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सोमवार, 31 मई 2021
किस्सा प्रेम बाजपेयी का
किस्सा तब का है जब प्रेम बाजपेयी जी- 33 आराम पार्क,रामनगर,दिल्ली में रहते थे।
मनोज पॉकेट बुक्स और राज पॉकेट बुक्स (बाद में राजा पॉकेट बुक्स) के रास्ते अलग-अलग हो चुके थे।अब तक, 13 साल से 'मनोज पॉकेट बुक्स' के लिए उपन्यास लिख रहे 'प्रेम' जी के लिए इस रिश्ते को अब और आगे खींचना मुश्किल हो गया था।
अंततः 'तन चुभी कीलों' के मुखड़े से शुरू होने वाला 'गीत'...'सौतन और सुहागन' के अंतरे से गुज़रता हुआ 'क्षमादान' पर जाकर द एण्ड हो गया।
'मनोज' जी ने अपनी 'पार्टी' से 'बाजपेयी' जी को निकाल दिया।
उस उपन्यासकार को जिसके लिए तब 'ठण्डा मतलब कोकाकोला' के अंदाज़ में पंच लाइन हुआ करती थी। "मनोज पॉकेट बुक्स का अर्थ है 'प्रेम बाजपेयी' का नया उपन्यास।
डबडबाई आँखों से 'प्रेम' जी ने अंतिम बार 'मनोज' जी की तरफ़ देखा. मन-ही-मन सफ़र को याद किया और नियति मानते हुए विदा ली।
बहू हो तो ऐसी- प्रेम बाजपेयी |
रविवार, 30 मई 2021
नौकरी डाॅट काॅम और वेदप्रकाश शर्मा
जासूसी साहित्य में कुछ अलग हटकर लिखने का श्रेय 'सस्पेंश के बादशाह वेदप्रकाश शर्मा' को जाता है। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों और सत्य घटनाओं पर आधारित काल्पनिक उपन्यास लिखें हैं।
उनकी यही विशेषता उन्हें बाकी लेखकों से एक अलग मुकाम पर स्थापित करने में सहायक है। लेकिन कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है, जाना था जापान पहुँच गये चीन समझ गये ना।लेखक अपने उपन्यास के प्रकाशन से पूर्व उपन्यास की थीम कुछ और घोषित करता है और उपन्यास का कथानक कुछ और हो जाता है।
यह ऐसे ही नहीं हो जाता। यह तब की घटना है जब वेदप्रकाश शर्मा जी एक खतरनाक बीमारी से जूझ रहे थे। बस तभी राजा पॉकेट बुक्स से वेदप्रकाश शर्मा जी के नाम से यह उपन्यास प्रकाशित हुआ था।थी
शुक्रवार, 28 मई 2021
कहानी उपन्यासकार राजहंस की- 06
हिन्द व मनोज Vs. विजय पाकेट बुक्स
ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग की बात पर मैं मुस्कुराया- "जरूर चन्दर ने बताया होगा आपको...?"
"तुझे कैसे मालूम....? " अब की बार चौंकने की बारी ज्ञान की थी!
मैं मुस्कुराया -"चन्दर की दुकान, मनोज की दुकान से बिल्कुल सटी हुई है! उसके कान मनोज में होने वाली बातों पर अक्सर लगी रहती हैं! और मनोज में लगभग सभी बुलन्द आवाज में बात करने वाले हैं! चन्दर ने कुछ टूटा-फूटा सुना और आपको वही सुना दिया!"
"मतलब बात सही है ना! मुकदमा शुरू हो गया!"
"नहीं, अभी कोई मुकदमा शुरू नहीं हुआ!" मैंने कहा -"पर पासिबिल्टी है! और भाईसाहब, जब मुकदमा शुरू होगा ना, तब मैं स्पेशली दरीबे आऊँगा - आपको बताने के लिए!"
"हैंएएए....!" ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग मेरी बात और मिज़ाज नहीं समझे और जब तक वह कुछ समझते मैं उठते हुए दोबारा बोला - "अच्छा, चलता हूँ, मुझे राज और गौरी भाई साहब मेरा इन्तजार कर रहे होंगे! उन्हीं के साथ शक्तिनगर से आया हूँ!"
और मैं तुरन्त ही पीछे लौट पड़ा!
"अरे योगेश, सुन, सुन तो... " ज्ञान पीछे से चिल्लाये, मगर मैं पलट कर "बाय-बाय" के अन्दाज़ में हाथ हिलाते हुए बोला -"बाद में..!" और आगे बढ़ गया!
ज्ञान ने बाद में भी आवाज दीं, पर मैंने सुनकर भी अनसुनी कर दीं और मनोज में पहुँचा!
वहाँ राज और गौरी कहीं दिखाई नहीं दिये! काउन्टर पर सबसे आगे पन्नालाल जी बैठे थे! राजकुमार, गौरीशंकर और विनय कुमार गुप्ता के पिताजी! उनके पीछे बैठे थे जगदीश जी, जोकि रिश्ते में शायद राज, गौरी, विनय के भाई लगते थे!
मैंने पन्नालाल जी को नमस्कार किया और विनम्र स्वर में उनसे पूछा - "भाई साहब कहाँ हैं?"
"कौन से भाई साहब?" पन्नालाल जी ने पूछा!
"राज और गौरी भाई साहब!"
"वो तो गये...?" जवाब पीछे बैठे जगदीश जी ने कहा!
"गये.....कहाँ....?" मुझे झटका सा लगा! मैं उनके साथ आया था और जब मैं शक्तिनगर जाता था, अगर कभी वे सीट पर नहीं होते तो मैं उनका इन्तजार करता था और आज मैं उनके साथ ही शक्तिनगर से दरीबा कलां आया था, पर दरीबा कलां से वह मुझसे कुछ भी कहे बिना एकदम कहाँ गायब हो गये?
तब मैं बहुत ज्यादा भावुक इन्सान था! छोटी छोटी बातें मुझे चुभ जाती थीं! इसलिए बहुत खराब लगा! फिर भी मैंने यूँ ही जगदीश जी से सवाल कर लिया - "कहाँ गये हैं?"
"पटेलनगर....!"
जगदीश जी से यह जवाब सुनकर तो मुझे दूसरा झटका लगा!
"अरे पटेलनगर मुझे भी ले जाते तो मुझे साथ न भी रखते तो मैं खेल खिलाड़ी के आफिस में बैठकर भारती साहब के लौटने का इन्तजार कर सकता था या वह पटेलनगर की जगह वापस शक्तिनगर जाते तो भी मुझे साथ ले सकते थे, वहाँ से मैं आगे विजय पाकेट बुक्स तो पैदल ही जा सकता था!
बहरहाल जगदीश जी के जवाब के बाद अनमने मन से 838 नम्बर बस के स्टाप पर पहुँचा! बस पहले से खड़ी थी! उसमें बैठने की सीट थी! मैंने रमेशनगर का टिकट लिया और बैठ गया! 838 की कोई बस तिलकनगर और कोई उत्तमनगर जाती थी और उसका रास्ता पटेलनगर, रमेशनगर से था।
सोमवार, 24 मई 2021
कहानी उपन्यासकरा राजहंस की-05
हिन्द व मनोज Vs. विजय पाकेट बुक्स
यूँ तो कोई भी लेखक प्रकाशकों द्वारा लेखक के नाम के ट्रेडमार्क रजिस्ट्रेशन और ट्रेडमार्क नाम में किसी भी लेखक की कृति के प्रकाशन की परिपाटी का समर्थन शायद ही करे, पर उन दिनों पाकेट बुक्स ट्रेड में दो लेखक ऐसे थे - जो ट्रेडमार्क लेखकों के सिस्टम के सख्त खिलाफ थे!
एक वेद प्रकाश शर्मा और दूसरा मैं! मौका मिलने पर दोनों ही ट्रेडमार्क प्रचलन के विरुद्ध जी भरकर ज़हर उगल देते थे!
जब हम दोनों आपस में बातचीत करते तो ऐसे प्रकाशकों के खिलाफ मन की भड़ास भी खूब निकालते थे!
हमारी नज़र में एक ट्रेडमार्क नाम टाइटिल कवर पर देकर, अन्दर किसी भी उपन्यासकार का उपन्यास छापना, पाठकों से सरासर चीटिंग था! धोखा था!
हमें इससे बेहतर पैटर्न तो वह लगता था, जब प्रकाशक कोई भी नाम एक पत्रिका के रूप में रजिस्टर्ड करवा लेते थे और उसमें किसी भी लेखक का उपन्यास छाप देते देते थे, किन्तु तब वह अन्दर के पहले या तीसरे पृष्ठ पर असली लेखक का नाम भी अवश्य छापते थे!
विजय पाकेट बुक्स बनाम राजहंस, हिन्द पाकेट बुक्स और मनोज पाकेट बुक्स के मुकदमे के समय ट्रेडमार्क पर अपने विचारों के मामले में, मैं कन्फ्यूज-सा हो गया था, लेकिन वेद प्रकाश शर्मा तब तक अपने स्टैण्ड पर कायम रहे, जब तक कि उन्होंने और सुरेश चन्द जैन ने पार्टनरशिप में तुलसी पाकेट बुक्स की शुरुआत नहीं की!
मुझ में और वेद प्रकाश शर्मा में सबसे बड़ा फर्क यह था कि मैं प्रकाशकों के सामने ट्रेडमार्क विषय पर अपने व्यक्तिगत विचार कभी नहीं रखता था, सिर्फ नजदीकी दोस्तों के सामने ही अपने विचार प्रकट करता था, जबकि वेद प्रकाश शर्मा प्रकाशकों के सामने भी बेहिचक अपने उद्गार प्रकट कर देते और ट्रेडमार्क सिस्टम और नकली उपन्यासों के लिए प्रकाशकों को ही सौ परसेन्ट दोषी करार देते थे।
रविवार, 23 मई 2021
कहानी उपन्यासकार राजहंस की- 04
हिन्द व मनोज Vs. विजय पाकेट बुक्स
✖️
आप में से कितने लोग शराब पीते हैं और कितनी..? जो नहीं पीते, सवाल उनसे नहीं है! जो शराब को बुरी चीज़ समझते हैं, सवाल उनसे भी नहीं है! सवाल सिर्फ उनसे है, जो शराब पीते हैं! सवाल उनसे भी है, जो शराब पीते तो नहीं, पर शराब को बुरी चीज़ नहीं समझते! सवाल उनसे भी है,जो कभी-कभार मित्रों को कम्पनी देने के लिए घूंट, दो घूंट कहें या पैग-दो पैग हलक से नीचे उतार लेते हैं! सवाल उनसे भी है, जो दिन भर की थकान उतारने के लिए रात को सोने से पहले शराब का एक-आध पैग लेने में कभी कोई हर्ज नहीं समझते!
और आपका जवाब जो भी हो, एक बात निश्चित जान लीजिये, शराब आखिर शराब है! आज आप उसे थकान दूर करने के लिए लेते हों, दवा के तौर पर लेते हों, अगर आपने खुद पर अंकुश नहीं रखा तो 'दवा' का 'दर्द' बनना तय है!
केवलकृष्ण शराब तब भी पीते थे, जब वह एक साधारण सी दवा कम्पनी के मामूली एजेन्ट थे, पर तब उन्हें दिन भर घूमना पड़ता था! पैदल हों, चाहें स्कूटर पर गली-गली खाक छाननी पड़ती थी! किसी डाक्टर के पास तो किसी केमिस्ट के पास! दवाओं के बारे में बताते-बताते जुबान भी थक जाती थी! घुटनों और कूल्हों में भी दर्द होने लगता था, ऐसे में रात को खाने से पहले एक छोटा पैग ले लेने से, सोने के बाद तसल्ली की नींद आ जाती थी! उन दिनों एक ही अद्धा चार या पांच दिन भी चल जाता था!
पीते तो थे ही, इसलिए पीना कभी पाप नज़र नहीं आया, लेखक बने तो लेखकों और प्रकाशक महोदय के साथ पीने का अवसर मिला, जब गाँठ से अपना एक पैसा खर्च नहीं हो रहा था तो भी केवलकृष्ण को अपने पीने की सीमा पता थी! आरम्भ में वह एक पैग से ज्यादा नहीं पीता था, विजय कुमार मलहोत्रा की आदत थी - वह किसी पर भी, कभी भी, अधिक पीने के लिए दबाव नहीं डालते थे, मगर जहाँ चार यार जमा हो जायें, ना-नुकुर बेकार हो जाती है! मैं यह नहीं कहूँगा कि किन लोगों की सोहबत में केवलकृष्ण उर्फ़ राजहंस अधिक पीने लगे, मगर यह हकीकत है कि एक से दो, दो से तीन, तीन से चार, फिर पांच-छ: पैग भी डकार लेना, राजहंस के लिए आम बात हो गई!
और जब एक उपन्यास का पारिश्रमिक तीस चालीस हज़ार की सीमा तक आ गया तो अपने लिए मंहगी शराब खरीदना और घर में भी 'कोटा' रखना भी आम बात हो गई!
हिन्द पाकेट बुक्स और मनोज पाकेट बुक्स में राजहंस की इन्ट्री के बाद जब भी विजय कुमार मलहोत्रा ने केवलकृष्ण उर्फ़ राजहंस से मिलना चाहा, वह या तो घर में नहीं मिला या पता चला अभी आराम कर रहे हैं और फिलहाल बातचीत करने की स्थिति में नहीं हैं!
कोई भी फैसला करने से पहले विजय कुमार मलहोत्रा एक बार केवलकृष्ण से बात करना चाहते थे और बात नहीं हो पा रही थी! समय नष्ट हो रहा था।
शनिवार, 22 मई 2021
कहानी उपन्यासकार राजहंस की- 03
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सम्बन्धों में खटास की शुरुआत
लेखक सैकड़ों पैदा हुए हैं, हैं और होते रहेंगे, लेकिन ऐसे कुछ ही लेखक होते हैं, जिन्हें पढ़ने के बाद आप उनकी लेखनी के प्रभाव से काफी देर तक अपने आपको मुक़्त न करा सकें!
ऐसे लेखक भी बहुत होंगे, जिनकी कृति का कथानक आपके दिल में चलचित्र सा घूमने लगे, लेकिन अगर आप स्वयं भी एक लेखक हैं तो किसी अन्य लेखक की कृतियाँ पढ़कर आपके लेखन में उसी लेखक की शैली जड़ें जमा ले, आप भी उसी लेखक की तरह लिखने लगें तो उस लेखक की शैली का लोहा तो आपको मानना ही पड़ेगा!
ऐसे ही एक लेखक हुए हैं गोविन्द सिंह! गोविन्द सिंह की लेखन शैली का कमाल था कि पढ़ते हुए लगता था कि घटनाएँ कहीं इर्दगिर्द, कहीं निकट ही घट रही हैं!
सुमन पाकेट बुक्स में रतिमोहन नाम से गोविन्द सिंह ही लिखते थे और अगर आप एक लेखक हैं तो रतिमोहन या गोविन्द सिंह के कुछ उपन्यास पढ़ने के बाद अपनी कहानी या उपन्यास लिखिये, आपके लेखन में उनकी भाषा शैली का प्रभाव अवश्य आ जायेगा।
कहानी उपन्यासकार राजहंस की-02
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सम्बन्धों में खटास की शुरुआत
आपने राजहंस के उपन्यास पढ़े हैं....?
आपने शेखर के उपन्यास पढ़े हैं...?
आपने रतिमोहन के उपन्यास पढ़े हैं....?
'हाँ या नहीं' - जिसमें भी आपका जवाब हो, उसे अपने पास ही रखिये, क्योंकि मेरा इसके बाद एक सवाल यह भी है कि...
क्या आप लेखक हैं...?
यदि हैं तो आगे चलकर आप समझ जायेंगे कि मैंने राजहंस बनाम विजय पाकेट बुक्स के मुकदमे का किस्सा बयान करने से पहले यह कैसे सवाल छेड़ दिये!
अब आयें विजय पाकेट बुक्स और राजहंस उर्फ केवलकृष्ण कालिया के सम्बन्धों की बात पर...
विजय कुमार मलहोत्रा ने जब राजहंस प्रकाशित करना आरम्भ किया, उसके गेटअप, मैटर, कवर डिजाइन में कोई कमी नहीं छोड़ी! बैक कवर पर राजहंस के रूप में केवलकृष्ण कालिया की खूबसूरत फोटो!
बैक कवर को सजाने-संवारने का काम शादीपुर डिपो और वेस्ट पटेलनगर के बीच पड़ने वाले बलजीत नगर में रहने वाले आर्टिस्ट एन. एस. धम्मी से लिया गया! किन्तु कवर डिजाइन के लिए अमरोहा में रहने वाले बेहतरीन आर्टिस्ट "शैले" से शानदार डिजाइन बनवाये गये!
शैले उस समय पाकेट बुक्स में सबसे खूबसूरत डिजाइन बनाने वाले, सबसे मंहगे आर्टिस्ट के रूप में जाने जाते थे!
पुस्तक में टोटल मैटर के हिसाब से बत्तीस, तैंतीस, चौंतीस लाइने सैट की जाती थीं और एक लाइन में कम से कम बारह शब्द होते थे!
राजहंस का उपन्यास पढ़ने वाले सभी पाठकों को भरपूर मनोरंजन के साथ सालिड पाठ्यसामग्री मिले, इसका पूरा ख्याल रखा जाता था!
राजहंस के सभी उपन्यासों के प्रूफ कम से कम दो बार तथा आवश्यकता पड़ने पर तीन बार भी पढ़े जाते थे! विजय कुमार मलहोत्रा चाहते थे कि राजहंस के उपन्यासों में भाषाई और मात्रा की कोई गलती नहीं रहे।
एक बात यहाँ मैं आप सबको बता देना चाहूँगा कि बहुत से लेखकों के लेखन में पहले भी मात्राओं की गलतियां होती रहती थीं, अब भी होती हैं! किन्तु प्रकाशक प्रूफरीडिंग में लेखकों की गलतियां भी शुद्ध करवाने के लिए प्रतिबद्ध रहते थे!
इसके अलावा उस समय की मशहूर फिल्मी पत्रिकाओं में राजहंस के पूरे- पूरे पेज के विज्ञापन दिये गये!
'राजहंस' की 'सेल' बढ़ने पर विजय कुमार मलहोत्रा ने कभी भी केवलकृष्ण के कुछ कहने का इन्तजार नहीं किया! हमेशा पारिश्रमिक बिना कहे ही बढ़ा दिया।
कहानी उपन्यासकार राजहंस की -01
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विजय कुमार मलहोत्रा के पास राणा प्रताप बाग में अन्दरूनी रोड पर सड़क के मुहाने पर काफी बड़ी जगह थी!
उसी पते पर विजय कुमार मलहोत्रा ने विजय पाकेट बुक्स की नींव रखी!
विजय कुमार मलहोत्रा की अशोक पाकेट बुक्स के स्वामी बसन्त सहगल से अच्छी दोस्ती थी! अक्सर उन दोनों का राणा प्रताप बाग स्थित विजय पाकेट बुक्स के आफिस में अथवा शक्ति नगर स्थित बसन्त जी की बैठक में जमावड़ा होता! संयोगवश मैं गिनती के उस खुशकिस्मतों में हूँ, जिसे दोनों जगह बैठने का अवसर मिला!
विजय पाकेट बुक्स जब शैशवावस्था में थी, अशोक पाकेट बुक्स एक नामी प्रकाशन संस्था थी! इसका एक खास कारण यह भी था कि उन दिनों उपन्यासकारों में गुलशन नन्दा एक प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित नाम था और अशोक पाकेट बुक्स ने गुलशन नन्दा के कई उपन्यास प्रकाशित किये थे, जिनके कापीराइट भी उन्हीं के पास थे और आये दिन गुलशन नन्दा के उपन्यासों के रिप्रिन्ट होते रहते थे, जिसके कारण बहुत कुछ छापने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी!
मैंने सुरेन्द्र मोहन पाठक की आपबीती की श्रृंखला नहीं पढ़ी, किन्तु यकीन है कि श्रृंखला पूरी होने से पहले उसमें मेरा जिक्र भी आना चाहिए और बसन्त सहगल का भी!
मुझे याद नहीं कि अशोक पाकेट बुक्स में सहगल साहब ने सुरेन्द्र मोहन पाठक को छापा या नहीं छापा, किन्तु दोनों की दोस्ती मशहूर रही थी तथा शाम की बहुत सी महफ़िलों में दोनों ने परस्पर जाम टकराये थे.
कहानी उपन्यासकार राजहंस की-01
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विजय पॉकेट बुक्स की स्थापना सन 1967 में हुई और उन्होंने सन 1971 में राजहंस के ट्रेड नेम का रजिस्ट्रेशन के लिए रजिस्ट्रार ऑफिस में अर्जी दी। रजिस्ट्रेशन बहरहाल तब नहीं हुआ लेकिन उन्होंने इस नाम से विभिन्न घोस्ट लेखकों से 8 किताबें लिखवा लीं थी।
केवल कृष्ण कालिया, विजय पॉकेट बुक्स के उपन्यासों के कमीशन एजेंट थे। वह उपन्यास की बुकिंग आर्डर लाते और अपना कमीशन प्रकाशन से कमा लेते।
सन 1974 के आसपास, कालिया ने भी उपन्यास लिखने की इच्छा जाहिर की और विजय पॉकेट बुक्स से राजहंस नाम से ही लिखने की अनुमति मांगी।
विजय पॉकेट बुक्स ने एग्रीमेंट द्वारा लिखित कई प्रतिबंध लादते हुए केवल कृष्ण कालिया को यह अनुमति दे दी। जिसके अनुसार कालिया किसी भी अन्य पार्टी-प्रिंटर या प्रकाशक के लिए नही लिख सकते। वह इस नाम का प्रयोग लेखक के रूप में स्वयं के लिए भी नहीं कर सकते न ही किसी और को लिखने के लिए उधार दे सकते हैं। इत्यादि इत्यादि।
बर्फ के अंगारे और राम तेरी गंगा मैली- सत्य व्यास
और पछतावा होने पर खुद से भागकर पहाड़ों पर चला जाता है। वहां उसे एक दिन एक पहाड़न लड़की 'नीली' मिलती है, जो सम्भवतः उसे खाई गिरने से बचाती है और जातः में एक पहाड़ी खुखरी भी रखती है।
दोनों में प्रेम होता है मगर पहाड़ी रीति के अनुसार नीली को जीतने के लिए कमल को उसके कबीले से तलवारबाजी जीतनी होती है।वह तलवारबाजी जीत कर नीली से विवाह करता है मगर सुहागरात के दूसरे ही दिन उसे अपने पिता का एक तार मिलता है जिसके अनुसार उनकी तबीयत खराब है और वो अगर उन्हें आखिरी बार देखना चाहता है तो जल्दी लौटे।
घबराया कमल,नीली से कहता है कि पिताजी की तबियत खराब है,अगर वह उसे भी साथ लेकर जाएगा तो पिताजी को धक्का लग सकता है। इसलिए वह पिताजी को समझाकर एक हफ्ते में ही नीली को ले जाएगा।
फिल्म 'प्यासा' और उपन्यास 'चोट'- सत्य व्यास
लोकप्रियता की चाह?
रविवार, 16 मई 2021
मेरठ का बदमाश- पात्र चर्चा
हम जब भी कोई कृति पढने हैं तो उस कृति में कोई न कोई संवाद, घटना या पात्र हमें ऐसा मिल ही जाता है जो पाठक को प्रभावित करता है।
पाठक भी एक बार उपन्यास को पढना छोड़ कर उसके विषय में सोचने लगता है।
आदरणीय वेदप्रकाश शर्मा जी का उपन्यास 'सिंगही और मर्डरलैण्ड' पढते वक्त भी एक ऐसा पात्र सामने आया जिसने कम भूमिका होते हुये भी अपना प्रभाव स्थापित किया। वह पात्र है गैरीसन। हालांकि गैरीसन नामक पात्र की भूमिका बहुत कम है, लेकिन विजय के साथ टकराते वक्त विजय भी उसकी ताकत को स्वीकारता है।
एक दृश्य देखें
विजय गुलफाम की ओर थोड़ा झुककर बोला-"गैरीसन नाम के किसी गुण्डे को जानते हो?"
"क्या? गैरीसन....।"- लगता था गुलफाम गैरूसन के नाम पर बुरी तरह से चौंका था।
" हाँ, क्या तुम गैरीसन से परिचित हो?"
"आप उसके विषय में क्यों पूछ रहे हो?"
"उस से काम है थोड़ा।"
"गैरीसन बहुत घाघ व्यक्ति है, बेहद खतरनाक लड़का है वो। आजकल उसकी खूब चल-पिल रही है। उसके इलाके में उस से टकराना आत्महत्या करना समझा जाता है। वास्तव में मास्टर, मैंने भी उसे कई बार देखा है, वह खतरनाक व्यक्ति है।"- गुलफाम एक ही साँस में कह गया।
" प्यारे गुलफाम मियां।"- विजय बोला-"शायद भूल रहे हो तुम कि किस से बातें कर रहे हो। गैरीसन इससे ज्यादा खतरनाक नहीं हो सकता, जितने अपने जमाने के तुम थे।"
"वो तो मैं जानता हूँ मास्टर, लेकिन मेरे ख्याल से उसके इलाके में जाकर उससे टकराना मौत के बस का रोग भी नहीं है। अगर आप कहें तो उसे यहाँ बुलवा दूँ?"
"नहीं प्यारे, अब हम वहीं जाकर उससे मिलेंगे। तुम उसकी तारीफ के पुल बाँधना छोड़ दो और उसके विषय में क्या जानते हो वह बताओ।"
"उसके विषय में यह सुना गया है कि वह मेरठ का बदमाश है, वहाँ पहले बहुत शरीफ था, किंतु सामाजिक तत्वों ने उसे बदमाश बनने पर मजबूर कर दिया और देखते ही देखते उसकी बदमाशी इतनी बढ गयी कि समस्त मेरठ उससे काँपने लगा। मेरठ की बदमाशी नामी है, ये तो आप जानते ही हैं।" (पृष्ठ-56,57)
गैरीसन और विजय के मध्य एक लड़ाई का दृश्य भी है। यहाँ विजय को यह महसूस होता है कि यह गैरीसन को हराना कोई आसान काम नहीं है।
पहला वार किया विजय ने।
उसने उछलकर एक फ्लाइंग किक जमानी चाही, किंतु तुरंत ही विजय की आँख खुल गयी। सिर्फ आँख ही न खुल गई बल्कि जनाब की नानी भी याद आ गयी। साथ ही यह पता लग गया कि गैरीसन भी वह रसगुल्ला नहीं है, जिसे बस तुरंत ही हजम कर जाओ।(पृष्ठ-65)
यह तो तय था कि विजय और गैरीसन के मध्य हुयी लड़ाई में विजय की जय तय है। और होता भी यही है लेकिन इस लडा़ई के दौरान जब विजय गैरीसन पर शारीरिक रूप से विजय प्राप्त कर उसे मानसिक रूप से भी मात देता है तभी एक नकाबपोश गैरीसन की हत्या कर देता है। विजय जैसा व्यक्ति भी गैरीसन से प्रभावित था, तभी तो वह उसकी मृत्यु पर दुखी होता है।
गैरीसन को उठाया गया, तेजी से अस्पताल पहुँचाने का प्रयास किया गया किंतु व्यर्थ। रास्ते में ही गैरीसन ने प्राण त्याग दिये।
न जाने क्यों विजय को गैरीसन की मौत का गहरा अफसोस था। (पृष्ठ-68)
धन्यवाद।
उपन्यास पढते वक्त आपके सामने भी ऐसे पात्र आये होंगे जिनसे आप प्रभावित हुये हैं। अगर आप उन पात्रों पर अपने विचार लिख कर भेजते हैं तो 'साहित्य देश ब्लॉग' पर आपके नाम के साथ उनका प्रकाशन होगा।
संपर्क- sahityadesh@gmail.com
शनिवार, 15 मई 2021
कुमार कश्यप- जिसके रचित पात्र आज भी याद है - हादी हसन
ओमप्रकाश शर्मा को बहुत सारे प्रकाशकों ने छपा। शर्मा जी के पात्रों पर उपन्यास लिखने वाले अनगिनत उपन्यासकार थे। राजेश, जयन्त, जगत, जगन, गोपाली, चक्रम, भुवन, ताऊ, जेम्स बाण्ड, बागारोफ, लिली आदि ऐसे पात्र थे जो किसी परिचय के मोहताज नहीं थे। कोई भी उपन्यासकार पूर्व से स्थापित उन पात्रों को लेकर अपनी रचना रच सकता था। पात्रों की उसी भीड़ में कुमार कश्यप ने अपने पात्रों की संरचना की। बटलर के अतिरिक्त उनका जो पात्र पल्प के क्षितिज पर सूर्य बनकर चमका-वह था ठग जगत का शिष्य-विक्रांत।
विक्रांत का नाम ऐसा चमका कि कुमार कश्यप उस दौर के बेताज बादशाह बन गए। आरम्भ उनका इलाहाबाद के किसी प्रकाशन से हुआ था, नाम स्मरण नहीं है, किन्तु जब वे मेरठ पहुंचे तब उनके अंदर विक्रांत नाम का महापरिर्वन हो चुका था। हर वर्ग ने विक्रांत को पसंद किया। विक्रांत- एक महानायक।
मेरठ का हर प्रकाशक कुमार कश्यप को छापने का तलबगार था-लेकिन आखिरकार हाथ तो दो ही थे। जितना भी वो लिखते थे-छपने के लिए चला जाता था।
चलिए बताता हूं स्व. कुमार कश्यप जी के गृहजनपद के बारे में।
लाडली कटरा, शाहगंज, आगरा के रहने वाले थे और उनका विवाह मुहल्ला कुंज, इटावा में हुआ था।
इटावा पदार्पण हुआ एक बेहतरीन खिलाड़ी के रूप में।
आगरा की फुटबाल की टीम इटावा में मैच खेलने आई थी और उस टीम में कुमार कश्यप एक बेहद फ़ुर्तीले और प्रोफेशनल खिलाड़ी के रूप में आए थे। उनका खेल देखकर इटावा के दर्शक झूम उठे। वे न सिर्फ फुटबाल के खिलाड़ी थे बल्कि उससे भी आगे वे क्रिकेट के भी बहुत अच्छे खिलाड़ी थे। उसी दौरान मुझे ज्ञात हुआ कि एक ऐसा खिलाड़ी आगरा की टीम में है जो अपने आप में एक महान उपन्यासकार भी है।
प्रभावित होने के एक नहीं दो कारण। उसके बाद जब उनका व्यक्तित्व देखा तो देखता ही रह गया। उनके द्वारा हवा में लगाई गई फ़्लाइंग किक आज भी ज़हन में कौंध जाती है। हमारे एक सीनियर खिलाड़ी श्री राम सेवक सिंह चौहान जो कि डिफेंस के अच्छे खिलाड़ी हैं, आज भी अपनी जांघ पर श्री कुमार कश्यप जी का फुटप्रिंट लिए घूमते हैं। उनका कथन है कि-“पूरन (कुमार कश्यप) ने गोल करते हुए वह किक मारी थी...आज तक उसका निशान मौजूद है।”
तो यह है छोटा सा परिचय उस जांबाज़ लेखक का जिसके चाहने वाले आज भी उस लेखक को-और उनके द्वारा रचे गए पात्रों विक्रांत, बटलर, अमरजीत आदि को भूले नहीं होंगे।
विनीत
हादी हसन/इशरत परवेज़
33, नौरंगाबाद, इटावा।
मो. 8630059207
सोमवार, 10 मई 2021
कहानियां ऐसे भी बनती हैं-05
😎 *रिवाल्वर का मिज़ाज : कहानियाँ ऐसे भी बनती हैं - 5*
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हम अक्सर बहुत कुछ चाहते हैं, बहुत कुछ करना चाहते हैं..! पर हर काम हमारे चाहने और हमारे प्लानिंग करने से नहीं होता!
कोई है... जो अपनी प्लानिंग रचता और अपनी प्लानिंग बनाता है... हमसे उसी के हिसाब से काम कराता है!
यह तो आप सब जानते ही हैं कि राज भारती जी के उनसे छोटे भाई सरदार महेन्द्र सिंह का उन दिनों अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं, उपन्यासों का होलसेल-रिटेल का काम था और उनसे छोटे सरदार मनोहर सिंह खेल खिलाड़ी के सर्वेसर्वा थे!
सरदार मनोहर सिंह ने उन दिनों खेल खिलाड़ी छापने के साथ-साथ एक नई पत्रिका "नन्हा नटखट" की प्लानिंग की!
रजिस्ट्रेशन के लिए नाम रजिस्ट्रार आफ न्यूज़ पेपर के आफिस भेजा गया! उन दिनों यह आफिस आई. टी. ओ. की उस बिल्डिंग में था, जिसमें पुलिस मुख्यालय में था!
बच्चों की मैगज़ीन नन्हा नटखट का प्रचार उन दिनों खेल खिलाड़ी के भीतरी पेजों के अलावा टाइटिल की बैक पर भी किया गया!
प्रचार की वजह से लोगों की रिस्पांस भी मिलने लगी! उस रिस्पांस में काफी कार्टून भी आये, किन्तु मुझे हरीश बहल और हरविन्दर माँकड़ के कार्टून अच्छे लगे!
मैंने वे सभी कार्टून, आफिसटेबल की दराज में रख दिये! उनमें कुछ कार्टून ऐसे भी थे, जो खेल खिलाड़ी में भी प्रकाशित किये जा सकते थे!
कई दिनों बाद...एक दिन दोपहर बाद जब मैं आफिस पहुँचा तो सरदार मनोहर सिंह ने पूछा - "योगेश, किसी हरविन्दर माँकड़ के कार्टून आये हैं अपने पास....?"
"हाँ...!" मैंने कहा - "अच्छे हैं"
"वो यार, तीन-चार दिन पहले आफिस में आया था, उसके साथ एक सरदार बच्चा भी था! यार, दोनों बड़े मासूम बच्चे से हैं!"
"अच्छा...!" मैंने कहा!
"हाँ, उन दोनों में हरविन्दर ही बात कर रहा था! पूछ रहा था - उसके कार्टून कब छपेंगे और उसके कुछ पैसे मिलेंगे क्या...? तू ऐसा कर, उसे एक चिट्ठी लिख दे! कार्टून काम के हों तो ठीक, नहीं तो साथ की साथ वापस कर दे! काम के हों तो पांच रुपये उसे दे देइयो, इससे ज्यादा हम नहीं दे सकते!"
"ठीक है...!" मैंने कहा और दराज़ में से कार्टून निकाल कर देखे! कार्टून के पीछे हरविन्दर माँकड़ का सुभाष नगर स्थित घर का पता ड्रांइग वाली इंक से ही लिखा हुआ था!
उन दिनों ड्रांइग के लिए ब्लैक इंक "वीटो" सबसे ज्यादा मशहूर थी! बाद में कैम्लिन तथा और भी कम्पनियों की इंक आने लगीं!
सरदार मनोहर सिंह ने हरविन्दर माँकड़ के बारे में कहा था कि बच्चा था तो मैंने निश्चय किया कि वह बच्चा दोबारा परेशान न हो, मैं ही उसके घर चक्कर लगा लेता हूँ!"
और उसी शाम सूरज डूबने से पहले के वक़्त मैं 820 नम्बर बस पकड़ सुभाष नगर पहुँचा!
घर ढूँढने में परेशानी नहीं हुई!
हरविन्दर माँकड़ बहुत ही शर्मिला, झिझक-झिझक कर बोलने वाला बच्चा था!
उसकी माता जी और पिताजी ने भी यह जानकर कि उनके बेटे से कोई मिलने आया है, मुझे बड़ा सम्मान दिया!
हरविन्दर माँकड़ के घर की स्थिति देख मेरे दिल में एक बात आई कि कुछ ऐसा करना चाहिए, जिससे यह लड़का अपनी पढ़ाई भी कर सके और अपने शौक भी पूरे कर सके! उसकी विनम्रता ने भी मेरा दिल मोह लिया! मैंने उसके द्वारा खेल खिलाड़ी के आफिस में भेजे सभी कार्टून की पांच रुपये के हिसाब से पेमेन्ट कर दी! फिर उससे एक सवाल किया - " बड़ा आर्टिस्ट बनना है..?"
उससे इन्कार में सिर हिलाया और फिर बोला - "बहुत बड़ा...!"
उसके इस जवाब ने तो मेरा दिल ही जीत लिया!
मैंने उसकी पीठ पर हाथ रखते हुए पूछा -"किसी बड़े आर्टिस्ट के पास काम करना चाहोगे...? कुछ सीखने को ही मिलेगा!"
उसने कहा - "अभी कैसे, अभी तो मैं पढ़ रहा हूँ! एक्जाम शुरू होने वाले हैं !"
मैंने पूछा - "ठीक है, तो फिर अभी कार्टून बनाते रहो और हमारे यहाँ भेजने की जगह बाल पत्रिकाओं में भेजो! हमारे यहाँ तुम्हारे कार्टून ज्यादा इस्तेमाल नहीं हो सकते, लेकिन बाल पत्रिकाओं में स्कोप ज्यादा है!"
"जी...!" उसने कहा! फिर मैंने उसे अपना कनाट प्लेस का पता बता दिया और कहा - "कभी कोई जरूरत हो तो तुम वहाँ आ सकते हो!"
तभी हरविन्दर माँकड़ का सरदार दोस्त भी वहाँ आ गया! उसने हरविन्दर से गुपचुप-गुपचुप बाल की, फिर मुझसे पूछा - "आप खेल खिलाड़ी से आये हो!"
मैंने कहा 'हाँ' तो वह बोला - "मुझे भी ड्राइंग का शौक है! मैं भी बहुत अच्छे कार्टून बना सकता हूँ!"
"कुछ है बनाया हुआ...?" मैंने पूछा!
"अभी लाता हूँ!" उसने कहा और दौड़ कर वापस अपने घर गया, जो पास ही था! और कापी के कुछ पेपर लेकर आया, जिन्हें देखकर मुझे बहुत निराशा हुई!
मैंने टालने के लिए उससे कहा कि "ठीक है, आप भी एक दिन बड़े आर्टिस्ट बनोगे, पर आपको बहुत ज्यादा मेहनत करनी होगी!"
"मैं करूँगा मेहनत!" उस सरदार लड़के ने कहा! पर उस समय मैंने उस पर विशेष ध्यान नहीं दिया!
फिर जब तक एक्जाम थे, मैंने सुभाष नगर का रुख नहीं किया! बल्कि बीच में एक रविवार के दिन हरविन्दर माँकड़ और सरदार परविन्दर सिंह मिचरा ही मेरे घर आये थे, खास बात यह थी कि वे दोनों सुभाष नगर से बंगला साहिब गुरुद्वारा के सामने स्थित मेरे निवासस्थल तक पैदल आये थे, जिसके लिए मैंने उन्हें बहुत डांटा!
फिर जब हरविन्दर के एक्जाम खत्म हो गये, मैं सुभाष नगर हरविन्दर के घर पहुँचा और पूछा - "क्या इरादा है? कुछ बढ़िया काम करना सीखना है..?"
"जैसा आप कहो!" हरविन्दर ने कहा!
मैंने हरविन्दर की माता जी और पिताजी से भी पूछा कि हरविन्दर को कहीं काम पर लगा दूं तो उन्हें कोई ऐतराज तो नहीं...!
हरविन्दर के पिताजी ने कहा - "आपका छोटा भाई है, आप जो करोगे, इसके भले के लिए ही करोगे!"
माता जी ने भी ऐसा ही कुछ कहा! मैंने हरविन्दर से कहा, वह अगले दिन सुबह नौ बजे तैयार मिले!
अगले दिन मैं हरविन्दर को उसके घर से साथ लेकर, शादीपुर डिपो और वेस्ट पटेल नगर के बीच पड़ने वाले बलजीत नगर में रहने वाले, अपने दोस्त आर्टिस्ट एन. एस. धम्मी के यहाँ पहुँचा!
धम्मी के बारे में भी एक खास बात और विवरण फिर कभी बताऊँगा! अभी इतना ही कहूँगा कि आर्टिस्ट बनने से पहले धम्मी थ्रीव्हीलर चलाया करता था!
खैर, मैंने धम्मी के सामने हरविन्दर को खड़ा कर दिया और कहा - "इसे कलर ड्राइंग और कामिक्स ड्राइंग में एक्सपर्ट बनाना है!"
"योगेश जी, सिखाया उसे ही जा सकता है, जिसमें कुछ हो! कुछ है भी इस में?" धम्मी ने कहा!
"टेस्ट ले ले यार...!" मैंने कहा!
धम्मी ने एक प्लेन कागज और एक पेन्सिल हरविन्दर को थमा दी और उससे कहा - "एक कप बनाओ!"
हरविन्दर पेन्सिल से कप बनाने वाला ही था कि धम्मी फिर बोल उठा - "चाय पीने वाला कप नहीं, टूर्नामेंट में जो जीतते हैं, वो वाला कप...!"
"जी...!" हरविन्दर ने कहा और पेन्सिल घुमाने लगा!
एक मिनट से भी कम समय में हरविन्दर ने कप बना कर धम्मी के सामने कर दिया!
अच्छा कप बनाया था! देखकर धम्मी प्रभावित तो हुआ, पर और परीक्षा लेने के विचार से बोला- "नहीं, मैंने गलत कह दिया, ये तो बहुत आसान है! आप ये समझो कि आपने कोई कप जीता है और उसे सिर से ऊपर उठाये हो, मतलब एक आदमी, जिसने कप सिर से ऊपर उठा रखा है उसका स्केच बनाना है आपको!"
हरविन्दर ने धम्मी के कहे अनुसार स्केच बनाने में भी एक मिनट से ज्यादा समय नहीं लगाया! यह देख, धम्मी सोच में पड़ गया! फिर मेरे कान में बहुत धीरे से फुसफुसाया - "योगेश जी, लड़के में आर्ट है! यह हमारे कामिक्स के काम में बहुत काम आयेगा!"
फिर वह हरविन्दर की ओर मुड़कर बोला - "देखो,मैं तुम्हें शुरू में पिचहत्तर रुपये महीना दूंगा! काम बढ़िया हुआ तो बढ़ा भी सकता हूँ!"
"ठीक है...!" हरविन्दर मेरे कुछ कहने से पहले ही बोल उठा!
मैंने धम्मी से कहा - "आने जाने के किराये के लिए कुछ एडवांस इसे दे दे..!"
"एडवांस...!" धम्मी ने कहा - "एडवांस तो मैं किसी को देता नहीं! यह कल से नहीं आया तो... "
"मै तो हूँ ना...!" मैंने कहा!
धम्मी ने पच्चीस रुपये हरविन्दर को बतौर एडवांस दे दिये और यह जतला भी दिया कि महीने बाद सैलरी में ये पच्चीस रुपये काट कर सैलरी दी जायेगी! यह और बात है कि हरविन्दर के काम और उसकी सीखने की लगन से धम्मी इतना खुश हुआ कि पहले महीने ही उसे पिचहत्तर की जगह सवा सौ रुपये की सैलरी दी!
हरविन्दर की तो सैटिंग हो गई थी, पर उसके सरदार दोस्त परविन्दर सिंह मिचरा की कहीं कोई सैटिंग नहीं थी! पर एक रोज वह मेरे घर आया और मुझसे कहने लगा कि मैं उसकी भी कहीं सैटिंग करवा दूं! वह भी कहीं काम करना चाहता है!
मैंने उससे कहा - "बेटा, तुम्हें अभी कहीं काम नहीं मिल सकता! तुम्हें बहुत मेहनत करनी होगी! हद से हद मैं यह कर सकता हूँ कि तुम मेरे पास आ जाया करो, पर मैं तुम्हें शुरू में आने-जाने के किराये के अलावा कुछ नहीं दे सकूँगा!"
परविन्दर सिंह मिचरा इसके लिए भी तैयार हो गया! अगले दिन से वह सुबह नौ बजे ही मेरे यहाँ आने लगा!
मैने बालकोनी में उसकी सैटिंग कर दी और रोज उसे प्रैक्टिस करवाने लगा!
दोस्तों, है ना अचम्भे की बात कि मैं आर्टिस्ट नहीं हूँ और अपनी गाइडेन्स में एक बेहतरीन आर्टिस्ट तैयार कर रहा था! पर यह किस्सा फिर कभी...
एक दिन परविन्दर सिंह मिचरा सुबह आया तो उसने एक किताब मेरी ओर बढ़ाई और बोला - "देखना, यह किताब आपके किसी काम की है क्या?"
मैंने किताब देखी! उसके फ्रन्ट कवर सहित शुरू के कुछ पेज फटे हुए थे! किन्तु बैक कवर पर वेद प्रकाश काम्बोज की फोटो थी! वह वेद प्रकाश काम्बोज का कोई उपन्यास था!
"यह कहाँ से लाया...?" मैंने पूछा!
"कल पास के कबाड़ी के यहाँ ड्राइंग की किताबें ढूँढ रहा था तो यह भी दिख गई, मैंने यह आपके लिए ले ली!" परविन्दर ने कहा!
मैंने उस किताब पर नज़र डाली! फिर यूँ ही उसकी शुरुआत पढ़ने लगा! और पढ़ना शुरू क्या किया, वक़्त का कुछ ख्याल ही नहीं रहा! ख्याल तब आया, जब मैं पूरी किताब पढ़ कर खत्म कर चुका था!
वह अलफांसे सीरीज़ का एक उपन्यास था, जिसके आरम्भ में यह दिखाया गया था कि अलफांसे किसी की कैद में है और उसे टार्चर किया जा रहा है और कोई शख्स उससे किसी खजाने के बारे में पूछ रहा है! अलफांसे बार-बार उससे कहता है कि उसे कुछ नहीं मालूम, मगर टार्चर करने वाला यकीन नहीं करता!
मुझे यह स्टार्टिंग बहुत अच्छी लगी और मैंने सोचा - "क्यों न, मैं अपने उपन्यास " रिवाल्वर का मिज़ाज " की कुछ ऐसी ही स्टार्टिंग रखूँ! पर डकैती, खजाने आदि पर मेरा प्लाट नहीं होगा, यह मैंने पहले ही सोच रखा था! उपन्यास में कोई बेहद खूबसूरत लड़की होगी, जिस पर पूरी थीम केन्द्रित होगी!
मैंने दिमाग लड़ाया और खजाने की जगह लड़की का विचार करके सोचा!
अब मेरी कहानी यह बनी कि किसी बड़े डान की बेटी गायब है और उसे गायब करने वाले व्यक्ति के रूप में हमारा हीरो पारस अम्बानी पकड़ा जाता है और डान उसे टार्चर करके अपनी बेटी के बारे में अपनी बेटी के बारे में पूछ रहा है!
पर जब पारस ने उसकी बेटी को किडनैप नहीं किया! गायब नहीं किया तो डान उसे क्यों पकड़ेगा! पारस क्यों पकड़ा जायेगा!
स्पष्ट है कि पारस को उसका हमशक्ल दिखाया जाये, जिसने डान की बेटी को गायब किया है!
पर एक डान की बेटी को आसानी से किसी के हत्थे चढ़ते दिखाना मुनासिब नहीं होगा! इसलिए यह दिखाया जाये कि डान की बेटी अपनी मर्जी से उस शख्स के साथ भागी है, जो पारस का हमशक्ल है और क्यों भागी है इसका सीधा सा कारण दिखाया जा सकता है - इश्क़...!
और यूँ अचानक ही हाथ लगे वेद प्रकाश काम्बोज के एक उपन्यास के कारण मेरे उपन्यास रिवाल्वर का मिज़ाज का कथानक बदल गया!
(शेष फिर)
पर प्रकाशक कैसे बदला यह अगली किश्त में!
*‼️योगेश मित्तल‼️*
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
रविवार, 9 मई 2021
कहानियाँ ऐसे भी बनती हैं -4
😎 *रिवाल्वर का मिज़ाज : कहानियाँ ऐसे भी बनती हैं - 4*
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सुनील पंडित के नाम से छपने वाले, केशव पंडित सीरीज़ का उपन्यास पूरा होने से पहले ही, मुझे इन्देश्वर जोशी से केशव पंडित सीरीज़ के, वेद प्रकाश शर्मा लिखित कई उपन्यास पढ़ने के लिए मिल गये!
हालांकि उन्हें पढ़ने के बाद भी मेरी लेखन शैली में बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ा! हाँ, यह जरूर है कि मैंने वह उपन्यास शीघ्र ही पूरा कर लिया, लेकिन उपन्यास सुनील तक पहुँचाने के लिए सीलमपुर जाने की जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि जिस दिन उपन्यास पूरा हुआ उसी दिन सुनील भारती साहब के साथ आ गया!
उपन्यास की पाण्डुलिपि एक अखबार में लपेट, उसके ऊपर सिलाई वाली रील का धागा बांध, मैं 96 नम्बर फ्लैट से नीचे पहुँचा! उसके बाद हम लोग फिर वहीं मोहनसिंह प्लेस के टी स्टाल पहुँचे!
चाय का आर्डर सुनील ने दिया! फिर मुझसे पूछा -"नावल पूरा हो गया?"
"हाँ..!" मैंने अखबार में लिपटी स्क्रिप्ट सुनील की ओर बढ़ा दी!
सुनील ने ब्रीफकेस खोला और बिना देखे ही रखने लगा तो भारती साहब ने कहा -"खोल कर, देख तो ले!"
"मैंने क्या देखना, योगेश जी ने लिखी है तो ठीक ही होगी!" सुनील ने कहा!
"ठीक तो होगी ही, यह तुझे भी पता है और मुझे भी, पर मैटर पर नज़र डाल ले!" भारती साहब ने कहा! फिर हंसते हुए बोले -"यह योगेश बड़ा जल्दबाज भी है और शातिर भी! मैटर कम न लिखा हो! अभी किसी और का काम करना हो तो फटाफट खत्म कर दी हो कि मैटर कम पड़ेगा तो बाद में बढ़ा देंगे!"
"हैं योगेश जी...! मैटर कम लिखा है क्या...?" सुनील ने पूछा!
मै मुस्कुरा दिया! यद्यपि मैंने मैटर कम नहीं लिखा था, पर भारती साहब ने जो कहा था, एकदम सच था! वह मेरी सारी बदमाशियां जानते थे! मेरी नस-नस पहचानते थे, पर यह भी जानते थे कि व्यापारिक लेखन में मुझे समय की कमी के कारण एडजस्टमेंट करनी पड़ती है, लेकिन मैं सौ परसेंट ईमानदार और सच्चा इन्सान ही नहीं, पूरी तरह वफादार भी हूँ! मेरे सम्पर्क में जितने भी लोग रहे हैं, कभी किसी को मुझसे धोखा न मिला! कोई शिकायत न रही! बेशक कुछ लोगों ने अक्सर मेरी सरलता और भावुकता का नाजायज फायदा उठाया! मुझे आर्थिक नुक्सान भी पहुँचाया, लेकिन मैंने कभी बदला लेने का विचार तक नहीं किया, बल्कि दोबारा कभी उसी व्यक्ति को परेशानी की हालत में देखा तो मदद ही की और उसके बारे में कभी किसी से चर्चा तक नहीं की और शायद करूँगा भी नहीं, किन्तु एक प्रसंग तब के सबसे व्यस्त आर्टिस्ट एन. एस. धम्मी जी का है, जब उन्होंने मेरी मेहनत के तीन हजार रुपये देने से किसी जिद्द में आकर इन्कार कर दिया था, किन्तु एक दिन उसके लिये पछताते हुए रोने लगे थे! यह एक प्रेरक प्रसंग है, इसलिए भविष्य में इस पर भी लिखूँगा!
खैर, भारती साहब के कहने पर सुनील ने अखबार में लिपटी मेरी स्क्रिप्ट पर से अखबार की पोशाक उतारी और सामने आये फुलस्केप पेपर्स पर नज़र डाली! फिर पृष्ठ संख्या देखी! उसके बाद पहले पेज की लाइनें गिनीं! फिर पहले पेज में दो-तीन जगहों से एक लाइन में कितने शब्द हैं, गिना! उसके बाद बीच में दो-तीन जगहों से लाइनें और भिन्न भिन्न लाइनों के शब्द गिने! उसके बाद यही क्रिया आखिर के कई पेजों में दोहराई! फिर गम्भीर हो गया!
"क्या हुआ? कम है ना मैटर..!" भारती साहब ने कहा! फिर मुझसे सम्बोधित हुए - "तेरी यही आदत बहुत खराब है! मेरे लिए भी तूने जब-जब नावल लिखा है, मैटर कम पड़ा है, पर मैं तेरा नावल पढ़ता हूँ, इसलिए कभी तुझे परेशान नहीं किया! हमेशा खुद ही मैटर बढ़ाया है, पर यह कोई अच्छी आदत नहीं है!" फिर वह सुनील की ओर मुखातिब हुए -"वापस दे इसे स्क्रिप्ट! जितना मैटर कम है, पहले बढ़ायेगा! फिर प्रेस में लगाइयो नावल!"
"नहीं-नहीं गुरु जी!" सुनील एकदम बोला -"मैटर कम नहीं है! मुझे लगता है - मैटर बहुत ज्यादा है! काटना पड़ेगा! ज्यादा मैटर के लिए मैं फार्म बढ़ा कर नहीं छाप सकता! प्राफिट तो मारा ही जायेगा, घाटा भी होगा!"
भारती साहब सोच में पड़ गये और मैं हंसने लगा! सुनील नाराज हो गया -"हमारे लिए मुश्किल पैदा कर के आप हंस रहे हो, लो, अब यह उपन्यास और इस में से सात-आठ सौ लाइन काट दो!"
"रुक.. रुक..!" तभी भारती साहब सुनील से बोले -"कितनी लाइन से कम्पोजिंग करवा रहा है?"
"तीस लाइन से...!"
"चौंतीस कर दे!" भारती साहब बोले -"प्रेस वाले को कह दीजियो, बीच की लीडिंग कम कर दे और लाइन बढ़ा दे!"
"कम्पोजिंग का खर्चा बढ़ जायेगा!" सुनील बोला!
"कितना बढ़ जायेगा! हद से हद दो-ढाई सौ का फर्क पड़ेगा, पर रीडर को मैटर तो ठसाठस मिलेगा! और इसका फ़ायदा तेरे नाम सुनील पंडित को ही मिलेगा!"
"हाँ, यह बात तो है!" सुनील सोच में डूबते हुए बोला!
दोस्तों, उस जमाने में कम्पोजिंग में लोहे के एक-एक अक्षर को चुनकर, कम्पोजीटर शब्द बनाते थे, फिर शब्द के बाद स्पेस के लिए लोहे का ब्लैंक फोन्ट सैट किया जाता था, फिर लाइन पूरी होने पर, अगली लाइन आरम्भ करने से पहले, एक लाइन की साइज की लकड़ी से स्पेस डाला जाता था! कई बार स्पेस के लिए एक से अधिक लकड़ी इस्तेमाल की जाती थी! एक लाइन से दूसरी लाइन के बीच कितनी लकड़ी डाली जायें, यह इस बात पर निर्भर करता था कि एक पेज में कितनी लाइन छपनी है! कभी-कभी स्पेस के लिए लकड़ी की जगह लोहे की लाइन के साइज की पत्ती इस्तेमाल की जाती थी! बीच की स्पेस लकड़ी की हो या लोहे की पत्ती की, यह किताब के प्रिंटिंग आर्डर पर निर्भर करता था!
ज्यादा संख्या में छपने वाली किताबों में बीच की स्पेस लोहे की पत्ती से ही दी जाती थी, कम छपने वाली किताबों में लकड़ी की पत्ती चल जाती थी! लकड़ी की वो पत्ती कैसी लकड़ी की होती थी, यह भी जानना चाहेंगे आप..? तो जान लीजिये कि आप जो बर्फ़ की आइसक्रीम खाते हैं, उसकी डण्डी जैसी ही लकड़ी की पत्ती होती थी!
तो आखिर यह तय हुआ कि अगर मैटर ज्यादा हुआ तो भी मैटर काटा नहीं जायेगा! किसी भी तरह एडजस्ट कर लिया जायेगा!
यह तो थी उस टी स्टाल में पहले दौर की बात...! इसके बाद दूसरा दौर किस विषय पर आरम्भ होना था, आप सब जानते ही हैं!
"अपने नावल के बारे में क्या सोचा है...?" राज भारती जी ने बात आरम्भ करते हुए कहा!
"शुरू कर देते हैं...!" मैंने कहा!
"शुरू तो करना ही है, पर क्या शुरू करना है?"
"नावल...!"
"नावल तो शुरू करना है, पर उसमें लिखेगा क्या?"
"कहानी...!"
इस बार भारती साहब ने मेरी गुद्दी पर हल्की-सी चपत जड़ी और बोले -"उस में कैरेक्टर क्या रखना है?"
"राज भारती रख दूं...?"
भारती साहब हंसे! सुनील ने भी साथ दिया, पर वो बात चीत में शामिल होता हुआ बोला -"मज़ाक छोड़... सीरियसली...!"
"मै सीरियसली कह रहा हूँ! बहुत जबरदस्त सीरीज़ रहेगी! पर मेरे उपन्यास में राज हीरो का नाम होगा और भारती उसकी सहयोगिनी और हीरोइन का, जैसे कर्नल रंजीत में मेजर बलवन्त और सोनिया हैं, पर मेरा हीरो मेजर बलवन्त जैसा शुष्क नहीं होगा! बात चीत में वह सुरेन्द्र मोहन पाठक के सुनील जैसा होगा, एक्शन में वेद प्रकाश काम्बोज के विजय जैसा और हाँ, वह झकझकी जैसी कोई टुकटुकी सुनाया करेगा! लेकिन उसके पास अंजुम अर्शी के मास्टर ब्रेन के बूमरैंग हथियार जैसी एक गेंद भी होगी, जिससे वो अक्सर दुश्मनों पर वार करेगा और रोमांस में वह ओम प्रकाश शर्मा जी के जगत का परदादा होगा! इसके अलावा हमारा हीरो राज अपनी भारती के मुंह से "आई लव यू" कहलवाने के लिए रोज नई-नई एक से एक खूबसूरत लड़कियों से इश्क भी लड़ायेगा!" मैंने अपने उपन्यास के कैरेक्टर्स की डिटेल बताई तो भारती साहब बोले -"नहीं-नहीं राज भारती नाम नहीं! पब्लिशर सोचेंगे - यह राज भारती ने जान बूझकर रखवाया है! कुछ दूसरा सोचा हो तो बता...!"
अब मेरे लिए मुश्किल थी! तब तक सोचा तो मैंने कुछ भी नहीं था! ये राज और भारती का शगूफा भी मैंने वहीं बैठे-बैठे मज़ाक में कहा था, हालांकि कहने के साथ ही मुझे लगा - आइडिया जबरदस्त है! अगर मैं राज और भारती पर उपन्यास लिखूँगा तो वाकई एक जबरदस्त कैरेक्टराइजेशन होगा! पर ये आइडिया तो खारिज़ कर दिया गया! अब दूसरा आइडिया बताना था!
तो दोस्तों, मैं जिस अखबार में अपनी पाण्डुलिपि लपेट कर लाया था, उसमें एक जगह धीरूभाई अम्बानी के बारे में कोई छोटी-सी खबर थी, जिस पर अचानक ही मेरी नज़र गई तो मैं बोल उठा - "ठीक है, फिर मेरा हीरो कोई अम्बानी होगा! करोड़ों-अरबों का मालिक, लेकिन उपन्यास में यह बात कोई नहीं जानता होगा, क्योंकि वह एक घुमक्कड़ सैलानी होगा! अपनी करोड़ों-अरबों की जायदाद अपने भरोसेमंद अंकल के हवाले कर वह अपने लिए पत्नी तलाश करने के लिए घूमने निकला होगा और इसके लिए जिस-जिस शहर में जायेगा, वहाँ संयोगवश अपराधियों से टकरायेगा और एक-एक शहर में पांच सात कहानियाँ तो तैयार की ही जा सकती हैं!"
"और...?" भारती साहब ने पूछा!
"और यह कि वह आवाज फेंकने की कला का माहिर होगा और पशु-पक्षियों की बातें समझने की खूबी होगी उसमें! यह खूबी कैसे और कहाँ से आई, इसके लिए पन्द्रह बीस उपन्यासों के बाद एक विशेषांक लिखा जायेगा!"
"डन!" भारती साहब ने मेरे इस आइडिये पर स्वीकृति की मोहर लगा दी और बोले -"कम से कम इसमें कुछ नया तो है! पर तेरे इस अम्बानी का कुछ नाम भी तो होना चाहिए!"
तभी मेरे कानों में एक आवाज पड़ी - "पारस ओये..!"
मोहन सिंह प्लेस में पास ही किसी दुकान पर काम करने वाले एक छोकरे का नाम पारस था और मैने वही सुनकर रजत राजवंशी नाम से अपने उपन्यास के हीरो का फाइनल नाम बताया -"पारस अम्बानी...!"
"बढ़िया..!" भारती साहब ने कहा!
"अच्छा है...!" सुनील ने भी कहा!
और इस तरह उपन्यास में लिए जाने वाले कैरेक्टर का नाम तो पक्का हो गया, पर अब भारती साहब का प्रश्न था - "उपन्यास में तूने लिखना क्या है...?"
"क्या लिखूँ... आप बताओ!"
"आजकल डकैती के उपन्यास बहुत पसन्द किये जा रहे हैं!काफी लोग डकैती पर लिख रहे हैं!"
"जो काम काफी लोग कर रहे हैं, वही काम मैं भी करूँ तो मुझ में और सब में फर्क क्या रह जायेगा?" मैंने कहा!
"हाँ, यह तो है... तेरा नावल कुछ तो अलग होना चाहिए, पर क्या लिखेगा तू...?"
"कुछ नया नहीं, वही जो लोग बरसों से लिखते आये हैं और लोग सबसे ज्यादा पसन्द करते हैं? पर मेरा स्टाइल सबसे अलग होगा! कहानी तो पुराने ढंग की होगी, पर सोने या चांदी के वर्क में लिपटी बर्फी की तरह होगी!"
*पर होगी क्या....? क्या लिखने जा रहा है तू... ?"
"पता नहीं, पर कहानी पढ़ने वाले बच्चे, बचपन में जब हम कोई ऐसी कहानी सुनते थे, जिस में कोई राजकुमारी किसी राक्षस के चंगुल में फंस जाती है और कोई राजकुमार उसे छुड़ाता है तो वो कहानी हमें बहुत पसन्द आती थी और राजकुमारी, राक्षस और राजकुमार को लेकर तिलिस्मी दुनिया की किताबों में ढेरों कहानियाँ तो मैंने भी पढ़ी हैं! आपने भी पढ़ी होंगी?"
"तू कहना क्या चाहता है?" भारती साहब ने पूछा!
"यही कि एक लड़की मुसीबत में हो और हीरो उसे बचाये!" मैंने कहा -"यह एक ऐसा हिट फार्मूला है, जिस पर ढंग से लिखा हुआ कोई भी उपन्यास सुपरहिट न हो, यह पासिबिल ही नहीं है! बस हमें घटनाओं का ताना-बाना हमें बेहद जोरदार बुनना होगा!"
"पर इसमें जासूसी कहाँ होगी?" सुनील ने सवाल किया!
"होगी न, इस में हमारा पारस हर बार किसी गैंगस्टर्स से टकरायेगा और मेरे पहले उपन्यास में यह होगा कि गैंगस्टर ने लड़की का अपहरण कर लिया है और पारस अम्बानी का सम्बन्ध उस लड़की के माँ- बाप से हो जाता है और वह लड़की को गैंगस्टर से छुड़ाने के लिए गैंगस्टर से टकराता है!"
"डन...!" भारती साहब ने कहा और मेरे नये उपन्यास "रिवाल्वर का मिज़ाज में क्या लिखा जाना है, यह भी तय हो गया!
(शेष फिर)
लेकिन ऐसा कैसे हुआ कि जब उपन्यास लिखा गया तो प्लाट बदल गया था और पब्लिशर भी!
थोड़ा और इन्तजार कीजिये!
कुछ तबियत भी अप डाऊन होती रहती है, इसलिए आखिरी किश्त अभी पूरी नहीं कर सका!
लेकिन अब बस, ताबूत में आखिरी कील ठोंकनी है!
जय श्रीकृष्ण!
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
कहानियाँ ऐसे भी बनती हैं -3
😎 *रिवाल्वर का मिज़ाज : कहानियाँ ऐसे भी बनती हैं -3*
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थोड़ी ही देर बाद नसीम एक बेहद खूबसूरत मल्टीकलर स्वेटर साथ लेकर आये और मुझे थमाते हुए बोले -"योगेश जी, यह स्वेटर पहनकर देखिये!"
मगर मेरे पहनने से पहले ही भारती साहब और फोटोग्राफर दोनों के मुंह से लगभग एक साथ ही निकला -
"बढ़िया...!"
"खूबसूरत....!"
कई रंगों का वह स्वेटर भारती साहब ने खुद मुझे पहनाया, जैसे छोटे बच्चे को पहनाते हैं! मुझे बड़ा अजीब लग रहा था, किन्तु यह पूरी तरह अजीब भी नहीं था, क्योंकि इस उम्र में भी जब मुझे अस्थमा का बहुत तगड़ा अटैक होता था, तब मेरे नहाने की छुट्टी हो जाती थी, *(हालांकि आम तौर पर मैं रोज नहाने वाला व्यक्ति हूँ! बुखार में भी!)* और तब अगर गर्मी के दिन हुए तो मेरी माता जी मेरे ऊपरी सारे कपड़े उतार कर, गीले तौलिये से मेरा बदन पोंछ कर, मुझे कपड़े पहनाती थीं! सर्दियों में बदन पोंछने का भी झंझट नहीं किया जाता! यूँ ही कपड़े बदल दिये जाते थे! कभी-कभी मम्मी का यह काम पिताजी भी कर दिया करते थे!
इसीलिए भारती साहब ने स्वेटर पहनाया तो अजीब नहीं लगा!
आज राज भारती जी इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन नसीम भाई उस घटना के गवाह हैं!
मुझे स्वेटर पहनाने के बाद भारती साहब ने नसीम से पूछा - "ठीक है?"
नसीम ही नहीं, फोटोग्राफर ने भी बढ़िया बताया और फोटोग्राफर ने उसे अपने हिसाब से सैट करने के बाद मेरी कई तस्वीरें खीची!
बाद में स्वेटर उतारने के बाद भी कुछ स्नैप लिये गये!
उसके बाद हम बड़े अच्छे मूड में वहाँ से रुखसत हुए!
अब मुझे सुनील पंडित के लिए वेद प्रकाश शर्मा के कैरेक्टर "केशव पंडित" को मुख्य पात्र बनाकर उपन्यास आरम्भ करना था, पर एक समस्या थी - उस समय तक मैंने वेद की केशव पंडित सीरीज़ का एक भी उपन्यास नहीं पढ़ा था! और केशव पंडित सीरीज़ का मेरे पास एक भी उपन्यास नहीं था!
उपन्यास लिखना शुरू करने के लिए पहले मैंने राज भारती जी से भी बात की थी और केशव पंडित कैरेक्टर के बारे में डिटेल पूछी तो पता चला कि उस समय तक राज भारती जी ने तो वेद प्रकाश शर्मा का कभी भी एक भी उपन्यास नहीं पढ़ा! भारती साहब ने हिन्दी में इब्ने सफी, ओम प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश काम्बोज आदि काफी उपन्यासकारों के उपन्यास पढ़े थे, पर वेद प्रकाश शर्मा का तब तक तो एक भी उपन्यास नहीं पढ़ा था!
यशपाल वालिया जी से भी बात की तो पता चला - उन्होंने भी वेद प्रकाश शर्मा का एक भी उपन्यास नहीं पढ़ा था!
तब जब मैं सुनील पंडित नाम के लिये उपन्यास किस तरह आरम्भ किया जाये, सोचते हुए यशपाल वालिया के घर बैठा उनसे बात कर रहा था, तभी उनके घर "इन्देश्वर जोशी" का आगमन हुआ!
इन्देश्वर जोशी वालिया साहब का बहुत पुराना दोस्त था, पर उस समय वह हम सभी का दोस्त हो चुका था! राज भारती, एस. सी. बेदी और मैं सभी उससे बहुत मिक्स अप और फ्रैंक थे!
इन्देश्वर जोशी - वही है, जिसे अगर आपने कभी विजय पाकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित किये गये मनोज और सूरज नामों के उपन्यास देखे हों तो उनमें सूरज नाम के पीछे उसी की तस्वीर थी! मनोज नाम की बैक में यशपाल वालिया के पड़ोस में रहने वाले "मनोज" नाम के एक नाबालिग किशोर की तस्वीर थी! पर विजय पाकेट बुक्स में छपे मनोज और सूरज के ये दोनों नकली उपन्यास थे, पर इनके बैक कवर पर असली इन्सानों की तस्वीर थी, जबकि मनोज पाकेट बुक्स में ये ट्रेडमार्क थे और इन नामों में मनोज पाकेट बुक्स में बैक कवर पर किसी की तस्वीर नहीं होती थीं! मनोज पाकेट बुक्स इन ट्रेडमार्क्स में किसी भी लेखक का उपन्यास छाप सकती थी! अत: इन नामों के उपन्यासों के पीछे कभी कोई तस्वीर नहीं छापी जाती थी!
पर विजय पाकेट बुक्स से मनोज और सूरज क्यों छपे..?
उसका कारण राजहंस उर्फ केवल कृष्ण कालिया के एक उपन्यास का मनोज में छपना था!
पर वो किस्सा फिर कभी...
तब इन्देश्वर जोशी का आना सुखद हवा के झोंके के समान था! इन्देश्वर ने वेद प्रकाश शर्मा के बहुत सारे उपन्यास पढ़े थे और केशव पंडित के भी!
उसने मुझे केशव पंडित के कैरेक्टर के बारे में बहुत अच्छी तरह बताया और मैने केशव पंडित का एक भी उपन्यास पढ़े बिना ही केशव पंडित सीरीज़ का उपन्यास लिखना आरम्भ कर दिया! हालांकि बाद में मैंने कई उपन्यास पढ़े और जब वेद प्रकाश शर्मा ने तुलसी पेपर बुक्स आरम्भ किया और एक नया नाम सोनू पंडित आरम्भ किया तो सोनू पंडित नाम के लिये केशव पंडित सीरीज़ के सभी उपन्यास मैंने ही लिखे! पर वो किस्सा भी फिर कभी...!
मैंने सुनील पंडित के लिए केशव पंडित लिखना आरम्भ कर दिया और जब लगभग पचास पेज तक लिख चुका था, एक दिन राज भारती जी और सुनील पंडित का आगमन हुआ!
इस बार सुनील मेरे लिए रजत राजवंशी नाम से छपने वाले मेरे उपन्यास "रिवाल्वर का मिज़ाज" का एक टाइटिल लेकर आया था!
टाइटिल में बैक पर मेरी तस्वीर भी थी!
पर यदि आपने मेरा उपन्यास रिवाल्वर का मिज़ाज देखा है ! पढ़ा है, तो आपने देखा होगा कि रजत राजवंशी नाम से छपने वाला पहला उपन्यास रिवाल्वर का मिज़ाज मेरठ की माया पाकेट बुक्स से प्रकाशित हुआ था और उस समय सामने आने वाला यह टाइटिल सपना पाकेट बुक्स से था तो.....
ऐसा क्या हुआ कि सपना पाकेट बुक्स से छपने वाला "रजत राजवंशी" का उपन्यास "रिवाल्वर का मिज़ाज" "माया पाकेट बुक्स" से छपा और वह टाइटिल भी कोई और था, जो माया पाकेट बुक्स द्वारा छापा गया था!
ऐसा क्या हुआ और ऐसा क्यों हुआ कि रजत राजवंशी तो छपा, मगर प्रकाशक बदल गया!
(शेष फिर)
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मंगलवार, 4 मई 2021
कहानियां ऐसे भी बनती हैं- योगेश मित्तल-2
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तब मेरी सिक्स्थ सेंस बहुत तेज़ थी! मेरी तार्किक क्षमता भी जबरदस्त थी!
मनोज पाकेट बुक्स के राजकुमार गुप्ता और गौरीशंकर गुप्ता जी से और कोई लेखक सही-गलत की बहस नहीं करता था, लेकिन मुझे उनकी बात सही नहीं लगती तो अड़ जाता था और उन्हें अपनी बात सही होने का कायल भी कर देता था!
ऐसे ही एक अवसर पर जब मैं मनोज पाकेट बुक्स में भारत नाम से छपने वाले उपन्यास "माँ-बाप" में एडीटिंग और लेखन का काम कर रहा था, आरम्भिक एक सीन पर मेरी राज कुमार गुप्ता जी से बहस हो गई और तीस हजारी कोर्ट परिसर में जाने की नौबत आ गई थी! पर वह किस्सा फिर कभी... अभी हम "रिवाल्वर का मिज़ाज" लिखे जाने के किस्से पर थे!
"रिवाल्वर का मिज़ाज" रजत राजवंशी नाम से छपने वाले उपन्यासों में मेरा पहला उपन्यास था!
अपनी सिक्स्थ सेंस और तार्किक क्षमता का जिक्र मैंने इसलिये किया, क्योंकि जब भी ऐसी कोई बहस वाली घटना घटती थी, राज भारती अक्सर कहते, तुझे तो कोई वकील होना चाहिए था और इमेजिनेशन वाली घटना घटती तो वह कहते, तुझे तो कोई जासूस होना चाहिए था!
नीचे पहुँचकर मैंने सपना पाकेट बुक्स के स्वामी सुनील कुमार शर्मा उर्फ सुनील पंडित से पूछा - "आज सुबह ही सुबह गुरु जी के साथ कैसे...?"
"पटेल नगर गया था - गुरु जी को कुछ दिखाने तो गुरु जी ने कहा - चल, योगेश के पास चलते हैं!" सुनील ने जवाब दिया!
मैंने राज भारती जी की ओर देखा तो वह बोले - "चल, कहीं चलकर बैठते हैं! वहीं बात करेंगे!"
"कहाँ...?" मैंने पूछा तो भारती साहब बोले - "तू बता, तू तो यहीं रहता है!"
"मोहनसिंह प्लेस चलते हैं!" मैंने कहा!
जिन लोगों ने मोहनसिंह प्लेस का नाम नहीं सुना, उन्हें बता दूँ कि तब कनाट प्लेस के रिवोली सिनेमा हाल से ठीक पहले बंगला साहब गुरुद्वारे वाली सड़क पर जो बिल्डिंग थी, उसी का नाम मोहनसिंह प्लेस था! खास बात यह थी कि कनाट प्लेस में ही रीगल सिनेमा के पास स्थित दिल्ली के विख्यात इण्डियन काफी हाऊस को जब रीगल के पास से हटाया गया तो वह मोहनसिंह प्लेस की छत पर ही स्थानांतरित हुआ था, लेकर मोहनसिंह प्लेस के बैसमेन्ट और अपर फ्लोर्स में भी तब बहुत-सी दुकानें थीं! आज कनाट प्लेस कितना बदल गया है, मुझे नहीं मालूम! राज भारती जी के स्वर्गवास के बाद मैं आज तक कनाट प्लेस नहीं गया।
सोमवार, 3 मई 2021
कहानियां ऐसे भी बनती है- योगेश मित्तल- 01
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उन दिनों उपन्यासकार कुमार कश्यप और उन की विक्रांत सीरीज़ की हवा अपने चरम पर थी!
विक्रांत सीरीज़ के नकली उपन्यास, मतलब - जो कुमार कश्यप के लिखे हुए नहीं थे, भी तादाद में छप रहे थे!
ऐसे में कोई प्रकाशक किसी नये लेखक को छापने के लिये तैयार नहीं होता था और अगर प्रकाशक उस नये लेखक का नाम छापने के लिए तैयार होता भी था तो लेखक से कहा जाता - "भाई, विक्रांत सीरीज़ पर बढ़िया सा उपन्यास लिख ला!"
मतलब यह कि लेखक को अपना नाम छपवाना है तो उसे विक्रांत सीरीज़ ही लिखनी पड़ेगी!
मुझे लिखते हुए अर्सा हो गया था, लेकिन पाठकों में मेरी कोई पहचान नहीं थी! इसके लिए मैं तो जरा भी दुखी नहीं था, क्योंकि स्वभाव से ही हमेशा मस्तमौला रहा हूँ!
पर भारती साहब बहुत दुखी थे और दुखी होने का मुख्य कारण यह था कि उनकी भविष्य की हर योजना मुझसे जुड़ी थी और उसके लिए वह चाहते थे कि थोड़ा बहुत ही सही पाठकों में मेरा नाम तो होना चाहिए था! दरअसल राजभारती जी मुझे साथ लेकर बम्बई जाना चाहते थे और उन्हें लगता था कि मेरी अगर थोड़ी भी पहचान बन जाती है तो बम्बई में हमें झण्डे गाड़ने में बहुत आसानी होगी!
अकेले और यशपाल वालिया के साथ राजभारती कुछ चक्कर बम्बई के लगा भी चुके थे, जिसमें कोई कामयाबी नहीं मिली थी!
यही कारण था - राजभारती मेरे साथ या अकेले, जब भी मेरठ जाते मेरे लिए बात करते थे!
पर ढाक के तीन पात! कान में बात आती कि योगेश को बोलो - विक्रांत सीरीज़ के दो-तीन उपन्यास तैयार कर ले!
आखिर एक दिन भारती साहब ने मुझसे कह ही दिया - "ऐसा कर, तू विक्रांत सीरीज के कुछ उपन्यास तैयार कर फटाफट...!"
"नहीं यार, ये काम कुमार कश्यप को ही करने दो!" मैंने पूरी बात समझे बिना ही कहा!
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