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मंगलवार, 27 जुलाई 2021

वह विनय प्रभाकर है और रामनारायण पासी भी- विजयशंकर चतुर्वेदी

काफी सयाना है तु। आज से दुश्मनी नहीं दोस्ती बनाना मांगता है। क्योंकि अपन भी तेरा भाई बंद है। फरक है तो दोनों के काम करने के स्टाइल में। तू तो खूब माथा-पच्ची करके प्लान बनाता है। लोगों के अपनी मिठी बातों के जाल में फसाकर ऐसा बेवकूफ बनाता है कारण तू आज तक पुलिस के हाथ नहीं लगा, बरोबर? जबकि अपन का स्टाइल एकदम शार्टकट है, चापर या तलवार या तमंचा दिखाया कि तुरंत सामने वाले का सारा माल अपन के पास, क्या?

    ये लाइनें हैं विनय प्रभाकर के जंगी उपन्यास `मौत आयेगी सात तालों में` की। रेल्वे स्टालों में देश भर के यात्रियों के मनोरंजन का साधन होते थे विनय प्रभाकर के ऐसे उपन्यास। जलजलाते संवाद, रहस्य-रोमांच से भरी कहानी और शब्दों के जादू में बांध लेने वाली पठनीयता विनय प्रभाकर की पूंजी है। विनय प्रभाकर चर्चगेट में  एमटीएनएल यानि महानगर टेलिफोन निगम लिमिटेड के कर्मचारी हैं। रेल्वे की इमारत में लाइनमैन का पद संभाल रहे हैं। लोअर परेल की सीबी गुलवाली चाल में रहते हैं। दस बाई बारह के कमरे में। पानी खोली के अंदर आता है, टेलिफोन पड़ोसी के सांझे में और संडास पूरी चाल के।

     सस्पेंस लिखने वाले विनय प्रभाकर के नाम के लेकर  भी कुछ कम सस्पेंस नहीं है। उनका असली नाम है रामनारायण पासी और वह देख चुके हैं उमर के अड़तीस वसंत। रामनारायण तीन भाइयों और एक बहन में सबसे बड़े हैं। वैसे तो उनका मुलुक उत्तर प्रदेश है। प्रतापगढ़ जिले का संगीपुल उनका गाँव है। लेकिन पढाई लिखाई मुंबई में होने और बचपन से लेकर जवानी यहीं बिताने के कारण यही अपना मुलुक लगने लगता है। छोटा भाई जगदीश तो अब गाँव लौट गया है, वरना वह भी पिता रामेश्वर के साथ इसी खोली में रहता और सायन के एक म्युनिसिपल स्कूल में पढता। खुद रामनारयण ने हाईस्कूल पास किया परेल की तुलसी मानस स्कूल से। पिता चिंचपोकली की अपोलो मिल में मुलाजिम थे। दस-बारह साल पहले रियायर होकर गाँव चले गये अपने पिता की सेवा करने। रामनारायण की दादी तो अभी-अभी गुजरी है, छह-सात माह पहले।

   रामनारायण की शादी तब हो गई थी जब वह तीन-चार साल के ही थे। उनकी पत्नी कमला देवी तब रही होंगी यही कोई दो-तीन साल की। माताओं ने गोदी में बिठाकर फेरे लगावायें होंगे। पता नहीं उस उमर में इन वर-वधू के नाम भी रखे गये थे या नहीं। दूध पीने की उमर में शादी भविष्य की निश्चिंतता के लिये थी। कमला देवी पास के ही अहेंठा गाँव की है। उनको तो पढाने -लिखाने का ख्याल भी उनके परिवार वालों नहीं आ सकता था। वे लोग खेती-पाती तो करते थे नहीं। नाच-गाना, तमाशा, नौटंकी और नटों के खेल दिखाकर जिंदगी गुजारते आये थे। लेकिन रामनारायण के पिता मुंबई में थे, सो उन्होंने यहां बुला लिया सात साल की उमर में पढने के लिये।

  मां सदा गाँव में ही रही। उन्हें अस्थमा था। कभी-कभी दो-तीम महिने के लिये मुंबई आती थी इलाज के लिये। लेकिन अस्थमा बीच-बीच में ठीक होकर फिर आक्रमण कर देता था फेंफड़ों पर। खांसते-खांसते दोहर हो जाती। आँखों से आँसू और मुँह से लार गिरने लगती। इस तकलीफ से छुटकारा उन्हें तब मिला, जब वह छह साल पहले स्वर्ग सिधार गयी।

           पिताजी ने सभी भाई-बहनों की शादियां बचपन में ही कर दी थी। इसलिये उमर पा-पाकर सब बाल -बच्चे वाले होने लगे। इसमें भी क्या हुआ कि शादी के बाद तीन, पांच और अधिकतम ग्यारह वर्ष का अंतराल हो सकता था। रामनारायण अभी पढ ही रहे थे कि ग्यारह बरस पूरे हो गये। कमला देवी के घरवालों ने संदेश भेजा, लड़की सयानी हो गयी है। अब यह आपकी अमानत हम ज्यादा दिन अपने घर नहीं सहेज सकते, विदा करा ले जाइये। कमला देवी रामनारायण के घर आ गयी।

   गौने के बाद बच्चा हो गया। नाम रखा गय राजेश कुमार। लेकिन अब तक रहना गाँव में ही हो रहा था इन लोगों का। हाई स्कूल पास करने के बाद रामनारायण के लिये आगे पढाई जारी रख पाना मुश्किल हो गया। नौकरी तलाशी जाने लगी। इनके एक चाचा एमटीएनएल में, उन्होंने रोजाना मजदूरी के लिये इनको रखवा दिया टेलिफोन विभाग में।  यह 1971 की बात है। भले नौकर अस्थायी थी, लेकिन इसने बीवी-बच्चों को मुंबई लाने का हौसला दिया।  फिर छोटा भाई भी अपना परिवार ले आया। सबसे छोटा तो गाँव में ही घूम रहा था, पढाई-लिखाई छोड़कर। लेकिन यहाँ दस-बारह की खोली दो परिवारों के बोझ से चरमराने लगी।

    स्कूल के दिनों से रामनारायण को जासूसी उपन्यास पढने का नशा था।   लेकिन पिता की नजर बचाना एक बड़ी कारीगरी का काम था। चोरी-चोरी किराये से उपन्यास पढते पड़ते थे। सुरेन्द्र मोहन पाठक, वेदप्रकाश शर्मा और कर्नल रंजीत रामनारायण को पागल किये रहते थे। एमटीएनएल की नौकरी पक्की तो हो चली थी, पर घर का खर्चा नहीं चल पा रहा था।

  रामनारायण के दिमाग में आइडिया कौंधा कि क्यों न पाठक, शर्मा और कर्नल रंजीत क तरह वह भी थ्रिलर और सस्पेंस भरा एक उपन्यास लिख डाले। पैसों के ढेर लग जायेंगे। लाखों लोग उन्हें उन्हें पढेंगे, शोहरत मिलेगी ब्याज में।

  तो साब हो गये शुरु। लिख डाला एक पूरा उपन्यास 1990 में। भेजा वेदप्रकाश शर्मा जी के तुलसी पब्लिकेशन में। उन दिनों तुलसी वालों का सबसे बड़ा नाम था प्रचार था। शर्मा जी ने उपन्यास पढ तो लिया पर कई कमियों गिनाते हुये छापने से इंकार कर दिया और कहा, कहीं और ट्राई करो।

  पाण्डुलिपि रामनारायण के पास लौट आयी। शर्मा जी ने एक काम अच्छा किया कि मनोज पॉकेट के पास भेजने का मशविरा लिखा। मनोज वालों से पासी जी ने संपर्क साधा। उन्होंने छापा, लेकिन इस शर्त पर की नाम पासी जी का नहीं बल्कि कोई व्यापारिक नाम जायेगा, जो तयशुदा होते हैं। खैर, 1992 में वही उपन्याल छपा, `दौलत मेरी माँ` शीर्षक  से और नाम गया- अर्जुन पण्डित का।

 रामनारायण यानि अर्जुन पण्डित ने पैसों की बात की की तो पूरे उपन्यास के लिये चैक मिला तीन हजार रुपल्ली का। कॉपीराइट वगैरह का तो जिक्र भी नहीं था कहीं। छटपटाकर पासी ने दूसरे प्रकाशकों से पत्र व्यवहार किया, उनके जवाब तो और भी दिल डुबा देने वाले थे। हताश होकर दूसरा उपन्यास `मर्डर स्पेशलिस्ट` भी पासी ने भेज दिया मनोज पॉकेट बुक्स में। यह भी छपा अर्जुन पण्डित के नाम से। तब से आज तक ये सिलसिले जारी हैं। बीच में एक बार इन लोगों ने कहा कि कम्पनी घाटे में जा रही है, इसलिये फिलहाल कुछ न भेजो। तब रामनारायण ने अपना एक उपन्यास दिया मेरठ के गौरी पॉकेट बुक्स को, जो छपा-`जुर्म का रखवाला` शीर्षक से। अब तक पासी  दस उपन्यास लिख चुके थे, इन छह सालों में, लेकिन मजदूरी बताने लायक भी नहीं मिलती। ऊपर से शोहरत कमा रहा है विनय प्रभाकर।

दिनभर दिमाग में उपन्यास के चरित्र कवायद करते रहते हैं पासी के, लेकिन जब काम का वक्त होता है तो वह सब कुछ भूल जाते हैं। काम पहले है, फिर लिखना। किसी भी उपन्यास को लिखते समय वह सस्पेंस पैदा  करते हैं और फिर रोमांच पैदा करते हैं कि अगले पल क्या होगा? लेकिन इस सारी मेहनत का फल दूसरे लोग चख रहे हैं। हालात यह कि अपने ही लिखे उपन्यास की प्रतियां प्रकाशक से पाने के लिये दस बार लिखना पड़ता है। उपन्यास पर असली नाम न जाने से  कॉपीराइट भी प्रकाशक ही अपने हाथ में रखते हैं, चाहे जिस भाषा में छापें, चाहे जितने संस्करण निकाले लेखक का कोई भी दावा नहीं बनता।

   इधर जो पारिश्रमिक बढाया है प्रकाशक ने वह पृष्ठों के हिसाब से कुछ भी नहीं है। पहले सौ-डेढ सौ पेज का उपन्यास छाप देते थे, पर अब उन्हें 220-230 पेज हर हाल में चाहिये। कई बार रामनारायण को तो लगता था कि इस चक्कर को छोड़ ही दें, पर यह ऐसी गाढी कमाई है जिससे घर चलाने में थोड़ी ही सही मदद मिलती है।

    कुछ साहित्यिक रचानाएं भी पासी जी ने लिखी, प्रकाशकों को भेजा भी, पर हर जगह से यही जही जवाब आया कि पुराने लेखकों की पाण्डुलिपियों का ढेर लगा है, नये लोगों को अभी मौका नहीं।

        लोअर परेल की सीबी गुलवाली चाल में बैठकर लिखना को क्या बात करना तक संभव नहीं है। बड़ा लड़का राजेश इंटर में है, बेटी गीता दसवीं में और सबसे छोटा बृजेश सातवीं में है। इनकी पढाई का नुकसान भी तो होगा न अगर घर में लिखने पढने बैठेंगे रामनारायण। इसलिये वह दफ्तर की टेबिल को राइटिंग टेबिल के तौर पर इस्तेमाल कर लेते हैं। दफ्तर में टेलिफोन के उखड़े तार, प्लास्टिक की पट्टियां और पाइपों के अलावा दीवारों की उखड़ती परत का माहौल है। आठ बजे आकर रामनारायण जुट जाते हैं लिखने मेंस लेकिन नौ बजे रुक जाती है उनकी कलम....यह वक्त है उनकी डयूटी शुरु होने का-फिर जब बजते हैं साढे पांच तो फिर उठती है कलम दुनिया भर के रहस्य-रोमांच को आकार देने के लिये।

  आठ बजे थैला उठा लेते हैं रामनारायण घर जाने के लिये। वहाँ बीवी-बच्चे इंतजार कर रहे होते हैं उनका।

पिता ने बहुत दवाब डाला था रामनारायण पर कि अपने तीनों बच्चों का भी योग्य वर-वधू देखकर तीन-चार साल की उम्र में ब्याह रचा दो, पर रामनारायण अड़ गये बोले,-जैसा हमारे साथ हुआ, हमारे बच्चों के साथ क्यों हो? पढेंगे-लिखेंगे, नौकरी -चाकरी करेंगे, अपना भविष्य खुद तय कर लेंगे। इधर एक उपन्यास आधा लिख चुके हैं पासी। वह कोशिश करेंगे कि इस बार प्रकाशक मजदूरी थोड़ी बढा कर दे, वरना कुछ और सोचना पड़ेगा।

प्रस्तुति- विजयशंकर चतुर्वेदी

 यह आलेख जनसत्ता समाचार पत्र के `सबरंग`अंक में `लोग हाशिए पर` स्तंभ में 24 अगस्त 1997 में प्रकाशित हुआ था।

 यह आलेख हम तक पहुँचाने के लिये रामनारायण पासी जी के पुत्र राजेश पासी जी का हार्दिक धन्यवाद।

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