लुगदी साहित्य को आज की पीढी पसंद करती है- संजय आर्य
लुगदी साहित्य लुगदी पेपर से आधुनिक समय में सफेद पेपर और उसके आगे डिजिटल किंडल फॉरमेट तक की यात्रा कर चुका है। बाबू देवकीनंदन की चंद्रकांता ने लुगदी सहित्य को एक अलग ही मुक़ाम पर पहुंचा दिया। 'चन्द्रकांता' से यात्रा अमित खान की वेब सीरीज 'बिच्छु का खेल' तक पहुंच गई है। लुगदी साहित्य को आज की पीढ़ी के बीच भी पहले की तरह पसंद किया जाना 'शुभ संकेत' है।
वास्तव में देखा जाए तो जासूसी उपन्यास-लेखन की जिस परंपरा को गोपाल राम गहमरी ने जन्म दिया था, उसका हिन्दी में विकास ही न हो सका।
प्रेमचंद के जिस उपन्यास 'गबन' को पठनीयता की दृष्टि से सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ है, उस 'गबन' की अनेक कथा स्थितियां एक विदेशी क्राइम थ्रिलर से मिलती-जुलती हैं और जिसका अनुवाद गोपालराम गहमरी ने 'जासूस' पत्रिका में किया था।
गहमरी जी की बाद की पीढ़ी को जो भी लोकप्रियता मिली, उसका बहुत कुछ श्रेय पूर्व स्थापित देवकीनंदन खत्री जी के साहित्य को ही जाता है। इन्होंने अपने लेखन से वह वातावरण स्थापित कर दिया था कि लोगों की रुचि लोकप्रिय साहित्य को पढ़ने की और बढ़ गयी थी। उसका प्रमुख कारण था लुगदी साहित्य की भाषा। जो सामान्य जनता की भाषा हुआ करती थी। आसानी से सभी को समझने में सहायक।
वैसे देखा जाए तो हिंदी साहित्य में गंभीर साहित्य और लोकप्रिय साहित्य दोनो को पाठकों का भरपूर प्रेम मिला है।
50-60 के दशक में वेदप्रकाश काम्बोज का नाम घर -घर मे लोकप्रिय था। उस समय जासूसी और सामाजिक साहित्य में बड़ा विभाजन था। गुलशन नंदा, रानू, प्रेम वाजपेयी, राजहंस, राजवंश और मनोज के उपन्यास सामाजिकता और रूमानियत से भरे हुए थे। ओम प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश काम्बोज, इब्ने सफी, अकरम इलाहाबादी जासूसी उपन्यासकार थे। सामाजिक उपन्यास बिकते ज्यादा थे, पढ़े कम जाते थे।
लोकप्रिय साहित्य को 'मास से क्लास' तक पहुंचाने के लिए सुरेंद्र मोहन पाठक को अवश्य श्रेय दिया जाना चाहिए ।विदेशी पब्लिकेशन के द्वारा उनके उपन्यास '65 लाख की डकैती' को अनुवाद कर पब्लिश किया जाना लोकप्रिय साहित्य का अपूर्वभूत सम्मान है।
वेदप्रकाश शर्मा का उल्लेख किये बिना ये चर्चा अधूरी रहेगी। प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता आमिर खान ने अपनी फिल्म 'तलाश' के प्रमोशन की शुरुआत वेदप्रकाश शर्मा के निवास से की थी, जो जाने-माने उपन्यासकार और लगभग आधा दर्जन फिल्मों के स्क्रिप्ट राइटर वेद प्रकाश शर्मा की लोकप्रियता को विशाल सम्मान है ।
कहते हैं कि 1993 में वर्दी वाला गुंडा की पहले ही दिन देशभर में 15 लाख कॉपी बिक गई थीं।
लेकिन वस्तुतः ऐसे उदाहरण नाम-मात्र ही है। अभी भी लोकप्रिय साहित्य और उनके लेखकों को वह स्थान नही मिला है जिसके वे हकदार है। हमेशा से लुगदी साहित्य हेय दृष्टि का शिकार रहा है। और अभी भी अपनी जड़ें तलाश रहा है।
एक बार मैंने सुरेंद्र मोहन पाठक सर से प्रश्न किया था कि
''सर क्या कारण है कि हिंदी के लेखको को अंग्रेजी लेखकों के समान सम्मान नही मिलता?''
उनका जवाब था- "कोई पढे तो, हिंदी किताबो को पाठक ही नहीं मिलते।''
आवश्यकता है -वर्तमान में उपलब्ध प्रचार-प्रसार के साधनों के माध्यम से लोकप्रिय साहित्य के प्रति रुचि फिर से बढ़ाने की ताकि हिंदी के पाठकों में ज्यादा से ज्यादा वृद्धि हो।
साहित्य के इतिहास में प्रारम्भिक समय मे अनेक आलोचकों ने लुगदी साहित्य की चर्चा की तो की लेकिन बाद के समय मे उसको लगभग भुला ही दिया गया ।
आज के युवा लेखक नई ऊर्जा से भरपूर है। नए लेखको में संतोष पाठक, इकराम फरीदी, कंवल शर्मा, सबा खान, अनिल गर्ग, अनुराग कुमार जीनियस, अजिंक्य शर्मा आदि का नया पाठक वर्ग तैयार हो रहा है और निश्चित रूप से किसी नए सवेरे की उम्मीद अवश्य ही की जाना चाहिए।
'राहुल प्रसाद 'की कविता की कुछ पंक्तियां याद आ रही है।
ये ख्वाहिशें, ये चाहतें, ये धड़कनें बेहिसाब,
चलो मिलकर लिखते हैं, एक नई किताब।
ये नया सवेरा, ये नया दिन, ये नई-नवेली रात,
चलो मिलकर करते हैं, फिर कोई नई रूमानी बात।
प्रस्तुति- संजय आर्य, इंदौर
Badhiya lekh
जवाब देंहटाएंधन्यवाद राम भाई।
हटाएंबहुत शानदार लेख संजय भाई का। लोकप्रिय साहित्य की परिस्थितियों पर प्रकाश डालते हुए वरिष्ठ लेखकों के नाम गिनाकर पुराने दिनों की यादें ताजा कर दीं। अब तो मोबाइल, इंटरनेट का युग है, फिर भी उस सुनहरे दौर की सुनहरी यादें अब भी हमारे साथ हैं।
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर अपने विचार व्यक्त करने के लिए धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंलोकप्रिय साहित्य की अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद संजय सर।