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मंगलवार, 5 फ़रवरी 2019

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-07,08

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार- भाग- 07

           इंसान जिद्द पर आ जाए तो क्या नहीं कर सकता ! पर जिद्द अच्छी बातों के लिए हो तो ठीक ही रहती हैं ! और तब तो एक आदत के अलावा मुझ में कोई बुरी आदत थी ही नहीं ! 

हाँ, बाद में बुरी आदतें भी सीखीं, पर बहुत धीरे-धीरे ! उनका जिक्र भी समय आने पर करूंगा ! 
अगर आप नौजवान या किशोर ना कहें तो सीधे-सीधे शब्दों में कह सकते हैं कि उन दिनों मैं बहुत आदर्शवादी बच्चा था, बस एक बुरी आदत थी मुझ में ! तब मैं बहुत गुस्सैल था ! आज जो लोग मुझे जानते हैं, यकीन ही नहीं करते कि कभी मुझे गुस्सा भी आता रहा होगा !  

जब गुप्ता जी ने कहा -  “उपन्यास दस दिन में पूरा करना होगा, लेकिन कम्पलीट करने से पहले आप अगले संडे को यहां आइये, तब तक जितना भी मैटर लिखा हो साथ ले आइयेगा !" 

 तब मैंने सोचा – ‘अब उठने का वक्त हो गया है !’ 
वैसे भी मेरी नज़र में अब कोई बात बाकी रह ही नहीं गयी थी ! मैं उठ खड़ा हुआ ! 
गुप्ता जी ने फ़ौरन टोक दिया -"अरे-अरे, आप तो एकदम खड़े हो गए ! अभी हमने आपको जाने की इज़ाज़त कहाँ दी है !" 

दोस्तों, आप समझ रहे हो न मेरी हालत ! जिस शख्स ने घर से बाहर निकल - लोगों के बीच, बड़े-बड़े लोगों के बीच उठना-बैठना भी न सीखा हो ! जिसे किसी भी शख्स से बात करते हुए घबराहट होती हो, गुप्ता जी के सामने क्या उसका दम नहीं निकल रहा होगा ! 

मेरी तो अपने दोस्तों अरुण कुमार शर्मा और बिमल चटर्जी के सामने भी अक्सर हालत पतली हो जाती थी ! 
मैं फिर से बैठ गया और गुप्ता जी की तरफ देखने लगा !

गुप्ता जी ने साइड में रखे पेन स्टैंड से एक पेन निकाल लिया था और वहीं रखे एक पैड से एक कागज़ फाड़ कर उस पर कुछ लिखने लगे ! लिखकर कागज़ मोड़ लिया और फिर मेरी तरफ देखकर बोले - "अभी हमारे बीच बिज़नेस की बात तो हुई ही नहीं !"
मेरी समझ में कुछ नहीं आया ! सच, आप मज़ाक न समझें - मैं आज जितना चतुर-चालाक-समझदार समझा जाता हूँ, तब था ही नहीं ! मेरी समझ में सचमुच नहीं आया था कि गुप्ता जी किस बिज़नेस की बात कर रहे हैं !

बिमल चटर्जी के लिए कहानियां लिखता था, वह जो देते ले लेता था ! पंकज पॉकेट बुक्स के लिए - तो उसके मालिक बिमल जैन ने जो दिया, ले लिया ! कभी अपने मुंह से कुछ कहा ही नहीं !  इसलिए भोलेपन से ही मैंने पूछा - "बिज़नेस, कैसे बिज़नेस की बात ?"

"योगेश जी, अभी हमारे बीच लेन-देन की बात तो हुई ही नहीं ! अगर आपका उपन्यास हमें पसंद आता है तो आप हमसे कितना पारिश्रमिक लेंगे ?" गुप्ता जी ने पूछा !

मेरे लिए यह असमंजस वाली स्थिति थी ! लोग एक उपन्यास का कितना लेते हैं, प्रकाशक लेखक को कितना देते हैं, मुझे कुछ भी मालूम नहीं था ! पहले  सोचा - जितना बिमल चटर्जी मुझे देते रहे हैं, वही कह दूँ ! पर मुंह से निकला -"जो मर्ज़ी हो, दे दीजियेगा !" 

गुप्ता जी ने मोड़ी हुई पर्ची की तहें खोली और मेरी तरफ बढ़ा दी ! मैंने पर्ची देखी, उस पर अंकों में लिखा था – 75 Rs.

'अभी हम आपको इतना ही देंगे ! और पारिश्रमिक स्क्रिप्ट पढ़ने-पसंद करने के बाद ही देंगे !" गुप्ता जी ने कहा, फिर मेरी आँखों में झांकते हुए बोले - "ठीक है ?"

उस पूरे दौर में पहली बार मेरे चेहरे पर मुस्कान ने जन्म लिया ! 

"ठीक है !" मैंने कहा, पर सच तो यह था कि मुझे लग रहा था - मेरे नाम लॉटरी निकल आई हो !

वापसी में मैंने चांदनी चौक तक का रिक्शा किया ! फिर वहां से तांगा पकड़ गाँधी नगर पहुंचा ! 

जब मैं घर पहुंचा अरुण मेरे घर पर ही था ! घर क्या था - घर के नाम पर एक छोटा सा कमरा था ! शायद आठ बाई छह फुट का ! साथ ही कमरे से जुडी बहुत छोटी सी रसोई  थी ! एक मकान में एक-एक कमरे में रहने वाले छह परिवार थे !   

अरुण हमारे कमरे के बाहर के बरामदे में पडी चारपाई पर बैठा था ! उसके हाथ में रुल्ड फुलस्केप पेपर्स का मोटा सा पुलंदा था !
"यह क्या है ?" मैंने पूछा ! 
"ये चार बाल पॉकेट बुक्स हैं, तू ज़रा पढ़कर सही कर दे !" अरुण ने कहा !
मुझे अरुण पर तरस आया - 'क्यों यह इतनी मेहनत कर रहा है !' 
पर यह न कहकर मैंने यह कहा कि वो पहले जो ठीक की थीं, उनका क्या हुआ ?
"गौरी भाई साहब को दे दीं !" अरुण ने कहा - "पेमेंट भी मिल गयी !"
"क्या ?" मैं आश्चर्यचकित होकर बोला -"इतनी काट-पीट वाली कहानियां उन्होंने ले लीं ?"
"पागल है क्या ? इतनी काट-पीट वाली उन्हें देकर गालियां खानी थी ? सारी की सारी दोबारा रीराइट करके देकर आया था ! एक हफ्ता पढ़ने में लगाया, फिर पैसे दे दिए ! अब तू फिर काट-पीट करेगा तो फिर रीराइट करके देकर आऊंगा !" अरुण ने कहा ! फिर मुझसे पूछा - "तू बता हो आया भारती पॉकेट बुक्स ?"
मैंने सारा ब्यौरा बताया और बोला - "पर टाइम बहुत कम दिया है ! सिर्फ दस दिन में स्क्रिप्ट पूरी करनी होगी !"
"दस दिन कम हैं ? रोज दो फ़ार्म लिखेगा तो चार दिन में नॉवल तैयार !" अरुण ने कहा -"आज रात लगकर तू मेरी कहानियाँ सही कर दे, कल से अपना नॉवल शुरू कर देना ! फिर संडे को पूरा नॉवल ही ले जाना ! पहले तू कुछ फार्म लिखकर दिखाने जाएगा, फिर नॉवल पूरा करके ले जाएगा ! तेरा टाइम नहीं खराब होगा !" 

मुझे अरुण की बात जमी ! सोचा - 'हाँ, मैं तो चार दिन में भी नॉवल पूरा कर सकता हूँ !' 
रात को लिखने की मुझे आदत थी ! पहले भी पूरी-पूरी रात जाग-जागकर कई बार लेखन कार्य किया था !

पर वह रात क़यामत की रात थी ! 

रात साढ़े नौ बजे थे कि मकानमालिक जगदीश गुप्ता घुमते हुए आ गए ! उस समय घर का मुख्य द्वार भी खुला था, जिसे दस बजे कोई न कोई किरायेदार अंदर से कुंडी लगाकर बंदकर लेता था !  उनका एक दूसरा मकान भी था, वहीं रहते थे ! दिन में अक्सर आते थे, पर उस रोज, रात को आ धमके ! सभी किरायेदारों की लाइट बुझी हुई थी, सिर्फ हमारी जल रही थी ! जगदीश गुप्ता सीधे हमारे कमरे में घुस आये और कड़ककर बोले -"लाइट कैसे जल रही है अब तक ?"        

दरअसल उन दिनों गांधीनगर में हर मकानमालिक किराए के अलावा अपने किरायेदारों से साठ वाट के बिजली के बल्व के दो रूपये महीना और पंखे के पांच रूपये लेते थे, लेकिन यह शर्त होती थी कि लाइट नौ बजे के बाद नहीं जलेगी !

खैर, उस समय तो मुझे बुरी तरह फटकारा जगदीश गुप्ता ने और धमकी दी कि दोबारा लाइट नौ बजे के बाद जली देखी तो कनेक्शन ही काट देंगे, तब मरते रहना अँधेरे में ! 

हमारे यहां की लाइट मैंने क्या बंद करनी थी, जगदीश गुप्ता ने ही बंद कर दी ! उस समय जगदीश गुप्ता को भी कहाँ पता था कि एक दिन स्वयं वह मेरे लिए मीठा रसगुल्ला बनने वाले हैं !  

जगदीश गुप्ता के जाने के बाद मेरी माता जी और बड़ी बहन ने भी मुझसे कहा कि अचानक ही गुप्ता जी ने घर से निकाल दिया तो कहाँ भटकते फिरेंगे !

खैर, लाइट बंद हो गयी तो भी भगवान् ने मेरे लिए बत्ती जला रखी थी ! 
मकान के मुख्य द्वार के साथ ही स्ट्रीट लाइट का एक पोल था, जिसकी ट्यूबलाइट की रोशनी छत पर अच्छी तरह पड़ती थी !

मैं छत पर गया और पेन निकाल, मशीन की तरह चालू हो गया ! अगले दिन मैंने अरुण के सभी बाल उपन्यास करेक्शन करके अरुण को दे दिए ! फिर सरकारी ट्यूबलाइट की रोशनी का फायदा उठा, “जगत की अरब यात्रा” शुक्रवार की रात तक ही कम्पलीट कर लिया ! इस तरह चार दिन में नॉवल कम्पलीट करने की जिद्द मन में ठानी तो नॉवल पूरा भी हो गया ! अब शनिवार का दिन मस्ती का था और रविवार के लिए दिल में धुकधुकी थी !

रविवार को भी हमेशा की तरह मैं जल्दी ही तैयार हो गया और इंतज़ार करने लगा कि कब दस बजे और कब मैं निकलूं ! इश्क़ करने वाले आशिक भी पहली बार माशूका से मिलने जाने के लिए इतने व्यग्र नहीं होते होंगे, जितना मैं उस दिन था !
खैर, भारती पाॅकेट बुक्स  पहुंचा और पूरी स्क्रिप्ट गुप्ता जी को थमाई तो उन्हें बिजली के करंट जैसा झटका लगा ! अचंभित से बोले -"आपने पूरा नॉवल लिख दिया ? कुछ ठीक-ठाक भी लिखा है या यूं ही बेगार टाली है ?"
मेरी बोलती बंद ! लगा - अरुण की सलाह मान, जिंदगी की सबसे बड़ी मूर्खता की है !    

गुप्ता जी ने अनमने मन से स्क्रिप्ट के दो-चार पेज पलटे, फिर स्क्रिप्ट दराज में रख मुझसे बोले - "इसे पढ़ने में हफ्ता तो लग जाएगा, अगले हफ्ते हम आपको इसकी पेमेंट कर देंगे या स्क्रिप्ट वापस कर देंगे !"
"ठीक है !" कहकर मैं उठने लगा तो लालाराम गुप्ता बोले - " अरे बैठिये, अभी तो हमने चाय भी नहीं पी ! चाय आने दीजिये !"
मैंने सोचा - कितने अच्छे हैं गुप्ता जी ! मेरे आने से पहले ही मेरे लिए चाय के लिए बोला हुआ है ! 
पर जनाब, इंतज़ार चाय का नहीं था ! गुप्ताजी ने मुझसे बातें करते हुए आधे घंटे से अधिक का समय बिता दिया - पर चाय नहीं आई ! हाँ, जब मैं चाय फिर कभी पीने की बात कहकर उठने की सोच ही रहा था, तब एक के बाद एक तीन अजनबी भारती पॉकेट बुक्स में दाखिल हुए ! पहले शख्स कद में छोटे, पर मुझसे बड़े थे और औसत शरीर के थे !  
उनके चेहरे पर बड़ी मीठी सी मुस्कान थी, मेरी तरफ नज़र फेंकते हुए बोले - "और भई !"
अंदाज़ ऐसा था - जैसे मुझे बरसों से जानते हों !
यह राज भारती थे, बाद में जिनका मेरा बरसों साथ रहा ! 
दूसरे शख्स भारती साहब से कुछ लम्बे, भारी बदन के थे, पर मोटे नहीं कहे जा सकते थे ! आँखे बड़ी-बड़ी और चेहरे पर ऐसी हंसी कि सफ़ेद चमकदार दांत भी नज़र आ रहे थे ! उन्होंने चेहरा झुकाया और मुंह मेरे कान के पास लाकर बोले - "माँ के पेट से ही लिखना सीखकर आये हो ?' 
मुझे बहुत गुस्सा आया, पर चेहरे पर मुस्कान सजाये खामोश बैठा रहा।

          तब नहीं पता था कि कभी इसी शख्स के लिए मेरी आँखें आंसुओं से भर जाएंगी।
वह यशपाल वालिया थे।
तीसरा शख्स लंबा और पतला था, वह मुझे देखकर मुस्कराया, बोला कुछ नहीं।
वह वीरेंद्र सिंह लौहचब थे। उनसे मिले मुद्दत हो गयी। उनके बारे में आज मुझे कुछ नहीं मालूम।

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार - भाग- 08
आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 8
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"तो यह थी वो चाय, जिसका गुप्ता जी (लालाराम गुप्ता) द्वारा मुझसे इन्तज़ार कराया जा रहा था !" मैंने त्रिमूर्तियों को देखते हुए मन ही मन सोचा था !

वीरेन्द्र सिंह लौहचब भारती पाॅकेट बुक्स के दायीं ओर स्थित पुस्तकों के गोदाम टाइप कमरे से लकड़ी की एक कुर्सी निकाल लाये, जिसे मेरे बायीं ओर की दीवार से सटाकर रख दिया ! उस पर भारती साहब (राज भारती) विराजे ! 

दायीं ओर की कोने की दीवार से सटी खड़ी एक फोल्डिंग कुर्सी, खोलकर मेरे दायीं ओर बिछा दी ! उस पर वालिया साहब बैठ गये ! 

फिर किताबों के दो-दो बण्डल बिछाकर, छ: बण्डलों से वीरेन्द्र सिंह लौहचब ने अपने लिए स्थान बनाया और किताबों के बण्डलों पर पसर गये !

अब लालाराम गुप्ता ने मुँह खोला ! राज भारती जी से सम्बोधित होते हुए वह बोले -"करतार ! ये योगेश मित्तल हैं ! उपन्यास लिखते हैं !"
फिर मेरी ओर देखते हुए गुप्ता जी ने मुझे बताया -"योगेश जी, ये हैं राज भारती..."

"उपन्यास सम्राट राज भारती !" यशपाल वालिया ने गुप्ता जी को टोका तो गुप्ता जी ने फिर से संशोधन करते हुए परिचय कराया -"साॅरी-साॅरी ! योगेश जी, यह हैं उपन्यास सम्राट राज भारती ! भारती पाॅकेट बुक्स के असली मालिक ! भारती पाॅकेट बुक्स के सर्वेसर्वा !"
फिर गुप्ता जी की निगाह वालिया साहब की तरफ घूमी, साथ ही दायें हाथ की तर्जनी भी ! और फिर वह बोले - "और ये हैं यशपाल वालिया ! सामाजिक उपन्यास लिखने में इनका कोई जवाब नहीं !"

फिर वही तर्जनी वीरेन्द्र सिंह लौहचब की ओर घूमी और गुप्ता जी बोले -"और ये हैं वीरेन्द्र जी ! भारती पाॅकेट बुक्स का कोई काम इनके बिना नहीं होता ! वीपी स्लिप बनाने - बण्डल बनाने - रजिस्टर मेन्टेन करने, माल डिस्पैच कराने, हर  काम में एक्सपर्ट और अब तो हम वेद प्रकाश काम्बोज के नाम से इनका लिखा उपन्यास भी छाप रहे हैं !"

वीरेन्द्र सिंह गुप्ता जी की बातों पर मुस्कुराये ! 
तभी भारती साहब ने मेरी पीठ पर हाथ रखा ! मैंने उनकी ओर देखा तो बोले - "क्यों, मजे आ रहे हैं ना ?"
"मजे ?" मैं बुदबुदाया और भारती साहब की ओर देखा ! 
मैं कुछ समझा नहीं था !
भारती साहब ने अपनी बात स्पष्ट की -"तेरी उम्र में बच्चे अपने बापू से खर्ची माँगते हैं ! पर तुझे तो इसकी कोई जरूरत ही नहीं ! मजे हुए कि नहीं !"
भारती साहब मेरी जिन्दगी में आनेवाले पहले ऐसे शख़्स थे, जिनका सम्बोधन शुरु से ही बेहद नजदीकी होने का एहसास दिलाता था !

भारती साहब की बात पूरी होते ही वालिया साहब ने मुझसे पूछा -"योगेश जी, पैदा होते ही लिखना शुरु कर दिया था क्या ?"

अब मुझ जैसे भोलेनाथ का तब का जवाब भी सुन लीजिये -"पैदा होते ही कोई कैसे लिख सकता है ?"
मुझे वालिया साहब के शब्दों में छिपा मज़ाक और व्यंग्य समझ में ही नहीं आया था, जबकि कहानियों में मज़ाक और व्यंग शामिल करना मुझे बखूबी आता था !

वीरेन्द्र सिंह ने स्पष्टीकरण किया कि वालिया साहब का मतलब है, जैसे अभिमन्यु ने माँ के पेट में चक्रव्यूह के बारे में जान लिया था, वैसे ही आप भी सब कुछ सीखकर पैदा हुए हो क्या ?और फिर पैदा होते ही नाॅवल लिखना शुरू कर दिया !"
वीरेन्द्र सिंह की बात पर मुझे वालिया साहब पर बहुत गुस्सा आया ! मारे गुस्से के मेरा मुँह कुप्पे सा फूल गया, जिसे सबसे पहले भारती साहब ने लक्ष्य किया और वालिया साहब और वीरेन्द्र सिंह से पंजाबी मिश्रित हिन्दी में बोले - "क्यों परेशान कर रहे हो बेचारे को ? पूछना है तो कोई ढंग की बात पूछो !"

मेरे हृदय में भारती साहब के लिए ढेर सारी श्रद्धा उमड़ी !
"यह आदमी सबसे समझदार है !" तब मैंने सोचा था !

"ढंग की बात ! फिर आप ही पूछ लो !" वालिया साहब ने उस समय ठेठ पंजाबी में कहा था, पर बात मेरी समझ में आ गई !

और तब भारती साहब ने मुझसे एक सवाल पूछा और मैं एकदम आसमान से गिरा !
"तेरी शादी हो गई ?" भारती साहब ने पूछा !
"शादी...!" मैं बौखलाया -"अभी तो मैं..."
"छोटा हूँ...बच्चा हूँ ! यही कहना है न आपको !" वालिया साहब मेरी बात पूरी होने से पहले बोले -"नाॅवल तो आप बड़े-बड़ों वाले लिख रहे हो ! जगत सीरीज में क्या होता है, मालूम है न आपको ?"
"और फिर शादी कोई ऐसी बात नहीं है, जो छोटी उम्र में न हो सके ! राजस्थान में तो आज भी दो-दो साल के लड़के-लड़कियों की शादी हो जाती है ! आपकी भी हो गई हो तो बता दीजिये !" इस बार मुँह खोला था वीरेन्द्र सिंह ने !
"मेरी नहीं हुई !" बमुश्किल अपना गुस्सा पीते हुए मैंने कहा तो वालिया साहब तुरन्त बोले -"तो करवा दें ?"
"नहीं !" मैं एक झटके से बोला ! आवाज में गुस्सा तब शायद वालिया साहब ने भी नोट कर लिया, बोले -"योगेश जी, आप तो गुस्सा हो रहे हो ? हम तो मज़ाक कर रहे हैं !"
"मुझे ऐसे मज़ाक पसन्द नहीं !" मैं गुस्से से बोला !
भारती साहब का हाथ तभी मेरी पीठ पर आया -"तो कैसे मजाक पसन्द हैं, तू ही बता दे ! अब ये सब वैसे ही मज़ाक करेंगे !"
मैंने भारती साहब को यूँ देखा, जैसे उनके शब्दों पर विश्वास ही नहीं हो रहा हो, मैं तो उन्हें अपनी 'साइड' समझ रहा था !
सम्भवत: भारती साहब कुछ भाँप गये ! तुरन्त ही चेहरा घुमा लालाराम गुप्ता जी से बोले -"तूने योगेश जी को चाय-वाय पिलाई या नहीं ?"
"बस, मँगाने ही जा रहा था ! तुम लोगों का इन्तजार कर रहा था !" गुप्ता जी ने कहा !
"तो अब तो हम आ गये ! फटाफट चाय मँगाइये गुप्ता जी !" वालिया साहब बोले !

गुप्ता जी ने पण्डित जी को आवाज दी ! 
पण्डित जी शायद नजदीक नहीं थे ! रिस्पांस नहीं मिली तो गुप्ता जी ने वीरेन्द्र सिंह से ही अनुरोध किया - "जरा आप ही ऊपर चाय के लिए बोल दीजिये !" फिर आँख दबाते हुए बोले -"योगेश जी के लिए दो कप बोलियेगा !"
तब आँख मारने या आँख दबाने के संकेतों से मैं पूरी तरह अनजान था, तत्काल बोला -"नहीं, मैं एक ही कप पियूँगा !"
गुप्ता जी हँसे ! वीरेन्द्र सिंह से बोले -"जाओ, बोल दो !"
वीरेन्द्र सिंह बाहर निकल, सामने वाले मकान में दाखिल हो गये !

तभी वालिया साहब ने अपनी कुर्सी मेरे और करीब खींच ली और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोले -"आपके बाल बहुत अच्छे हैं ! बिल्कुल देवानन्द लग रहे हो !"
मैंने उसे अपनी तारीफ समझा और खुश हो गया ! तब मैं अपने बाल आगे से उठे हुए गुफ्फेदार देवानन्द स्टाइल में ही काढ़ा करता था, मगर तब तक मैंने देवानन्द की एक भी फिल्म नहीं देखी थी, सिर्फ फिल्मी पत्रिकाओं में उसकी तस्वीर देखी थी !

वालिया साहब का हाथ सिर से मेरे कन्धे पर चला गया और अपना चेहरा मेरी ओर झुकाते हुए बड़े प्यार से बोले -"आप गुस्सा हो ?"
मैंने "नहीं" में सिर हिला दिया !
"नहीं, आप गुस्सा हो !" वालिया साहब फिर बोले -"मारे गुस्से के आपकी आँखों में आँसू भी आ रहे हैं !"
वालिया साहब ने ठीक पकड़ा था ! उस वक्त मारे गुस्से के और स्वयं को अपमानित महसूस कर, मेरी आँखें नम थीं ! आँसू आये तो नहीं थे, पर कभी भी टपक सकते थे !

दोस्तों ! अब तो आप समझ गये होगे कि मेरी क्लास ली जा रही थी और क्लास लेनेवाले मामूली शिक्षक नही, सबके सब हेडमास्टर थे ! उनके मज़ाक और व्यंग कभी मैं समझ जाता, कभी सिर के ऊपर से गुजर जाते ! हो सकता है - तब के शब्द मैंने हुबहू पेश न किये हों, पर एक-एक भाव बिल्कुल सही है ! हाँ, पंजाबीमिश्रित हिन्दी और ठेठ पंजाबी में की गई उनकी बातें और कमेन्ट्स भाव समझने के बावजूद हुबहू नहीं हैं, क्योंकि आज भी मेरी पंजाबी उतनी धांसू नहीं है, जितनी एक आम दिल्लीवासी की होती है !

मेरे इन्कार करने पर भी कि मैं गुस्सा नहीं हूँ, वालिया साहब फिर बोले -"नहीं, आप गुस्सा हो ! लो गुस्सा थूक दो !" उन्होंने सामने पड़ी ऐश-ट्रे उठाकर मेरे मुँह के बिल्कुल करीब कर दी ! बेसाख्ता मुझे हँसी आ गई !

"हाँ...ये हुई न बात !" वालिया साहब ने ऐश-ट्रे मेरे मुँह के सामने से हटा ली और बोले -"योगेश जी ! हम सब तो आपके फैन हैं !" फिर दायें हाथ की अँगुली ऊपर उठा, सीलिंग से लटकते हुए पंखे की ओर इशारा किया -"वो वाले !"    

इस बार मुझे गुस्सा नहीं आया ! चेहरे की हंसी बरकरार रही ! तभी वालिया साहब ने फिर कहा _ "हम सब तो चिड़ियाघर जा रहे थे, पर गुप्ता जी ने आपके बारे में बताया तो देखने आ गए !"

प्यारे बन्धुगणों, मेरी उम्र बेशक कम थी, पर मैं निरा बच्चा नहीं था ! एक बार फिर मुझे बुरा तो लगा. पर अपने चेहरे पर मैंने कोई भाव नहीं आने दिया !

पढ़ाई के दिनों में मेरी गिनती अच्छे विद्यार्थियों में होती थी ! जानता था, हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, इसलिए सोच लिया अब अपने चेहरे पर कोई भाव न आने दूंगा ! थक-हारकर ये सीनियर-दिग्गज-महारथी मुझे बख्श देंगे, पर मेरा ख्याल गलत था ! 

अभी तो क्लास शुरू हुई थी ! 

तभी वीरेंद्र सिंह वापस आ गए ! उन्हें रास्ता देने के लिए वालिया साहब ने अपनी कुर्सी हटाई, पीछे की और वीरेंद्र सिंह के अंदर आये और किताबों के बण्डल वाली अपनी सीट पर पसरते हुए बोले - "योगेश जी, आपकी कोई माशूका है ?"
हे भगवान ! बस, इसी सवाल की कसर रह गयी थी ! उन दिनों 'गर्ल फ्रेंड' जैसा शब्द प्रचलन में नहीं था, पर माशूका का मतलब मैं जानता था ! 

       वीरेंद्र सिंह के सवाल पर मेरी क्या हालत हुई, क्या बताऊँ ! पर हाँ, यदि किसी नॉवल में मुझे सीन लिखना होता तो यही लिखता कि शर्म के मारे मेरे गाल लाल हो गए !

पर वहां आइना भी नहीं था, जो मैं अपना चेहरा देख पाता ! तभी वालिया साहब बोले _"माशूका नहीं समझे ! माशूका उर्दू का शब्द है, इसका मतलब है प्रेमिका !"
"मालूम है !" हठात ही मेरे मुंह से निकल गया !    
इसके बाद मेरी खिंचाई कहाँ तक पहुंची होगी, क्या आप अनुमान लगा सकते हैं ?    


(शेष फिर)
उपन्यास साहित्य का रोचक संसार,भाग-09,10

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