'प्यासा' फ़िल्म देख चुके हम सब जब दत्त भारती का सम्भवतः पहला उपन्यास 'चोट' पढ़ेंगे तो सोचेंगे कि आखिर इस लेखक ने क्या सोचकर 'गुरुदत्त फिल्म्स' पर कंटेंट चोरी का मुकदमा दायर किया होगा। फ़िल्म और उपन्यास में ऐसा कुछ भी सीधा साम्य ज़ाहिर तो नहीं होता। तो फिर ऐसी कौन सी बात थी जिसने दत्त भारती को यह विश्वास दिया होगा कि 'प्यासा' उनकी ही कहानी 'चोट' से प्रेरित है?
लोकप्रियता की चाह? नहीं। क्योकि दत्त भारती अपने क्षेत्र के गुरुदत्त ही थे। और मुम्बई का उन्हें कोई मोह नही था। वर्ना प्रोड्यूसर उमाकांत के प्रस्ताव को उन्होंने बेदर्दी से न ठुकरा दिया होता।
बात यह थी कि दत्त भारती सिनेमा के क्राफ्ट से परिचित थे। वह जानते थे कि उपन्यास और सिनेमा दो अलग अलग विधाएं हैं। 'उपन्यास से सिनेमा के निरूपण में बस मूल लिया जाता है, समूल नहीं।'
(दिल्ली दरबार का अधिकार भी जिस प्रोडक्शन हाउस ने लिया उसने लगभग उछलते हुए यह बताया कि किताब बहुत जानदार है और इससे हम फ़िल्म का दस प्रतिशत तो निकाल ही लेंगे। यही कारण है कि बहुधा उपन्यास पर बनी फिल्म जब हम देखते हैं तो निराश होते हुए कहते हैं कि यार पूरी कहानी बदल दी,मजा नही आया, इत्यादि। )
ख़ैर, दत्त भारती ने यही मूल 'प्यासा' में देख ली थी। वजूहात पूछे। जवाब नहीं आया। अदालत की शरण में गए। बाकी सच्चाई तो न्यायालयीय दलील और वकील तय कर ही देते हैं।
इसलिए जब भी प्रतीत हो कि ऐसा कुछ आपकी रचना के साथ हुआ है तो हौसला कीजिये। पूछिये। नोटिस दीजिये और जवाब न आये तो अदालत की शरण में जाइये। तंज-ओ-मज़ाह वालों की परवाह न करें। उन्हें माफ़ करते चलें। वह हमेशा,हर क्षेत्र में मौजूद रहते हैं।
जावेद साहब कितनी खूबसूरत बात कहते हैं-
क्यों डरें जिंदगी में क्या होगा
कुछ न होगा तो तज़ुर्बा होगा।।
लोकप्रियता की चाह? नहीं। क्योकि दत्त भारती अपने क्षेत्र के गुरुदत्त ही थे। और मुम्बई का उन्हें कोई मोह नही था। वर्ना प्रोड्यूसर उमाकांत के प्रस्ताव को उन्होंने बेदर्दी से न ठुकरा दिया होता।
बात यह थी कि दत्त भारती सिनेमा के क्राफ्ट से परिचित थे। वह जानते थे कि उपन्यास और सिनेमा दो अलग अलग विधाएं हैं। 'उपन्यास से सिनेमा के निरूपण में बस मूल लिया जाता है, समूल नहीं।'
(दिल्ली दरबार का अधिकार भी जिस प्रोडक्शन हाउस ने लिया उसने लगभग उछलते हुए यह बताया कि किताब बहुत जानदार है और इससे हम फ़िल्म का दस प्रतिशत तो निकाल ही लेंगे। यही कारण है कि बहुधा उपन्यास पर बनी फिल्म जब हम देखते हैं तो निराश होते हुए कहते हैं कि यार पूरी कहानी बदल दी,मजा नही आया, इत्यादि। )
ख़ैर, दत्त भारती ने यही मूल 'प्यासा' में देख ली थी। वजूहात पूछे। जवाब नहीं आया। अदालत की शरण में गए। बाकी सच्चाई तो न्यायालयीय दलील और वकील तय कर ही देते हैं।
इसलिए जब भी प्रतीत हो कि ऐसा कुछ आपकी रचना के साथ हुआ है तो हौसला कीजिये। पूछिये। नोटिस दीजिये और जवाब न आये तो अदालत की शरण में जाइये। तंज-ओ-मज़ाह वालों की परवाह न करें। उन्हें माफ़ करते चलें। वह हमेशा,हर क्षेत्र में मौजूद रहते हैं।
जावेद साहब कितनी खूबसूरत बात कहते हैं-
क्यों डरें जिंदगी में क्या होगा
कुछ न होगा तो तज़ुर्बा होगा।।
प्रस्तुति- सत्य व्यास
सत्य व्यास जी 'दिल्ली दरबार', 'बनारस टाॅकिज', 'बागी बलिया' और 'उफ्फ कोलकाता' जैसे चर्चित उपन्यासों के लेखक हैं।
रोचक किस्सा...
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