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मंगलवार, 4 मई 2021

कहानियां ऐसे भी बनती हैं- योगेश मित्तल-2

रिवाल्वर का मिज़ाज : कहानियाँ ऐसे भी बनती हैं - 02
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तब मेरी सिक्स्थ सेंस बहुत तेज़ थी! मेरी तार्किक क्षमता भी जबरदस्त थी! 
मनोज पाकेट बुक्स के राजकुमार गुप्ता और गौरीशंकर गुप्ता जी से और कोई लेखक सही-गलत की बहस नहीं करता था, लेकिन मुझे उनकी बात सही नहीं लगती तो अड़ जाता था और उन्हें अपनी बात सही होने का कायल भी कर देता था! 
ऐसे ही एक अवसर पर जब मैं मनोज पाकेट बुक्स में भारत नाम से छपने वाले उपन्यास "माँ-बाप" में एडीटिंग और लेखन का काम कर रहा था, आरम्भिक एक सीन पर मेरी राज कुमार गुप्ता जी से बहस हो गई और तीस हजारी कोर्ट परिसर में जाने की नौबत आ गई थी! पर वह किस्सा फिर कभी... अभी हम "रिवाल्वर का मिज़ाज" लिखे जाने के किस्से पर थे! 
"रिवाल्वर का मिज़ाज" रजत राजवंशी नाम से छपने वाले उपन्यासों में मेरा पहला उपन्यास था! 
अपनी सिक्स्थ सेंस और तार्किक क्षमता का जिक्र मैंने इसलिये किया, क्योंकि जब भी ऐसी कोई बहस वाली घटना घटती थी, राज भारती अक्सर कहते, तुझे तो कोई वकील होना चाहिए था और इमेजिनेशन वाली घटना घटती तो वह कहते, तुझे तो कोई जासूस होना चाहिए था!
नीचे पहुँचकर मैंने सपना पाकेट बुक्स के स्वामी सुनील कुमार शर्मा उर्फ सुनील पंडित से पूछा - "आज सुबह ही सुबह गुरु जी के साथ कैसे...?"
"पटेल नगर गया था - गुरु जी को कुछ दिखाने तो गुरु जी ने कहा - चल, योगेश के पास चलते हैं!" सुनील ने जवाब दिया! 
मैंने राज भारती जी की ओर देखा तो वह बोले - "चल, कहीं चलकर बैठते हैं! वहीं बात करेंगे!"
"कहाँ...?" मैंने पूछा तो भारती साहब बोले - "तू बता, तू तो यहीं रहता है!"
"मोहनसिंह प्लेस चलते हैं!" मैंने कहा! 
जिन लोगों ने मोहनसिंह प्लेस का नाम नहीं सुना, उन्हें बता दूँ कि तब कनाट प्लेस के रिवोली सिनेमा हाल से ठीक पहले बंगला साहब गुरुद्वारे वाली सड़क पर जो बिल्डिंग थी, उसी का नाम मोहनसिंह प्लेस था! खास बात यह थी कि कनाट प्लेस में ही रीगल सिनेमा के पास स्थित दिल्ली के विख्यात इण्डियन काफी हाऊस को जब रीगल के पास से हटाया गया तो वह मोहनसिंह प्लेस की छत पर ही स्थानांतरित हुआ था, लेकर मोहनसिंह प्लेस के बैसमेन्ट और अपर फ्लोर्स में भी तब बहुत-सी दुकानें थीं! आज कनाट प्लेस कितना बदल गया है, मुझे नहीं मालूम! राज भारती जी के स्वर्गवास के बाद मैं आज तक कनाट प्लेस नहीं गया।    मोहनसिंह प्लेस के बेसमेंट में घुसते ही राइट हैंड साइड कार्नर में एक चाय की दुकान थी! मैं अक्सर वहाँ आता रहता था! कोई मुझसे मिलने आता और उसे टाप फ्लोर के अपने फ्लैट में नहीं बुलाना होता था तो उसे चाय पिलाने के लिए, अपने साथ लेकर मैं वहीं आता था!
उस टी स्टाल में अन्दर कई लोग थे, फिर भी हम तीनों के लायक जगह थी! 
चाय की दुकानवाले ने मुझे देखते ही नमस्ते की तो राज भारती जी ने अन्दर बढ़ते-बढ़ते उसके कन्धे पर हाथ रख दिया और अपने विशिष्ट चुटीले अन्दाज़ में बोले - "हमलोग दुश्मन हैं क्या...?"
"जी...!" वो हकबका गया! 
सुनील तुरन्त बोला - "भाई, ये जिस ठिंगू को आपने नमस्ते की हैं, ये उसके भी गुरु जी हैं!"
मेरे लिए ठिंगू शब्द सुन चायवाला मेरी ओर देखते हुए हंसा और उसने हंसते हुए ही भारती साहब से कहा-"नमस्ते गुरु जी!"
भारती साहब ने बड़े बूढ़ों की तरह उसके बालों पर हाथ फेरा और बोले - "जीते रहो, तुम्हारी दुकान पर राजेश खन्ना और मुमताज आकर शूटिंग करें!"
भारती साहब के आशीर्वाद हमेशा कुछ अलग ढंग के ही हुआ करते थे, लेकिन चायवाला खुश हो गया! वह मुमताज का बहुत तगड़ा "फैन" था!
अन्दर टेबल पर जमने के बाद राज भारती जी ने कहा- "ये सुनील तेरे लिए एक प्रोग्राम बनाकर आया है!"
"एक मिनट गुरु जी!" सुनील ने एकदम भारती साहब से कहा-"पहले योगेश जी से टाइटिल  पास करवा लें!"
"हाँ, चल, पहले ऐसा कर ले!" भारती साहब बोले! 
सुनील ने अपना ब्रीफकेस टेबल पर रखा और जेब से कोई छोटी सी चाबी निकाल ब्रीफकेस अनलाक किया! फिर खोला! 
फिर उसमें से एक डिजाइन निकाला और मेरी ओर बढ़ा दिया! 
वह सफेद कार्डबोर्ड पर बना एक रंगीन डिजाइन था! डिजाइन के ऊपर बटर पेपर का परदा पड़ा हुआ था! बटर पेपर का परदा हटाया तो  ट्रांसपेरेंट सेलोफिन से पूरी तरह कवर्ड डिजाइन चमक उठा! 
सेलोफिन पेपर डिजाइन के बैक में मोड़ कर पीछे की ओर से व्हाइट रबर सोल्युशन द्वारा चिपकाया गया था! इस तरह 'सेफ्टी'  के लिए डिजाइन कवर किया जाता है! डिजाइन वाटर कलर से बने होते हैं और जरा सी लापरवाही डिजाइन खराब करती है! पानी की बूंद तो दूर की चीज है! बहुत से लोग बात करते हैं तो अक्सर उनके मुँह से थूक की इक्का-दुक्का बूंद भी हवा में उछलती है! 
तो सेलोफिन से पूरी तरह कवर्ड कलर डिजाइन के खराब होने की सम्भावना शून्य होती है! 
मैने वो दौर देखा है, जब कटिंग पेस्टिंग के डिजाइन पच्चीस रुपये और पूरी तरह कलर वर्क के डिजाइन पचास रुपये में तैयार होते थे और वो दौर भी देखा है, जब प्रकाशक राज कुमार गुप्ता जी ने मुझे एक बहुत शानदार डिजाइन दिखाया और बताया कि इस डिजाइन के आर्टिस्ट ने पांच हजार रुपये माँगे थे और एक रुपया भी कम नहीं किया! पूरे पांच हजार देकर बनवाया है! 
पाकेट बुक्स लाइन में आरम्भ में भिन्न भिन्न कलाकारों ने कलर डिजाइन बनाये होंगे, पर ऐसे आर्टिस्ट्स को इज्जत मिलने की शुरुआत हिन्द पाकेट बुक्स के लिए डिजाइन करने वाले चड्ढा और इन्द्रजीत से हुई! वे क्लासिक और मंहगे कलाकार थे, लेकिन फिर पाकेट बुक्स क्षेत्र में कृष्णानगर में रहने वाले इन्दर आर्टिस्ट और बलजीत नगर में रहने वाले एन. एस. धम्मी    भी धीरे धीरे आगे बढ़ने की कोशिश की! इन्दर उस समय पचास रुपये में कलर डिजाइन बना देते थे, लेकिन पाकेट बुक्स टाइटिल में हंगामें और महंगे रेट की शुरुआत अमरोहा में रहने वाले "शैले" आर्टिस्ट और उसके कई शिष्यों से हुई! 
उन्हीं में से एक "नसीम" का डिजाइन मेरे सामने था, जिसके कवर पर लिखा था - रिवाल्वर का मिज़ाज और लेखक के नाम की जगह मेरा नाम - रजत राजवंशी लिखा था!
"कैसा है डिजाइन...?" सुनील ने पूछा! 
"अच्छा है!" मैंने कहा! 
"पर यार, इसकी बैक भी फाइनल करनी है, इसके लिए नसीम को तेरी फोटो देनी है! फोटो है तेरे पास कोई - पहले की खिंची हुई?" भारती साहब ने मुझसे पूछा! 
"हाँ, दो एक होंगी, पर उनमें से कोई छापने के लिए आप ओके करोगे, मुझे सन्देह है!" मैंने कहा! 
"क्यों...? सही नहीं है वो...?"
"सही तो हैं, पर उनमें मैं जैसा हूँ, वैसा ही दिखता हूँ!"
"चल छोड़....!" भारती साहब ने कहा - "नसीम के यहाँ चलेंगे, वहीं उसकी पहचान का फोटो स्टुडियो है, शायद उसके भाई का ! वहीं फोटो खिंचवा लेंगे और उसी ने तो बैक कवर का डिजाइन बनाना है! अपनी मर्जी से फोटो खिंचवाकर डिजाइन बना देगा!"
"ठीक...!" मेरे लिए इन्कार या बहस की गुंजाइश नहीं थी! 
चाय वाले ने चाय टेबल पर रखवा दी थी, हम लोग सिप लेते-लेते बात कर रहे थे! 
सुनील ने घूंट भरते-भरते अचानक रुककर कहा - "अच्छा, अब काम की बात हो जाये!"
"तो अब तक हम बेकार की बातें कर रहे थे...?" मैंने पूछा! 
"नहीं-नहीं..! मेरा मतलब है, जिस असली काम से मैं यहाँ आया हूँ - उस बारे में बात हो जाये! तुम्हारा टाइटिल तो हम बाद में भी दिखा सकते थे, लेकिन यह बात बहुत जरूरी है!"
"क्या...?"
"वो यार, मैंने सुनील पंडित का एक नावल का टाइटिल बनवा रखा था, जो इस सैट में डालना था! उस दिन जब तुम मेरे घर आये थे, तब इस लिए बात नहीं की थी, क्योंकि आजकल मैं धर्मपाल शर्मा से काम करवा रहा हूँ! जरूरतमंद है और अपना ही यार है!"
"तो...?"
"धर्मपाल शर्मा को अभी कुछ अर्जेन्ट काम मिल गया है और उसे अभी दो तीन महीने टाइम मिलना मुश्किल है! टाइटिल मेरा तैयार है! तुम एक उपन्यास पहले मेरे लिए लिख दो! फिर अपना लिख दो!" 
मैंने भारती साहब की ओर देखा, क्योंकि व्यस्त तो मैं भी बहुत था! भारती साहब मेरा मूड देख तुरन्त बोले - "नहीं, मना नहीं करना है! एक नावल सुनील के लिए - वो.... वेद का कैरेक्टर है ना केशव पंडित है ना - उस पर लिखना है! अपने लिए तेरी जैसी मर्जी हो!"
अन्ततः मैंने यह फैसला सुनाया कि फिलहाल सुनील पंडित के लिए मैं लिख दूँगा, पर रजत राजवंशी का उपन्यास इस सैट में न रखा जाये! अगले सैट तक मैं तैयार कर दूंगा!"
"पर इसके हर सैट के लिए तुझे सुनील पंडित के लिए भी रेगुलर लिखना होगा!" भारती साहब बोले! 
मैंने स्वीकार कर लिया! 
दोस्तों, सपना पाकेट बुक्स में सुनील पंडित के उपन्यास भी मेरे ही लिखे हुए हैं! 
खैर, मोहनसिंह प्लेस से निकलने के बाद सुनील ने भारती साहब से कहा - "आप लोग अपने काम निपटा लो, मैं उत्तमनगर हो आता हूँ!"
उत्तमनगर उन दिनों बसन्त आरम्भ ही हुआ था! वहाँ ओम विहार में उसके साले अपना घर बनवा रहे थे!
भारती साहब ने वहाँ से नये पुल से जमना पार जाने वाली कोई बस पकड़ी और हम लक्ष्मीनगर के स्टाप पर उतरे! मैंने भारती साहब को बताया कि वहीं "मोहन पाकेट बुक्स का आफिस है! 
पर हम उस तरफ नहीं गये! मुझे याद नहीं - उस समय आर्टिस्ट नसीम का स्टुडियो कहाँ था, पर जहाँ भी था, भारती साहब वहीं ले गये! 
नसीम की मुस्कान तब भी बड़ी जालिम थी और आज भी बड़ी कातिल है! वह हमेशा जबरदस्त मुस्कान के साथ स्वागत करते हैं - उस रोज भी किया! 
भारती साहब ने नसीम से कहा - " तूने योगेश की बैक तैयार करनी है!"
"फोटो लाये हो...?" नसीम ने पूछा! 
"फोटो होती तो तेरे पास आते ही क्यों...?" भारती साहब बोले -"गंजे के हाथ नहीं भिजवा देते !"
सुनील के सिर पर हमेशा से कम बाल थे या यूँ कहिये कि वह सिर पर बहुत हल्के बाल रखता था, इसलिए उसे करीबी दोस्त गंजा कहकर ही पुकारते थे! 
नसीम के यहाँ हमने चाय पी! मट्ठी खाई! फिर नसीम हमें एक फोटो स्टुडियो में ले गया! तब भारती साहब ने कहा - "देख, अभी पैसे-व़ैसे का हिसाब तूने ही करना है! योगेश की जेब खाली है!"
"कोई बात नहीं..!" नसीम ने कहा! 
वो सर्दी के दिनों की शुरुआत थी! हम सभी ने स्वेटर पहन रखे थे! 
स्टुडियो में जिस फोटोग्राफर ने फोटो खींचनी थी, उसने मुझे देखते ही भारती साहब से कहा- "भारती साहब, फोटो खिंचवानी थी तो कम से कम कपड़े तो सही से पहना लाते, योगेश जी के तो स्वेटर का गला ही उधड़ा हुआ है!" 
वो स्वेटर मै पिछले एक हफ्ते से पहन रहा था और मैने कभी इस बात का ख्याल तक नहीं किया था, जो बात फोटोग्राफर ने कह दी! 
मुझे कोई शर्म महसूस नहीं हुई! कपड़ों पर ध्यान देने की मेरी कभी विशेष आदत नहीं रही! अब भी नहीं है! वो तो मेरी पत्नी राज और बेटी मेघना कहीं जाना हो तो मुझे लैक्चर पिलाकर तैयार करती हैं और बदसूरत से खूबसूरत बना देती हैं! 
भारती साहब ने मेरे स्वेटर पर नज़र डाली और एक क्षण में ही अपना स्वेटर उतार कर मेरी ओर बढ़ा दिया और बोले -"उतार स्वेटर और यह पहन!"
मैंने अपना स्वेटर उतार कर, भारती साहब का स्वेटर पहना ही था कि फोटोग्राफर की हंसी छूट गई! 
भारती साहब का स्वेटर मेरे शरीर पर लबादे सा लटक रहा था और मैं जबरदस्त कार्टून लग रहा था! 
नसीम उन दिनों भारती साहब के मुकाबले काफी पतला-दुबला था! उसने अपना स्वेटर उतारा और मेरी ओर बढ़ा दिया - "योगेश जी, यह फहनकर देखिये!"
मैंने भारती साहब का स्वेटर उतार कर नसीम का पहना, पर फोटोग्राफर के कुछ कहने से पहले ही नसीम ने ही कह दिया -"योगेश जी, ये कलर कुछ जम नहीं रहा!"
"हाँ, साइज तो एडजस्ट हो जायेगा!" फोटोग्राफर ने कहा - "पीछे से थोड़ा खींच कर मैं आगे का पोर्शन बिल्कुल ठीक कर दूंगा, पर कलर....!"
तभी नसीम भारती साहब से बोला -"आप लोग यहीं ठहरो, मेरे आफिस में एक स्वेटर और पड़ा है ! मैं वो लेकर आता हूँ! वो खूब जंचेगा!"
नसीम स्वेटर लाने चला गया! 
(शेष फिर) 
दोस्तों, नसीम आर्टिस्ट आज भी मेरे  दिल  के बहुत करीब हैं! उन्हें यह एक एक बात जरूर याद होगी! 
यह संस्मरण बीच में ही जान बूझ कर रोका है! नसीम आर्टिस्ट - वो शख्स हैं, जो मेरे लेखन पर ही नहीं, मेरी याद्दाश्त पर भी अपनी मोहर लगा सकते हैं और शायद फोटोग्राफर के बारे में वही और बेहतर बता सकते हैं! 

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