनंद लेते हुये विभिन्न विषयों पर बाते होती रही। 
"प्रकाशन जगत में चाय-समोसे बहुत प्रसिद्ध रहे हैं।"
"मेहमान का स्वागत तो जरूरी है।"
"योगेश मित्तल जी के संस्मरण पढे हैं। अक्सर चर्चा होती है की प्रकाशक के पास गये तो उन्होंने चाय समोसे मंगवा लिये। वहीं परम्परा आप निभा रहे हैं।"
हमने चाय खत्म ही की थी तब तक 'अतुल प्रभा जी' ने कार्यालय में प्रवेश किया‌। जिनके चेहरे पर प्रभा थी, ह्रदय में भी और बातचीत के दौरान यह भी पता चला की उनका व्यक्तित्व भी अतुल्य है। 
"गुरप्रीत जी आपका नाम सुना है, आपका ब्लॉग मैं अक्सर पढता रहता हूँ। मुलाकात का यह प्रथम अवसर है।"
"यह तो राम भाई का अनुग्रह कहो या जिद्द जिसके चलते मैं यहाँ पहुँच गया।"
राम भाई ने बात आगे बढायी -"दिल्ली आये और नीलम जासूस कार्यालय न आये तो आपकी यात्रा अधूरी रह जाती।"
  यह सच भी है। इस छोटी से मुलाकात में बहुत कुछ सीखने और समझने को मिला।
सुबोध भारतीय जी अपनी ऑफिस चेयर पर विराजमान थे उनके पास ही रामपुजारी जी बैठे थे। सुबोध जी के टेबल के सामने अतुल जी और मैं थोड़ा सा साइड़ में बैठा था। 
  मेरी नजर सुबोध जी पर थी, अचानक मेरे ध्यान में एक बात आयी।
"अतुल जी, एक बात बताइये। सुबोध जी किस व्यक्ति की तरह नजर आते हैं?"
अतुल जी ने एक पल को सोचा और फिर बोले-"अमित शाह की तरह।"
"बिलकुल सही कहा।"
हँसते हुये सुबोध जी ने बताया की एक बार वह किसी होटल में गये तो वहाँ बैठे व्यक्ति ने धीरे उसे पूछा- सर, आप अमित शाह जी हो ना?
  "सुबोध का व्यक्तित्व अमित शाह जी से मिलता है। बस इस Cap का ही फर्क है।"- राम पुजारी जी ने कहा।
"बस कद का फर्क है। इनका कद बड़ा है।"
सुबोध जी ने 'कद' शब्द को ग्रहण किया और तुरंत उत्तर दिया -"नहीं, हमारा 'कद' उनके सामने छोटा है।"
 नीलम जासूस कार्यालय एक सम्मिलित हँसी से गूँज उठा। 
हाँ, एक बात और याद आ गयी। यह तो पता नहीं सुबोध जी ने किस संदर्भ में कही थी पर कथन रोचक था।
"नौकरी के लिए कह रखा था सालों से, सालों से।"
सुबोध जी एक हास्यप्रिय और खुशमिजाज व्यक्ति हैं।
बातों का क्रम बदला।
"आपने 'हैसटैग' पढी होगी, कैसी लगी?"- सुबोध जी ने पूछा।
"शहरी जीवन की रोचक कहानियाँ है। मुझे इसमें बस एक ही कमी लगी।"
सुबोध जी की प्रश्नवाचक निगाहें मेरी ओर थी। एक पल के विराम  पश्चात मैंने कहा।
"मुझे इस किताब में कमी बस इतनी लगी की इसमें कहानियाँ कम है। आठ की जगह दस होनी चाहिए।"
"हा...हा...हा...।" - एक जोरदार ठहाका गूँजा - "यह शिकायत लगभग पाठकों की है।"
  बातचीत की डोर अतुल जी ने संभालते हुये साक्षात्कारकर्ता की तरह प्रश्नों का क्रम आरम्भ किया। 

"गुरप्रीत जी, क्या कारण है आजकल युवावर्ग हिंदी किताबें नहीं पढ रहा?"- अतुल जी ने प्रश्न किया।
"आज का युवा मैट्रो में अंग्रेजी किताब हाथ में पकड़ना अपनी शान समझता है, पर हिंदी नहीं पढना चाहता।"- रामपुजारी जी ने कहा।
"चाहे उस अंग्रेजी पढनी भी न आये, मुश्किल से एक पृष्ठ पढ पाये, पर हाथ में अंग्रेजी किताब ही होगी।"- सुबोध भारतीय जी ने बात आगे बढायी।
" यह समस्या मैट्रो शहरों की हो सकती है या सभी शहरों की हो सकती है, पर हमारे गाँवों की यह समस्या नहीं है। मेरे साथी मित्र सभी हिन्दी पढते हैं इसलिए मुझे ऐसा नहीं लगता।"- मेरा उत्तर था।
"युवा वर्ग को हिंदी साहित्य से जोड़ने के लिए क्या करना चाहिए।"
"पहले आप सभी से मेरा एक प्रश्न है। अपनी पसंद की पाँच हिन्दी में लिखित रचनाएँ बताये?"
राम पुजारी जी और अतुल सर कुछ सोचते तब तक सुबोध भारतीय जी ने अपनी पसंद की पांच किताबें बतायी।

1. आवारा मसीहा
2. चित्रलेखा
3. नाच्यो बहुत गोपाल
4. झूठा सच
5. सीधी सच्ची बातें

" सर, इनमें से कितनी किताबें ऐसी हैं जिनको किशोर वर्ग पढ सकता है। अधिकांश की भाषा इतनी क्लिष्ट है की सामान्य पाठक तो दूर विशेष पाठक भी नहीं समझ सकता।"
"हाँ, यह बात तो सही है।"- अतुल जी ने समर्थन किया।
"हमारे पास बाल साहित्य है, अच्छा है। लेकिन उसके बाद किशोर साहित्य नहीं है जो भविष्य के लिए पाठक तैयार कर सके।"
"हाँ, यह बात तो है।"
"आपकी दृष्टि में क्या समाधान है?"
मैंने मुस्कुराते हुये कहा, -"अतुल जी, मैं एक सामान्य व्यक्ति हूँ, एक पाठक हूँ, मेरा समाधान कहां महत्व रखता है।"
"फिर भी, एक पाठक के तौर पर भी कुछ विचार तो होंगे।"
"खुशवंत सिंह का साहित्य पढें, आर.के. नारायण को पढें यह लेखक रोचक लिखते हैं। चाहे ये अंग्रेजी में लिखते हैं पर अनूवाद पढा है मैंने बहुत रोचक है। पर हिंदी में ऐसा रोचक साहित्य मूल रूप में उपलब्ध ही नहीं।"
"बिलकुल सही बात कही है।''- सुबोध भारतीय जी ने कहा।
" मेरी दृष्टि में एक व्यक्ति है जो किशोर वर्ग हेतु रोचक साहित्य लिख सकता है और वह हैं आप।"- अतुल जी‌ ने सुबोध भारतीय जी की‌ ओर संकेत कर कहा।
"हैसटैग युवाओं को पसंद आयी है।"- राम‌ पुजारी जी ने कहा,-"आपको आगे भी रोचक साहित्य लिखना चाहिए।"
"यह जिम्मेदारी मैं लेता हूँ।"- सुबोध भारतीय जी ने कहा।
यह निर्णय एक संतोषजनक निर्णय लगा। एक लेखक, एक प्रकाशक हिंदी में उस रिक्त स्थान को पूर्ण करने का दायित्व लेता है जिसके कारण हिंदी का किशोर या युवावर्ग साहित्य से दूर हो रहा है। 
 मैंने घड़ी की तरफ देखा तो समय काफी हो चला था। मुझे रोहिणी से सराय रोहिल्ला स्टेशन भी पहुंचना था और वहाँ से मेरी ट्रेन भी थी। और मुझे नहीं लगता था की यह वार्ता का क्रम समाप्त होगा। इस वार्ता को मुझे ही विराम देना था।
"राम भाई, मुझे निकलना होगा। ट्रेन का समय हो जायेगा।"
और फिर 'ना-ना' करते हुये भी बातों का सिलसिला चलत रहा।
  "मेरी तरफ से आपके लिए यह पुस्तक है।" -अतुल जी ने अपना प्रथम उपन्यास 'पल-पल दिल के पास' मेरी तरफ बढाते हुये कहा।
अतुल जी द्वारा लिखित 'पल-पल दिल के पास' इनके जीवन की दारुण कथा है। उपन्यास बहुत ही मार्मिक है।
पल पल दिल के पास अतुल प्रभा
अतुल प्रभा जी के साथ

सुबोध जी द्वारा गुरुदत्त का उपन्यास 'गुंठन' भेंट में प्राप्त हुआ।
  और समय को देखते हुये, भविष्य में‌ पुनः मिलने का वायदा कर मैं नीलम जासूस कार्यकाल से विदा हुआ।  

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परिचय

गुरुवार, 29 सितंबर 2022

मेरठ उपन्यास यात्रा-01

 लोकप्रिय उपन्यास साहित्य को समर्पित मेरा एक ब्लॉग है 'साहित्य देश'। साहित्य देश और साहित्य हेतु लम्बे समय से एक विचार था उपन्यासकारों का एक छोटा सा सम्मेलन हो। कोरोना की वजह से यह विचार हर बार स्थगित करना पड़ा था। लेकिन एक दिन यह पल्लवित हुआ और मैं गुरप्रीत सिंह (बगीचा, श्रीगंगानगर, राजस्थान-335051) निकल पड़ा अपनी उपन्यास यात्रा पर। इस यात्रा के कुछ उद्देश्य पूर्ण हुये और कुछ शेष हैं। शेष का भी अपना एक अलग आनंद है, शेष ही आगामी योजना की नीव रखता है,जैसे इस यात्रा की नीव पिछली यात्रा ने रखी है।

     विद्यालय से पन्द्रह दिनों का  पितृत्व अवकाश था। तो सोचा क्यों न इन दिनों में एक उपन्यास यात्रा की जाये। एक विचार, धीरे-धीरे पल्लवित होता गया। विचार था मेरठ के उपन्यासकारों से मिलना और कुछ गुमनाम हो चुके उपन्यासकारों को खोजना। जिसमें राकेश पाठक जी, वेदप्रकाश वर्मा जी और सी. एम. श्रीवास्तव जी शामिल थे। 
बाये से- दिलशाद अली, गुरप्रीत सिंह, फखरे आलम खान, सुरेश चौधरी, जयदेव चावरिया, विनोद प्रभाकर जी, अन्य
       कुछ माह पूर्व मेरा परिचय उपन्यासकार विनोद प्रभाकर जी से हो चुका था। मलियाना (मेरठ) निवासी विनोद प्रभाकर जी अपने वास्तविक नाम से जासूसी उपन्यास लेखन करते थे और द्वितीय नाम सुरेश साहिल के नाम से सामाजिक उपन्यास लिखते थे। मैंने विनोद प्रभाकर जी से चर्चा की हमें मेरठ में एक छोटा सा आयोजन करना है, लेकिन कोई जगह की व्यवस्था नहीं हो रही। विनोद जी ने तुरंत उत्तर दिया -"गुरप्रीत जी, आप निसंकोच मेरठ आये और जिन भी मित्रों को बुलाना चाहे बुला सकते हैं। मेरा एक फ्लैट खाली है और आप जब तक चाहें वहाँ रुक सकते हैं।"
   विनोद जी का यह प्रस्ताव बहुत ही‌ महत्वपूर्ण था। क्योंकि इस से पूर्व जिन लेखक मित्रों से मेरठ में एकत्र होने‌ की बात चल रही थी उन्हें अभी तक कोई स्पष्ट एड्रेस नहीं दिया गया था।  

       मेरठ के जो भी लेखक मित्र थे उनसे पुनः संपर्क किया।   जिसमें आबिद रिजवी जी, एडवोकेट फखरे आलम खान, एडवोकेट सुरेश चौधरी, दिलशाद अली, आलोक खिलौरी जी। ये सब मेरठ क्षेत्र या नजदीक के रचनाकार थे। इसके अतिरिक्त दिल्ली से राम पुजारी जी और हरियाणा के जयदेव चावरिया जी को भी सूचित किया की तय दिवस पर एक छोटा सा साहित्यिक आयोजन है।

दिनांक 16.09.2022 की शाम को मैं ट्रेन से दिल्ली को रवाना हुआ। पूर्व में यह भी तय हो गया था की दिल्ली सराय रोहिल्ला रेल्वे स्टेशन पर लेखक मित्र जयदेव चावरिया भी पहुँच जायेंगे।
दिनांक 17.09.2022
  मैं सुबह 7:30AM सराय रोहिल्ला रेल्वे स्टेशन पर उतरा। और आठ बजे जयदेव चावरिया जी भी पहुँच गये थे। मैंने राम पुजारी जी से संपर्क किया तो उन्होंने बताया की वे सुबोध भारतीय जी के साथ मेरठ जायेंगे। यह हमारे लिए और भी अच्छी बात थी की इस आयोजन में लेखकों के साथ एक प्रकाशक भी शामिल हो रहे हैं।
सराय रोहिल्ला रेल्वे स्टेशन से हम लो फ्लोर बस से कश्मीरी गेट बस स्टैण्ड पहुंचे।
"यह है तो बस स्टैण्ड ही ना?" मैंने जयदेव से प्रश्न किया। हालांकि मैं यहाँ पहले भी  आ चुका था, पर संशय बरकरार था। 
"मुझे तो यह मैट्रो स्टेशन लगा।"-जयदेव ने कहा।
"नहीं भाई, यह बस स्टैण्ड ही है। वह देखो सामने लगी बस की तस्वीर।" - मैंने एक तस्वीर की तरफ इशारा किया।
"मैं भी सोच रहा था, मैट्रो स्टेशन तो इसकी साइड में है।"-जयदेव जी मैट्रो स्टेशन की तरफ इशारा करते हुये कहा।
हम दोनों ऐसे ही चर्चा करते हुये बस स्टैण्ड के अंदर प्रवेश कर गये। 
कश्मीर गेट बस स्टैण्ड सामान्य बस स्टैण्ड की तरह है भी नहीं। प्रथम दृष्टि वह जैसा नजर आता तो लगता नहीं की वह बस स्टैण्ड है।
"जयदेव भाई, आज हमने चाय भी नहीं पी।"
        अक्सर नये सदस्य के मिलते ही मैं चाय ऑफर जरूर करता हूँ, लेकिन हम दोनों इतनी जल्दी मैं थे की चाय पीने ख्याल ही नहीं आया।
बस चलने में अभी समय था। जयदेव भाई ने दो चाय और  दो सैण्डविच ऑर्डर कर दिये। चाय खत्म होते-होते बस का भी समय हो गया था।
लगभग 9:30 AM हम कश्मीरी गेट बस स्टैण्ड से मेरठ की ओर रवाना हो लिये। जिसके सूचना हमने विनोद प्रभाकर जी को भी दे दी और वाटस एप ग्रुप 'साहित्य देश' पर बाकी मित्रों को भी सूचित कर दिया। 
  लगभग 11:15 AM हम मलियाना क्षेत्र में पहुँच गये थे। विनोद प्रभाकर जी को हमने सूचित कर दिया। हम दोनों वहीं स्थित माॅल में घूमने चले गये। अभी माॅल में पहुंचे ही थे की विनोद प्रभाकर जी के पुत्र माॅल के बाहर अपनी कार के साथ हमे लेने पहुँच गये थे।
  वहाँ से हम नजदीक ही 'ग्रीन विलेज' क्षेत्र में विनोद प्रभाकर जी के फ्लैट नम्बर 802 में पहुंचे।
ब्लू जिंस, सफेद शर्ट में विनोद प्रभाकर जी हमारे स्वागत के लिए तैयार ही थे। मिलनसार व्यक्तित्व,  चेहरे पर चमक और शब्दों में आत्मीयता लिए हुये मिले विनोद प्रभाकर जी। 
कुछ ही देर में एडवोकेट फखरे आलम खान जी पहुँच गये।  अभी कोई विशेष बातचीत का सूत्र हाथ न लगा था। तभी एडवोकेट सुरेश चौधरी जी और फिर दिलशाद अली जी अपने एक मित्र के साथ फ्लैट नम्बर 802 में उपस्थित हो चुके थे। 
Meerut writer
सुरेश चौधरी और फखरे आलम खान

  एक बार सभी का परस्पर परिचय हुआ और फिर चर्चा का दौर एक बार आरम्भ हुआ तो विभिन्न विषयों पर निरंतर चलता रहा।
"ये हैं एडवोकेट फखरे आलम खान 'विद्यासागर'।"- मैंने फखरे आलम‌ जी का परिचय करवाते हुये कहा। 
" आज दो एडवोकेट लेखक मिल रहे हैं। यह तो और भी अच्छी बात है‌।" - विनोद प्रभाकर जी ने कहा।
"यह हमारी बदकिस्मत है की हम एडवोकेट हैं।" - फखरे आलम खान जी ने कहा।
"यह तो अच्छी बात है की आप लेखक होने के साथ-साथ एडवोकेट भी हैं।"
" यही तो बदकिस्मती है।"
"नहीं। मैं इस बात को स्वीकार नहीं करता।"- सुरेश चौधरी जी ने कहा। 
दो लेखक एडवोकेट तर्क- वितर्क करने लगे और बाकी दिलचस्पी से सुन रहे थे।
" भाई, आखिर इसमें बुरा क्या है?"- दिलशाद अली जी ने पूछा।
" एक लेखक इमोशनल होता है और एडवोकेट थोड़ा कठोर हृदय होता है। इसलिए मैं दोनों में सामंजस्य नहीं बैठा पाता।"
"एडवोकेट का तो वास्ता तो अनके लोगों से होत है, वह तो वास्तविकता को अच्छे से अभिव्यक्त कर सकता है।"- मैंने कहा।
" हाँ, वास्तविकता तो लिख सकता है लेकिन वकालत झूठ के बिना चल नहीं सकती और एक साहित्यकार को झूठ से बचना चाहिए।"
"सुरेश जी तो साहित्यकार और वकील हैं।"- विनोद प्रभाकर जी ने कहा।
"हम तो अपनी बात बता रहे हैं।"- फखरे आलम जी ने कहा।
"दोनों अलग-अलग बाते हैं।"- सुरेश चौधरी जी ने कहा-" मैं जब कचहरी में होता हूँ तो सिर्फ वकील होता हूँ, वहाँ भावुकता काम नहीं करती वहाँ सिर्फ तर्क चलेगा और जब साहित्य के क्षेत्र में होता हूँ तो वहाँ मैं वकील नहीं होता सिर्फ एक लेखक होता हूँ।"
"यह बहुत अच्छी बात कही।"- जयदेव जी जो अब तक चुप थे उन्होंने ने कहा।
" एक बात और बताऊँ।"- सुरेश चौधरी जी ने कहा- "हम वकील जब जज के सामने पेश होते हैं तो स्वयं को सबसे तेज व्यक्ति समझते हैं और सामने वाले को मूर्ख। यहाँ तक की हमें जज साहब भी अपने सामने ऐसे ही प्रतीत होते हैं।"
सुरेश चौधरी जी की बात पर एक जोरदार अट्टहास कमरे में गूंज उठा। 
    मैंने सुरेश चौधरी जी का उपन्यास 'अहसास' पढा था जो एक सामाजिक उपन्यास है। वहीं सोशल मीडिया पर सुरेश जी से चर्चा होती है तो लगता नहीं की वह इतने हाजिर जवाब, बोलते में तेज होंगे। जैसा उन्होंने कहा की वह कचहरी के अंदर और बाहर अलग -अलग हैं ठीक वैसे ही वह सोशल मीडिया पर और उस से बाहर निकल अलग व्यक्ति हैं। स्वच्छंद हास्य, जिंदादिल और मित्रों के मित्र वाले व्यक्तित्व वाले हैं सुरेश चौधरी जी।
सुरेश चौधरी और विनोद प्रभाकर जी के साथ
      विनोद प्रभाकर जी के पुत्र ने बातचीत के मध्य चाय की व्यवस्था कर रखी थी। 
"पहले चाय -नाश्ता हो जाये। बातचीत तो यू ही चलती रहेगी।"- विनोद प्रभाकर जी ने कहा।
" चाय की तो आवश्यकता है।"
ड्राइंग रूम में सब व्यवस्था थी। हम अंदर वाले कमरे से बाहर आकर बैठ गये। यहाँ और भी सुविधाजनक था।  इसी दौरान श्री आलोक सिंह खालौरी जी का आगमन भी हो गया। 
"ये हैं आलोक सिंह जी।"- जयदेव जी ने परिचय देते हुये कहा- ''इनके राजमुनि, वो और तरकीब आदि उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं।"
"अच्छा। आलोक जी कहा से हैं?"- विनोद प्रभाकर जी ने पूछा।
आगे परिचय स्वयं आलोक जी ने ही दिया। 
विनोद प्रभाकर जी को अपना उपन्यास भेंट करते हुये जयदेव चावरिया जी

राम पुजारी जी को अपना प्रथम उपन्यास भेंट करते हुये दिलशाद अली जी

लेखकों का मिलन। वाक्य स्वयं में रोमांच पैदा करता है। मैं उस रोमांच का प्रत्यक्षदर्शी था। यहाँ उपस्थित लेखकगण सोशल मीडिया के माध्यम से एक दूसरे से परिचित अवश्य थे लेकिन प्रत्यक्ष मिलन का यह प्रथम अवसर था। लेकिन यहाँ लेखक मित्रों में उत्साह, उमंग औत अपनत्व था वह अविस्मरणीय है। 
सुरेश चौधरी जी पेशे से वकील हैं लेखन उनका शौक। एक अच्छे वकील को एक अच्छा वक्ता होना अतिआवश्यक है। और सुरेश चौधरी जी जितने अच्छी व्यक्ति हैं उतने ही अच्छे वक्ता भी। उपन्यास लेखन में हो सकता है व्याकरण दोष कर जायें लेकिन बोलते वक्त तो अर्द्ध विराम का भी समुचित प्रयोग करते नजर आते हैं।  उनकी वाणी, बोलने का लहजा और शब्दावली  विशिष्ट होते हैं। 

फखरे आलम जी को कहीं काम पर जाना था इसलिए वह जाने की जल्दी में थे। पर मेजबान साथी विनोद जी का आग्रह और बाकी साथियों की विनम्र प्रार्थना के चलते वह कुर्सी से उठते-उठते फिर बैठ जाते थे।  
   अभी कोल्ड ड्रिंक का दौर चल ही रहा था की आलोक जी ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवा दी। शांत स्वभाव के आलोक जी यहाँ  महत्वपूर्ण विषय हो अभी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते थे शेष समय शांतचित्त होकर बात सुनते रहे।
           यहाँ उपस्थित हर एक लेखक की अपनी-अपनी विशेषता रही है।‌ विनोद प्रभाकर जी उस समय के लेखक हैं जब लोकप्रिय उपन्यास साहित्य का स्वर्णकाल था। विनोद प्रभाकर जी ने सुरेश साहिल जी के नाम से सामाजिक उपन्यास लेखन भी किया है।‌ सुरेश साहिल नाम कैसे पड़ा यह आगे देखते हैं।
वहीं आलोक जी का साहित्य मनोरंजक होते हुए भी अपनी एक अलग विशेषताएँ लिये हुये है। युवा लेखकों में दिलशाद अली जी के अब तक दो उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं 'सिटी आॅफ इविल' और 'युगांतर- एक प्रेम कथा' दोनों कथा स्तर पर नवीनता लिये हुये हैं। सिटी ओफ इविल तो लोकप्रिय साहित्य में एक नया प्रयोग है। और जयदेव चावरिया जी को अभी और मेहनत की अतिआवश्यकता है उनका एकमात्र उपन्यास'माइ फर्स्ट मर्डर केस' प्रकाशित हुआ है लेकिन उपन्यास का स्तर उस दौर की याद दिलाता है जब उपन्यास एक्शन से भरपूर होते थे।
    उपन्यासकार फखरे आलम खान जी सुरेश चौधरी दोनों सामाजिक उपन्यासकार हैं। समाज में घटित, वकालत क्षेत्र के अनुभवों को अपने उपन्यासों में प्रदर्शित करते हैं।
       लम्बी चर्चा के दौरान रामपुजारी का फोन आया की आप कहां हो? 
 मैंने बताया कि मैं तो यहाँ विनोद जी के फ्लैट पर हूँ और आपका इंतजार कर रहे हैं सभी। लेकिन रामपुजारी जी और सुबोध भारतीय जी प्रकाशन के संबंध में जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा जी के पुत्र वीरेन्द्र शर्मा जी के पास गये हुये थे। और राम पुजारी के आग्रह पर मुझे लेखक मित्रों का साहित्यिक आयोजन एक बार बीच में छोड़ना पड़ा।
''क्षमा के साथ एक निवेदन है।"- मैंने कहा- "रामपुजारी जी का फोन आया है तो मैं एक बार उनके पास जा रहा हूँ और उन्हें साथ लेकर ही‌ लौटता हूँ।"
"गुरप्रीत जी, टिफिन का बोल दिया है, आप खाना खाकर ही जाना।"- विनोद प्रभाकर जी ने कहा।
" नहीं सर, राम पुजारी जी की गाड़ी नीचे (फ्लैट के नीचे)  पहुँच गयी होगी। मैं जल्दी वापस आता हूँ। " - मैंने कहा "और हाँ, कोई साथी यहाँ से जायेगा नहीं, जब तक मैं वापस नहीं आता।"
   हालांकि बीच आयोजन के ऐसे जाना उचित तो न था पर मुझे आबिद रिजवी जी के यहाँ कुछ काम था और फिर राम भाई का आग्रह न टाल सका।
  
  जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा जी के घर पर श्री राम पुजारी जी, श्री सुबोध भारतीय जी और ओमप्रकाश शर्मा जी के पुत्र श्री वीरेन्द्र शर्मा जी से एक स्निग्ध मुलाकात हुयी।
   जिस कुर्सी पर बैठकर जनप्रिय जी लेखन करते थे वह कुर्सी आज भी अच्छी स्थिति पर ड्राइंग रूम में उपस्थित है। वहीं एक तरफ एक सैल्फ में ओमप्रकाश शर्मा जी के उपन्यास रखे हुये थे। यहाँ एक जानकारी यह भी मिली की ओमप्रकाश शर्मा जी का एक उपन्यास छोडकर बाकी सब उपन्यास संग्रह में उपलब्ध हैं। 
   वीरेन्द्र शर्मा जी ने विशेष आग्रह कर चाय पिलाई। वीरेन्द्र शर्मा जी और उनकी पत्नी का अपनत्व स्मरण रहेगा। 
   यहाँ से हम तीनों आदरणीय आबिद रिजवी साहब के घर पहुंचे। आबिद रिजवी जी से यह एक लम्बे समय पश्चात्‌ मुलाकात थी। इन दिनों वह अस्वस्थ थे, इसलिए कम ही बोल रहे थे। 
   बल्लू आबिद रिजवी जी का प्रिय शिष्य है। मेरा बल्लू से पूर्व परिचय भी रहा है। मैंने फोनकर बल्लू को बुलाया। जब मैं पहली बार मेरठ आया तो मुझे यहाँ से बहुत सारी किताबें मिली थी, तीन छोटे कार्टून। और वह किताबें आबिद जी के घर पर ही रखी हुयी थी। लगभग तीन साल पूर्व रखी हुयी किताबे ढूंढना मुश्किल कार्य था। बल्लू के सहयोग से हमने बहुत कोशिश की, परंतु वह किताबें न‌ मिली। हर संभावित स्थान पर खोज की, पर असफलता हाथ लगी।
    आबिद रिजवी के घर की एक विशेषता है और वह है महकदार, स्वादिष्ट चाय- नाश्ता। सुबोध भारतीय जी और राम पुजारी जी के मना करते हुये भी आबिद रिजवी जी की नातिन ने चाय-नाश्ते की प्लेटे सजा दी। 
  नाश्ते के दौरान चर्चा जारी रही। बाहर हल्की- हल्की बरसात होने लगी थी। सुबोध जी और रामपुजारी जी ने वहाँ से विदाई ली पर मैं और बल्लू पुनः पुस्तकें ढूंढने लगे। पर वह न मिली।
  मैंने भी आबिद रिजवी जी से विदाई ली और बल्लू मुझे बाईक  'ग्रीन विलेज' छोड़ने चल दिया।
  रास्ते में बल्लू ने एक बहुत अच्छी बात कही। और वह सत्य भी हुयी।
" बल्लू, आखिर वह किताबें कहां चली गयी? तीन कार्टून थे।"
"भईया, जो भी होता है अच्छे के लिए होता है। आज किताबें नहीं मिली तो इसके पीछे कोई कारण तो होगा।"- बल्लू ने उत्तर दिया। 
वास्तव में बल्लू का यह कथन दूसरे दिन सत्य साबित हुआ।
      जब मैं पुनः ग्रीन विलेज विनोद प्रभाकर जी के फ्लैट पर पहुचा तो महफिल जारी थी और रामपुजारी जी तथा सुबोध जी भी इस महफिल में उपस्थित थे। लेखकों की यह महफिल प्रकाशक के बिना अधूरी थी, यह कमी श्री सुबोध भारतीय जी ने पूरी कर दी।
यहाँ एक बात बड़ी रोचक रही। राम पुजारी जी एक लेखक हैं, पर वह इस आयोजन में एक प्रकाशक के साथ आये थे। सुबोध भारतीय जी जब भी कोई प्रकाशन की बात करते तो बाकी सब मजाक में कहते की आप हमारी किताब पर कितनी राॅयल्टी दोगे।
" राॅयल्टी तो देंगे। बस कंटेंट अच्छा होना चाहिए। बाकी राम पुजारी जी को पता है वर्तमान में प्रकाशकों का क्या हाल है।"- सुबोध भारतीय जी ने कहा।
"राम पुजारी जी आप प्रकाशक की तरफ हैं या लेखकों की तरफ, पहले यह तय कर लीजिए।"- सुरेश चौधरी जी ने हँसते हुये कहा।
" मैं तटस्थ हूँ। "
"प्रकाशक के साथ आये हैं तो प्रकाशक का साथ देंगे।"- सुबोध जी ने कहा।
" राम पुजारी जी पहले लेखक हैं।"- आलोक जी कहा।
अब राम‌ पुजारी जी अजीब कशमकश में थे आखिर किसका पक्ष ले। यह हास्य वार्ता भी काफी रोचक रही। 
सुबोध भारतीय जी जब हँसते हैं तो दिल खोकर हँसते हैं। वहीं राम‌पुजारी जी धीमे से मुस्कुरा कर काम चला लेते हैं। 
"चलो सब लेखक सहयोग करे तो मिलकर एक कहानी संग्रह निकाला जा सकता है।"
"कैसा सहयोग?"- आलोक जी ने पूछा।
" सभी लेखक आर्थिक सहयोग करें और अपनी-अपनी कहानी भेजे तो हम एक कहानी संग्रह निकाल सकते हैं।"
"अच्छा, हम आर्थिक सहयोग करें।"- सुरेश जी की बुलंद आवाज गूंजी -" हम तो आपसे राॅयल्टी की उम्मीद कर रहे थे।"
"अब सोपिजन ने एक एक संयुक्त कथा संग्रह भी निकाला है।"- जयदेव जी ने कहा।
" हाँ, उसमे मेरी भी कहानी है।"- सुरेश जी ने कहा।
तब तक जयदेव जी सोपिजन का वह कहानी संग्रह निकाल लाये थे। 
"ये देखो।"- सुरेश जी कहा-" इसमें हमारी कहानी भी है और कोई आर्थिक सहयोग भी नहीं लिया गया।"
   इस किस्से को रोकते हुये विनोद प्रभाकर जी ने उपन्यास प्रकाशन के विषय में सुबोध जी से जानकारी लेनी आरम्भ की। एक समय विनोद प्रभाकर जी प्रकाशक रह चुके हैं। वर्तमान में दो निजी शिक्षण संस्थानों के स्वामी और संचालक हैं। अपने एक नये उपन्यास पर भी काम कर रहे हैं। उसी उपन्यास के विषय में सुबोध जी और विनोद जी की चर्चा चलती रही।
   इस प्रकार यह हास्य- व्यंग्य वार्ता तब तक चलती रही जब तक सुबोध जी और राम पुजारी जी ने विदा नहीं ली। दोनों के जाने के बाद एक बार शांति छा गयी और फिर सभी एक एक कर वहाँ से विदा हो गये।
पीछे रह गये मैं और जयदेव चावरिया जी।
 'साहित्य देश' ब्लॉग के माध्यम से मेरा और सहयोगी मित्रों का एक अल्प प्रयास है उपन्यास साहित्य का संरक्षण करना और इसी प्रयास हेतु मैं 'उपन्यास यात्रा' करता हूँ। इन यात्राओं में कुछ उद्देश्य पूर्ण हो जाते हैं और कुछ अधूरे रह जाते हैं, यही अधूरे उद्देश्य आगामी यात्रा की नींव रखते हैं। 
   साहित्य संरक्षण और साहित्य की जानकारी हेतु मेरठ में यह एक छोटा सा आयोजन किया गया था। जिसमें कुछ लेखक मित्रों से मिलना हुआ, कुछ जानकारी सांझा हुयी और उस से भी बढकर जो अपनत्व मिला वह अविस्मरणीय है। यहाँ संस्मरण लिखना तो उस क्षणों को याद रखने का एक छोटा सा माध्यम है क्योंकि उन‌ लम्बी बातों को इस छोटे से पृष्ठ में समेटना संभव ही नहीं।
इस यात्रा का शेष इस लिंक पर पढें- मेरठ उपन्यास यात्रा-भाग द्वितीय

यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की -25

 वो आखिरी मुलाकात। 
अंतिम अंक, प्रस्तुति- योगेश मित्तल
योगेश मित्तल जी द्वारा लिखित संस्मरण 'यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की' शृंखला का पुस्तक रूप में प्रकाशन किया जा चुका है। इसलिए इस शृंखला को यहीं पूर्ण किया जा रहा है। आप इस शृंखला को योगेश मित्तल जी द्वारा लिखित 'वेदप्रकाश शर्मा- यादें, बातें और अनकहे किस्से' (पृष्ठ-300) नामक रचना में पढ सकते हैं।

यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की -25 अंक उस पुस्तक में से लिया गया। 


फिर महीनों बीत गये।
'एक ही नारा - केशव हमारा' भी छपकर, बिक-बिकाकर खत्म हो गई। मैं अपनी लिखी किताबों की राइटर्स कॉपी लेने भी नहीं गया। बाद में जब मेरठ गया, तब शगुन नेकहा- 'अंकल, अभी कॉपी नहीं है। वापसी आयेगी तो मैं आपके एडरेस पर पाँच कॉपी भिजवा दूँगा ।'
'नहीं, कोई जरूरत नहीं है। मैं खुद ही आते-जाते, मिल-मिलाकर ले लूँगा।' मैंने कहा। 
मुझे अच्छी तरह याद नहीं कि उसके बाद मेरा अगला चक्कर कितने महीनों या साल के बाद लगा, पर याद है कि तब शास्त्रीनगर में ही वेद के परिचितों में से किसी के यहाँ चोरी की घटना घटी थी। खास बात यह थी कि जिनके यहाँ चोरी हुई थी, वे मेरठ से बाहर थे।

बुधवार, 28 सितंबर 2022

यादें वेदप्रकाश शर्मा जी -24

 यादें वेद प्रकाश शर्मा जी  की - 24
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'यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की'  संस्मरण के रचयिता योगेश मित्तल जी इस अंक में बता रहे हैं वेद जी से जुड़े रोचक पल।
 वेद ने कहा और मैं लग गया धन्धे पे। कीबोर्ड पर अब मेरी अंगुलियाँ पहले से फास्ट चलने लगी थीं। अंग्रेजी के कीबोर्ड के किस-किस अल्फाबेट से हिन्दी के स्वर और व्यंजन के कौन-कौन से अक्षर आते हैंसारा विवरण मेरी मेमोरी में ऐसे फिक्स हो गया था कि टाइपिंग करते हुए अंगुलियों को सेकेण्ड मात्र ही लगता थालेकिन एक समस्या थीवह यह कि मैंने बाकायदा टाइपिंग नहीं सीखी थीइसलिये दोनों हाथों की अंगुलियों से टाइपिंग नहीं करता थादायें हाथ की तर्जनी ही मेरी टाइपिंग का एकमात्र औजार थी और यह स्थिति आज भी बरकरार है और अब बाकायदा टाइपिंग सीखने और दोनों हाथों की सारी अंगुलियाँ चलाने की आवश्यकता महसूस ही नहीं होती। 
यह मैंने इसलिये लिखा हैक्योंकि जो मित्र टाइपिंग नहीं जानतेलेकिन कम्प्यूटर पर काम करना चाहते हैंवे मन में किसी प्रकार की निराशा नहीं रखेंएक अंगुली से भी टाइपिंग का भरपूर मज़ा लिया जा सकता है। 

सोमवार, 26 सितंबर 2022

नये उपन्यास

 नमस्कार पाठको मित्रो,
  साहित्य देश के स्तम्भ 'नये उपन्यास' में प्रस्तुत है कुछ नये उपन्यासों की जानकारी।  और एक नये लेखक महोदय का नया उपन्यास भी आपके समक्ष प्रस्तुत है। 
1. काम्बोजनामा- राम पुजारी
प्रकाशक-      नीलम जासूस कार्यालय
      लोकप्रिय उपन्यास साहित्य के मजबूत स्तम्भ आदरणीय श्री वेदप्रकाश काम्बोज जी के लेखन से प्रेरित होकर युवा लेखक राम पुजारी जी ने काम्बोज जी की जीवनी 'काम्बोजनामा' लिखी है। 

यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की -23

यादें वेद प्रकाश शर्मा जी की - 23
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टावर वाली गली में उस समय गली के आरम्भ के किसी भी मकान के आसपास कोई नहीं था, ना ही उन मकानों के द्वार खुले हुए थे, लेकिन गली के पांचवें मकान का लोहे की सलाखों वाला मेन गेट खुला हुआ था और उसमें से एक गोरा-चिट्टा लम्बा और बेहद खूबसूरत नौजवान बाहर निकल रहा था।
मैं उसी मकान की ओर बढ़ गया। तभी मकान से दो और शख्स बाहर आये। एक कुछ छोटे कद का गेंहुए रंग का नौजवान था और दूसरा दबे सांवले रंग का औसत कद का नौजवान था, जो पहले नौजवान से कद में छोटा और दूसरे से बड़ा था।
मैं आगे बढ़ता हुआ उन तीनों अजनबियों के निकट पहुँचा और लम्बे और गोरे नौजवान से बोला-”यहाँ कोई कम्प्यूटर ठीक करने वाले रहते हैं?”
देवदत्त सर, हाँ, यही घर है।” लम्बा गोरा नौजवान बोला-”कोई काम है सर से....?”
मेरा कम्प्यूटर खराब हो गया है।”-  मैंने कहा। 
क्या गड़बड़ हुई है?”
*पता नहीं...। स्टार्ट नहीं हो रहा।” - मैंने कहा। 
कब से....?”

रविवार, 25 सितंबर 2022

यादें वेद प्रकाश शर्मा जी की - 22

यादें वेद प्रकाश शर्मा जी की - 22
 प्रस्तुति- योगेश मित्तल
सुशील कुमार से मेरी पहली मुलाकात उत्तमनगर, नन्दराम पार्क के बी ब्लॉक क्षेत्र में रामगोपाल के यहाँ हुई थी, जहाँ उन दिनों राजभारती जी द्वारा आरम्भ की गई नयी अपराध पत्रिका 'अपराध कथाएँ'  तथा माया पाकेट बुक्स में रजत राजवंशी नाम से प्रकाशित होने वाला पहला उपन्यास 'रिवाल्वर का मिज़ाज' कम्प्यूटर पर टाइप हो रहा था। 
रामगोपाल और उसकी पत्नी निशा दोनों ही सरकारी नौकरी में थे। उनके दो लड़के थे। उत्तमनगर में ही अपना मकान भी था, लेकिन रामगोपाल ने साइड बिजनेस के रूप में किसी भाई या अन्य के तीसरे नाम से कम्प्यूटर टाइपिंग और प्रिन्ट आउट का काम कर रखा था। 
       रामगोपाल के मकान में बाहर सामने खड़े व्यक्ति के हिसाब से बायीं ओर अन्दर जाने का लोहे की सलाखों का बड़ा और ऊंचा गेट था और दायीं ओर एक आम दरवाजों सा दरवाजा था, जो उस बाहरी कमरे का द्वार था, जिसमें तीन ब्लैक एण्ड व्हाइट मानीटर वाले फोर एट सिक्स कम्प्यूटर लगे थे। प्रिन्टर एक ही था। 
        जब हमने रामगोपाल के यहाँ काम आरम्भ करवाया था, तब तीन में से एक ही कम्प्यूटर पर एक भारी बदन की बहुत ही भले स्वभाव की लड़की उषा ही दिन भर टाइपिंग करती थी। शाम को जब रामगोपाल आफिस से लौटता तो टाइप्ड मैटर के पढ़े गये प्रूफ देखकर करेक्शन लगाने का काम वह स्वयं करता था। बाद में उषा की शादी तय हो गयी तो उसने काम छोड़ दिया और तब रामगोपाल के यहाँ कम्प्यूटर सीखने तीन लड़कियाँ आने लगी। एक मीना तो सामने ही रहने वाली जाट या गुर्जर लड़की थी, बाकी दोनों गढवाली लड़कियाँ आशा और कुसुम थीं। उन लड़कियों के आने के बाद रामगोपाल के यहाँ काम बहुत बढ़ गया। सीखने आई लड़कियाँ टाइपिंग भी करने लगीं थीं और रामगोपाल उनसे सिखाने के पैसे लेने की जगह काम करने के पैसे देने लगा था, लेकिन तब कम्प्यूटर जल्दी-जल्दी खराब होने लगे।  

शनिवार, 24 सितंबर 2022

शंभुप्रसाद जैन 'अशोक'

 नामशंभुप्रसाद जैन 'अशोक' 

शंभुप्रसाद जैन 'अशोक' के उपन्यास
  अशोक जी के उपन्यास मासिक पत्रिका ' रहस्य' में प्रकाशित होते रहे हैं।
  1. फांसी का संगीत - अक्टूबर 1961
  2. पहाड़ी का भूत - जनवरी-1962
  3. भूत का परिचय - अप्रैल 1963
  4. अंतिम अपराध

पत्रिका-  रहस्य मासिक
उक्त लेखक के विषय में अन्य कोई जानकारी किसी मित्र को हो तो शेयर करें।
sahityadesh@gmail.com


रविवार, 11 सितंबर 2022

My Novel List

 मेरे पास उपलब्ध उपन्यासों की सूची

Last  update 31.08.2022

उपन्यास

उपन्यासकार मित्रों के साथ 17.09.2022 मेरठ

अंजुम अर्शी

फार्मुल प्लस फार्मुला माइंस

तलाश हत्यारे की

मुजरिमों का अजायबघर

अंसार अख्तर

मैंटल मसीहा

अकरम इलाहाबादी

मौत के सौदागर

अजगर

मौत बुलाती है

अज्ञात

खूनी दरिंदा

अनिल मोहन

सीक्रेट एजेंट

100 माइल

नब्बे करोड

पहरेदार

डॉन जी

दहशत का दौर

आतंक के साये

दौलत का ताज

जैकपॉट

अमिताभ बच्चन का क्रेज और यशपाल वालिया

अमिताभ बच्चन का क्रेज और यशपाल वालिया
संस्मरण- योगेश मित्तल

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साहित्य देश ब्लॉग के स्तम्भ 'सिनेमा और साहित्य' के इस अंक में पढें आदरणीय योगेश मित्तल जी का एक रोचक संस्मरण। उपन्यासकार यशपाल वालिया जी की अमिताभ बच्चन के प्रति दीवानगी।
आजकल टीवी में मूवी चैनल इतने हो गये हैं कि हर वक़्त दसियों हिन्दी या डब की हुई फिल्में चलती रहती हैं, फिर इन्टरनेट पर फिल्म देखने की आसानी। आज की जेनरेशन में फिल्मों या किसी फिल्मी कलाकार के लिए सत्तर-अस्सी के दशक के फिल्म दर्शकों का सा पागलपन होगा, मुझे नहीं लगता। 
उन दिनों पहले राजेश खन्ना और बाद में अमिताभ बच्चन ने लोकप्रियता के झण्डे ही गाड़ दिये थे।
अमिताभ बच्चन की कई फिल्मों ने उन दिनों खासा हंगामा किया था! खूब चर्चा का विषय बनी थीं और खूब हिट हुई थी।
      आम दर्शकों की तरह लेखकों में भी अमिताभ बच्चन का क्रेज बढ़ रहा था। वेद प्रकाश शर्मा अमिताभ के तगड़े फैन थे, लेकिन मेरी जानकारी में तब जितने भी लेखक थे, उनमें से एक ही था, जिसने अमिताभ बच्चन की नई लगने वाली फिल्म - 'पहला दिन - पहला शो' ही देखनी हुआ करती थी और इस जुनून के चलते बहुत से सिनेमा हॉल के बाहर टिकट ब्लैक करने वाले ब्लैकियों से भी खासी पहचान कर ली थी।
ऐसे जुनूनी लेखक थे - यशपाल वालिया।

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मेरठ उपन्यास यात्रा-01

 लोकप्रिय उपन्यास साहित्य को समर्पित मेरा एक ब्लॉग है 'साहित्य देश'। साहित्य देश और साहित्य हेतु लम्बे समय से एक विचार था उपन्यासकार...