लेबल

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2019

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-09,10

योगेश मित्तल जी के संस्मरण
आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 9
=============================================

आज सोचता हूँ - मेरी वो खिंचाई अस्वाभाविक नहीं थी ! मेरे सामने कोई अजूबा आ जाये तो उसकी हकीकत जानने के लिए मैं भी कुछ तो शगूफे छेड़ूँगा ही !

"माशूका नहीं समझे ! माशूका उर्दू का शब्द है, इसका मतलब है प्रेमिका !” जब वालिया साहब ने मुझसे कहा और हठात ही मेरे मुंह से निकल गया था - "मालूम है !”

तब इससे पहले की कोई और कोई भी प्रतिक्रिया देता, शुरु से खामोश बैठे गुप्ता जी (लालाराम गुप्ता) ने अब पहली बार मुँह खोला, बोले -"योगेश जी को सब पता है, इन्हें आप सब बच्चा मत समझिये !" और इसी के साथ उन्होंने दराज में रखी "जगत की अरब यात्रा" की मेरी स्क्रिप्ट निकालकर राज भारती जी की ओर बढ़ा दी !

अब सोचता हूँ तो लगता है कि उस समय गुप्ता जी को अवश्य ही मुझ पर तरस आ गया होगा !

गुप्ता जी ने स्क्रिप्ट क्या बढ़ाई, माहौल में एकदम सन्नाटा छा गया ! सबकी नज़रें मेरी स्क्रिप्ट पर ठहर गई थीं !
तभी कहीं कोई कुण्डी खड़की थी ! 

गुप्ता जी स्वयं उठ गये ! वालिया साहब ने अपनी कुर्सी, मेरी कुर्सी से दूर कर ली ! 
गुप्ता जी के बाहर निकलने का रास्ता बन गया ! गुप्ता जी बाहर निकले, जब लौटे तो एक केतली में चाय और एक हाथ की अँगुलियों में कुछ कप लटक रहे थे ! आॅफिस की दायीं दीवार पर एक आला था ! दो कप पहले से ही वहाँ रखे थे !
गुप्ता जी पुराने उत्तर भारतीय संस्कारों से बंधे धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, उनके आॅफिस में "गुप्तानी जी" को आते-जाते हमने कभी नहीं देखा !
वापस अपनी कुर्सी पर बैठने के बाद गुप्ता जी ने सभी के लिए कप बिछा दिये और केतली से चाय उड़ेलने लगे !

पर मेरी नज़र भारती साहब पर भी थी, जो मेरी स्क्रिप्ट के पन्ने पलटते जा रहे थे, सरसरी नज़र से देखते हुए ! वालिया साहब और लौहचब भाई की नज़रें भी उस समय भारती साहब पर ही थीं !

तभी गुप्ता जी ने भारती साहब से कहा - "करतार ! मैंने तो योगेश जी को दस दिन का टाइम दिया था, पर ये तो पाँच दिन में ही ले आये और मुझे लगता है - मैटर कम नहीं पड़ेगा, बढ़ सकता है ! अट्ठाइस की जगह तीस लाइन करवानी पड़ सकती हैं !"

"हुम्म !" भारती साहब ने एक हुंकार भरी और उन्होंने शुरू के पेज यूं ही सरसरी नज़र से देखते हुए पलट दिए ! फिर चाय का कप उठाते हुए, काफी पन्नों बाद बीच में कहीं पर ठहर गए और ध्यान से बीच के पन्नों से कोई दृश्य पढ़ने लगे ! 
चाय के घूँट-घूँट भरते, वह पढ़ते रहे ! पन्ने पलटते रहे ! 
बाकी सब भी चाय की चुश्कियाँ लेते हुए भारती साहब की ओर देखते रहे ! मैं भी !

चाय का कप खाली होते ही भारती साहब ने स्क्रिप्ट बन्द कर दी और मेरी पीठ थपथपाई ! फिर मेरी ओर देखते हुए अंग्रेजी में कुछ कहा, जो धड़कते दिल के साथ अच्छे-बुरे विचारों में घिरा मैं ठीक से नहीं सुन सका ! बाद में एक बार भारती साहब से पूछा तो वह हँस दिये, बोले -"कहा होगा कुछ ! अब तू वो सब मत सोच ! आगे की सोच !"

पर आज यह संस्मरण लिखते हुए सोचता हूँ कि उन्होंने "Keep it up" या वैसा ही कुछ कहा होगा ! क्योंकि उसके तुरन्त ही बाद उन्होंने लालाराम गुप्ता जी से कहा -"तेरे तो मजे हैं ! बैठे-बिठाये हीरा मिल गया ! पैसे-वैसे दिये इसे ?"
"पैसे भी देंगे और पार्टी भी करेंगे, पर अभी नहीं !" गुप्ता जी बोले !
"अभी क्यों नहीं ?" भारती साहब बोले !

तभी वालिया साहब ने भारती साहब के एक हाथ के नीचे दबी स्क्रिप्ट खींच ली ! भारती साहब ने एक नजर वालिया साहब की ओर देखा और मुस्कुरा कर बोले -"पढ़ ! तू भी पढ़ !"
उसके बाद तुरन्त गुप्ता जी की ओर घूमकर अधिकारपूर्ण स्वर में बोले -"पैसे दे इसे !"

आपने किसी फिल्म में किसी अभिनेता का डायलाॅग सुना होगा कि मजदूर का पसीना सूखने से पहले उसकी मजदूरी मिल जानी चाहिए ! कुछ वैसा ही अधिकारपूर्ण कहना था भारती साहब का ! 
पर लालाराम गुप्ता बोले -"दे दूँगा ! तू उसकी चिन्ता मत कर !"
"दे दूँगा क्या होता है, अभी दे !" भारती साहब दबंग होकर बोले !
"अगले हफ्ते दे दूँगा ! ‘मेरी योगेश जी की’ बात हो गई है !" गुप्ता जी ने कहा !
"अगले हफ्ते क्यों ? अभी क्यों नहीं ? तूने स्क्रिप्ट पढ़ी ?" भारती साहब बोले !
"नहीं पढ़ी, इसीलिए तो..." गुप्ता जी बोले तो भारती साहब फिर तेज आवाज में बोल उठे -"नहीं पढ़ी तो अभी पढ़ और पैसे दे !"

अब गुप्ता जी ने अपना आखिरी हथियार फेंक दिया, जो बाद में भी मैंने अनेकों बार फेंकते देखा था, जब उन्होंने किसी को पैसे नहीं देने होते थे !
गर्दन लटकाकर टेढ़ी करते हुए बोले -"पैसे नहीं है ! सच, अभी हालत बहुत टाइट है !"
अब भारती साहब शांत और खामोश हो गये ! एक क्षण चुप रहने के बाद गम्भीर स्वर में बोले - "अगले हफ्ते पक्का ! कहीं से भी करके !"
"पक्का !" गुप्ता जी ने कहा !

उस दौरान वालिया साहब मेरी स्क्रिप्ट पढ़नी शुरु कर चुके थे !
भारती साहब ने गुप्ता जी से 'पक्का' करने के बाद मेरी ओर देखा, बोले -"चिन्ता नहीं करनी, तू बिल्कुल सही जगह आया है !" 

अगली लाइन उन्होंने पंजाबी में कही थी, तब उन्हें नहीं मालूम था कि मैं पंजाबी बोलने में जीरो और समझने में अनुमान के बल पर अर्थ लगाता हूँ ! यह और बात है कि मेरे अनुमान हमेशा सटीक बैठते रहे हैं !
तो इसके बाद भारती साहब ने पंजाबी में जो कहा, उसका मतलब था ‘एक दिन सारे प्रकाशक तेरा लोहा मानेंगे !’

और बाद में एक वक्त ऐसा ही आया, जब बाद में ख्याति प्राप्त करनेवाले बहुत से लेखकों से ज्यादा प्रकाशकों में, मैं बहुत ज्यादा लोकप्रिय था !
यही नहीं प्रकाशकों के स्टाॅफ, प्रिन्टिंग प्रेसवालों, बाइन्डर्स और नये-पुराने लेखकों में भी मैं बेहद प्रिय रहा ! 

मुरादाबाद के लेखक नरेश सिंह चौहान तथा अन्य बहुत से लेखक इस बारे में बेहतर बता सकते हैं ! 

बहरहाल इधर भारती साहब मुझसे बड़ी आत्मीयता से बातें करने लगे, उधर वालिया साहब मेरी स्क्रिप्ट में खोये हुए थे ! काफी देर बाद स्क्रिप्ट बन्द कर वालिया साहब ने वीरेन्द्र सिंह की ओर बढ़ा दी और एकदम कुर्सी से उठ खड़े हुए और झुकते हुए मेरी ओर बढ़ते हुए बोले - "योगेश जी...योगेश जी ! आपके चरण कहाँ हैं ?"

और वह यूँ लपके, जैसे सचमुच मेरे पैर छूने जा रहे हों, पर जो कुछ उन्होंने किया, उससे सभी के होठों से ठहाके निकल गये !

वालिया साहब ने दोनों हाथों से मुझे ऊपर उठा लिया ! फिर बोले -"यार, आप तो मेरी बीबी से भी हल्के हो !"

तो यह थे असली वालिया साहब ! मोहब्बत से भरे हुए ! 
जो लोग वालिया साहब के जीवन काल में दो-चार बार भी उनसे मिले हैं, मेरे साथ वालिया साहब का यह दृश्य पढ़ते ही उनकी आँखों के आगे यशपाल वालिया का चेहरा घूम जाना लाज़मी है !

वालिया साहब मुझे उठाये हुए ही थे कि तभी वीरेन्द्र सिंह ने भी खड़े होकर मेरी पीठ थपथपाई ! उन्होंने ज्यादा लाइनें नहीं पढ़ी थीं, पर भारती साहब और वालिया साहब की प्रतिक्रिया देखकर ही 'खत का मजमूँ लिफाफे से ही भाँपते हुए' स्क्रिप्ट गुप्ता जी की ओर बढ़ा दी थी !

गुप्ता जी ने मुझसे कहा था कि पेमेन्ट हम स्क्रिप्ट पढ़ने के बाद पसन्द आने पर ही देंगे ! नहीं पसन्द आई तो स्क्रिप्ट वापस कर देंगे ! 

और यह सब मुझे एक हफ्ते बाद मालूम होना था, पर अपने एक्ज़ाम का रिजल्ट मुझे उसी दिन मालूम हो गया था !

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार- भाग-10
आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 10

उन दिनों अधिकांश प्रकाशकों के सैट हर दो महीने में निकला करते थे ! एक सैट में कम से कम छ: पाॅकेट बुक्स होती थीं !
पर प्रकाशन की दुनिया में नया कदम रखनेवाले एक दो किताबों से ही शुरुआत कर देते थे ! हाँ, उपन्यास पत्रिकाएँ निकालने वाले हर महीने एक उपन्यास निकालते थे !

ऐसे ही उपन्यास निकालने के शौकीन कोई सज्जन (नाम फिलहाल भूल रहा हूँ !) एक बार बिमल चटर्जी की लाइब्रेरी में आये और बिमल चटर्जी से उनका उपन्यास उनके नाम से छापने का प्रस्ताव रखा ! तब तक बिमल का अपने नाम से एक भी उपन्यास नहीं छपा था !

बिमल के लिए उन्होंने पहला टाइटिल "उषा पाॅकेट बुक्स"के अन्तर्गत कृष्णानगर के आर्टिस्ट इन्द्र भारती से बनवाया ! उपन्यास का नाम रखा गया "खून की प्यास" !

खून की प्यास बिमल चटर्जी के नाम से छपने वाला पहला उपन्यास था ! उसका टाइटिल अवश्य पहले आ गया, लेकिन उपन्यास मेरे ओमप्रकाश शर्मा (नकली) के नाम से छपे उपन्यास "जगत की अरब यात्रा" के बाद ही प्रकाशित हुआ था !

भारती पाॅकेट बुक्स में दिग्गज महारथियों से मिलने के अगले ही दिन मैंने बिमल चटर्जी को अपने भारती पाॅकेट बुक्स जाने और वहाँ जगत सीरीज़ का उपन्यास देने की बात बता दी !

बिमल बहुत खुश हुए, बोले - "भारती में तो मैं भी लिख रहा हूँ ! आप इस नाॅवल की पेमेन्ट ले आओ ! फिर आगे से दोनों भाई साथ-साथ चला करेंगे और अब आप में कान्फिडेन्स आ गया है तो चलो, किसी रोज आपको "मनोज वालों' (मनोज पाॅकेट बुक्स) से भी मिलवा देते हैं ! आपकी जो भी कहानियाँ मैंने उन्हें दीं ! राइटिंग देखकर ही गौरी भाई साहब ने कह दिया था -"यह कौन लिखनेवाला है, इसे डायरेक्ट मेरे पास लेकर आ !"

दोस्तों ! तब यह बात कल्पना से भी परे थी कि ये सारी घटनाएँ कभी मैं कलमबद्ध करूँगा, इसलिए समय के आकलन में थोड़ी-बहुत गलती हो सकती है, पर बहुत ज्यादा फर्क नहीं होगा !

जहाँ तक मेरा अनुमान है - ये घटनाएँ 1971-72 की होनी चाहिए ! इसका प्रमुख कारण है - सुनील गावस्कर !
जो लोग क्रिकेट में रुचि रखते हैं, उन्हें याद होगा कि सुनील गावस्कर ने अजीत वाडेकर की कप्तानी में अपना पहला टेस्ट वेस्ट इण्डीज के पोर्ट आॅफ स्पेन में 1971 में ही खेला था, जो कि श्रृंखला का दूसरा टेस्ट था और वह टेस्ट भारत की विदेशी धरती पर पहली जीत थी ! हमारा कथाक्रम बस, उसी के आस-पास का है !

उन दिनों मेरी राइटिंग बहुत सुन्दर-साफ-साफ होती थी !
यही कारण है, जब भारत में बच्चों के काॅमिक्स की लहर फैली थी, तब मुझे बहुत से काॅमिक्सों की कैलीग्राफी करने का अवसर भी मिला ! (Calligraphy - सुलेख ! #तब कंप्यूटर नहीं था ! कॉमिक्स में पात्रों-चरित्रों के डायलॉग बैलून के अंदर, या बॉक्स में बैकग्राउंड मैटर - अच्छी राइटिंग में अधिकांशतः आर्टिस्टों द्वारा ही लिखे जाते थे, किन्तु कभी-कभी यह सुअवसर अच्छी राइटिंग वाले मुझ जैसे लोगों को भी मिल जाता था !)    

खैर, अगले रविवार का मैं बेसब्री से इन्तजार कर रहा था और वो आ भी गया !
मैं वक्त से भारती पाॅकेट बुक्स पहुँच गया था ! 
आॅफिस बन्द था, पर गुप्ता जी ने पिछली बार मेरे रुखसत होने से पहले मुझे बता दिया था कि आॅफिस बन्द हो तो आवाज मार लूँ ! 
तब कालबेल का जमाना नहीं था ! 

मैंने आवाज लगाई -"गुप्ता जी !"
दूसरी बार आवाज लगाई तो पण्डित जी नीचे आ गये ! चाबी का गुच्छा हाथ में था ! आॅफिस के ताले खोले !
उस दिन लकड़ी की एक कुर्सी दरवाजे के साथ, आॅफिस की बायीं दीवार से सटी रखी थी, इसलिए फोल्डिंग कुर्सी नहीं खोली और मुझे बैठने का संकेत किया !
एक पाँव में लचक होने के कारण गुप्ता जी ठुम्मक-ठुम्मक चलते हुए आते थे, जो कि उनका अपना अनूठा अन्दाज़ था और बड़ा भला-सा लगता था !
दरवाजे से अन्दर प्रवेश करते हुए उन्होंने दायां हाथ आगे बढ़ाकर मुझसे हाथ मिलाया !
पिछली बार राजभारती और यशपाल वालिया ने हँसी-मजाक के बाद जो मेरा मनोबल और आत्मविश्वास बढ़ाया था, उसे अन्त में सभी ने हाथ मिलाकर एवरेस्ट पर पहुँचा दिया था, वरना मैं तो हमेशा से सभी से हाथ जोड़कर ही मिला करता था !
आज गुप्ता जी का हाथ मिलाकर मेरा स्वागत करना मुझे कितना भाया होगा, हर कोई नहीं समझ सकता, क्योंकि आज के युग में हाथ मिलाना एक आम प्रक्रिया है !

मैं फटाफट पैसे पाने की उम्मीद में था, पर गुप्ता जी ने  उस बारे में कोई जिक्र न कर, सवाल दागा -"आपकी वो "धाँय-धाँय-धाँय" कम्प्लीट हुई ?"
"जी, हो गई ! प्रेस में कम्पोजिंग के लिए दे दी है !" मैंने बताया !
"और आगे क्या लिख रहे हो ?"
"अभी तो बच्चों की कहानियाँ ही लिख रहा हूँ !" मैंने कहा ! फिर इससे पहले कि गुप्ता जी अगला सवाल दागें, मैंने ही पूछ लिया -"आपने मेरी स्क्रिप्ट पढ़ी ?"
"हाँ, पढ़ी !" गुप्ता जी ने कहा और मैं खुश हो गया ! आप समझ नहीं सकते कि पहली बार पिचहत्तर रूपये जैसी मोटी रकम मेरे हाथ में आने जा रही थी और उसे पाने का मैं कितना लालायित था ! आज के तो बच्चों को भी पाँच-दस हजार थामते हुए भी कोई एक्साइटमेन्ट नहीं होता, पर तब की बात और थी ! तब पिचहत्तर रूपये भी एक बहुत बड़ी रकम थी !

हम जिस घर में किराये पर रहते थे, उसका किराया पचास रूपये था ! 
हमारे घर के पास वाला मामचन्द चायवाला और विशाल लाइब्रेरी में चाय देनेवाला चिरंजी लाल चाय का गिलास पन्द्रह पैसे में देते थे ! 
विशाल लाइब्रेरी के सामने कुछ आगे एक सरदार जी ने समोसे जलेबी की दुकान खोली थी ! उनके समोसे तो आज के समोसों के साइज़ से आधे होते थे, किन्तु वे समोसे के साथ चटनी नहीं, स्वादिष्ट छोले देते थे और समोसे तीस पैसे के दो होते थे ! जलेबी सवा रुपये किलो मिलती थी !

विशाल लाइब्रेरी में एक बेहद खूबसूरत पंजाबी नौजवान आता था, जिसका नाम था प्रेम ! वह सिगरेट पीता था और अपने पिता साईं दास छाबड़ा तथा घरवालों से छुप-छुप कर सिगरेट पीने के लिए विशाल लाइब्रेरी में आता था और सड़क की तरफ हमेशा पीठ करके, थोड़ा झुका हुआ बैठा करता था ! उसकी सेहत उन दिनों जैसी थी, उम्मीद है - आज भी कहीं दूध की डेयरी चला रहा होगा ! आपके पड़ोस में कहीं हो तो कहना योगेश जी याद कर रहे हैं ! बिमल चटर्जी से प्रेम की तगड़ी निभती थी, पक्की दोस्ती थी ! मुझे वह भी बिमल चटर्जी की तरह हमेशा "योगेश जी" कहता था !फिल्मी हीरो सी पर्सनालिटी वाले प्रेम के पिता की गाय-भैंस के दूध की डेयरी थी - शायद "छावड़ा डेयरी" ! उसमें सामने दुहा प्योर दूध साठ पैसे किलो होता था ! 

उन दिनों देशी घी के अलावा "डालडा वनस्पति" मिलता था ! मक्खन में अमूल का कोई नाम नहीं था, पोल्सन नाम का मक्खन सबसे मशहूर था ! कैवेन्डर्स, सीजर्ज (कैंची), पनामा, पाशिंग शो, चारमीनार  किसी का भी पैकेट साठ पैसे से अधिक की नहीं था !
खैर, गुप्ता जी ने जब यह कहा कि उन्होंने स्क्रिप्ट पढ़ी है तो तत्काल ही मैंने पूछा - "कैसी लगी ?"
"ठीक है...!" गुप्ता जी ने ढीले-ढाले अन्दाज़ में कहा !
तभी वहाँ भारती साहब भी आ गये ! पर आज वह अकेले थे !
उन्होंने भी मुझसे हाथ मिलाया ! भारती साहब से उस समय हाथ मिलाकर मैंने स्वयं को कितना गर्वित महसूस किया, बताने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं !

(शेष फिर)
अगली किश्त में वह आप पढ़ेंगे - गुप्ता जी का वह सवाल, जिसका जवाब देकर मैं बुरा फंसा !
जय श्रीकृष्ण !

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार, भाग 11,12

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Featured Post

मेरठ उपन्यास यात्रा-01

 लोकप्रिय उपन्यास साहित्य को समर्पित मेरा एक ब्लॉग है 'साहित्य देश'। साहित्य देश और साहित्य हेतु लम्बे समय से एक विचार था उपन्यासकार...