आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 17,18
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उन दिनों मैं आज जैसा चतुर-चालाक-हाज़िरजवाब कुछ भी नहीं था !
जब ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग ने मुझसे कहा -"ओए छोटू ! हमने तेरा नाम छाप दिया, ये क्या कम है ? ओए तू तो सारे हिन्दुस्तान में मशहूर हो गया ! हिन्दुस्तान के कोने-कोने में जाती है गोलगप्पा !"
तो एक बार तो मुझे कुछ भी नहीं सूझा कि क्या कहूँ ! फिर भी धीरे से बोला -"सब लोग तो कहानी छापने के पैसे देते हैं !"
सच कहूँ तो मैं उस समय बोल नहीं रहा था, घिघिया रहा था !
पर जो लोग ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग को जानते रहे हैं, कभी न कभी उससे मिले हैं – वे अच्छी तरह समझ सकते हैं कमसिन उम्र में मेरा उस आदमी से बात करना कितना कठिन था ! मैं उसके सामने खड़ा था, यही बहुत था !
"कहाँ-कहाँ छपी है तेरी कहानी ? किस-किस ने दिए हैं पैसे ?" ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग ने पूछा !
बच्चों की पत्रिकाओं में तो मैंने गोलगप्पा के अलावा कहीं कोई कहानी भेजी नहीं थी ! अतः ज्ञानेन्द्र के सवाल तो और कोई जवाब तो सूझा नहीं, मैंने कह दिया -"मनोज वाले भी देते हैं !"
"ये कबाड़िये..!" मेरे मुंह से मनोज नाम सुनते ही ज्ञानेन्द्र ने सिर को दायीं ओर झटका दिया और बोला था !
तब मैं नहीं समझ सका था कि ज्ञानेन्द्र ने मनोज वालों के लिए "कबाड़िये" क्यों कहा ! पर बाद में घनिष्ठता हो जाने पर जाना कि वह पीठ पीछे हमेशा उन्हें इसी तरह सम्बोधित करता था, लेकिन जब भी राजकुमार गुप्ता या गौरीशंकर गुप्ता सामने पड़ते "भाई साहब-भाई साहब” करके बिछ जाता ! और बाद में मैंने यह भी जाना कि मनोज वालों ने किस तरह कड़ी मेहनत करके, कबाड़ के धंधे से, प्रकाशन व्यवसाय में बुलंदी हासिल की !
“तू इनके लिए भी कहानी लिखता है ?" मनोज वालों के लिए 'ये कबाड़िये' कहने के बाद ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग ने प्रश्न किया !
मैंने स्वीकारोक्ति में सिर हिलाया !
"क्या-क्या लिखा है इनके लिए ?" ज्ञानेन्द्र ने पूछा !
"बहुत कहानियां लिखी हैं !" बोलते-बोलते मुझे ध्यान आया कि मेरी लिखी कहानियों में 'अण्डों की खेती' और 'बोतल में हाथी' कहानियां तो कवर डिजाइन की कहानियां थी, तो तुरंत बोल दिया -"अण्डों की खेती और बोतल में हाथी भी मैंने लिखी थी !"
और यह कहते-कहते मेरी नज़र वहां बिक्री के लिए आगे सजी किताबों पर गयीं ! अण्डों की खेती वाला सेट सबसे आगे रखा था ! उसी के सेट में बोतल में हाथी भी थी !
पहले ज्ञानेन्द्र ने मनोज बाल पॉकेट बुक्स का अण्डों की खेती वाला सेट उठाया ! मुझे दिखाकर बोला -"यह तेरी लिखी है ?"
"इसमें अण्डों की खेती नाम की पहली कहानी तो मेरी ही लिखी है ! अंदर की कहानियां - कौन-कौन सी हैं और उनमें कौन-कौन सी मेरी हैं, मुझे पता नहीं !" मैंने कहा ! दरअसल अण्डों की खेती किताब या मनोज बाल पॉकेट बुक्स का कोई सेट तब तक मैंने देखा ही नहीं था !
सेट में से अण्डों की खेती निकाल, ज्ञानेन्द्र पहली कहानी के पेज पलटने लगा ! फिर अचानक उसने दुकान में काम करने वाले लड़के से सम्बोधित करते हुए कहा -"अपना गोलगप्पा का सेट दे तो....!"
लड़के ने तुरंत अलग-अलग महीनों की दस-बारह गोलगप्पा उठाकर ज्ञानेन्द्र को थमाईं ! ज्ञानेन्द्र ने वह मेरी ओर सरका दीं - "बता, इन में से किस-किस में तेरी कहानी छपी है !"
मैंने झट से अपनी कहानियों वाली पत्रिकाएं निकालीं और उनके अपनी कहानियों वाले पेज सामने निकाल, पत्रिकाएं ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग की ओर बढ़ा दीं !
उसने कहानी में लेखक का नाम जोर-जोर से पढ़ा - "योगेश कुमार मित्तल !" (तब मैं खुद को योगेश मित्तल नहीं, योगेश कुमार मित्तल ही लिखता था !)
"ये तो किसी योगेश कुमार मित्तल की लिखी हुई हैं !" ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग ने कहा !
"मैं ही योगेश कुमार मित्तल हूँ !" मैंने कहा !
"क्या सबूत है - तू योगेश कुमार मित्तल है ?" ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग तुरंत बोला !
दोस्तों, उस समय भारत में वोटर आई डी, आधार कुछ भी नहीं होते थे ! पैन कार्ड और ड्राइविंग लाइसेंस भी आम नहीं थे ! फिर मैं तो उम्र से भी नाबालिग था ! स्कूली लाइफ कलकत्ते में बिताई थी !
मुझे कोई जवाब नहीं सूझा !
"वाह बेटा !" ज्ञानेन्द्र दाएं-बाएं सिर हिलाकर बोला -"उस्तादों से उस्तादी ! गोलगप्पा कहीं से देख ली होगी और सोचा होगा ज्ञान को बेवकूफ बनाकर पैसे ऐंठ लूँ ! सच बता - तेरा नाम क्या है ? वरना बुलाता हूँ पुलिस को !"
मुझे इतने जोर का गुस्सा आया कि मैं बोल पड़ा -"बुला लो !"
ज्ञान मेरा चेहरा देखने लगा !
तभी मुझे एक बात सूझी !
"आपके पास मेरी कहानियों की 'मेन स्क्रिप्ट' तो होगी ! निकालकर मेरी राइटिंग मिला लो !" मेरी आवाज़ में अभी भी पहले जैसा गुस्सा था !
"ठीक है, वो भी मिलाएंगे ! इसमें क्या है ?" अचानक ज्ञान ने मेरे कंधे पर से, मेरा थैला खींच लिया !
मैंने रोकने की कोशिश की, पर रोक नहीं पाया ! ज्ञान ने अखबार में लिपटी 'सोने का हिरण' निकाल ली और मेरे रोकते-रोकते भी अखबार फाड़कर अलग कर दिया !
अब स्क्रिप्ट का पहला पेज सामने था, जिसके पहले पेज पर सबसे ऊपर लिखा था -'सोने का हिरण' !
ज्ञान ने पहला पेज पढ़ना शुरू किया ! फिर पेज पलटे ! बीच-बीच में से एक-दो, एक-दो लाइन पढ़ीं ! फिर बोला -"यह हमारे लिए है ?"
"नहीं ! मनोज वालों के लिए है !" मैंने कहा !
ज्ञान के रुख में बदलाव देख मेरा गुस्सा भी ठंडा हो गया था !
"इन कबाड़ियों के लिए - छोड़, ये क्या देंगे तुझे ? नाम भी नहीं छापेंगे !" ज्ञान मुझे समझाने वाले भाव में बोला - "मेरे पास छोड़ जा, मैं तेरे नाम से छापूंगा !"
"नहीं, यह कहानी अधूरी है और पार्ट की है ! उनके यहां टाइटल भी छप चुका है !" मैंने कहा !
शायद अधूरी है और पार्ट की है, सुनकर ज्ञान ने अपने यहां से एक पुराने अखबार का पेज निकाला और स्क्रिप्ट उसी तरह लपेटकर थैले में रख दी और फिर बड़े प्यार से बोला -"चाय पियेगा ?"
"नहीं !" मैंने कहा !
पर अनसुनी करते हुए ज्ञान ने अपने यहां काम करने वाले लड़के से कहा -"जा फ़टाफ़ट चाय लेकर आ ! देर की तो बहुत मारूंगा !"
फिर मेरे से कहा -"बैठ...यहां बैठ !" और गले में बांह डालकर जबरदस्ती मुझे अपने पास ही गद्दी पर खींच लिया !
उसके बाद बड़े प्यार से बोला -"तू हमारे लिए बाल पॉकेट बुक्स लिख, तेरे नाम से छापेंगे ! चार फ़ार्म का मैटर लिखना होगा ! छोटे साइज के एक सौ अट्ठाइस पेज बनेंगे !" फिर नौकर के आने से पहले ही गल्ले से एक दस का नोट निकाला और मेरी शर्ट की जेब में ठूंस दिया ! और बोला -"ये तेरे कहानियों के हो गए ! ठीक है न ?"
मैं क्या बोलता ! मेरी तो समझ में ही नहीं आ रहा था कि यही व्यक्ति अभी मुझे फ्रॉड मानकर पुलिस बुलाने की धमकी दे रहा था और अब गले में बांह डालकर जकड़े हुए बैठा है !
लड़का सचमुच बहुत जल्दी चाय लेकर आ गया और एक तल्खी भरी शुरूआत का अंत मिठास से हुआ !
चाय पिलाने के बाद ज्ञान ने गोलगप्पा की मेरी कहानियों वाली प्रतियों के साथ-साथ और भी कई अंक मेरे थैले में डाल दिए ! बोला - "ले जा, तेरे भाई-बहन पढ़ेंगे तो खुश हो जाएंगे !"
उसके बाद पहले तो ज्ञान ने मुझसे प्रॉमिस लिया कि अगली बार दरीबे में तभी कदम रखूंगा, जब चार फार्म की एक बाल पॉकेट बुक्स की कहानी गर्ग एंड कंपनी के लिए लिखकर लाऊंगा !
उसके बाद....
मैंने मनोज में जाकर 'सोने का हिरण' की स्क्रिप्ट दी !
शॉप पर गौरीशंकर गुप्ता ही थे !
और जैसा बिमल चटर्जी ने कहा था, वैसा ही हुआ !
उन्होंने नहीं पूछा कि तीनो पार्ट साथ क्यों नहीं लाये ! थोड़ी देर अच्छी-अच्छी बातें करते रहे ! परिवार के विषय में ! फिर सोने का हिरण की कहानी के विषय में ! मुझसे सोने का हिरण की कहानी सुनाने को कहा ! मैं कहानी सुनाने में शुरू से ही बहुत एक्सपर्ट रहा हूँ ! जो लिखा था - वह तो सुनाया ही और जो नहीं लिखा था, वह भी 'कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा' स्टाइल में उसी समय जोड़-तोड़कर, तैयार करके सुना दिया !
उसके बाद गौरीशंकर गुप्ता ने भी चाय पिलाई ! फिर नगद पिचहत्तर रुपये दिए और साथ ही मनोज बाल पॉकेर बुक्स का एक सेट तथा एक प्रेम बाजपेयी का सामाजिक उपन्यास बिना मांगे ही पढ़ने के लिए दिया !
कुल मिलाकर मेरा वह दिन अंततः बहुत अच्छा रहा !
(शेष फिर )
अगली बार ज्ञान ने कहा -"बेटा, उस दिन तो मैं तेरे मज़े ले रहा था ! तूने बुरा तो नहीं माना ?"
भाग- 18
आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 18
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ज्ञान उर्फ गर्ग एण्ड कम्पनी के ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग से मुझे गोलगप्पा में छपी कहानियों के दस रुपए मिल गये थे ! एक बाल पाॅकेट बुक्स का आर्डर भी मिल गया था, किन्तु मेरे मन में उसकी छवि पूरी तरह साफ-सुथरी नहीं बन पाई थी !
उसने मुझसे प्राॅमिस लिया था कि दरीबे में तब ही कदम रखूँगा, जब गर्ग एण्ड कम्पनी के लिए एक बाल पाॅकेट बुक्स तैयार हो और मैंने मनोज बाल पाॅकेट बुक्स के लिए सोने का हिरण के आगामी दोनों पार्ट तो तैयार कर लिए, लेकिन गर्ग एण्ड कम्पनी के लिए एक भी लाइन नहीं लिखी थी !
मुझे डर लगा कि अगर मैं दरीबे गया और ज्ञान ने मुझे देख लिया तो पकड़ लेगा ! पकड़ लिया और मनोज के लिए मेरी बाल पाॅकेट बुक्स उसने देख लीं तो उन्हें अपने कब्जे में कर लिया कि पहले मेरे लिए लिखी बाल पाॅकेट लेकर आ तो....!
कहने का मतलब यह कि सारी उलटी-उलटी बातें दिमाग में आने लगीं !
ज्यादा कल्पनाशील होना भी बहुत बुरा है, किसी भी बात के लिए बुरे अनुमान फटाफट दिमाग में आते हैं !
मैंने अपने मन के विचार और समस्या बिमल चटर्जी पर प्रकट की तो वह बोले -"योगेश जी, आप तो ख्वामखाह डर रहे हो ? ज्ञान सिर्फ बातों का शेर है ! आप दबोगे तो दबाएगा ! और आप किसी से भी क्यों डरो ! कोई चोरी कर रहे हो ! मेहनत कर रहे हो ! दिमाग लगता है - कहानी लिखने में ! बेफिक्र होकर जाओ ! ज्ञान की तरफ देखना भी मत, सीधे निकल जाना !"
"पर अगर उसने देखकर आवाज़ दे दी तो...?" मैंने कहा !
बिमल ने सिर हिलाया और मुस्कुराये -"मैं चलूँ क्या साथ...?"
मैं कुछ नहीं बोला ! पर दिल ही दिल में सोचा अवश्य था कि बिमल साथ चलें !
पर तभी बिमल ने मेरे अरमान पर पानी फेर दिया ! बोले -"मेरा चलना तो मुश्किल है, आज राजेंद्र भी नहीं है ! दुकान बंद करना भी ठीक नहीं ! मुझे लिखना भी है ! आप ऐसा करना, मनोज ही में तो जाना है, पत्थरवालान से होकर पीछे के रास्ते से चले जाना, गर्ग एंड कंपनी की दुकान रास्ते में आएगी ही नहीं !"
बिमल का यह आईडिया मुझे बहुत भाया !
"हाँ, यह ठीक रहेगा !" मैंने कहा और फिर ऐसा ही किया !
पीछे के रास्ते से जाकर मनोज में दोनों पार्ट्स की स्क्रिप्ट दीं ! पैसे लिए और पीछे के रास्ते से ही वापस हो लिया ! घर आया ! उसके बाद ज्ञान के लिए बाल पॉकेट बुक्स शुरू करे दी, किन्तु पता नहीं क्यों - ज्ञान के लिए लिखने का मन नहीं कर रहा था !
कहानी जैसे-तैसे पूरी की, किन्तु मैं संतुष्ट नहीं था !
मेरी नज़र में उस समय तक मैंने जितनी भी कहानियां लिखीं थीं, वह सबसे घटिया कहानी थी !
फिर एक दिन स्क्रिप्ट लेकर मैं दरीबे पहुंचा ! इस बार मैं सीधे रास्ते से, चांदनी चौक से ही दरीबे पहुंचा ! ज्ञान गर्ग एंड कंपनी की दुकान पर ही था, पर मुझे देखते ही उसने बड़े जोरदार शब्दों में मेरा स्वागत किया !
कुछ तेज़ आवाज़ में ही उसने कहा था -"बेईमान, धोखेबाज, गद्दार !"
और मैं एकदम सन्नाटे में डूब गया !
ऐसा क्या कर दिया मैंने ? मन ही मन मैंने सोचा !
(शेष फिर)
और फिर ज्ञानेंद्र ने मेरी मुलाक़ात एक ऐसे लेखक से करवाई - जो उन दिनों बहुत मशहूर लेखकों में से एक था !
उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-भाग,19,20
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उन दिनों मैं आज जैसा चतुर-चालाक-हाज़िरजवाब कुछ भी नहीं था !
जब ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग ने मुझसे कहा -"ओए छोटू ! हमने तेरा नाम छाप दिया, ये क्या कम है ? ओए तू तो सारे हिन्दुस्तान में मशहूर हो गया ! हिन्दुस्तान के कोने-कोने में जाती है गोलगप्पा !"
तो एक बार तो मुझे कुछ भी नहीं सूझा कि क्या कहूँ ! फिर भी धीरे से बोला -"सब लोग तो कहानी छापने के पैसे देते हैं !"
सच कहूँ तो मैं उस समय बोल नहीं रहा था, घिघिया रहा था !
पर जो लोग ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग को जानते रहे हैं, कभी न कभी उससे मिले हैं – वे अच्छी तरह समझ सकते हैं कमसिन उम्र में मेरा उस आदमी से बात करना कितना कठिन था ! मैं उसके सामने खड़ा था, यही बहुत था !
"कहाँ-कहाँ छपी है तेरी कहानी ? किस-किस ने दिए हैं पैसे ?" ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग ने पूछा !
बच्चों की पत्रिकाओं में तो मैंने गोलगप्पा के अलावा कहीं कोई कहानी भेजी नहीं थी ! अतः ज्ञानेन्द्र के सवाल तो और कोई जवाब तो सूझा नहीं, मैंने कह दिया -"मनोज वाले भी देते हैं !"
"ये कबाड़िये..!" मेरे मुंह से मनोज नाम सुनते ही ज्ञानेन्द्र ने सिर को दायीं ओर झटका दिया और बोला था !
तब मैं नहीं समझ सका था कि ज्ञानेन्द्र ने मनोज वालों के लिए "कबाड़िये" क्यों कहा ! पर बाद में घनिष्ठता हो जाने पर जाना कि वह पीठ पीछे हमेशा उन्हें इसी तरह सम्बोधित करता था, लेकिन जब भी राजकुमार गुप्ता या गौरीशंकर गुप्ता सामने पड़ते "भाई साहब-भाई साहब” करके बिछ जाता ! और बाद में मैंने यह भी जाना कि मनोज वालों ने किस तरह कड़ी मेहनत करके, कबाड़ के धंधे से, प्रकाशन व्यवसाय में बुलंदी हासिल की !
“तू इनके लिए भी कहानी लिखता है ?" मनोज वालों के लिए 'ये कबाड़िये' कहने के बाद ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग ने प्रश्न किया !
मैंने स्वीकारोक्ति में सिर हिलाया !
"क्या-क्या लिखा है इनके लिए ?" ज्ञानेन्द्र ने पूछा !
"बहुत कहानियां लिखी हैं !" बोलते-बोलते मुझे ध्यान आया कि मेरी लिखी कहानियों में 'अण्डों की खेती' और 'बोतल में हाथी' कहानियां तो कवर डिजाइन की कहानियां थी, तो तुरंत बोल दिया -"अण्डों की खेती और बोतल में हाथी भी मैंने लिखी थी !"
और यह कहते-कहते मेरी नज़र वहां बिक्री के लिए आगे सजी किताबों पर गयीं ! अण्डों की खेती वाला सेट सबसे आगे रखा था ! उसी के सेट में बोतल में हाथी भी थी !
पहले ज्ञानेन्द्र ने मनोज बाल पॉकेट बुक्स का अण्डों की खेती वाला सेट उठाया ! मुझे दिखाकर बोला -"यह तेरी लिखी है ?"
"इसमें अण्डों की खेती नाम की पहली कहानी तो मेरी ही लिखी है ! अंदर की कहानियां - कौन-कौन सी हैं और उनमें कौन-कौन सी मेरी हैं, मुझे पता नहीं !" मैंने कहा ! दरअसल अण्डों की खेती किताब या मनोज बाल पॉकेट बुक्स का कोई सेट तब तक मैंने देखा ही नहीं था !
सेट में से अण्डों की खेती निकाल, ज्ञानेन्द्र पहली कहानी के पेज पलटने लगा ! फिर अचानक उसने दुकान में काम करने वाले लड़के से सम्बोधित करते हुए कहा -"अपना गोलगप्पा का सेट दे तो....!"
लड़के ने तुरंत अलग-अलग महीनों की दस-बारह गोलगप्पा उठाकर ज्ञानेन्द्र को थमाईं ! ज्ञानेन्द्र ने वह मेरी ओर सरका दीं - "बता, इन में से किस-किस में तेरी कहानी छपी है !"
मैंने झट से अपनी कहानियों वाली पत्रिकाएं निकालीं और उनके अपनी कहानियों वाले पेज सामने निकाल, पत्रिकाएं ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग की ओर बढ़ा दीं !
उसने कहानी में लेखक का नाम जोर-जोर से पढ़ा - "योगेश कुमार मित्तल !" (तब मैं खुद को योगेश मित्तल नहीं, योगेश कुमार मित्तल ही लिखता था !)
"ये तो किसी योगेश कुमार मित्तल की लिखी हुई हैं !" ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग ने कहा !
"मैं ही योगेश कुमार मित्तल हूँ !" मैंने कहा !
"क्या सबूत है - तू योगेश कुमार मित्तल है ?" ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग तुरंत बोला !
दोस्तों, उस समय भारत में वोटर आई डी, आधार कुछ भी नहीं होते थे ! पैन कार्ड और ड्राइविंग लाइसेंस भी आम नहीं थे ! फिर मैं तो उम्र से भी नाबालिग था ! स्कूली लाइफ कलकत्ते में बिताई थी !
मुझे कोई जवाब नहीं सूझा !
"वाह बेटा !" ज्ञानेन्द्र दाएं-बाएं सिर हिलाकर बोला -"उस्तादों से उस्तादी ! गोलगप्पा कहीं से देख ली होगी और सोचा होगा ज्ञान को बेवकूफ बनाकर पैसे ऐंठ लूँ ! सच बता - तेरा नाम क्या है ? वरना बुलाता हूँ पुलिस को !"
मुझे इतने जोर का गुस्सा आया कि मैं बोल पड़ा -"बुला लो !"
ज्ञान मेरा चेहरा देखने लगा !
तभी मुझे एक बात सूझी !
"आपके पास मेरी कहानियों की 'मेन स्क्रिप्ट' तो होगी ! निकालकर मेरी राइटिंग मिला लो !" मेरी आवाज़ में अभी भी पहले जैसा गुस्सा था !
"ठीक है, वो भी मिलाएंगे ! इसमें क्या है ?" अचानक ज्ञान ने मेरे कंधे पर से, मेरा थैला खींच लिया !
मैंने रोकने की कोशिश की, पर रोक नहीं पाया ! ज्ञान ने अखबार में लिपटी 'सोने का हिरण' निकाल ली और मेरे रोकते-रोकते भी अखबार फाड़कर अलग कर दिया !
अब स्क्रिप्ट का पहला पेज सामने था, जिसके पहले पेज पर सबसे ऊपर लिखा था -'सोने का हिरण' !
ज्ञान ने पहला पेज पढ़ना शुरू किया ! फिर पेज पलटे ! बीच-बीच में से एक-दो, एक-दो लाइन पढ़ीं ! फिर बोला -"यह हमारे लिए है ?"
"नहीं ! मनोज वालों के लिए है !" मैंने कहा !
ज्ञान के रुख में बदलाव देख मेरा गुस्सा भी ठंडा हो गया था !
"इन कबाड़ियों के लिए - छोड़, ये क्या देंगे तुझे ? नाम भी नहीं छापेंगे !" ज्ञान मुझे समझाने वाले भाव में बोला - "मेरे पास छोड़ जा, मैं तेरे नाम से छापूंगा !"
"नहीं, यह कहानी अधूरी है और पार्ट की है ! उनके यहां टाइटल भी छप चुका है !" मैंने कहा !
शायद अधूरी है और पार्ट की है, सुनकर ज्ञान ने अपने यहां से एक पुराने अखबार का पेज निकाला और स्क्रिप्ट उसी तरह लपेटकर थैले में रख दी और फिर बड़े प्यार से बोला -"चाय पियेगा ?"
"नहीं !" मैंने कहा !
पर अनसुनी करते हुए ज्ञान ने अपने यहां काम करने वाले लड़के से कहा -"जा फ़टाफ़ट चाय लेकर आ ! देर की तो बहुत मारूंगा !"
फिर मेरे से कहा -"बैठ...यहां बैठ !" और गले में बांह डालकर जबरदस्ती मुझे अपने पास ही गद्दी पर खींच लिया !
उसके बाद बड़े प्यार से बोला -"तू हमारे लिए बाल पॉकेट बुक्स लिख, तेरे नाम से छापेंगे ! चार फ़ार्म का मैटर लिखना होगा ! छोटे साइज के एक सौ अट्ठाइस पेज बनेंगे !" फिर नौकर के आने से पहले ही गल्ले से एक दस का नोट निकाला और मेरी शर्ट की जेब में ठूंस दिया ! और बोला -"ये तेरे कहानियों के हो गए ! ठीक है न ?"
मैं क्या बोलता ! मेरी तो समझ में ही नहीं आ रहा था कि यही व्यक्ति अभी मुझे फ्रॉड मानकर पुलिस बुलाने की धमकी दे रहा था और अब गले में बांह डालकर जकड़े हुए बैठा है !
लड़का सचमुच बहुत जल्दी चाय लेकर आ गया और एक तल्खी भरी शुरूआत का अंत मिठास से हुआ !
चाय पिलाने के बाद ज्ञान ने गोलगप्पा की मेरी कहानियों वाली प्रतियों के साथ-साथ और भी कई अंक मेरे थैले में डाल दिए ! बोला - "ले जा, तेरे भाई-बहन पढ़ेंगे तो खुश हो जाएंगे !"
उसके बाद पहले तो ज्ञान ने मुझसे प्रॉमिस लिया कि अगली बार दरीबे में तभी कदम रखूंगा, जब चार फार्म की एक बाल पॉकेट बुक्स की कहानी गर्ग एंड कंपनी के लिए लिखकर लाऊंगा !
उसके बाद....
मैंने मनोज में जाकर 'सोने का हिरण' की स्क्रिप्ट दी !
शॉप पर गौरीशंकर गुप्ता ही थे !
और जैसा बिमल चटर्जी ने कहा था, वैसा ही हुआ !
उन्होंने नहीं पूछा कि तीनो पार्ट साथ क्यों नहीं लाये ! थोड़ी देर अच्छी-अच्छी बातें करते रहे ! परिवार के विषय में ! फिर सोने का हिरण की कहानी के विषय में ! मुझसे सोने का हिरण की कहानी सुनाने को कहा ! मैं कहानी सुनाने में शुरू से ही बहुत एक्सपर्ट रहा हूँ ! जो लिखा था - वह तो सुनाया ही और जो नहीं लिखा था, वह भी 'कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा' स्टाइल में उसी समय जोड़-तोड़कर, तैयार करके सुना दिया !
उसके बाद गौरीशंकर गुप्ता ने भी चाय पिलाई ! फिर नगद पिचहत्तर रुपये दिए और साथ ही मनोज बाल पॉकेर बुक्स का एक सेट तथा एक प्रेम बाजपेयी का सामाजिक उपन्यास बिना मांगे ही पढ़ने के लिए दिया !
कुल मिलाकर मेरा वह दिन अंततः बहुत अच्छा रहा !
(शेष फिर )
अगली बार ज्ञान ने कहा -"बेटा, उस दिन तो मैं तेरे मज़े ले रहा था ! तूने बुरा तो नहीं माना ?"
भाग- 18
आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 18
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ज्ञान उर्फ गर्ग एण्ड कम्पनी के ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग से मुझे गोलगप्पा में छपी कहानियों के दस रुपए मिल गये थे ! एक बाल पाॅकेट बुक्स का आर्डर भी मिल गया था, किन्तु मेरे मन में उसकी छवि पूरी तरह साफ-सुथरी नहीं बन पाई थी !
उसने मुझसे प्राॅमिस लिया था कि दरीबे में तब ही कदम रखूँगा, जब गर्ग एण्ड कम्पनी के लिए एक बाल पाॅकेट बुक्स तैयार हो और मैंने मनोज बाल पाॅकेट बुक्स के लिए सोने का हिरण के आगामी दोनों पार्ट तो तैयार कर लिए, लेकिन गर्ग एण्ड कम्पनी के लिए एक भी लाइन नहीं लिखी थी !
मुझे डर लगा कि अगर मैं दरीबे गया और ज्ञान ने मुझे देख लिया तो पकड़ लेगा ! पकड़ लिया और मनोज के लिए मेरी बाल पाॅकेट बुक्स उसने देख लीं तो उन्हें अपने कब्जे में कर लिया कि पहले मेरे लिए लिखी बाल पाॅकेट लेकर आ तो....!
कहने का मतलब यह कि सारी उलटी-उलटी बातें दिमाग में आने लगीं !
ज्यादा कल्पनाशील होना भी बहुत बुरा है, किसी भी बात के लिए बुरे अनुमान फटाफट दिमाग में आते हैं !
मैंने अपने मन के विचार और समस्या बिमल चटर्जी पर प्रकट की तो वह बोले -"योगेश जी, आप तो ख्वामखाह डर रहे हो ? ज्ञान सिर्फ बातों का शेर है ! आप दबोगे तो दबाएगा ! और आप किसी से भी क्यों डरो ! कोई चोरी कर रहे हो ! मेहनत कर रहे हो ! दिमाग लगता है - कहानी लिखने में ! बेफिक्र होकर जाओ ! ज्ञान की तरफ देखना भी मत, सीधे निकल जाना !"
"पर अगर उसने देखकर आवाज़ दे दी तो...?" मैंने कहा !
बिमल ने सिर हिलाया और मुस्कुराये -"मैं चलूँ क्या साथ...?"
मैं कुछ नहीं बोला ! पर दिल ही दिल में सोचा अवश्य था कि बिमल साथ चलें !
पर तभी बिमल ने मेरे अरमान पर पानी फेर दिया ! बोले -"मेरा चलना तो मुश्किल है, आज राजेंद्र भी नहीं है ! दुकान बंद करना भी ठीक नहीं ! मुझे लिखना भी है ! आप ऐसा करना, मनोज ही में तो जाना है, पत्थरवालान से होकर पीछे के रास्ते से चले जाना, गर्ग एंड कंपनी की दुकान रास्ते में आएगी ही नहीं !"
बिमल का यह आईडिया मुझे बहुत भाया !
"हाँ, यह ठीक रहेगा !" मैंने कहा और फिर ऐसा ही किया !
पीछे के रास्ते से जाकर मनोज में दोनों पार्ट्स की स्क्रिप्ट दीं ! पैसे लिए और पीछे के रास्ते से ही वापस हो लिया ! घर आया ! उसके बाद ज्ञान के लिए बाल पॉकेट बुक्स शुरू करे दी, किन्तु पता नहीं क्यों - ज्ञान के लिए लिखने का मन नहीं कर रहा था !
कहानी जैसे-तैसे पूरी की, किन्तु मैं संतुष्ट नहीं था !
मेरी नज़र में उस समय तक मैंने जितनी भी कहानियां लिखीं थीं, वह सबसे घटिया कहानी थी !
फिर एक दिन स्क्रिप्ट लेकर मैं दरीबे पहुंचा ! इस बार मैं सीधे रास्ते से, चांदनी चौक से ही दरीबे पहुंचा ! ज्ञान गर्ग एंड कंपनी की दुकान पर ही था, पर मुझे देखते ही उसने बड़े जोरदार शब्दों में मेरा स्वागत किया !
कुछ तेज़ आवाज़ में ही उसने कहा था -"बेईमान, धोखेबाज, गद्दार !"
और मैं एकदम सन्नाटे में डूब गया !
ऐसा क्या कर दिया मैंने ? मन ही मन मैंने सोचा !
(शेष फिर)
और फिर ज्ञानेंद्र ने मेरी मुलाक़ात एक ऐसे लेखक से करवाई - जो उन दिनों बहुत मशहूर लेखकों में से एक था !
उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-भाग,19,20
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