अजिंक्य शर्मा जी के उपन्यास 'मौत अब दूर नहीं' के लेखकीय से
प्रिय पाठकों,
अपना पहला उपन्यास लेकर आपकी सेवा में प्रस्तुत हूं। ये नॉवल मूलरूप से ये एक मर्डर मिस्ट्री और थ्रिलर का संगम ही है और कुछ नवीनता लाने की भी कोशिश की है हालांकि ये कोशिश कितनी सफल रही, इसका निर्णय तो आपको ही करना होगा।
दोस्तों, मैं ये कहने से भी अपने आपको नहीं रोक पा रहा हूं कि एक वक्त था, जब मुझे ऐसा लगने लगा था कि अब हिन्दी जासूसी उपन्यासों का दौर खत्म हो गया। जासूसी उपन्यास बीते कल की बात हो गए। वर्षों तक उपन्यास जगत के महान उपन्यासकारों के अनेक उपन्यास पढऩे के बाद मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि ऐसा भी हो सकता है। लेकिन जो चीज मुझे इस पर विश्वास करने के लिए मजबूर कर रही थी, वो ये थी कि जिस शहर में मैं रहता हूं, वहां उपन्यासों का न मिलना। यहां एक भी दुकान पर उपन्यास उपलब्ध नहीं होते। बहुत से लोग उपन्यासों के बारे में जानते ही नहीं। जो गिने-चुने लोग जानते हैं, उनमें से भी ज्यादातर उपन्यासों को अच्छा नहीं समझते। घटिया स्तर की किताबें मानते हैं।
मैं स्वयं एक दिन एक पार्क में बैठा एक उपन्यास पढ़ रहा था तो अचानक एक बुजुर्गवार आए और उपन्यास पढऩे के लिए मुझे जमकर फटकार लगाने लगे। क्यों? क्योंकि उनकी राय में उपन्यास पढऩा अच्छा नहीं होता। क्यों अच्छा नहीं होता? ये मैंने उनसे पूछा नहीं लेकिन हम लोग समझ सकते हैं कि ऐसी विचारधारा के पीछे क्या वजह हो सकती है। वजह थी कुछ ऐसे उपन्यासों का चलन, जिनमें सचमुच कुछ भी बेसिरपैर की कहानी और अनावश्यक रूप से अश्लीलता आदि परोस दी जाती थी। लेकिन ऐसा सिर्फ उपन्यासों में ही तो नहीं होता है। फिल्म जगत में भी तो कई बड़े-बड़े प्रोडक्शन्स की ऐसी फिल्में आईं है-और आती रहती हैं-जिनमें स्टोरी के नाम पर बकवास और जबरन की अशलीलता होती है। लेकिन फिल्में देखने तो लोग जाते हैं। फिल्में तो उपन्यासों की तरह खत्म होने के कगार पर नहीं पहुंची हुईं हैं। फिर उपन्यासों के साथ ही इस तरह का भेदभावपूर्ण रवैया क्यों?
विदेशों में क्यों आज भी नॉवेल्स उतने ही मकबूल हैं? उतने ही पसंद किए जाते हैं? और भारत में बिकने वाले नॉवेल्स से कई-क्ई गुना अधिक दामों पर भी हाथों-हाथ बिक जाते हैं? शायद इसलिए क्योंकि हमारे देश में लोग क्वालिटी पर नहीं क्वांटिटी में अधिक भरोसा करते हैं। फिल्म में कहानी-भले ही वो बेसिरपैर की ही क्यों न हो, मैं सारी फिल्मों की बात नहीं कर रहा, उसी तरह जिस तरह सारे उपन्यास बकवास नहीं होते-हीरो, हीरोइन, मारधाड़, रोमांस, ऑडियो-विजुअल इफैक्ट्स यानी मनोरंजन की कई सारी चीजें एक साथ उपलब्ध होती हैं। ऐसे में कहानी पसंद नहीं आती तो हो सकता है दर्शक को गाने पसंद आ जाएं, गाने भी पसंद न आएं तो हो सकता है हीरो-हीरोइन पसंद आ जाएं, वो भी पसंद न आएं तो हो सकता है कि फिल्मांकन मात्र ही पसंद आ जाए, सीनरी ही पसंद आ जाए।
यहां मैं ये भी कहना चाहूंगा कि उपन्यासों में जिस अशलीलता को इतना बुरा समझा जाता है, पर्दे पर लोग उसे उतना ही पसंद करते हैं। यानि फिल्म की कहानी, गाने वगैरह पसंद न भी आएं तो भी नायिका या सहनायिका के उत्तेजक हाव-भाव, कुछ गर्म सीन फिल्म को चला देने की क्षमता रखते हैं। लेकिन वो चीज उपन्यासों में होती है तो उपन्यासें बदनाम हो जाती हैं। निकृष्ट हो जाती हैं। समाज को बिगाडऩे का काम करने लगती हैं। ऐसा क्यों?
ऐसा कह कर मैं उपन्यासों में अश्लीलता का समर्थन नहीं कर रहा हूं-मेरे स्वयं के नॉवल में मैने इससे बचने की पूरी कोशिश की है-बल्कि मैं ये कहने की कोशिश कर रहा हूं कि उपन्यासों के साथ ऐसा भेदभावपूर्ण रवैया आखिर क्यों अपनाया जाता है?
खैर, इस विषय पर तो चर्चा बहुत ही लम्बी हो सकती है और पहले मैं इस मुद्दे पर प्रबुद्ध पाठक वर्ग के विचार जानना चाहूंगा। अपने आसपास के परिवेश से मुझे ऐसा अहसास होने लगा था कि हिन्दी जासूसी उपन्यासों का दौर लगभग खत्म हो चुका है। मेरे पूरे शहर में एक भी लाइब्रेरी नहीं है। उनकी जगह कुकुरमुत्ते की तरह मोबाइलों की दुकानें खुल गईं हैं। कुछ बड़े रेलवे स्टेशनों के बड़े बुकस्टॉल पर भले ही कुछ उपन्यास उपलब्ध हो जाएं वरना डेढ़-दो दशक पूर्व तक वो जो लाइब्रेरियां हुआ करती थीं, जिनमें उपन्यासों, कॉमिक्सों के भण्डार हुआ करते थे, उनके दर्शन अब दुर्लभ ही हो गए हैं।
बनइसी दौरान सोशल मीडिया के माध्यम से मैं श्री राजू जाचक से मिला, जो कि न सिर्फ एक प्रबुद्ध पाठक हैं बल्कि पाठकवर्ग को जोडऩे की दिशा में भी उन्होंने अद्भुत कार्य किया है, जिसके प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में मैं स्वयं आपके बीच उपस्थित हूं। इस बेशकीमती तोहफे के लिए मैं राजू भाई का विशेष रूप से आभार व्यक्त करना चाहूंगा। उन्होंने मुझे सोशल मीडिया में पुस्तकप्रेमी वर्ग से परिचित कराया। तब मैंने जाना कि लोगों ने उपन्यासों को पूरी तरह भूला नहीं दिया है। अब भी लोग उपन्यासें पढ़ते हैं। लोगों में उपन्यासों, कॉमिक्सों के प्रति प्रेम अब भी बरकरार है। रोमांचक कथानक के लिए पन्ने पलटने का जुनून, वो दीवानगी अब भी लोगों कायम है।
साथ ही मैं सर्वश्री हीरा वर्मा, किरन चौधरी, चन्दन छविन्द्र, धर्मेन्द्र त्यागी, स्वीट विक्की जो सचमुच में बहुत स्वीट हैं, राशिद भाई, सतेंद्र सिंह, मुकेश देवरानी सर, दिग्विजय सिंह, मनीष भाई सहित सोशल मीडिया के अपने सभी दोस्तों का भी आभार व्यक्त करना चाहूंगा, जो मेरे प्रेरणास्त्रोत बने। सभी दोस्तों के नाम यहां लिखूंगा तो दस पन्ने तो भरने तय हैं। वैसे भी दोस्तों का मुकाम दिल में होता है, जबान पर उनका नाम हो या न हो।
कुछ नए उभरते हुए उपन्यासकारों से भी मुझे प्रेरणा मिली हालांकि उनकी समानता कर पाने लायक मैं खुद को नहीं समझता। और पुराने उपन्यासकार तो प्रेरणा के स्त्रोत रहे ही हैं। इस शेर ने भी मुझे बहुत मुतमईन किया, जो सच्चाई भी बयां करता है और आंखों में नमी भी ला देता है- ‘कागज की महक ये नशा रूठने को है, ये आखिरी सदी है किताबों से इश्क की।’ तो अब ये जिम्मेदारी पाठकों के साथ-साथ हम लेखकों पर भी आयद होती है कि हम कागजों की महक को बरकरार रखने की कोशिश करें, इस नशे को न भूलने दें, इसे किताबों की आखिरी सदी न बनने दें। (वैसे इसे विसंगति ही कहा जाएगा कि ये बात एक ऐसा शख्स कह रहा है, जिसकी खुद की किताब ई-बुक के रूप में प्रकाशित हो रही है, कोई हार्डकॉपी के रूप में नहीं) और इसमें हम कितना कामयाब रहते हैं, इसका फैसला तो आने वाला वक्त ही करेगा। नॉवल पढऩे के पश्चात मुझे अपनी अमूल्य राय से अवश्य अवगत कराएं।
ajinkyasharma181@yahoo.in
आपके पत्रों की प्रतीक्षा में।
आपका अपना -
अजिंक्य शर्मा
प्रिय पाठकों,
अपना पहला उपन्यास लेकर आपकी सेवा में प्रस्तुत हूं। ये नॉवल मूलरूप से ये एक मर्डर मिस्ट्री और थ्रिलर का संगम ही है और कुछ नवीनता लाने की भी कोशिश की है हालांकि ये कोशिश कितनी सफल रही, इसका निर्णय तो आपको ही करना होगा।
दोस्तों, मैं ये कहने से भी अपने आपको नहीं रोक पा रहा हूं कि एक वक्त था, जब मुझे ऐसा लगने लगा था कि अब हिन्दी जासूसी उपन्यासों का दौर खत्म हो गया। जासूसी उपन्यास बीते कल की बात हो गए। वर्षों तक उपन्यास जगत के महान उपन्यासकारों के अनेक उपन्यास पढऩे के बाद मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि ऐसा भी हो सकता है। लेकिन जो चीज मुझे इस पर विश्वास करने के लिए मजबूर कर रही थी, वो ये थी कि जिस शहर में मैं रहता हूं, वहां उपन्यासों का न मिलना। यहां एक भी दुकान पर उपन्यास उपलब्ध नहीं होते। बहुत से लोग उपन्यासों के बारे में जानते ही नहीं। जो गिने-चुने लोग जानते हैं, उनमें से भी ज्यादातर उपन्यासों को अच्छा नहीं समझते। घटिया स्तर की किताबें मानते हैं।
मैं स्वयं एक दिन एक पार्क में बैठा एक उपन्यास पढ़ रहा था तो अचानक एक बुजुर्गवार आए और उपन्यास पढऩे के लिए मुझे जमकर फटकार लगाने लगे। क्यों? क्योंकि उनकी राय में उपन्यास पढऩा अच्छा नहीं होता। क्यों अच्छा नहीं होता? ये मैंने उनसे पूछा नहीं लेकिन हम लोग समझ सकते हैं कि ऐसी विचारधारा के पीछे क्या वजह हो सकती है। वजह थी कुछ ऐसे उपन्यासों का चलन, जिनमें सचमुच कुछ भी बेसिरपैर की कहानी और अनावश्यक रूप से अश्लीलता आदि परोस दी जाती थी। लेकिन ऐसा सिर्फ उपन्यासों में ही तो नहीं होता है। फिल्म जगत में भी तो कई बड़े-बड़े प्रोडक्शन्स की ऐसी फिल्में आईं है-और आती रहती हैं-जिनमें स्टोरी के नाम पर बकवास और जबरन की अशलीलता होती है। लेकिन फिल्में देखने तो लोग जाते हैं। फिल्में तो उपन्यासों की तरह खत्म होने के कगार पर नहीं पहुंची हुईं हैं। फिर उपन्यासों के साथ ही इस तरह का भेदभावपूर्ण रवैया क्यों?
विदेशों में क्यों आज भी नॉवेल्स उतने ही मकबूल हैं? उतने ही पसंद किए जाते हैं? और भारत में बिकने वाले नॉवेल्स से कई-क्ई गुना अधिक दामों पर भी हाथों-हाथ बिक जाते हैं? शायद इसलिए क्योंकि हमारे देश में लोग क्वालिटी पर नहीं क्वांटिटी में अधिक भरोसा करते हैं। फिल्म में कहानी-भले ही वो बेसिरपैर की ही क्यों न हो, मैं सारी फिल्मों की बात नहीं कर रहा, उसी तरह जिस तरह सारे उपन्यास बकवास नहीं होते-हीरो, हीरोइन, मारधाड़, रोमांस, ऑडियो-विजुअल इफैक्ट्स यानी मनोरंजन की कई सारी चीजें एक साथ उपलब्ध होती हैं। ऐसे में कहानी पसंद नहीं आती तो हो सकता है दर्शक को गाने पसंद आ जाएं, गाने भी पसंद न आएं तो हो सकता है हीरो-हीरोइन पसंद आ जाएं, वो भी पसंद न आएं तो हो सकता है कि फिल्मांकन मात्र ही पसंद आ जाए, सीनरी ही पसंद आ जाए।
यहां मैं ये भी कहना चाहूंगा कि उपन्यासों में जिस अशलीलता को इतना बुरा समझा जाता है, पर्दे पर लोग उसे उतना ही पसंद करते हैं। यानि फिल्म की कहानी, गाने वगैरह पसंद न भी आएं तो भी नायिका या सहनायिका के उत्तेजक हाव-भाव, कुछ गर्म सीन फिल्म को चला देने की क्षमता रखते हैं। लेकिन वो चीज उपन्यासों में होती है तो उपन्यासें बदनाम हो जाती हैं। निकृष्ट हो जाती हैं। समाज को बिगाडऩे का काम करने लगती हैं। ऐसा क्यों?
ऐसा कह कर मैं उपन्यासों में अश्लीलता का समर्थन नहीं कर रहा हूं-मेरे स्वयं के नॉवल में मैने इससे बचने की पूरी कोशिश की है-बल्कि मैं ये कहने की कोशिश कर रहा हूं कि उपन्यासों के साथ ऐसा भेदभावपूर्ण रवैया आखिर क्यों अपनाया जाता है?
खैर, इस विषय पर तो चर्चा बहुत ही लम्बी हो सकती है और पहले मैं इस मुद्दे पर प्रबुद्ध पाठक वर्ग के विचार जानना चाहूंगा। अपने आसपास के परिवेश से मुझे ऐसा अहसास होने लगा था कि हिन्दी जासूसी उपन्यासों का दौर लगभग खत्म हो चुका है। मेरे पूरे शहर में एक भी लाइब्रेरी नहीं है। उनकी जगह कुकुरमुत्ते की तरह मोबाइलों की दुकानें खुल गईं हैं। कुछ बड़े रेलवे स्टेशनों के बड़े बुकस्टॉल पर भले ही कुछ उपन्यास उपलब्ध हो जाएं वरना डेढ़-दो दशक पूर्व तक वो जो लाइब्रेरियां हुआ करती थीं, जिनमें उपन्यासों, कॉमिक्सों के भण्डार हुआ करते थे, उनके दर्शन अब दुर्लभ ही हो गए हैं।
बनइसी दौरान सोशल मीडिया के माध्यम से मैं श्री राजू जाचक से मिला, जो कि न सिर्फ एक प्रबुद्ध पाठक हैं बल्कि पाठकवर्ग को जोडऩे की दिशा में भी उन्होंने अद्भुत कार्य किया है, जिसके प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में मैं स्वयं आपके बीच उपस्थित हूं। इस बेशकीमती तोहफे के लिए मैं राजू भाई का विशेष रूप से आभार व्यक्त करना चाहूंगा। उन्होंने मुझे सोशल मीडिया में पुस्तकप्रेमी वर्ग से परिचित कराया। तब मैंने जाना कि लोगों ने उपन्यासों को पूरी तरह भूला नहीं दिया है। अब भी लोग उपन्यासें पढ़ते हैं। लोगों में उपन्यासों, कॉमिक्सों के प्रति प्रेम अब भी बरकरार है। रोमांचक कथानक के लिए पन्ने पलटने का जुनून, वो दीवानगी अब भी लोगों कायम है।
साथ ही मैं सर्वश्री हीरा वर्मा, किरन चौधरी, चन्दन छविन्द्र, धर्मेन्द्र त्यागी, स्वीट विक्की जो सचमुच में बहुत स्वीट हैं, राशिद भाई, सतेंद्र सिंह, मुकेश देवरानी सर, दिग्विजय सिंह, मनीष भाई सहित सोशल मीडिया के अपने सभी दोस्तों का भी आभार व्यक्त करना चाहूंगा, जो मेरे प्रेरणास्त्रोत बने। सभी दोस्तों के नाम यहां लिखूंगा तो दस पन्ने तो भरने तय हैं। वैसे भी दोस्तों का मुकाम दिल में होता है, जबान पर उनका नाम हो या न हो।
कुछ नए उभरते हुए उपन्यासकारों से भी मुझे प्रेरणा मिली हालांकि उनकी समानता कर पाने लायक मैं खुद को नहीं समझता। और पुराने उपन्यासकार तो प्रेरणा के स्त्रोत रहे ही हैं। इस शेर ने भी मुझे बहुत मुतमईन किया, जो सच्चाई भी बयां करता है और आंखों में नमी भी ला देता है- ‘कागज की महक ये नशा रूठने को है, ये आखिरी सदी है किताबों से इश्क की।’ तो अब ये जिम्मेदारी पाठकों के साथ-साथ हम लेखकों पर भी आयद होती है कि हम कागजों की महक को बरकरार रखने की कोशिश करें, इस नशे को न भूलने दें, इसे किताबों की आखिरी सदी न बनने दें। (वैसे इसे विसंगति ही कहा जाएगा कि ये बात एक ऐसा शख्स कह रहा है, जिसकी खुद की किताब ई-बुक के रूप में प्रकाशित हो रही है, कोई हार्डकॉपी के रूप में नहीं) और इसमें हम कितना कामयाब रहते हैं, इसका फैसला तो आने वाला वक्त ही करेगा। नॉवल पढऩे के पश्चात मुझे अपनी अमूल्य राय से अवश्य अवगत कराएं।
ajinkyasharma181@yahoo.in
आपके पत्रों की प्रतीक्षा में।
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