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बुधवार, 20 फ़रवरी 2019

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-19,20

आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 19
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ज्ञान ने मुझे देखते ही कुछ तेज़ आवाज़ में कहा था -"बेईमान, धोखेबाज, गद्दार !"
और मैं एकदम सन्नाटे में डूब गया था ! 
ऐसा क्या कर दिया मैंने ? मन ही मन मैंने सोचा था !

पर ज्ञान की आवाज़ की एक विशेषता यह थी कि वह गुस्से में भी बोलता तो आवाज़ में कड़कपन या कठोरता नहीं महसूस होती थी ! 
पता नहीं क्यों...उस दिन मुझे ज्ञान के शब्दों से आघात-सा अवश्य लगा, पर तुरंत ही शब्द होठों से निकले -"क्या हुआ ? इतने गर्म क्यों हो रहे हो ?"

अक्सर ज्ञान के होठों से गालियों के फूल भी बरसते थे ! गुस्से में ही नहीं सामान्य सी बात-चीत में भी ! मेरे सवाल का जवाब उसने मुंह से एक भद्दी गाली निकालने के बाद दिया -"तू भरोसे के काबिल ही नहीं है ! क्या प्रॉमिस किया था तूने ? दरीबे में कदम तब रखेगा, जब मेरे लिए स्क्रिप्ट लेकर आएगा ?"     
"तो यह क्या है ?" मैंने बाल पॉकेट बुक्स की स्क्रिप्ट ज्ञान के सामने रख दी -"तुम्हारे लिए स्क्रिप्ट लेकर ही आया हूँ !"
"बहुत एहसान कर दिया ! हमें नहीं चाहिए तेरी स्क्रिप्ट ! ले जा, यह भी उन्हीं को दे आ, जो तेरे सगे हैं !" ज्ञान स्क्रिप्ट उठाकर पीछे रखते हुए बोला !

मुझे हंसी आ गयी !  
"लाओ, फिर पीछे क्यों रख रहे हो ?" मैंने कहा -"आपको नहीं चाहिए तो उन्हीं को दे आता हूँ !"
"बहुत हंसी आ रही है साले, प्रॉमिस करके भी गद्दारी की, उसकी शर्म तो है नहीं ! पांच दिन पहले क्या करने आया था मनोज में ! पीछे से आया और उन्हें स्क्रिप्ट देकर पीछे से पीछे लौट गया ! कमीने, मेरे पास आता तो क्या मैं तुझे खा जाता ! बैठाकर चाय पिलाता ! पिछली बार पिलाई थी कि नहीं ?" ज्ञान मुझे खींचकर अपने पास बैठाते हुए बोला !

अब मुझे समझ में आया कि मैं "बेईमान-धोखेबाज और गद्दार" कैसे हो गया ! 

और अब तो आप भी समझ गए होंगे कि यही स्टाइल था ज्ञान का ! 
गुस्सा सिर्फ मुंह पर रहता था, पर उसके व्यवहार में हमेशा गज़ब की होशियारी रहती थी !

मुझे आश्चर्य हुआ कि ज्ञान को मेरे मनोज में चक्कर लगाने का पता कैसे चला ! तुरंत ही मेरी जुबान से कोई शब्द नहीं निकले !

ज्ञान ने ही फिर से खामोशी तोड़ी -"अच्छा, कह दे मैं झूठ बोल रहा हूँ, मुझसे प्रॉमिस करने के बाद तू आज ही दरीबे आ रहा है !"  

            झूठ बोलने की तो मुझे आदत भी नहीं थी और उस समय तो झूठ बोलना संभव भी नहीं था ! मैं अपराधी के से भाव में सिर झुकाकर बोला -"हाँ, आया तो था, भाईसाहब ! उनका आर्डर आपसे पहले का था तो स्क्रिप्ट भी पहले ही देनी थी !"  

         ज्ञान ने मेरा चेहरा देखा। मेरे कबूलनामे ने उसे विजेता बना दिया था तो बड़ी ही तेज मुस्कान उसके चेहरे पर आई और वह बोला -"तो मेरे पास तू इसलिए नहीं आया कि मैं तुझे मारूंगा ?"
"हाँ, डर तो था !" मैंने कबूल किया -"उस दिन आप अपने इस छोकरे से भी कह रहे थे कि चाय लाने में देर की तो बहुत मारूंगा।"

ज्ञान हंसा। बहुत जोर से हंसा –“ तूने क्या मुझे मार-पीट वाला गुंडा समझा है ! पूछ इस छोकरे से - कभी हाथ भी लगाया है इसे !"
मैं चुप रहा ! हाँ, मेरे चेहरे पर मुस्कान अवश्य आ गयी थी !

          तभी ज्ञान ने वह रहस्य खोल दिया, जिसकी वजह से मैं उलझन में था कि ज्ञान को मेरे दरीबे आने का पता कैसे चला। बोला - "तू सोच रहा होगा कि मैं तो बड़ी होशियारी से दरीबे आया और चुपके से वापस लौट गया, फिर भाईसाहब को कैसे पता चल गया !"
"हाँ !" मैंने स्वीकार किया ! सचमुच मैं उलझन में था !    
"बेटा ! इसे..." ज्ञान ने अपने छोकरे की ओर इशारा किया -"उस दिन चन्दर के पास भेजा था प्रेम बाजपेयी की एक किताब लाने ! तभी इसने तुझे मनोज में देखा था !"

चन्दर, नारंग पुस्तक भण्डार के मालिक का नाम था और मनोज पॉकेट बुक्स की दुकान से वह दुकान बिलकुल सटी हुई थी ! पर मुझे ताज्जुब हुआ कि इन्हें प्रेम बाजपेयी की किताब मंगवाने की क्या जरूरत पड़ गयी ! 

और यह सवाल मैंने पूछ ही लिया तो ज्ञान ने बताया कि एक ग्राहक आया था जो उनका परमानेंट ग्राहक है ! उसे प्रेम बाजपेयी की दस किताबें चाहिये थीं, पर गर्ग एंड कंपनी के स्टॉक में नौ ही थीं तो ज्ञान ने उसी कीमत की एक दूसरी किताब देकर अपने छोकरे को भेज प्रेम बाजपेयी की किताब मंगवा ली थी ! 
चन्दर के साथ उनकी आपस में यह अदला-बदली चलती रहती थी !

और यह संयोग ही था कि जिस समय छोकरा चन्दर के यहां पहुंचा, मैं मनोज पॉकेट बुक्स की गद्दी पर बैठा गौरीशंकर गुप्ता को स्क्रिप्ट थमा रहा था ! चन्दर की दुकान की तरफ मेरी पीठ थी, इसलिए मैंने कुछ नहीं देखा !
   
उसके  बाद ज्ञान ने अपने छोकरे को चाय लेकर आने को भेज दिया ! फिर कुछ किताबें लेने आये एक ग्राहक को अटेंड करने लगा ! 

ग्राहक को किताबें देकर विदा करने के बाद ज्ञान गले में हाथ डाल, मुझे अपनी तरफ खींचते हुए बोला  -"छोटू ! मुझसे डरने की कोई जरूरत नहीं है, अबे यार ! तू इतना छोटा है और इतना अच्छा लिखता है कि मुझे तो तेरे से प्यार हो गया है ! और बेटा, उस दिन तो मैं तेरे मज़े ले रहा था ! तूने बुरा तो नहीं माना ?"
"बुरा तो नहीं माना, पर पुलिस का नाम लेकर आपने तो मुझे डरा ही दिया था !" मैंने कहा !    
"अब तू झूठ बोल रहा है ! अगर तुझे डर लगा होता तो यह न कहता - बुला लो ! चल छोड़, यह बता कुछ खायेगा ?"  ज्ञान ने आखिरी वाक्य छोकरे को देखते हुए कहा, जो केतली में चाय लाया था ! साथ में कांच के तीन गिलास भी थे ! 
चाय उसके हाथ से ले उसे पैसे पकड़ाते हुए ज्ञान ने कहा - "जा, फ़टाफ़ट तीन गर्म समोसे ले आ ! और गर्म ही लाइयो, वरना बहुत मारूंगा !"       
तो यह था ज्ञान का स्टाइल !

        समोसे आने के बाद चाय और समोसों का दौर चला और उसके बाद ज्ञान ने एक अजीबोगरीब सवाल किया -"तू इतना छोटा है ! कहानियां कैसे सोच लेता है तू ? सच बता छोटू। कहाँ से नक़ल मारता है ! मैं किसी से कहूंगा नहीं !"

         लेकिन मुझे जवाब देने की जरूरत नहीं पडी ! तभी एक ग्राहक सामने आ गया ! फ़िल्मी गानों की किताबों के बारे में पूछने लगा।

          उन दिनों हर नई फिल्म के रिलीज़ होने से पहले ही चार या आठ पेज की फिल्म के गानों की किताबें भी मार्किट में आ जाती थीं, जो बहुत बिकती थीं, लेकिन वह सब काउंटर पर आगे नहीं रखी होती थीं ! 
आम तौर पर ऐसी किताबों का मूल्य  - संभवतः 'पांच पैसे या एक आना' होता था और लगभग हर बड़े शहर में गानों की किताबें छापने वाले कई-कई प्रकाशक होते थे और फ़िल्में पुरानी हो जाने पर भी गानों की किताबें बिकती ही रहती थीं !

ज्ञान ने अपने यहां काम करने वाले छोकरे को गानों की किताबें दिखाने को कहा और स्वयं ग्राहक से 'और माल' के बारे में पूछने लगा ! तभी एक सज्जन और आये !

"आ भई, आज कैसे इधर का रास्ता भूल गया ?" ज्ञान ने हाथ आगे बढ़ाकर उससे हाथ मिलाया ! फिर  मेरी तरफ मुड़कर कहा - "छोटू, पहचाना इसे ! ये साधना प्रतापी है -हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा लेखक !" 
और फिर साधना प्रतापी से मेरी पहचान कराते हुए ज्ञान ने कहा -"और प्रतापी, ये योगेश मित्तल है - देखने में छोटा है, पर तेरे बाद इसी ने होना है - हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा लेखक !"     

        मुझे ज्ञान ने अपने पास बैठा रखा था, पर साधना प्रतापी के सम्मान में मैं खड़ा हो गया और दोनों हाथ जोड़ दिए ! साधना प्रतापी ने मेरी नमस्ते पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी ! सिर तक नहीं हिलाया, जैसे मेरी नमस्ते देखी तक न हो !

        मुझे यह बड़ा अजीब लगा ! मेरे हाथ निरंतर जुड़े हुए थे ! मैंने मुंह से भी कह दिया -"नमस्ते !"
परन्तु साधना प्रतापी ने जैसे सुना ही नहीं ! उसने मेरी तरफ ध्यान भी नहीं दिया ! ज्ञान ने भी यह देखा और वह अपनी ही स्टाइल में बोला -ओये प्रतापी, तू तो सचमुच बहुत बड़ा राइटर हो गया ! छोटू कब से नमस्ते कर रहा है ! अबे सिर तो हिला दे !"
और तब साधना प्रतापी ने बिना मेरी तरफ देखे ऐसे सिर हिलाया, जैसे सिर हिलाने में बड़ा जोर पड़ रहा हो !

           साधना प्रतापी ने ज्ञान से अपनी किसी किताब की 'सेल' के बारे में पूछा ! ज्ञान ने तुरंत ही जवाब दिया -"छाया हुआ है तू तो आजकल ! मेरे पास तो  तेरी सारी किताब ख़त्म हो गयी ! अब मनोज और स्टार का काफी सारा माल आया हुआ है, रखने की जगह नहीं है, ये बिक जाए तो तेरी और किताब मँगाऊँगा !"

        साधना प्रतापी आगे बढ़ गया ! उस दौरान उसके चेहरे पर एक बार भी मुस्कान तक नहीं आई थी ! साधना प्रतापी के आगे बढ़ जाने के बाद ज्ञान ने मुझसे कहा -"इसे तेरी शकल पसंद नहीं आई !" फिर खुद ही हँस दिया ! उसके बाद गल्ले से निकाल मुझे पच्चीस रुपये थमाए और बोला -"ये तेरे बाल पॉकेट बुक्स के हो गए ! अब अगले हफ्ते फ़टाफ़ट एक और लिखकर ले आ ! ये तेरे नाम से छपेगी ! उसमें मैं कोई और नाम डालूँगा ! एक ही सेट में एक नाम से दो-दो ठीक नहीं रहेंगी !"

पैसे जेब में रख, मैंने ज्ञान से विदा ली और सोचने लगा कि मनोज में भी एक चक्कर लगा लूँ क्या ? ? पर दिल ने कहा - "नहीं ! यूं ही खाली हाथ मिलने के लिए क्या जाना ?"

हालांकि बाद में मनोज मेरे लिए एक ख़ास 'स्टॉप' बन गया ! 
दरीबे में कभी भी किसी के भी जाना हो, एक हाज़िरी मनोज में लाज़मी थी !

उस दिन मैं किनारी बाज़ार के कटरा खुशहाल राय स्थित अपने नाना-नानी के यहां गया ! छोटे मामा-मामी भी वहीं साथ ही रहते थे ! सब मुझे देख बहुत खुश हुए ! दोपहर का खाना मैंने वहीं खाया, फिर बड़े ही खुश मूड में वापस घर के लिए प्रस्थान किया !  
    
उपन्यास साहित्य का रोचक संसार, भाग-20
आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 20
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उस शख़्स का पूरा नाम याद नहीं, लेकिन सभी उसे मिश्रा जी कहते थे !
वह गाँधीनगर में ही कहीं रहता था, किन्तु मनोज पाॅकेट बुक्स में नौकरी कर रहा था ! नौकरी करने के साथ-साथ वह और लोगों के यहाँ भी अक्सर पार्ट टाइम काम किया करता था !

पार्ट टाइम काम वह शनिवार रात और रविवार को करता था।
 पंकज पाॅकेट बुक्स के पहले सैट की सारी पैकिंग उसी ने की थी। वीपी के सारे पैकेट खाकी रंग के पेपर में तैयार किये ! उन पर वीपी स्लिप भी उसी ने चिपकाई ! वीपी फार्म भी अटैच किया। गत्ते के डिब्बों में पैकिंग करके, उस पर टाट के कपड़े का कवर लपेटकर सिलाई करके रेलवे के बड़े-बड़े, मोटे-मोटे बण्डल भी उसी ने बनाये थे।

       मिश्रा जी से कुमारप्रिय और बिमल जैन की पहचान बिमल चटर्जी ने करवाई थी, जिससे कभी बिमल की मुलाकात मनोज पाॅकेट बुक्स में ही हुई थी, फिर गाँधीनगर ही रहने की वजह से वह अक्सर विशाल लाइब्रेरी आने लगा था !

एक दिन मिश्रा जी पंकज पाॅकेट बुक्स के दूसरे सैट की पैकिंग के बारे में पूछने मेरे यहाँ आ गये ! कुमारप्रिय भी उस समय वहीं थे।

          कुमारप्रिय ने मिश्रा जी को बताया कि सैट की उनकी किताब अभी प्रेस में ही अटकी हुई है। दरअसल उस समय तक बिमल जैन के यहाँ पहले सैट की किताबों की वापसी आनी शुरु नहीं हुई थी और पहले सैट की सारी किताबें डिस्पैच हो जाने के कारण, दूसरे सैट में कुमारप्रिय की किताबों की संख्या बढ़ा दी थी !
कुमारप्रिय अपनी किताब का काॅपीराइट अपने ही नाम रखते थे और प्रिंटिंग संख्या के हिसाब से राॅयल्टी लेते थे।

सैट की दूसरी किताब "राख की दुल्हन" की पूरी राॅयल्टी कुमारप्रिय ने किताब प्रेस में जाने से पहले ही ले ली थी !

लेकिन एक गलती हो गई थी।

          प्रेस में किताब की अधिक संख्या छापने का आर्डर तो दे दिया गया, किन्तु कागजी को पेपर के अधिक रिम भेजने की खबर देर से दी गई, अत: प्रेस में किताबों की बाईस-बाईस सौ की संख्या में छपाई के हिसाब से ही पेपर भेजा गया था, जबकि राख की दुल्हन की प्रिंटिंग संख्या बढ़ाकर तैंतीस सौ कर दी गई थी।
          उन दिनों पाॅकेट बुक्स जिस पेपर में छपती थी, उसे एन्टिक कहा जाता था। जासूसी पत्रिकाएँ तथा बहुत सी अन्य बड़ी छोटी पत्रिकाएँ  जिस कागज पर छपती थीं, उसे न्यूजप्रिन्ट या नेफा कहा जाता था ! वह पेपर सरकार पत्र-पत्रिकाओं को बहुत सस्ते दामों में उपलब्ध कराती थी ! 

अधिकाँश पत्रिकाओं का न्यूजप्रिन्ट - जिसे अखबारी कागज भी कहा जाता था, बहुत हल्का पीलापन या मैलापन लिए होता था, अधिकांश पत्रिकाओं में वही प्रयुक्त होता था, किन्तु न्यूजप्रिन्ट में व्हाइटप्रिन्ट भी आता था, जो मैले न्यूजप्रिण्ट के मुकाबले सफेद होता था और उसका मूल्य मैले न्यूजप्रिण्ट के मुकाबले कुछ अधिक होता था !
इलाहाबाद से छपनेवाली जासूसी दुनिया, तिलस्मी दुनिया में बहुधा व्हाइट न्यूजप्रिण्ट ही लगाया जाता था, पर कभी-कभी व्हाइट न्यूजप्रिण्ट उपलब्ध न होने पर उन्हें भी पीलेपन वाला न्यूजप्रिण्ट लगाना पड़ता था ! उस न्यूजप्रिण्ट के लिए मैगज़ीन का नाम रजिस्टर्ड होने के बाद प्रसार संख्या के हिसाब से कोटा बुक करवाना पड़ता था ! 

इस सिलसिले में बदमाशियाँ भी बहुत चलती थीं !

बहुत से शातिर लोग, जिन्हें पब्लिकेशन चलाने से कोई मतलब नहीं था, एक साप्ताहिक या पाक्षिक अथवा मासिक पत्र या पत्रिका अथवा अखबार का नाम रजिस्टर्ड करवा लेते, एक डमी इशू भी निकाल दिया जाता ! जो पत्र या पत्रिका या अखबार छापा जाता, दिखावे के लिए ही होता था, जिसकी पचास-सौ से ज्यादा कॉपी नहीं छापी जाती, किन्तु रजिस्टर में हिसाब मेन्टेन किया जाता हज़ारों कॉपियों का ! 

बाद के इशू भी डमी के पृष्ठों में फेर बदल करके बिना ज्यादा लागत लगाए तैयार कर लिए जाते और दिखावे का धंधा चलता रहता, पर उनकी असली कमाई कोटे में हासिल किये न्यूज़प्रिंट को ब्लैक में बेचकर होती थी ! 

ब्लैक में मिला न्यूज़प्रिंट भी मार्किट में ओपन रेट में मिलने वाले न्यूज़ प्रिंट से सस्ता मिलता था, इसलिए ग्राहक मिल ही जाते थे !

राख की दुल्हन के सेट के लिए पूरे ग्यारह रिम काम पड़ रहे थे !

पंकज पॉकेट बुक्स का सारा काम गांधीनगर में हमारे घर  से ही होता था ! बिमल जैन तो जितना मांगो, पैसे दे देते थे ! हर पेमेंट भी कुमारप्रिय के हाथों होती थी ! लेकिन डिस्पैच में वीपी स्लिप पर पता बिमल जैन के मालीवाड़ा स्थित घर का जाता था ! 

पोस्ट ऑफिस से जाने वाले पैकेट रघुबरपुरा में बिमल चटर्जी वाली गली में आगे स्थित पोस्ट ऑफिस से भेजे जाते थे ! दिक्कत कोई नहीं होती थी, क्योंकि प्रति पैकेट दस पैसे पोस्ट ऑफिस स्टाफ को भी दिए जाते थे ! 

और पैकेट तैयार करने का काम गांधीनगर के धर्मपुरा स्थित विनोद बाइंडिंग हाउस में होता था ! पंकज पॉकेट बुक्स की सभी किताबें वहीं तैयार होती थीं ! फिर मिश्रा जी और विनोद बाइंडिंग हाउस के कर्मचारी मिलकर पैकिंग का सारा काम निपटा देते थे !

विनोद बाइंडिंग हाउस के मालिक उत्तमचंद काले आबनूसी भारी शरीर के स्वामी थे ! उनकी एक आंख संभवतः पत्थर की थी, जो अपेक्षाकृत बहुत कम झपकती थी ! लेकिन कुछ एक खूबियां थी उत्तमचंद में ! उनके चेहरे पर सदैव एक मीठी-सी मुस्कान रहती थी !  उनकी आवाज़ में सदा कोमलता रहती थी और उनकी सबसे बड़ी खूबी थी - हर बात में उनके मुंह से उभरने वाला तकियाकलाम -'चिंता नहीं करनी' और ‘बाबे दी मेहर है !’ 
   
एक दिन सवेरे-सवेरे उत्तमचंद मेरे यहां आ गए ! रोज के रूटीन की तरह उस दिन भी कुमारप्रिय भी तब मौजूद थे ! रंगभूमि जाने से पहले वह रोज एक घंटा हमारे यहां व्यतीत करते थे ! पंकज पॉकेट बुक्स की सभी व्यावसायिक बातें वही करते थे, क्योंकि यह प्रकाशन खुला ही उनके दम पर था ! 

बिमल जैन तो आरी और चिकन की कढ़ाई मशीन का कारखाना चलाने वाले कारखानेदार थे !

उत्तमचंद ने कुमारप्रिय से कहा -"कुमार साहब, राख की दुल्हन के आख़िरी चार फ़ार्म कब तक तैयार होंगे ? आपकी किताबों से सारा बाइंडिंग खाना भरा हुआ है, मेरे पास बाइंडिंग के लिए नई किताब आनी है, उसके लिए भी जगह नहीं है ! दो-चार दिन के लिए तो  मैंने पास के मकान में एक भाई के यहां नई किताब के फार्मों के लिए जगह बना दी है, पर किताबें हटवाने के लिए जल्दी कुछ कीजिये !"
"ठीक है, हम आज ही जैन साहब से मिलकर आते हैं ! करते हैं कुछ शाम तक रुकिए ! फिर बताते हैं - क्या स्थिति होगी !" कुमारप्रिय बोले !
"चिंता नहीं करनी ?" उत्तमचंद मुस्कुराये !
"चिंता नहीं करनी ?" कुमारप्रिय भी हंसकर बोले !
उत्तमचंद ने आदतन दोनों हाथ सिर से ऊपर उठाये और बोले -"बाबे दी मेहर है !"
"बाबे दी मेहर है !" कुमारप्रिय ने भी हंसते हुए कहा !

फिर मुझे साथ लेकर कुमारप्रिय बिमल जैन से मिलने के लिए निकले ! चांदनी चौक से परांठे वाली गली में घुस हम दायीं ओर मुड़ गए ! 

उन दिनों मालीवाड़े में चुम्बकीय चिकित्सा से माहिर डॉक्टर राधेश्याम हुआ करते थे, जिनकी दूर-दूर तक धूम थी ! 
परांठे वाली गली से दायीं ओर जाते ही थोड़ा आगे दायीं तरफ के एक मकान की पहली मंज़िल पर उनका दवाखाना था, जहां छोटे-बड़े-विशाल साइज के बहुत सारे चुम्बक थे !  
लोगों का मानना था कि पेट की बीमारियों से मुक्ति के लिए डॉक्टर राधेश्याम की चुम्बकीय चिकित्सा रामबाण थी !

आगे चलकर वहीं बायीं तरफ कुछ फूलवालों की दुकानें थीं, उसके बाद एक गली थी ! 
बिमल जैन का घर मालीवाड़े की उसी संकरी गली के आखिर में था !  

जब हम बिमल जैन के यहां पहुंचे तो वह कहीं जाने के लिए तैयार थे ! कुमारप्रिय ने उनसे पेपर कम पड़ जाने की बात की तो वह बोले - "आप पेपर मंगवा लो ! मैं दो-तीन के लिए ससुराल जा रहा हूँ ! लौटते ही पेमेंट कर दूंगा !"   
  
बिमल जैन से बात करके हम वापस परांठेवाली गली से चांदनी चौक निकले !
"चलें, सुमेरचंद जैन को पेपर के लिए भी बोलते चलें !" कुमारप्रिय ने कहा !

चाँदनी चौक से 'पत्थरवालान' जाने पर अन्तिम छोर से पहले दायें हाथ की ओर एक गली पड़ती है, जिसका दूसरा छोर 'दरीबा कलाँ' में निकलता है ! उस गली का भी कोई नाम है - इस समय मैं भूल रहा हूँ !

पत्थरवालान से उस गली में प्रवेश करने के सौ कदम बाद के एक मकान के सामने कुमारप्रिय रुके ! उनके साथ ही मैं भी रुक गया !

"शायद ये ही मकान है ! इसमें ऊपरी किसी मंजिल पर रहते हैं सुमेरचन्द जैन !" कुमारप्रिय यूँ बुदबुदाये, जैसे सोच रहे हों, पर मुझसे सम्बोधित भी थे !
कुछ क्षण वह मकान को गौर से देखते हुए दायें-बायें गर्दन घुमाते रहे ! फिर अपनी ओर से तेज आवाज में चिल्लाये - "जैन साहब !"

कुमारप्रिय की आवाज उतनी बुलन्द न थी कि दूसरी-तीसरी मंजिल के कानों में सहज ही पहुँच जाये !
किन्तु उस समय मेरा ध्यान इस पर न जाकर कुमारप्रिय के अधरों से निकली पुकार 'जैन साहब' पर गया !

मैं बोला -"कुमार साहब, यहाँ कई सारे जैन साहब भी तो हो सकते हैं ! हो सकता है - आपकी अगली आवाज पर दायें-बायें, ऊपर-नीचे से कई-कई जैन साहब निकल आयें !"
"तो उनमें अपने वाले को पकड़ लेंगे और बाकी सबके आगे हाथ जोड़ देंगे !" कुमारप्रिय हँसकर बोले !
"मगर हुज़ूर, उनमें हमारे वाले जैन साहब हुए ही नहीं तो..."मैंने भी दिल्लगी की, जो कि सम्भावना भी थी !
"हाँ, यह भी हो सकता है !" कुमारप्रिय ने कहा ! फिर स्वयं ही बोले -"पूरे नाम से पुकारें क्या ?"
फिर मेरे जवाब से पहले जोर की हाँक लगा दी -"सुमेरचन्द जी !"
"अब तो जैन और बेजैन सभी सुमेरचन्द दौड़े आयेंगे !" मैंने कहा !
"आने दीजिये, उनमें अपने वाले सुमेरचन्द को पकड़ लेंगे !" कुमारप्रिय बोले ! 

पर इस आवाज पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तो कुमारप्रिय को अपनी आवाज के धीमे होने का एहसास हुआ और वह मुझसे बोले -"योगेश जी, आप लगाइये तो एक जोर की आवाज !"

मेरी आवाज हमेशा से कड़क मर्दानी और बुलन्द रही है ! अक्सर किसी से आराम से भी बात कर रहा होता हूँ तो आते-जाते लोग गलतफहमी में पड़ जाते हैं कि बन्दा झगड़ रहा है !

तो जनाब, मैंने एक ही बार एक जोर से आवाज लगाई -"सुमेरचन्द जैन साहब !"

और तुरन्त सामने के मकान की दूसरी मंजिल की एक खुली हुई खिड़की से दबे रंग के भारी से चेहरे ने बाहर झाँका और मुझे और कुमारप्रिय को देखते हुए जवाब में बोला -"आया, अभी आया !" 

थोड़ी ही देर बाद सुमेरचन्द जैन नीचे आया ! वह औसत कद का फैले हुए भारी शरीर का व्यक्ति था, पर मोटा नहीं कहा जा सकता था !  कुमारप्रिय के बाद उसने मुझसे भी हाथ मिलाया ! फिर सवाल दागा -"आज सुबह-सुबह कैसे ?"
"यार जैन साहब, हमारा सैट अटका पड़ा है ! आप माल पूरा नहीं भेजे !" कुमारप्रिय ने कहा !
"इसमें मेरी क्या गलती है ? मुझसे तो आपने शुरु में जितना कहा, उतना भिजवा दिया ! बाद में जब आपने ग्यारह रिम ज्यादा भेजने की खबर की, तब तक तो मैं सारा माल भेज चुका था !" सुमेरचन्द ने कहा !   
"ठीक है ! जो हुआ, सो हुआ ! अब आगे क्या करना है ! आप ही बताइये ! पेपर प्रेस में नहीं पहुँचेगा तो किताब रुकी रहेगी ! एक किताब 'लेट' होने से सारा सैट 'लेट' हो जायेगा ! डिस्पैच लेट होगा ! पेमेन्ट लेट आयेगी ! सारा सिस्टम बिगड़ जायेगा !" कुमारप्रिय ने विनम्र स्वर में सुमेरचन्द जैन को स्थिति समझाई !
"देखिये कुमार साहब !" सुमेरचन्द जैन ने कहा - "इस समय मेरे पास तो एन्टिक का एक रिम भी नहीं है ! मैं देखता हूँ - किसी और से मिलता है तो...पर इसकी पेमेन्ट तुरन्त करनी होगी !"
"पहले कभी 'लेट' हुई है पेमेन्ट ?' कुमारप्रिय बोले !
"नहीं, पर पहले बात और थी ! मैंने - मेरा अपना खरीदा माल भेजा था ! दो-चार दिन 'लेट' होने से भी चल जाता, पर अब मैं किसी और से लेकर भेजूँगा तो बात इज्जत की हो जायेगी !" सुमेरचन्द ने कहा !
ठीक है, आप माल तो भिजवाइये ! पेमेन्ट भी हो जायेगी !" कुमारप्रिय ने आश्वासन दिया ! 
भरोसा था कि बिमल जैन से तत्काल पैसे मिल जायेंगे ! 
अगले दिन सुमेरचंद जैन ने गांधीनगर हमारे यहां आकर बताया कि पेपर प्रेस में पहुँच गया है ! अब मसला पेमेंट का था !
"पेमेंट के लिए कब आऊं ?" सुमेरचंद ने पूछा !
"ले जाइयेगा - दो-तीन दिन बाद....!" कुमारप्रिय ने कहा !
"दो दिन बाद या तीन दिन बाद...मेरा चक्कर बेकार नहीं लगना चाहिए !"  सुमेरचंद जैन ने कहा !

तभी मैंने कुमारप्रिय को याद दिलाया कि बिमल जैन तो दो-तीन दिन के लिए ससुराल जाने को कह रहे थे ! तो कुमारप्रिय ने दो और तीन जोड़कर पेमेंट के लिए पांच दिन बाद आने के लिए सुमेरचंद जैन से कहा !
"ठीक है, पांच दिन बाद आऊंगा ! पर पेमेंट तैयार रखियेगा !" 
"चिंता मत कीजिये !" कुमारप्रिय ने सुमेरचंद जैन को आश्वासन दिया !

चौथे दिन शाम को मैं और कुमारप्रिय बिमल जैन के यहां गए !
पर यह जानकर हमारी हवा निकल गयी कि बिमल जैन तब तक ससुराल से नहीं लौटे थे ! उनके घर में ताला लगा था !

उन दिनों मोबाइल फ़ोन तो क्या लैंडलाइन फ़ोन जैसी चीज़ भी आम नहीं थी ! मैंने कुमारप्रिय से कहा कि सुमेरचंद जैन से हम क्या कहेंगे !
"अरे समझा देंगे !" कुमारप्रिय लापरवाही से बोले !

अगले दिन सुबह ही मैं कुमारप्रिय के यहां गया तो यह देख, मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी कि कुमारप्रिय घर में नहीं थे ! घर के बाहर कुंडी में ताला लटक रहा था !

आठ बज चुके थे ! सुमेरचंद जैन हमेशा दस से ग्यारह के बीच आते थे ! अब उनसे मुझे ही मिलना था, लेकिन मेरी समझ में यह भी नहीं आ रहा था कि उन्हें क्या कहूंगा !       

(शेष फिर)

और थोड़ी देर बाद...
सुमेरचंद जैन आये और फिर जो बैंड बजाया, सभी अडोसी-पड़ोसी और मकानमालिक जगदीश प्रसाद गुप्ता तक एकत्रित हो गए !  
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दोस्तों !
हो सकता है, इस बार आपको उतनी रोचकता न लगे, पर इस बार प्रकाशन जगत की वो समस्याएं और सच्चाइयां,  मैंने पेश की हैं, जिन्हें हर कोई नहीं जानता !
दोस्तों, साधना प्रतापी की इस घटना का जिक्र मैंने एक विशेष कारण से किया है ! इसे मैं नज़रअंदाज़ भी कर सकता था ! साधना प्रतापी के जिक्र को पूरी तरह गायब भी कर सकता था ! लेकिन इस घटना का, आगे की एक विशेष घटना से ख़ास से लिंक है - जो सबके लिए एक सीख होगी ! 
इसे साधना प्रतापी का अपमान न समझा जाए.
शेष आगामी किस्त में...
उपन्यास साहित्य का रोचक संसार, भाग-21,22

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