आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 15
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बिमल चटर्जी को मैंने अरुण के साथ मनोज पाॅकेट बुक्स जाने का किस्सा सच-सच बता दिया, वह सचमुच नाराज हुए।
"योगेश जी, मैंने आपसे कहा भी था कि हम मनोज पाॅकेट बुक्स चलेंगे ! फिर अरुण के साथ जाने की क्या जरूरत थी ?" बिमल बोले !
मैं चुप रहा ! मैंने पहले ही उन्हें बता दिया था कि मुझे बिना बताये - फिल्म के बहाने ले जाया गया था !
बिमल का गुस्सा थोड़ी ही देर का रहा !
कुछ देर बाद बोले -"चलो, कोई बात नहीं ! गौरी भाई साहब से सब्र नहीं हो रहा होगा, तभी अरुण को बोला होगा ! दरअसल मैंने उन्हें बताया था कि योगेश मित्तल एक छोटा बच्चा है, जो मेरे लिए कहानियाँ लिख रहा है ! तो उन्हें छोटे बच्चे को देखने की धुन सवार हो गई थी ! मुझसे भी कई बार कहा था - यह योगेश मित्तल कौन है ? इसे लेकर आ ! मेरी ही गलती है, जो अब तक आपको साथ लेकर नहीं गया !"
उसके बाद दिनचर्या में बदलाव यह आया कि मेरा बिमल चटर्जी के लिए लिखना बन्द हो गया, लेकिन हमारे सुबह-शाम अब भी साथ बीतते थे ! अक्सर हम साथ बैठकर भी लिखते थे !
कुछ दिन यूं ही बीत गए ! फिर एक दिन बिमल चटर्जी ने पूछा -"योगेश जी, वो आपकी गोलगप्पा मैगज़ीन में भी तो दो कहानियां छपी हैं, उनका ‘कुछ’ भेजा उन्होंने ?"
"कहाँ ?" मैंने कहा -"उन्होंने तो छपने की सूचना भी नहीं दी थी ! यदि आपकी लाइब्रेरी में मैगज़ीन नहीं देखी होती तो छपने का पता भी नहीं चलता !"
"ऐसा करो योगेश जी, एक चक्कर गर्ग एंड कंपनी का लगा आओ ! ये पब्लिशर सब ऐसे ही होते हैं ! पहुँच जाओगे तो कुछ मिल भी जायेगा, वरना भेजना-वेजना कुछ नहीं है इन्होने !” बिमल ने कहा !
उषा पॉकेट बुक्स से बिमल चटर्जी का दूसरा उपन्यास कातिलों की घाटी मार्केट में रिलीज़ हो चुका था, लेकिन पंकज पॉकेट बुक्स का दूसरा सेट अभी प्रेस में अटका हुआ था !
मैंने सुबह उठकर फ्रेश होने के बाद अपने घर पर ही मनोज बाल पाॅकेट बुक्स के लिए सोने का हिरण लिखना आरम्भ कर दिया था !
दिन में ग्यारह बजे के बाद ही मैं घर से बाहर निकलता ! एक चक्कर कुमारप्रिय के घर का लगाता, फिर विशाल लाइब्रेरी जाता !
बिमल चटर्जी के पास लगभग दो बजे तक बैठा करता !
लंच के टाइम बिमल चटर्जी भी लाइब्रेरी बन्द कर देते ! उनका घर रघुबरपुरा नम्बर दो में था ! पैदल का रास्ता था ! बिमल और मैं साथ-साथ जाते ! बिमल का घर आने पर मैं विदा लेकर आगे बढ़ जाता !
बिमल के घर से आगे की जो गली थी, वह जहाँ खत्म होती, वहीं सड़क पार मेरा घर था !
उस दिन रविवार था !
मैं जब विशाल लाइब्रेरी पहुँचा, गोरा-चिट्टा एक खूबसूरत नौजवान बिमल की दुकान पर था, वह धूप का चश्मा लगाये था !
बिमल ने उससे कहा -"यही हैं योगेश जी !"
फिर मुझसे कहा -"योगेश जी, यह रवि पाल हैं ! राजेन्द्र के घर ही किरायेदार हैं ! राजेन्द्र ने इन्हें आपके बारे में बताया होगा तो मिलने आये हैं !"
रवि पाल मुझसे तपाक से बड़ी गर्मजोशी से मिले !
रवि पाल से मिलकर मुझे अच्छा लगा, पर वह दिन मेरी नुमाइश का था !
थोड़ी देर बाद....
एक और रवि से मेरी मुलाकात हुई !
यह रवि कुमार शर्मा थे !
गेंहुआ रंग, लम्बा कद, पतले-दुबले ! खुशमिजाज़-हँसमुख !
उसके बाद उपन्यास पढ़ने की शौकीन कुछ महिला ग्राहकों से भी मेरा परिचय हुआ, लेकिन उस दिन सबसे बाद में जिस शख्स से बिमल ने मेरा परिचय कराया, वह था अशोक भसीन, बाद में जिससे मेरी बरसों गहरी दोस्ती रही !
अशोक भसीन "दिल्ली टेन्ट हाऊस एण्ड डेकोरेटर्स" में मुलाजिम था !
पतला-दुबला-लम्बा छोटे से चेहरे वाला शख़्स ! जब भी सामने आता चेहरे पर मनोहारी मुस्कान होती ! हर बार ऐसे मिलता कि तबियत बाग-बाग हो जाती !
लेकिन अब बरसों से इनमें से किसी से भी मेरी मुलाकात नहीं हुई !
वह रविवार मेरे लिए बहुत स्पेशल था !
उस दिन मुझे पता चला कि बिमल चटर्जी के द्वारा मेरे चर्चे - न केवल उनके दोस्तों तक, बल्कि करीबी ग्राहकों तक भी पहुँचे हुए थे ! इसका मतलब था - मेरी गैरमौजूदगी में भी विशाल लाइब्रेरी में मेरा बहुत ही ज्यादा जिक्र रहता था !
रविवार बीता तो सोमवार एक ऐसे उपन्यासकार शख़्स से मुलाकात हुई, जो जिन्दगी में सालों बहुत करीब रहे !
सोमवार मैं विशाल लाइब्रेरी पहुँचा तो पहले तो बिमल के कई ग्राहकों ने मुझे चौंकाया ! दुकान पर कोई उपन्यास लेने आये भारी-भरकम शरीर के शम्भूनाथ, फिर लम्बे पहलवानों जैसे शरीर के सुरेन्द्रसिंह, जिनसे पहले भी मैं मिल चुका था और जो मुझ पर विशेष ध्यान नहीं देते थे ! उस दिन मुझसे बहुत बातें की, क्योंकि जाने कब बिमल ने उन्हें मेरे बारे में बता दिया था कि मैं योगेश मित्तल हूँ और बहुत अच्छी कहानियाँ और उपन्यास लिखता हूँ !
बिमल ने अपनी लाइब्रेरी में आनेवाले ग्राहकों में मेरी शोहरत बहुत ही ज्यादा बुलन्द कर दी थी, परिणाम यह था, जो लोग मुझसे कभी बात भी नहीं करते थे, आते ही बिमल को पूछते और बिमल के शाॅप पर न होने पर आगे बढ़ जाते थे, मुझसे बहुत बातें करने लगे थे !
उसी दिन लंच टाइम से पहले अचानक एक लम्बे खूबसूरत शख़्स ने बिमल चटर्जी के काउन्टर पर कदम रखा ! उसके हाथों में किताबों का एक बंडल था, जो चारों ओर से सुतली से बंधा था ! बंडल काउंटर पर रख, लम्बे चेहरे वाले पान चबाते उस शख्स ने मेरी ओर संकेत करते हुए बिमल से पूछा -"यही हैं योगेश मित्तल ?"
बिमल चटर्जी ने उस शख्स से कहा - "हाँ फारुक साहब, यही हैं योगेश मित्तल, जिनके बारे में मैंने आपको बताया था !" फिर बिमल मुस्कुराये और बोले -"छोटी सी उम्र में बड़े-बड़े गुण इकट्ठे कर रखे हैं योगेश जी ने !"
बिमल की यह खूबी जबरदस्त थी, जिससे भी परिचय कराते, कुछ ऐसे कराते कि सामने वाले पर पहली ही बार में मेरी धाक जम जाती !
काउंटर के बाहर खड़े फारूक साहब को मेरे बारे में बताने के बाद, फारूक साहब के बारे में मुझे बताते हुए बिमल बोले -"योगेश जी, यह फारुक साहब हैं ! फारुक अर्गली ! फारुक साहब के तो हर महीने कई-कई उपन्यास आते रहते हैं ! बहुत फास्ट लिखते हैं फारुक साहब !आपने भी तो पढ़े हैं इनके कई उपन्यास !"
बिमल सही कह रहे थे, फारुक अर्गली का नाम मैंने बहुत अच्छी तरह सिर्फ सुना ही नहीं था, बल्कि उन्हें पढ़ा भी था ! बहुत सी उपन्यास पत्रिकाओं में कवर पेज के बाद अन्दरूनी पृष्ठ पर उनका नाम होता था ! लेखक - फारुक अर्गली या उपन्यासकार - फारुक अर्गली !
उन दिनों उनके द्वारा इमरान-सफदर सीरीज़ या विनोद-हमीद सीरीज़ के उपन्यास लिखे जा रहे थे !
चेहरे पर मीठी-सी मुस्कान ! मुँह में जर्दे वाला पान और जहाँ खड़े हों, पाँव अगर हरकत न भी कर रहे हों, पैरों से ऊपर का शरीर दायें-बायें हिलता रहता था !
यह थे फारुक अर्गली और उनका स्टाइल !
फारुक अर्गली ने मेरी ओर बढ़े मीठे अन्दाज़ में देखा और अपने खास अन्दाज में गर्दन को खम देकर बोले -"सही जगह आ गये हो बरखुरदार ! लेखकों का मन्दिर है यह ! जमुना पार के सारे लेखक शीश झुकाने आते हैं यहाँ ! बहुत तरक्की करोगे !"
फिर फारुक अर्गली ने मुझे बाहर बुलाया, बोले -"योगेश जी, एक मिनट बाहर आइये !"
मैं बाहर निकला तो फारुक साहब ने मुझे अपने निकट खड़ा किया और बोले -"आप तो बहुत छोटे हो ! दाढ़ी-मूँछ भी अभी पूरी तरह नहीं आईं ! प्रकाशक तो आपको बच्चा ही समझेंगे ! कभी हमारे साथ चलना, हम आपको सब बड़े-बड़े प्रकाशकों से मिलवायेंगे !"
मैं फारुक अर्गली के कन्धे से भी छोटा पड़ रहा था !
फारुक अर्गली की आवाज सुनने-समझने में यूँ तो काफी स्पष्ट थी, पर स्वर में हल्की सी भर्राहट थी ! उनकी हिन्दी-उर्दू, दोनों आला दर्जे की थीं ! बिमल चटर्जी की विशाल लाइब्रेरी के लिए पहली बार किसी ने 'लेखकों का मन्दिर' स्लोगन प्रयोग किया था, मुझे अच्छा लगा ! निस्संदेह बिमल को भी बहुत अच्छा लगा होगा !
और फारुक अर्गली का कहना शत-प्रतिशत सही था ! यमुना पर पुराने लोहे के पुल के बाद कैलाशनगर, सीलमपुर, गाँधीनगर, गीता कालोनी, झील के क्षेत्र में लाइब्रेरी तो बहुत रही होंगी, लेकिन विशाल लाइब्रेरी जैसी दूसरी नहीं थी !:हिन्दी, इंग्लिश, उर्दू सभी तरह की किताबें थीं बिमल की लाइब्रेरी में ! बच्चों की लोककथाएँ, उमेश प्रकाशन द्वारा छापी गईं महान लोगों की जीवनी, जासूसी दुनिया और तिलस्मी दुनिया के हिन्दी-उर्दू एडीशन, फिल्मी पत्रिकाएँ, शमा और सुषमा, अंग्रेजी उपन्यास, सभी कुछ था बिमल की छोटी-सी लाइब्रेरी में ! किताबें लकड़ी के रैक्स में करीने से सजी रहती थीं ! हर तरह की किताबों के लिए अलग-अलग रैक थे ! ढूँढने के लिए समय बरबाद नहीं करना पड़ता था !
किताबें सिर्फ किराये पर नहीं जाती थीं, बिकती भी रहती थीं !
भूरी आँखों वाली एक बेहद खूबसूरत लड़की हमेशा एक बेहद खूबसूरत युवक के साथ वहाँ आती थी ! वह हमेशा एक ही बार में बहुत सी फिल्मी पत्रिकाएँ और सामाजिक उपन्यास खरीदकर ले जाती थी ! मुझे बहुत बाद में पता चला कि वह उन दिनों कनाट प्लेस में स्थित "लीडो" क्लब में कैबरे डांसर थी और उसके साथ आनेवाला युवक उसका छोटा भाई था !
लेकिन उन दिनों लोगों के संस्कार ऐसे थे कि जो लोग उसे जानते थे, उनकी ओर से भी कभी कोई बदतमीजी होते मैंने नहीं देखी ! छेड़छाड़ का तो कोई किस्सा भी कभी सुनने में नहीं आता था !
मैंने लोगों को उस डांसर को अदब से नमस्ते करते हुए ही देखा था ! वह भी मुस्कुराकर नमस्ते का जवाब नमस्ते से देती और जैसे आती, वैसे ही शान्त और शालीन ढंग से चली जाती थी !
आज के माहौल को देखते हुए उस जमाने का ख्याल आ जाता है, तब एक बेहद खूबसूरत कैबरे डांसर भी सड़क पर चलते कितनी सुरक्षित थी, जबकि आज के माहौल में एक आम-सी साधारण नैन-नक्श वाली लड़की की इज्जत भी सदैव खतरे में नज़र आती है !
(शेष फिर )
दोस्तों, लिखने के बाद दोबारा पढ़ने का भी समय निकलना बहुत मुश्किल होता है ! आपलोगों में से जिन-जिन ने मेरी फ़ोटोस्टेट और कंप्यूटर प्रिंटिंग की दूकान देखी है, इस उम्र में भी मेरी व्यस्तता से वाकिफ हैं।
साथ की तस्वीर - शुरुआती दाढ़ी-मूँछ आने के बाद की मेरी पहली तस्वीर है
भाग -16
आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 16
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सोने का हिरण लिखना जारी था ! पहला भाग पूरा हो चुका था ! दूसरा भाग लिख रहा था ! इस बार लिखने में कुछ ज्यादा ही वक्त लगा रहा था !
गर्मी के दिन थे !
उस दिन सुबह-सुबह उठकर, मैं बाहर बरामदे में बिछी चारपाई पर बैठा, लिखने में व्यस्त था !
लगभग आठ बजे का समय था, जब मकानमालिक जगदीश प्रसाद गुप्ता अचानक मेरे सामने आ गये !
"क्या लिख रहा है ?" आते ही पूछा !
मेरी कलम रुक गई !
निगाहें उठीं और जगदीश प्रसाद गुप्ता के चेहरे पर जम गई ! साफ रंग, भारी भरकम शरीर के जगदीश गुप्ता का व्यक्तित्व कुछ ऐसा दबंग था कि उन्हें देखते ही लगता था कि अब कुछ बखेड़ा करेंगे, लेकिन उस दिन उनकी आवाज भी अपेक्षाकृत मधुर थी, जबकि अधिकांशतः तेज, बुलन्द और कड़क आवाज ही उनके होठों से निकलती थी !
"एक बाल उपन्यास है !" मैं जगदीश प्रसाद गुप्ता के सवाल पर बहुत धीमे से यों बोला, जैसे बाल पाॅकेट बुक्स नहीं लिख रहा, कोई अपराध कर रहा हूँ !
"दिखा तो....!" जगदीश प्रसाद गुप्ता ने लिखे हुए पन्ने मेरे हाथ से ले लिए ! फिर नजरें लिखे हुए मैटर पर जमा दीं ! फिर थोड़ी देर बाद वापस लौटाते हुए बोले -"अच्छा लिखा है !"
दोस्तों, वो जमाना 'थैंक्यू' 'साॅरी' 'वेलकम' का नहीं था ! जगदीश प्रसाद गुप्ता के मुँह से तारीफ सुन मैंने खींसे फाड़ दीं और मुस्कुरा दिया !
तभी जगदीश प्रसाद गुप्ता ने एक सवाल मुझ पर दागा -"यह कुमारप्रिय कैसा आदमी है ?"
"बहुत बड़े लेखक हैं ! सारे देश में मशहूर हैं !" अपनी बुद्धि के हिसाब से उस समय जो मेरे मुँह में आया, फटाक से बोल दिया !
"हुम्म !" जगदीश प्रसाद गुप्ता ने कहा और मस्त हाथी के से अन्दाज में पलट गये !
तब मुझे पता नहीं था कि यह 'हुम्म' आगे चलकर क्या 'गुल' खिलाने वाला है !
जगदीश प्रसाद गुप्ता तो चले गये, पर उस दिन मेरे लेखन के दौरान अपनी शक्ल दिखाकर मेरा मूड खराब कर गये, जब से उन्होंने मुझे रात को लाइट देर तक जलाने पर घर खाली करा लेने की धमकी दी थी, मेरे दिल में उनकी छवि एक विलेन की हो गई थी और उनकी सूरत से ही मुझे चिढ़ होने लगी थी !
मैंने लिखना बन्द कर दिया और उठ खड़ा हुआ !
फिर यूँ ही मूड आया कि घर से निकल पड़ा !
कदम अनायास ही बिमल चटर्जी के घर की ओर बढ़ गये !
ये संयोग ही था कि बिमल भी मेरे घर आ रहे थे ! बीच रास्ते में हम मिले !
"किधर...?" बिमल चटर्जी ने मुझसे पूछा !
"मैं तो आपके यहाँ ही आ रहा था !" मैंने कहा !
"और मैं आपके पास आ रहा था !" बिमल मुस्कुराते हुए बोले -"अब आओ, आप मेरे साथ चलो !"
"नहीं, आप मेरे साथ चलो, मामचंद की दुकान पर चाय पिएंगे !" मैंने कहा !
बिमल मान गए !
मैं पलट गया ! बिमल मेरे साथ हो लिए !
मामचंद की दुकान पर पहुँच, बाहर पड़ी बेंच पर हम बैठे !
मैंने मामचंद को दो चाय के लिए बोला !
तभी बिमल ने मुझसे पूछा -"आपका सोने का हिरण कहाँ तक पहुंचा ?"
"पहला पार्ट पूरा हो गया, दूसरा चल रहा था कि आज मकानमालिक गुप्ता जी आ गए !" मैंने कहा !
"क्या कह रहे थे ?" बिमल ने पूछा !
मैंने बताया !
"मुझे लगता है कुमारप्रिय उन्हें पब्लिकेशन करने के लिए पटा रहा है !" बिमल ने कहा !
"नहीं !" मैं हँसा -"जगदीश प्रसाद गुप्ता जैसे कंजूस आदमी को कोई नहीं पटा सकता !"
बिमल गंभीर हो गए -"योगेश जी, जहां तक मुझे पता है - कुमारप्रिय ने रंगभूमि प्रकाशन में नौकरी ज्वाइन की थी, किन्तु कुमारप्रिय का उन पर ऐसा जादू चला कि वह पॉकेट बुक्स पब्लिशिंग लाइन में आ गये ! मुझे लगता है, कुमारप्रिय ने एक ही गलती कर दी - गुड़िया नॉवल कुछ ज्यादा ही छपवा दिया या रंगभूमि वालों ने ही ज्यादा छापने की गलती कर दी, जिसकी वजह से गुड़िया अभी भी उनके स्टॉक में बहुत ज्यादा पड़ा है और दूसरा उपन्यास छापने में उन्होंने अभी तक कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई ! यही कारण है कुमारप्रिय को और पब्लिशर ढूंढने पड़ रहे हैं ! पहले कुमारप्रिय ने आपके बिमल जैन को प्रकाशन के लिए तैयार किया, लेकिन सिर्फ एक प्रकाशक से लेखक का गुजारा नहीं चल सकता, मैंने तो एक बार कुमार साहब से मेरठ चलने के लिए कहा था, लेकिन कुमार साहब का कहना था - मेरठ का स्टैण्डर्ड काफी घटिया है !"
"वो सब ठीक है भाई साहब, लेकिन जगदीश प्रसाद गुप्ता किसी के पटाने में आने वाले शख्स नहीं हैं ! फिर उन्हें पब्लिकेशन लाइन की ABC नहीं आती और वो किसी ऐसे धंधे में कभी हाथ नहीं डालेंगे, जिस में उनकी जानकारी जीरो हो !" मैंने कहा !
बिमल चटर्जी और अशीत चटर्जी को मैं सदैव भाई साहब कहकर ही सम्बोधित करता था !
"छोडो कुमारप्रिय की बातें, आप यह बताओ - मनोज में जा रहे हो ?" बिमल बात का रुख पलटते हुए बोले !
"अभी कैसे जा सकता हूँ, अभी तो सिर्फ एक पार्ट कम्पलीट हुआ है !" मैंने कहा !
"तो क्या हुआ ?" बिमल ने कहा -"लगे हाथों -गर्ग एंड कंपनी भी होते आना ! वहां ज्ञान बैठता है, उससे गोलगप्पा में छपी कहानियों के पैसे मांग लेना !"
"लेकिन गौरी भाई साहब (मनोज बाल पॉकेट बुक्स के गौरीशंकर गुप्ता ) ने तीनों पार्ट एक साथ लाने को कहा है !" मैंने कहा !
"अरे उन्हें कौन सा याद होगा कि क्या कहा था !" बिमल ने कहा -" और याद हो तो कह देना पैसों की जरूरत थी, इसलिए आ गया !"
मुझे बिमल चटर्जी की सलाह जमी !
"ठीक है ! आज दोनों जगह होकर आता हूँ !" मैंने कहा और मनोज पॉकेट बुक्स और गर्ग एंड कंपनी जाने का उसी समय मन बना लिया !
"सही है ! पर ढीले नहीं पड़ना, पैसे लेकर ही आना ! आखिर मेहनत की है आपने ! ये पब्लिशर बहाने खूब बनाते हैं !"
"ठीक है !"
"और बाद में एक मेरा काम भी आपको करना है !"
"क्या ?"
"शीशे की घाटी के पेज तो आपने पढ़े ही हैं !" बिमल बोले -"उसके तीन भागों की कम्पोजिंग हो गयी है ! मैं गौरी भाई साहब से काफी सारे प्रूफ ले आया हूँ ! चौथे भाग के भी काफी पेज मैंने लिख रखे हैं ! पर अब मुझे मेरठ का एक उपन्यास जल्दी कम्पलीट करना है तो शीशे की घाटी के चौथे भाग और पांचवें भाग को आप कम्पलीट कर दो !”
शीशे की घाटी मनोज बाल पॉकेट बुक्स में छपने वाली पांच भागों की लम्बी तिलिस्मी कथा थी, जिसे बिमल ने शुरू किया, मगर अंत हम दोनों ने मिलकर लिखा था !
बिमल ने कहा अवश्य था मुझसे लिखने को, पर चूंकि प्रूफ में बीच के बहुत सारे पेज मिसिंग थे, इसलिए अंतिम दोनों भागों की कहानी आपस में डिसकस करके हम दोनों ने मिलकर लिखी थी !
मगर उस दिन बिमल से अलग होकर मैंने सोने का हिरण की स्क्रिप्ट अखबार में लपेटी ! फिर कंधे पर लटकाने वाले अपने थैले में रखी और निकल पड़ा दरीबे की ओर !
गर्ग एंड कंपनी बुक शॉप - नारंग पुस्तक भण्डार और मनोज पॉकेट बुक्स से पहले थी !
चाँदनी चौक से दरीबा कलाँ में प्रवेश करके जब हम सीधे आगे बढ़ते चले जाते हैं तो दरीबा कलाँ के आधे रास्ते में दायीं ओर किनारी बाजार का रास्ता आता है ! उसके बाद दायीं ओर ही कुछ दुकानों के बाद थी गर्ग एण्ड कम्पनी की बुक शाॅप !
दुकान अन्य बहुत सी दुकानों जितनी ऊँची नहीं थी !
सड़क से मात्र ढाई-तीन फुट ऊँची रही होगी !
दुकान पर उन दिनों आगे-आगे मोटी सी गद्दी बिछाये टाँग पर टाँग चढ़ाये बैठा-अधलेटा सा शख़्स ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग था !
दुकान में काउन्टर, कुर्सी, स्टूल आदि उन दिनों नहीं थे ! कई सालों बाद दरीबे की दुकानों में काउन्टर, कुर्सी आदि देखे जाने लगे थे !
मैं जैसे ही गर्ग एण्ड कम्पनी के सामने पहुँच खड़ा हुआ, ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग एकदम सीधा हो गया ! अन्दर एक नौकर किताबों के बण्डल बना रहा था, उसकी निगाह भी मेरी ओर उठ गई !
"हाँ छोटू....क्या चाहिये ?"जुबान में चाशनी घोल ज्ञानेन्द्र ने सवाल किया ! वह भी लालाराम गुप्ता की तरह मुझे कोई बुकसेलर समझा था !
"जी... गोलगप्पा मैगजीन आपके यहाँ से छपती है ?" मैं बोला, क्योंकि मन ही मन मैं अनिश्चित सा था कि गोलगप्पा इन्हीं की मैगज़ीन होगी ! मुझे तो बिमल चटर्जी ने बताया था ! गर्ग एण्ड कम्पनी की दुकान के बारे में सम्पूर्ण जानकारी मुझे बिमल से ही मिली थी !
मेरी बात पर ज्ञानेन्द्र झट से बोला -"हाँ जी, गोलगप्पा हमारी ही मैगज़ीन है ! आजकल तो बच्चों में सबसे ज्यादा धूम गोलगप्पा की है ! नये पुराने सारे इशू मिल जायेंगे ! कितने-कितने निकलवा दूँ !"
"जी... गोलगप्पा में मेरी कहानियाँ छपी हैं ! मैं लेखक हूँ !" मैंने कहा !
एक पल ज्ञानेन्द्र खामोश मुँह बाये मुझे देखता रहा ! फिर उसके होठों से जबरदस्त हँसी छूट गई ! उसने पीछे काम कर रहे नौकर को आवाज दी और हँसते-हँसते बोला -"देख तो.... यह पिद्दी कह रहा है - यह लेखक है ! हमारी गोलगप्पा में इसकी कहानियाँ छपी हैं !"
यही स्टाइल था ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग का - जिसकी इज्जत करता, उसके आगे बिछ जाता, लेकिन बहुत कम लोगों की इज्जत करते देखा मैंने उसे ! जब उसे अच्छी तरह जानने-पहचानने लगा तो पाया कि जिनके सामने वह मीठा गुड़ बना रहता, पीठ पीछे उनका भी इतिहास-भूगोल बदल देता था ! मुझे एक लम्बे अर्से तक मुँह पर भी उसने छोटू ही कहकर सम्बोधित किया ! छोटू से मुझे 'योगेश जी' बनाया 'माता वैष्णोदेवी' ने ! वो किस्सा आगे आपके सामने आयेगा !
पर उस समय तो मुझसे - मैं लेखक हूँ और मेरी लिखी कहानियाँ गोलगप्पा में छपी हैं, जानकर - ज्ञानेन्द्र ने मुझे पिद्दी बना दिया और मेरा खून जलानेवाली बात यह थी कि ज्ञानेन्द्र के साथ उसका नौकर भी हँसने लगा था !
अब तो मुझे भी याद नहीं है, पर तब ज्ञानेन्द्र और उसके नौकर की हँसी पर जबरदस्त गुस्सा जो आया, मैंने फटाफट अपनी कहानियों के नाम बताये और बोला कि वो कहानियाँ मैंने लिखी हैं !
मेरी आवाज बुलन्द थी ! आते-जाते लोग ठिठककर गर्ग एण्ड कम्पनी की ओर देखने लगे थे !
ज्ञानेन्द्र की हँसी एकदम रुक गई ! वह गम्भीर हो गया -"अच्छा तो तेरी कहानी गोलगप्पा में छपी हैं ?"
"हाँ !"
"तो यहाँ क्यों आया है ? हमें बताने आया है कि तेरी कहानी गोलगप्पा में छपी हैं !"
"नहीं, वो...आपने न तो कहानी छापने की सूचना भेजी, ना ही कम्प्लीमेंटरी मैगज़ीन भेजी ! ना ही कहानियों का कोई पारिश्रमिक भेजा !" मैंने कहा !
उस समय मैं जो कुछ भी कह रहा था - वो मैं नहीं कह रहा था, बिमल चटर्जी जो कुछ मुझे समझाया था, वही पाठ मेरे होठों से निकल रहा था, पर मेरे मुँह से उतनी बातें सुन ज्ञानेन्द्र का मुँह गोलाई में सिकुड़ गया और आँखें फैल गईं और वह एहसान जताते हुए बोला - "ओए छोटू ! हमने तेरा नाम छाप दिया, ये क्या कम है ? ओए तू तो सारे हिन्दुस्तान में मशहूर हो गया ! हिन्दुस्तान के कोने-कोने में जाती है गोलगप्पा !"
(शेष फिर )
दोस्तों ! उस समय ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग ने कहा -लगभग वैसे ही शब्द बरसों बाद फोन पर पंजाब केसरी के सम्पादक प्रविन्द्र शारदा ने जब मुझसे फ़ोन पर कहे तो मेरे दिल से पहली बार ऐसे अलफ़ाज़ उभरे, जो अमूमन किसी के विषय में सोचता भी नहीं हूँ ! मेरे दिल ने खुद से ही कहा कि हे भगवान ! इस गधे को किस बेवकूफ ने सम्पादक बनाया ?
पर वो किस्सा फिर कभी.....।।
उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-भाग,17,18
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बिमल चटर्जी को मैंने अरुण के साथ मनोज पाॅकेट बुक्स जाने का किस्सा सच-सच बता दिया, वह सचमुच नाराज हुए।
"योगेश जी, मैंने आपसे कहा भी था कि हम मनोज पाॅकेट बुक्स चलेंगे ! फिर अरुण के साथ जाने की क्या जरूरत थी ?" बिमल बोले !
मैं चुप रहा ! मैंने पहले ही उन्हें बता दिया था कि मुझे बिना बताये - फिल्म के बहाने ले जाया गया था !
बिमल का गुस्सा थोड़ी ही देर का रहा !
कुछ देर बाद बोले -"चलो, कोई बात नहीं ! गौरी भाई साहब से सब्र नहीं हो रहा होगा, तभी अरुण को बोला होगा ! दरअसल मैंने उन्हें बताया था कि योगेश मित्तल एक छोटा बच्चा है, जो मेरे लिए कहानियाँ लिख रहा है ! तो उन्हें छोटे बच्चे को देखने की धुन सवार हो गई थी ! मुझसे भी कई बार कहा था - यह योगेश मित्तल कौन है ? इसे लेकर आ ! मेरी ही गलती है, जो अब तक आपको साथ लेकर नहीं गया !"
उसके बाद दिनचर्या में बदलाव यह आया कि मेरा बिमल चटर्जी के लिए लिखना बन्द हो गया, लेकिन हमारे सुबह-शाम अब भी साथ बीतते थे ! अक्सर हम साथ बैठकर भी लिखते थे !
कुछ दिन यूं ही बीत गए ! फिर एक दिन बिमल चटर्जी ने पूछा -"योगेश जी, वो आपकी गोलगप्पा मैगज़ीन में भी तो दो कहानियां छपी हैं, उनका ‘कुछ’ भेजा उन्होंने ?"
"कहाँ ?" मैंने कहा -"उन्होंने तो छपने की सूचना भी नहीं दी थी ! यदि आपकी लाइब्रेरी में मैगज़ीन नहीं देखी होती तो छपने का पता भी नहीं चलता !"
"ऐसा करो योगेश जी, एक चक्कर गर्ग एंड कंपनी का लगा आओ ! ये पब्लिशर सब ऐसे ही होते हैं ! पहुँच जाओगे तो कुछ मिल भी जायेगा, वरना भेजना-वेजना कुछ नहीं है इन्होने !” बिमल ने कहा !
उषा पॉकेट बुक्स से बिमल चटर्जी का दूसरा उपन्यास कातिलों की घाटी मार्केट में रिलीज़ हो चुका था, लेकिन पंकज पॉकेट बुक्स का दूसरा सेट अभी प्रेस में अटका हुआ था !
मैंने सुबह उठकर फ्रेश होने के बाद अपने घर पर ही मनोज बाल पाॅकेट बुक्स के लिए सोने का हिरण लिखना आरम्भ कर दिया था !
दिन में ग्यारह बजे के बाद ही मैं घर से बाहर निकलता ! एक चक्कर कुमारप्रिय के घर का लगाता, फिर विशाल लाइब्रेरी जाता !
बिमल चटर्जी के पास लगभग दो बजे तक बैठा करता !
लंच के टाइम बिमल चटर्जी भी लाइब्रेरी बन्द कर देते ! उनका घर रघुबरपुरा नम्बर दो में था ! पैदल का रास्ता था ! बिमल और मैं साथ-साथ जाते ! बिमल का घर आने पर मैं विदा लेकर आगे बढ़ जाता !
बिमल के घर से आगे की जो गली थी, वह जहाँ खत्म होती, वहीं सड़क पार मेरा घर था !
उस दिन रविवार था !
मैं जब विशाल लाइब्रेरी पहुँचा, गोरा-चिट्टा एक खूबसूरत नौजवान बिमल की दुकान पर था, वह धूप का चश्मा लगाये था !
बिमल ने उससे कहा -"यही हैं योगेश जी !"
फिर मुझसे कहा -"योगेश जी, यह रवि पाल हैं ! राजेन्द्र के घर ही किरायेदार हैं ! राजेन्द्र ने इन्हें आपके बारे में बताया होगा तो मिलने आये हैं !"
रवि पाल मुझसे तपाक से बड़ी गर्मजोशी से मिले !
रवि पाल से मिलकर मुझे अच्छा लगा, पर वह दिन मेरी नुमाइश का था !
थोड़ी देर बाद....
एक और रवि से मेरी मुलाकात हुई !
यह रवि कुमार शर्मा थे !
गेंहुआ रंग, लम्बा कद, पतले-दुबले ! खुशमिजाज़-हँसमुख !
उसके बाद उपन्यास पढ़ने की शौकीन कुछ महिला ग्राहकों से भी मेरा परिचय हुआ, लेकिन उस दिन सबसे बाद में जिस शख्स से बिमल ने मेरा परिचय कराया, वह था अशोक भसीन, बाद में जिससे मेरी बरसों गहरी दोस्ती रही !
अशोक भसीन "दिल्ली टेन्ट हाऊस एण्ड डेकोरेटर्स" में मुलाजिम था !
पतला-दुबला-लम्बा छोटे से चेहरे वाला शख़्स ! जब भी सामने आता चेहरे पर मनोहारी मुस्कान होती ! हर बार ऐसे मिलता कि तबियत बाग-बाग हो जाती !
लेकिन अब बरसों से इनमें से किसी से भी मेरी मुलाकात नहीं हुई !
वह रविवार मेरे लिए बहुत स्पेशल था !
उस दिन मुझे पता चला कि बिमल चटर्जी के द्वारा मेरे चर्चे - न केवल उनके दोस्तों तक, बल्कि करीबी ग्राहकों तक भी पहुँचे हुए थे ! इसका मतलब था - मेरी गैरमौजूदगी में भी विशाल लाइब्रेरी में मेरा बहुत ही ज्यादा जिक्र रहता था !
रविवार बीता तो सोमवार एक ऐसे उपन्यासकार शख़्स से मुलाकात हुई, जो जिन्दगी में सालों बहुत करीब रहे !
सोमवार मैं विशाल लाइब्रेरी पहुँचा तो पहले तो बिमल के कई ग्राहकों ने मुझे चौंकाया ! दुकान पर कोई उपन्यास लेने आये भारी-भरकम शरीर के शम्भूनाथ, फिर लम्बे पहलवानों जैसे शरीर के सुरेन्द्रसिंह, जिनसे पहले भी मैं मिल चुका था और जो मुझ पर विशेष ध्यान नहीं देते थे ! उस दिन मुझसे बहुत बातें की, क्योंकि जाने कब बिमल ने उन्हें मेरे बारे में बता दिया था कि मैं योगेश मित्तल हूँ और बहुत अच्छी कहानियाँ और उपन्यास लिखता हूँ !
बिमल ने अपनी लाइब्रेरी में आनेवाले ग्राहकों में मेरी शोहरत बहुत ही ज्यादा बुलन्द कर दी थी, परिणाम यह था, जो लोग मुझसे कभी बात भी नहीं करते थे, आते ही बिमल को पूछते और बिमल के शाॅप पर न होने पर आगे बढ़ जाते थे, मुझसे बहुत बातें करने लगे थे !
उसी दिन लंच टाइम से पहले अचानक एक लम्बे खूबसूरत शख़्स ने बिमल चटर्जी के काउन्टर पर कदम रखा ! उसके हाथों में किताबों का एक बंडल था, जो चारों ओर से सुतली से बंधा था ! बंडल काउंटर पर रख, लम्बे चेहरे वाले पान चबाते उस शख्स ने मेरी ओर संकेत करते हुए बिमल से पूछा -"यही हैं योगेश मित्तल ?"
बिमल चटर्जी ने उस शख्स से कहा - "हाँ फारुक साहब, यही हैं योगेश मित्तल, जिनके बारे में मैंने आपको बताया था !" फिर बिमल मुस्कुराये और बोले -"छोटी सी उम्र में बड़े-बड़े गुण इकट्ठे कर रखे हैं योगेश जी ने !"
बिमल की यह खूबी जबरदस्त थी, जिससे भी परिचय कराते, कुछ ऐसे कराते कि सामने वाले पर पहली ही बार में मेरी धाक जम जाती !
काउंटर के बाहर खड़े फारूक साहब को मेरे बारे में बताने के बाद, फारूक साहब के बारे में मुझे बताते हुए बिमल बोले -"योगेश जी, यह फारुक साहब हैं ! फारुक अर्गली ! फारुक साहब के तो हर महीने कई-कई उपन्यास आते रहते हैं ! बहुत फास्ट लिखते हैं फारुक साहब !आपने भी तो पढ़े हैं इनके कई उपन्यास !"
बिमल सही कह रहे थे, फारुक अर्गली का नाम मैंने बहुत अच्छी तरह सिर्फ सुना ही नहीं था, बल्कि उन्हें पढ़ा भी था ! बहुत सी उपन्यास पत्रिकाओं में कवर पेज के बाद अन्दरूनी पृष्ठ पर उनका नाम होता था ! लेखक - फारुक अर्गली या उपन्यासकार - फारुक अर्गली !
उन दिनों उनके द्वारा इमरान-सफदर सीरीज़ या विनोद-हमीद सीरीज़ के उपन्यास लिखे जा रहे थे !
चेहरे पर मीठी-सी मुस्कान ! मुँह में जर्दे वाला पान और जहाँ खड़े हों, पाँव अगर हरकत न भी कर रहे हों, पैरों से ऊपर का शरीर दायें-बायें हिलता रहता था !
यह थे फारुक अर्गली और उनका स्टाइल !
फारुक अर्गली ने मेरी ओर बढ़े मीठे अन्दाज़ में देखा और अपने खास अन्दाज में गर्दन को खम देकर बोले -"सही जगह आ गये हो बरखुरदार ! लेखकों का मन्दिर है यह ! जमुना पार के सारे लेखक शीश झुकाने आते हैं यहाँ ! बहुत तरक्की करोगे !"
फिर फारुक अर्गली ने मुझे बाहर बुलाया, बोले -"योगेश जी, एक मिनट बाहर आइये !"
मैं बाहर निकला तो फारुक साहब ने मुझे अपने निकट खड़ा किया और बोले -"आप तो बहुत छोटे हो ! दाढ़ी-मूँछ भी अभी पूरी तरह नहीं आईं ! प्रकाशक तो आपको बच्चा ही समझेंगे ! कभी हमारे साथ चलना, हम आपको सब बड़े-बड़े प्रकाशकों से मिलवायेंगे !"
मैं फारुक अर्गली के कन्धे से भी छोटा पड़ रहा था !
फारुक अर्गली की आवाज सुनने-समझने में यूँ तो काफी स्पष्ट थी, पर स्वर में हल्की सी भर्राहट थी ! उनकी हिन्दी-उर्दू, दोनों आला दर्जे की थीं ! बिमल चटर्जी की विशाल लाइब्रेरी के लिए पहली बार किसी ने 'लेखकों का मन्दिर' स्लोगन प्रयोग किया था, मुझे अच्छा लगा ! निस्संदेह बिमल को भी बहुत अच्छा लगा होगा !
और फारुक अर्गली का कहना शत-प्रतिशत सही था ! यमुना पर पुराने लोहे के पुल के बाद कैलाशनगर, सीलमपुर, गाँधीनगर, गीता कालोनी, झील के क्षेत्र में लाइब्रेरी तो बहुत रही होंगी, लेकिन विशाल लाइब्रेरी जैसी दूसरी नहीं थी !:हिन्दी, इंग्लिश, उर्दू सभी तरह की किताबें थीं बिमल की लाइब्रेरी में ! बच्चों की लोककथाएँ, उमेश प्रकाशन द्वारा छापी गईं महान लोगों की जीवनी, जासूसी दुनिया और तिलस्मी दुनिया के हिन्दी-उर्दू एडीशन, फिल्मी पत्रिकाएँ, शमा और सुषमा, अंग्रेजी उपन्यास, सभी कुछ था बिमल की छोटी-सी लाइब्रेरी में ! किताबें लकड़ी के रैक्स में करीने से सजी रहती थीं ! हर तरह की किताबों के लिए अलग-अलग रैक थे ! ढूँढने के लिए समय बरबाद नहीं करना पड़ता था !
किताबें सिर्फ किराये पर नहीं जाती थीं, बिकती भी रहती थीं !
भूरी आँखों वाली एक बेहद खूबसूरत लड़की हमेशा एक बेहद खूबसूरत युवक के साथ वहाँ आती थी ! वह हमेशा एक ही बार में बहुत सी फिल्मी पत्रिकाएँ और सामाजिक उपन्यास खरीदकर ले जाती थी ! मुझे बहुत बाद में पता चला कि वह उन दिनों कनाट प्लेस में स्थित "लीडो" क्लब में कैबरे डांसर थी और उसके साथ आनेवाला युवक उसका छोटा भाई था !
लेकिन उन दिनों लोगों के संस्कार ऐसे थे कि जो लोग उसे जानते थे, उनकी ओर से भी कभी कोई बदतमीजी होते मैंने नहीं देखी ! छेड़छाड़ का तो कोई किस्सा भी कभी सुनने में नहीं आता था !
मैंने लोगों को उस डांसर को अदब से नमस्ते करते हुए ही देखा था ! वह भी मुस्कुराकर नमस्ते का जवाब नमस्ते से देती और जैसे आती, वैसे ही शान्त और शालीन ढंग से चली जाती थी !
आज के माहौल को देखते हुए उस जमाने का ख्याल आ जाता है, तब एक बेहद खूबसूरत कैबरे डांसर भी सड़क पर चलते कितनी सुरक्षित थी, जबकि आज के माहौल में एक आम-सी साधारण नैन-नक्श वाली लड़की की इज्जत भी सदैव खतरे में नज़र आती है !
(शेष फिर )
दोस्तों, लिखने के बाद दोबारा पढ़ने का भी समय निकलना बहुत मुश्किल होता है ! आपलोगों में से जिन-जिन ने मेरी फ़ोटोस्टेट और कंप्यूटर प्रिंटिंग की दूकान देखी है, इस उम्र में भी मेरी व्यस्तता से वाकिफ हैं।
साथ की तस्वीर - शुरुआती दाढ़ी-मूँछ आने के बाद की मेरी पहली तस्वीर है
योगेश मित्तल जी, |
आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 16
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सोने का हिरण लिखना जारी था ! पहला भाग पूरा हो चुका था ! दूसरा भाग लिख रहा था ! इस बार लिखने में कुछ ज्यादा ही वक्त लगा रहा था !
गर्मी के दिन थे !
उस दिन सुबह-सुबह उठकर, मैं बाहर बरामदे में बिछी चारपाई पर बैठा, लिखने में व्यस्त था !
लगभग आठ बजे का समय था, जब मकानमालिक जगदीश प्रसाद गुप्ता अचानक मेरे सामने आ गये !
"क्या लिख रहा है ?" आते ही पूछा !
मेरी कलम रुक गई !
निगाहें उठीं और जगदीश प्रसाद गुप्ता के चेहरे पर जम गई ! साफ रंग, भारी भरकम शरीर के जगदीश गुप्ता का व्यक्तित्व कुछ ऐसा दबंग था कि उन्हें देखते ही लगता था कि अब कुछ बखेड़ा करेंगे, लेकिन उस दिन उनकी आवाज भी अपेक्षाकृत मधुर थी, जबकि अधिकांशतः तेज, बुलन्द और कड़क आवाज ही उनके होठों से निकलती थी !
"एक बाल उपन्यास है !" मैं जगदीश प्रसाद गुप्ता के सवाल पर बहुत धीमे से यों बोला, जैसे बाल पाॅकेट बुक्स नहीं लिख रहा, कोई अपराध कर रहा हूँ !
"दिखा तो....!" जगदीश प्रसाद गुप्ता ने लिखे हुए पन्ने मेरे हाथ से ले लिए ! फिर नजरें लिखे हुए मैटर पर जमा दीं ! फिर थोड़ी देर बाद वापस लौटाते हुए बोले -"अच्छा लिखा है !"
दोस्तों, वो जमाना 'थैंक्यू' 'साॅरी' 'वेलकम' का नहीं था ! जगदीश प्रसाद गुप्ता के मुँह से तारीफ सुन मैंने खींसे फाड़ दीं और मुस्कुरा दिया !
तभी जगदीश प्रसाद गुप्ता ने एक सवाल मुझ पर दागा -"यह कुमारप्रिय कैसा आदमी है ?"
"बहुत बड़े लेखक हैं ! सारे देश में मशहूर हैं !" अपनी बुद्धि के हिसाब से उस समय जो मेरे मुँह में आया, फटाक से बोल दिया !
"हुम्म !" जगदीश प्रसाद गुप्ता ने कहा और मस्त हाथी के से अन्दाज में पलट गये !
तब मुझे पता नहीं था कि यह 'हुम्म' आगे चलकर क्या 'गुल' खिलाने वाला है !
जगदीश प्रसाद गुप्ता तो चले गये, पर उस दिन मेरे लेखन के दौरान अपनी शक्ल दिखाकर मेरा मूड खराब कर गये, जब से उन्होंने मुझे रात को लाइट देर तक जलाने पर घर खाली करा लेने की धमकी दी थी, मेरे दिल में उनकी छवि एक विलेन की हो गई थी और उनकी सूरत से ही मुझे चिढ़ होने लगी थी !
मैंने लिखना बन्द कर दिया और उठ खड़ा हुआ !
फिर यूँ ही मूड आया कि घर से निकल पड़ा !
कदम अनायास ही बिमल चटर्जी के घर की ओर बढ़ गये !
ये संयोग ही था कि बिमल भी मेरे घर आ रहे थे ! बीच रास्ते में हम मिले !
"किधर...?" बिमल चटर्जी ने मुझसे पूछा !
"मैं तो आपके यहाँ ही आ रहा था !" मैंने कहा !
"और मैं आपके पास आ रहा था !" बिमल मुस्कुराते हुए बोले -"अब आओ, आप मेरे साथ चलो !"
"नहीं, आप मेरे साथ चलो, मामचंद की दुकान पर चाय पिएंगे !" मैंने कहा !
बिमल मान गए !
मैं पलट गया ! बिमल मेरे साथ हो लिए !
मामचंद की दुकान पर पहुँच, बाहर पड़ी बेंच पर हम बैठे !
मैंने मामचंद को दो चाय के लिए बोला !
तभी बिमल ने मुझसे पूछा -"आपका सोने का हिरण कहाँ तक पहुंचा ?"
"पहला पार्ट पूरा हो गया, दूसरा चल रहा था कि आज मकानमालिक गुप्ता जी आ गए !" मैंने कहा !
"क्या कह रहे थे ?" बिमल ने पूछा !
मैंने बताया !
"मुझे लगता है कुमारप्रिय उन्हें पब्लिकेशन करने के लिए पटा रहा है !" बिमल ने कहा !
"नहीं !" मैं हँसा -"जगदीश प्रसाद गुप्ता जैसे कंजूस आदमी को कोई नहीं पटा सकता !"
बिमल गंभीर हो गए -"योगेश जी, जहां तक मुझे पता है - कुमारप्रिय ने रंगभूमि प्रकाशन में नौकरी ज्वाइन की थी, किन्तु कुमारप्रिय का उन पर ऐसा जादू चला कि वह पॉकेट बुक्स पब्लिशिंग लाइन में आ गये ! मुझे लगता है, कुमारप्रिय ने एक ही गलती कर दी - गुड़िया नॉवल कुछ ज्यादा ही छपवा दिया या रंगभूमि वालों ने ही ज्यादा छापने की गलती कर दी, जिसकी वजह से गुड़िया अभी भी उनके स्टॉक में बहुत ज्यादा पड़ा है और दूसरा उपन्यास छापने में उन्होंने अभी तक कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई ! यही कारण है कुमारप्रिय को और पब्लिशर ढूंढने पड़ रहे हैं ! पहले कुमारप्रिय ने आपके बिमल जैन को प्रकाशन के लिए तैयार किया, लेकिन सिर्फ एक प्रकाशक से लेखक का गुजारा नहीं चल सकता, मैंने तो एक बार कुमार साहब से मेरठ चलने के लिए कहा था, लेकिन कुमार साहब का कहना था - मेरठ का स्टैण्डर्ड काफी घटिया है !"
"वो सब ठीक है भाई साहब, लेकिन जगदीश प्रसाद गुप्ता किसी के पटाने में आने वाले शख्स नहीं हैं ! फिर उन्हें पब्लिकेशन लाइन की ABC नहीं आती और वो किसी ऐसे धंधे में कभी हाथ नहीं डालेंगे, जिस में उनकी जानकारी जीरो हो !" मैंने कहा !
बिमल चटर्जी और अशीत चटर्जी को मैं सदैव भाई साहब कहकर ही सम्बोधित करता था !
"छोडो कुमारप्रिय की बातें, आप यह बताओ - मनोज में जा रहे हो ?" बिमल बात का रुख पलटते हुए बोले !
"अभी कैसे जा सकता हूँ, अभी तो सिर्फ एक पार्ट कम्पलीट हुआ है !" मैंने कहा !
"तो क्या हुआ ?" बिमल ने कहा -"लगे हाथों -गर्ग एंड कंपनी भी होते आना ! वहां ज्ञान बैठता है, उससे गोलगप्पा में छपी कहानियों के पैसे मांग लेना !"
"लेकिन गौरी भाई साहब (मनोज बाल पॉकेट बुक्स के गौरीशंकर गुप्ता ) ने तीनों पार्ट एक साथ लाने को कहा है !" मैंने कहा !
"अरे उन्हें कौन सा याद होगा कि क्या कहा था !" बिमल ने कहा -" और याद हो तो कह देना पैसों की जरूरत थी, इसलिए आ गया !"
मुझे बिमल चटर्जी की सलाह जमी !
"ठीक है ! आज दोनों जगह होकर आता हूँ !" मैंने कहा और मनोज पॉकेट बुक्स और गर्ग एंड कंपनी जाने का उसी समय मन बना लिया !
"सही है ! पर ढीले नहीं पड़ना, पैसे लेकर ही आना ! आखिर मेहनत की है आपने ! ये पब्लिशर बहाने खूब बनाते हैं !"
"ठीक है !"
"और बाद में एक मेरा काम भी आपको करना है !"
"क्या ?"
"शीशे की घाटी के पेज तो आपने पढ़े ही हैं !" बिमल बोले -"उसके तीन भागों की कम्पोजिंग हो गयी है ! मैं गौरी भाई साहब से काफी सारे प्रूफ ले आया हूँ ! चौथे भाग के भी काफी पेज मैंने लिख रखे हैं ! पर अब मुझे मेरठ का एक उपन्यास जल्दी कम्पलीट करना है तो शीशे की घाटी के चौथे भाग और पांचवें भाग को आप कम्पलीट कर दो !”
शीशे की घाटी मनोज बाल पॉकेट बुक्स में छपने वाली पांच भागों की लम्बी तिलिस्मी कथा थी, जिसे बिमल ने शुरू किया, मगर अंत हम दोनों ने मिलकर लिखा था !
बिमल ने कहा अवश्य था मुझसे लिखने को, पर चूंकि प्रूफ में बीच के बहुत सारे पेज मिसिंग थे, इसलिए अंतिम दोनों भागों की कहानी आपस में डिसकस करके हम दोनों ने मिलकर लिखी थी !
मगर उस दिन बिमल से अलग होकर मैंने सोने का हिरण की स्क्रिप्ट अखबार में लपेटी ! फिर कंधे पर लटकाने वाले अपने थैले में रखी और निकल पड़ा दरीबे की ओर !
गर्ग एंड कंपनी बुक शॉप - नारंग पुस्तक भण्डार और मनोज पॉकेट बुक्स से पहले थी !
चाँदनी चौक से दरीबा कलाँ में प्रवेश करके जब हम सीधे आगे बढ़ते चले जाते हैं तो दरीबा कलाँ के आधे रास्ते में दायीं ओर किनारी बाजार का रास्ता आता है ! उसके बाद दायीं ओर ही कुछ दुकानों के बाद थी गर्ग एण्ड कम्पनी की बुक शाॅप !
दुकान अन्य बहुत सी दुकानों जितनी ऊँची नहीं थी !
सड़क से मात्र ढाई-तीन फुट ऊँची रही होगी !
दुकान पर उन दिनों आगे-आगे मोटी सी गद्दी बिछाये टाँग पर टाँग चढ़ाये बैठा-अधलेटा सा शख़्स ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग था !
दुकान में काउन्टर, कुर्सी, स्टूल आदि उन दिनों नहीं थे ! कई सालों बाद दरीबे की दुकानों में काउन्टर, कुर्सी आदि देखे जाने लगे थे !
मैं जैसे ही गर्ग एण्ड कम्पनी के सामने पहुँच खड़ा हुआ, ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग एकदम सीधा हो गया ! अन्दर एक नौकर किताबों के बण्डल बना रहा था, उसकी निगाह भी मेरी ओर उठ गई !
"हाँ छोटू....क्या चाहिये ?"जुबान में चाशनी घोल ज्ञानेन्द्र ने सवाल किया ! वह भी लालाराम गुप्ता की तरह मुझे कोई बुकसेलर समझा था !
"जी... गोलगप्पा मैगजीन आपके यहाँ से छपती है ?" मैं बोला, क्योंकि मन ही मन मैं अनिश्चित सा था कि गोलगप्पा इन्हीं की मैगज़ीन होगी ! मुझे तो बिमल चटर्जी ने बताया था ! गर्ग एण्ड कम्पनी की दुकान के बारे में सम्पूर्ण जानकारी मुझे बिमल से ही मिली थी !
मेरी बात पर ज्ञानेन्द्र झट से बोला -"हाँ जी, गोलगप्पा हमारी ही मैगज़ीन है ! आजकल तो बच्चों में सबसे ज्यादा धूम गोलगप्पा की है ! नये पुराने सारे इशू मिल जायेंगे ! कितने-कितने निकलवा दूँ !"
"जी... गोलगप्पा में मेरी कहानियाँ छपी हैं ! मैं लेखक हूँ !" मैंने कहा !
एक पल ज्ञानेन्द्र खामोश मुँह बाये मुझे देखता रहा ! फिर उसके होठों से जबरदस्त हँसी छूट गई ! उसने पीछे काम कर रहे नौकर को आवाज दी और हँसते-हँसते बोला -"देख तो.... यह पिद्दी कह रहा है - यह लेखक है ! हमारी गोलगप्पा में इसकी कहानियाँ छपी हैं !"
यही स्टाइल था ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग का - जिसकी इज्जत करता, उसके आगे बिछ जाता, लेकिन बहुत कम लोगों की इज्जत करते देखा मैंने उसे ! जब उसे अच्छी तरह जानने-पहचानने लगा तो पाया कि जिनके सामने वह मीठा गुड़ बना रहता, पीठ पीछे उनका भी इतिहास-भूगोल बदल देता था ! मुझे एक लम्बे अर्से तक मुँह पर भी उसने छोटू ही कहकर सम्बोधित किया ! छोटू से मुझे 'योगेश जी' बनाया 'माता वैष्णोदेवी' ने ! वो किस्सा आगे आपके सामने आयेगा !
पर उस समय तो मुझसे - मैं लेखक हूँ और मेरी लिखी कहानियाँ गोलगप्पा में छपी हैं, जानकर - ज्ञानेन्द्र ने मुझे पिद्दी बना दिया और मेरा खून जलानेवाली बात यह थी कि ज्ञानेन्द्र के साथ उसका नौकर भी हँसने लगा था !
अब तो मुझे भी याद नहीं है, पर तब ज्ञानेन्द्र और उसके नौकर की हँसी पर जबरदस्त गुस्सा जो आया, मैंने फटाफट अपनी कहानियों के नाम बताये और बोला कि वो कहानियाँ मैंने लिखी हैं !
मेरी आवाज बुलन्द थी ! आते-जाते लोग ठिठककर गर्ग एण्ड कम्पनी की ओर देखने लगे थे !
ज्ञानेन्द्र की हँसी एकदम रुक गई ! वह गम्भीर हो गया -"अच्छा तो तेरी कहानी गोलगप्पा में छपी हैं ?"
"हाँ !"
"तो यहाँ क्यों आया है ? हमें बताने आया है कि तेरी कहानी गोलगप्पा में छपी हैं !"
"नहीं, वो...आपने न तो कहानी छापने की सूचना भेजी, ना ही कम्प्लीमेंटरी मैगज़ीन भेजी ! ना ही कहानियों का कोई पारिश्रमिक भेजा !" मैंने कहा !
उस समय मैं जो कुछ भी कह रहा था - वो मैं नहीं कह रहा था, बिमल चटर्जी जो कुछ मुझे समझाया था, वही पाठ मेरे होठों से निकल रहा था, पर मेरे मुँह से उतनी बातें सुन ज्ञानेन्द्र का मुँह गोलाई में सिकुड़ गया और आँखें फैल गईं और वह एहसान जताते हुए बोला - "ओए छोटू ! हमने तेरा नाम छाप दिया, ये क्या कम है ? ओए तू तो सारे हिन्दुस्तान में मशहूर हो गया ! हिन्दुस्तान के कोने-कोने में जाती है गोलगप्पा !"
(शेष फिर )
दोस्तों ! उस समय ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग ने कहा -लगभग वैसे ही शब्द बरसों बाद फोन पर पंजाब केसरी के सम्पादक प्रविन्द्र शारदा ने जब मुझसे फ़ोन पर कहे तो मेरे दिल से पहली बार ऐसे अलफ़ाज़ उभरे, जो अमूमन किसी के विषय में सोचता भी नहीं हूँ ! मेरे दिल ने खुद से ही कहा कि हे भगवान ! इस गधे को किस बेवकूफ ने सम्पादक बनाया ?
पर वो किस्सा फिर कभी.....।।
उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-भाग,17,18
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