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रविवार, 27 जून 2021

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा-06

 मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा
आत्मकथा, भाग-06
 गत अंक पांच यहाँ से पढें -  आत्मकथा भाग- 05
    आपने गतांक में पढा कैसे एक उपन्यासकार फिल्म क्षेत्र में संघर्ष करता है। वहाँ उसके कैसे अनुभव रहे।
  अशोक कुमार शर्मा जी की आत्मकथा के इस भाग में पढें उनके उपन्यास लेखन के क्षेत्र में संघर्ष को।

तो अब चलिए दोस्तो मेरे इस अंतिम सफर का लुत्फ़ उठाने के लिए मेरे साथ।
आशा है, मेरे इस अंतिम सफर में भी आपको काफी मजा आएगा ।
ये बात ईस्वी सन् 1979 के आसपास की है, जब मैं पांचवीं कक्षा का स्टूडेंट था।
उन दिनों उपन्यासों का स्वर्ण युग  हुआ करता था और उपन्यासकार किसी फिल्म के हीरो से कम नहीं समझे जाते थे।  
     उपन्यास पढ़ाकूओं के घरों में 50 से लेकर 250 - 300 तक का  उपन्यास संग्रह बड़ी आसानी से मिल जाया करता था। 
मेरे मौहल्ले में भी कम से कम ऐसे 40 - 50 पढ़ाकूओं के घर थे, जिनमें शायद अव्वल नंबर मेरे ही घर का था। 
और वो इसलिए, क्योंकि मेरे घर का प्रत्येक सदस्य उपन्यास पढ़ा करता था। 
उस वक्त मेरी समझ में यह नहीं आता था कि ये लोग बिना चित्रो वाली इतनी मोटी - मोटी किताबों को आखिर पढ़ कैसे लेते हैं और इनमें ऐसा क्या लिखा हुआ होता है, जो कि लोग अपना खाना - पीना तक भूल कर हर वक्त इनमें ही खोए हुए रहते हैं।
इसी उत्सुकता की वजह से मैंने एक रात को सब घरवालों के सो जाने के बाद रजाई ओढ़ कर तथा एक टॉर्च को रोशन कर मुंह में दबाने के बाद उसकी रोशनी में उस समय के सबसे मशहूर लेखक आदरणीय गुलशन नंदा द्वारा लिखा गया उपन्यास 'राख और अंगारे'  पूरी रात जागकर पढ़ा। 
वो टॉर्च मैंने इसलिए रोशन की थी, क्योंकि उन दिनों हमारे छोटे से गांव में बिजली का आगमन नहीं हुआ था। 
गुलशन नंदा के इस उपन्यास को पढ़ने के बाद मैं तो जैसे उपन्यासों का दीवाना ही हो गया था।  
साहित्यदेश
      घर के और पूरे मोहल्ले के उपन्यास संग्रहो को मैंने दीमक बनकर दो-तीन साल में ही लगभग पूरा चट कर डाला। 
उनमें से ज्यादातर उपन्यास गुलशन नंदा, प्रेम बाजपेई, इब्ने सफी, राजहंस, ओम प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश कांबोज और कुशवाहा कांत के ही थे। 
      प्रथम उपन्यास 'राख और अंगारे' पढ़ने के बाद ही मेरे मन में यह लालसा जाग उठी कि क्यों न मैं भी उपन्यास लिखने लगूं और फेमस राइटर गुलशन नंदा की तरह ग्लैमर की दुनिया का एक चमकता हुआ सितारा बनकर क्यों न उनकी तरह ही चमकने लगूं।       तो साहेबान, अपने इस नेक इरादे को सर अंजाम देने के लिए गर्मियों की छुट्टियों में मैं लगातार डेढ़ महीने तक एक पहाड़ी पर स्थित मंदिर में गया और दुनिया वालों की नजरों से छुप कर मैंने गुलशन नंदा स्टाइल में एक उपन्यास लिख डाला, जिसका कि शीर्षक था - 'पुजारिन'। 
       उस उपन्यास को मेरे छोटे भाई साहब का एक दोस्त इस वादे के साथ अपने साथ ले गया कि वह उस उपन्यास को प्रकाशित करवा देगा, पर कुछ दिनों बाद उसके अन्य साथियों द्वारा मुझे मालूम चला कि उसने खाना पकाने के लिए कोयले की सिगड़ी सुलगाने के काम में लेकर उस उपन्यास को तो कब का ही प्रकाशित कर दिया है।
           यह सुनकर मुझे बहुत गहरा धक्का लगा, पर मैं एक दुबला - पतला कमजोर सा लड़का उस पहलवान जैसे डील डोल वाले का कर भी क्या सकता था, जिसने मेरी डेढ़ महीने की मेहनत पर अपनी अज्ञानतावश पानी फेर दिया था। 
       तो जनाब, इसलिए मैं बस अपना मन मसोसकर चुप रह गया था तथा यूं और इस तरह मेरे बचपन के लेखकीय जीवन की बहुत ही जल्दी इति श्री भी हो गई।
       उन दिनों हमारे गांव में कक्षा 8 तक का ही स्कूल था, इसलिए कक्षा नौ की पढ़ाई करने के लिए मैं पास के शहर सीकर चला गया, जहां मेरे दोनों बडे भाई साहेब पहले से ही पढ़ा करते थे। 
       सीकर आने के बाद मेरी तो जैसे लॉटरी ही लग गई।
वहां 50 पैसे किराए में एक उपन्यास मिल जाया करता था, इसलिए मैं रोज कम से कम एक उपन्यास तो पढ़ ही डालता था। वहां मैंने बचपन में पढ़ें लेखकों के अलावा वेद प्रकाश शर्मा, सुरेंद्र मोहन पाठक, राज भारती, कुमार कश्यप, परशुराम शर्मा, रानू, सरला रानू और जेम्स हेडली चेज के अलावा और भी बहुत से मशहूर लेखकों को पढ़ा और इस वजह से एक बार फिर मुझ पर उपन्यास लिखने का और उन लेखकों की तरह एक मशहूर लेखक बनने का जुनून सवार हो गया और उसी जुनून की वजह से मैंने अपना दूसरा उपन्यास लिख डाला जिसका कि शीर्षक था -  'नरमुंडमालिनी'।
         इस उपन्यास को प्रकाशित कराने के लिए मैंने कई प्रकाशको को पत्र लिखे, पर उनमें से जवाब एक का भी नहीं आया। इस वजह से मैं काफी निराश हो चुका था, पर मैंने हार नहीं मानी। 
कुछ दिनों के उपरांत मैं उपन्यास लेखकों को अपनी हेल्प के उद्देश्य से पत्र लिखने लगा। 
सन 1985 में मुझे आदरणीय लेखक सुरेंद्र मोहन पाठक जी का और 1986 में सरला रानू जी का पत्र मिला।
{ संलग्न - आदरणीय सुरेन्द्र मोहन पाठक जी और सरला रानू जी के  पत्र }
       उन्होंने मुझे यही मशवरा दिया कि पत्र लिखने की बजाए अगर आप खुद जाकर प्रकाशको से मिले, तो हो सकता है कि आपको सफलता मिल जाए।
उन्होंने उस वक्त मुझे सही रास्ता दिखाया, जिस वक्त मैं बहुत ही उदास और निराश था, इसलिए इस लेख के जरिए मैं उन दोनों महान लेखक और लेखिका को शुक्रिया कहकर अपना आभार व्यक्त करना चाहता हूँ। 
      अभी मैं दिल्ली जाकर प्रकाशकों से मिलने की सोच ही रहा था कि ऊपरवाले ने मुझ जैसे नाचीज़ पर एक मेहर और करदी।
     और वो मेहर ये थी कि उन्ही दिनों मुझे 'मनोज पॉकेट बुक्स' के मालिक विनय कुमार गुप्ता जी का पत्र मिला कि मैं अपने उपन्यास के प्रकाशन के सिलसिले में दिल्ली आकर उनसे मिलूं।
उनका पत्र पढ़ते ही मेरी इच्छाओं और आकांक्षाओं को जैसे पर लग गए। 
मैं खुशी से झूम उठा और कल्पना लोक में मैं उन नामचीन लेखकों की तरह अपने उपन्यास पर अपना नाम और फोटो छपा हुआ देखने लगा, पर तभी मेरी इन खुशियों पर खुदा की मार पड़ी।    शायद उसने अपनी उधार दी हुई मेहरबानियो में से कुछ मेहरबानियां वापस ले ली थी ।
     अब मुझे ठीक तरह याद नहीं, पर उन्हीं दिनों मेरी दादी या ताई का इंतकाल हो गया था, इसलिए मजबूर होकर मुझे कुछ दिनों तक के लिए अपने गांव रुक जाना पड़ा और अनिच्छा के बावजूद भी मुझे रस्मो - रिवाज के मुताबिक अपना सिर मुंडवाना पड़ा।
       उनकी अंत्येष्टि क्रिया समाप्त होने के बाद मन ही मन सैकड़ों सपने और अरमान संजोए हुए एक सलेटी रंग का हाफ पेंट पहन कर, एक लटकन थैला अपने कंधे पर लटका कर और अपनी सफाचट खोपड़ी के साथ मैं जा पहुंचा विनय कुमार जी गुप्ता से मिलने के लिए दिल्ली।
     आगे क्या हुआ?
जानने के लिए आत्मकथा का भाग-07 पढें।

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