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सोमवार, 31 दिसंबर 2018
रविवार, 30 दिसंबर 2018
कुँवर नरेन्द्र सिंह
इनके उपन्यास भगवती पॉकेट बुक्स- आगरा से प्रकाशित होते रहे हैं।
1. खप्पर
2. अघोर पुत्र
3. डायन
4. रक्तकुण्ड
5. भैरवी
अरुण कुमार शर्मा
भारत में अगर हिंदी जासूसी साहित्य में 'तंत्र-मंत्र' विषय पर उपन्यास लेखक नाम मात्र के मिलेंगे।
तांत्रिक बहल, शैलेन्द्र तिवारी, कुँवर नरेन्द्र सिंह जैसे कुछ नाम ही सुनाई देते हैं। हालांकि वेदप्रकाश शर्मा, परशुराम शर्मा जैसे नामवर लेखकों ने 'तंत्र-मंत्र मिश्रित हाॅरर' उपन्यास लिखे हैं।
वाराणसी के एक लेखक है अरुण कुमार शर्मा जिन्होंने तंत्र-मंत्र विषय पर मनोरंजन उपन्यास लिखे हैं।
संपर्क -
आगम निगम सहवास
बी.-5/23, हरिश्चंद्र रोड़
वाराणसी, उत्तर प्रदेश।
अरुण कुमार शर्मा के उपन्यास
1. नरबलि (भगवती पॉकेट बुक्स- आगरा)
इस विषय पर आपके विचारों का स्वागत है।
शनिवार, 29 दिसंबर 2018
जे. के. सागर
जे.के. सागर नामक उपन्यासकार का मूल नाम या इनके विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं ।
इनके उपन्यास स्टार पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुये थे।
जे.के. सागर के उपन्यास
1. आरजू
2. उजाला
तीर्थराम फिरोजपुरी
तीर्थराम फिरोजपुरी जासूसी उपन्यासकार थे।
इनके विषय में अभी तक कोई उल्लेखनीय जानकारी उपलब्ध नहीं।
1. तीन बजकर बीस मिनट
2. तहखाने का राज (अशोक पॉकेट बुक्स)
3. मौत के घेरे में (अशोक पॉकेट बुक्स)
4. शैतान पुजारी
5. क्रांतिकारी रमणी
6. नहले पर दहला
7. खजाने की तलाश
8. मौत के घेरे में
अनुराधा
अनुराधा के उपन्यास
1. ठोकर
2. अंधेरे- उजाले
3. जूही
शेखर
शेखर के उपन्यास
1. प्यासी आंखें
2. तलाश
3. अपराधी
4. पहला प्रेमी
5. जन्म कैद के बाद
6. प्यार एक पहेली
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कमाण्डर देव
कमाण्डर देव वास्तविक लेखक थे या Ghost writer यह तो कहना संभव नहीं, क्योंकि इनके विषय में अभी तक कोई भी जानकारी उपलब्ध नहीं।
कमाण्डर देव के उपन्यास 'आनंद पैपरबैक्स' से प्रकाशित होते थे।
कमाण्डर देव के उपन्यास
1. कैबरे डांसर की हत्या
2. फिल्मी हीरो की हत्या
3. क्रिकेट खिलाड़ी की हत्या
4. धमकी
प्रो. दिवाकर
विज्ञान जैसे कठिन विषय पर लिखना तो स्वयं में एक चुनौती है। विज्ञान विषय पर डाॅ. रमन और प्रो. दिवाकर के नाम से कुछ उपन्यास उपलब्ध होते हैं।
प्रो. दिवाकर के उपन्यास
1. अंतरिक्ष का हत्यारा
2. उड़न तश्तरी
3. दिमागों का अपहरण
4. समय के स्वामी
5. आकाश का लूटेरा
6. शुक्र ग्रह पर धावा
इस विषय पर किसी पाठक के पास कोई भी जानकारी हो तो अवश्य शेयर करें।
वीरेन्द्र कौशिक
वीरेन्द्र कौशिक एक सामाजिक उपन्यासकार थे।
वीरेन्द्र कौशिक के उपन्यास
1. प्यार का कर्ज
2. आग और सुहाग
मयंक
इनके विषय में अभी तक कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं। यह वास्तविक लेखक थे या Ghost writer यह अभी तक कन्फर्म नहीं।
मयंक के उपन्यास
1. राजन की तौबा
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मंगलवार, 25 दिसंबर 2018
कौशल पण्डित
कौशल पण्डित के उपन्यास
1. केशव पण्डित की प्रेतात्मा
2. केशव पण्डित का जलजला
3. केशव पण्डित का आतंक
4. केशव पण्डित की अदालत
5. गवाह के हत्यारे
रविवार, 16 दिसंबर 2018
जासूसी उपन्यासों के रोचक शीर्षक
नाम किसी भी प्राणी, वस्तु और स्थान के लिए आवश्यक है। नाम से ही पहचान होती है। कहने को कोई कहे की नाम महत्वपूर्ण नहीं है, लेकिन नाम के बिना पहचान भी मुश्किल हो जाती है।
नाम/ टाइटल या शीर्षक कुछ भी कह लो। जब अपने बात करते हैं जासूसी उपन्यास साहित्य की तो इस क्षेत्र में उपन्यासों के जो शीर्षक दिये गये वह बहुत रोचक रहे हैं। हालांकि हिंदी का गंभीर साहित्य भी इस क्षेत्र में पीछे नहीं है, लेकिन जासूसी उपन्यास साहित्य तो अपने रोचक और नये अजीबोगरीब शीर्षक के लिए प्रसिद्ध रहा है।
हिंदी गंभीर साहित्य में 'मुर्दों का टीला', 'बंद गली का आखिरी मकान', 'पहाड़ पर लालटेन' जैसे कुछ शीर्षक मिलेंगे।
जासूसी उपन्यास साहित्य में भी ऐसे असंख्य शीर्षक हैं जो काफी रोचक और दिलचस्प हैं। जैसे- अधूरा सुहाग, कुंवारी सुहागिन, मुर्दे की जान खतरे में, विधवा का पति, देखो और मार दो' जैसे अनेक अजब-गजब शीर्षक देखने को मिल जाते हैं।
इस विषय पर आबिद रिजवी जी कहते हैं- जासूसी उपन्यासों में शीर्षक की भी अपनी महती भूमिका हैं । छोटे शीर्षक कैरेक्टर से सम्बन्धित और बड़े व अटपटे शीर्षक कथानक की उत्सुकता साथ लिए होते हैं ।
कर्नल रंजीत के उपन्यासों की कहानियां जितनी रोचक होती थी वैसे रोचक उनके नाम भी होते थे। 'उङती मौत', 'खामोश! मौत आती है।'
कर्नल रंजीत का एक पात्र था मेजर बलवंत। कुछ समय बाद मेजर बलवंत के नाम से भी उपन्यास बाजार में आये। 'थाने में डकैती', 'लाश का प्रतिशोध' जैसे रोचक शीर्षक उनके कुछ उपन्यासों के देखने को मिलते हैं।
यह चर्चा वेदप्रकाश शर्मा जी के बिना तो अधूरी है, क्योंकि वेद जी अपने उपन्यासों के शीर्षक बहुत सोच समझकर रखते थे। क्योंकि सबसे पहले शीर्षक ही पाठक को प्रभावित करता है।
वेदप्रकाश शर्मा जी अपने उपन्यासों का शीर्षक बहुत गजब देते थे। उनका उपन्यास 'लल्लू' जब बाजार में आया तो शीर्षक कुछ अजीब सा लगा लेकिन इस उपन्यास की लोकप्रियता के बाद वेद जी ने कुछ ऐसे और शीर्षक से उपन्यास लिखे। जैसे 'पंगा', 'पैंतरा', 'शाकाहारी खंजर'। एक बहुत ही गजब शीर्षक था 'क्योंकि वो बीवियां बदलते थे'। जिस भी पाठक ने यह शीर्षक पढा उसकी एक बार इच्छा तो अवश्य हुयी होगी की यह उपन्यास पढे। सच भी है जितना रोचक यह शीर्षक था उतना रोचक यह उपन्यास भी था। अगर वेद जी 'क्योंकि वो बीवियां बदलते थे' लिखते हैं तो विनय प्रभाकर भी कम नहीं, वो 'चार बीवियों का पति' लिखते हैं।
'मर्डर मिस्ट्री' लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक जी ने अपने एक उपन्यास में लिखा है की वे किसी उपन्यास का शीर्षक देने में सक्षम नहीं है। लेकिन ऐसी बात नहीं है, उनके कुछ उपन्यासों के नाम इतने रोचक हैं की पाठक उनकी तरफ आकृष्ट होता है। 'छह सिर वाला रावण', 'छह करोड का मुर्दा' जैसे शीर्षक स्वयं में आकर्षक का केन्द्र हैं।
यह करोड़ो का खेल यही खत्म नहीं होता। सामाजिक उपन्यासकार सुरेश साहिल लिखते हैं- 'एक करोड़ की दुल्हन' तो धरम राकेश जी 'तीन करोड़ का आदमी' पेश करते हैं।
'तीन करोड़ का आदमी' ही क्यों, विनय प्रभाकर तो 'दस करोड़ की विधवा' और 'पाँच करोड़ का कैदी 'नब्बे करोड़ की लाश' और 'सात करोड़ का मुर्गा' जैसे उपन्यास ले आये थे।
अब पता नहीं विनय प्रभाकर को लाश और करोड़ो की सख्या से इतना प्रेम क्यों था। इसलिए तो ये 'दस करोड़ की हत्या' भी करवा देते हैं। इतनी महंगी हत्या कौन करेगा भाई, तो तुंरत उत्तर मिला वेद प्रकाश वर्मा जी की ओर से 'कत्ल करेगा कानून'। अब कातिल को भी तो ढूंढना है तब सुनील प्रभाकर बोले 'घूंघट में छिपा है कातिल' तो केशव पण्डित ने कहा -'कातिल मिलेगा माचिस में'।
विनय प्रभाकर के कुछ और रोचक शीर्षक देखें- 'चूहा लड़ेगा शेर से', 'कानून का बाप'।
विनय प्रभाकर 'कानून का बाप' लिखते हैं तो केशव पण्डित इसका जबरदस्त उत्तर देते नजर आते हैं। केशव पण्डित लिखते हैं 'कानून किसी का बाप नहीं'। तो फिर बाप कौन है, आप भी गौर कीजिएगा- 'मेरा बेटा सबका बाप' है।(वेदप्रकाश शर्मा)
अगर सबसे रोचक नाम की बात करें तो मेरे विचार से वे केशव पण्डित सीरीज के उपन्यासों के होते थे। केशव पण्डित के कुछ रोचक शीर्षक थे जैसे- 'कानून किसी का बाप नहीं, सोलह साल का हिटलर, टुकड़े कर दो कानून के, चींटी लड़ेगी हाथी से, अंधा वकील गूंगा गवाह, डकैती एक रूपये की, श्मशान में लूंगी सात फेरे, हड्डियों से बनेगा ताजमहल'।
इतने रोचक शीर्षक पाठक को जबरदस्त अपनी तरफ खीच लेते हैं। कहानी चाहे इनमें कैसी भी हो लेकिन शीर्षक एक दम नया होता था।
शीर्षक 'डकैती एक रूपये की' (केशव पण्डित) देखकर पाठक एक बार अवश्य सोचेगा की आखिरी एक रुपये की डकैती क्यों?
ऐसे ही मिलते-जुलते शीर्षक 'एक रुपये की डकैती' से अनिल मोहन जी का भी उपन्यास आया था। तो अमित खान को भी कहना पड़ा 'एक डकैती ऐसी भी'।
यहाँ तो अनिल मोहन जी के राज में 'एक दिन का हिटलर', भी मिलता है जो कहता है 'आग लगे दौलत को', और 'आ बैल मुझे मार'।
वेदप्रकाश शर्मा जी के नाम से एक नकली उपन्यास मनोज पॉकेट से आया था जिसका नाम 'नाम का हिटलर' था। वेद जी ने 'आग लगे दौलत को' और 'आ बैल मुझे मार' शीर्षक से भी लिखा। इनका एक और उपन्यास था 'लाश कहां छुपाऊं'।
आखिर लाश छुपाने की जरुरत क्यों पड़ गयी। क्योंकि एक बार सुनील प्रभाकर ने बता दिया की 'मुर्दे भी बोलते हैं'। जब इंस्पेक्टर गिरीश को इस बात का पता चला की 'बोलती हुयी लाशें' भी पायी जाती हैं तो वो भी लाश के पास जा पहुंचे जिसे देखकर राज भी चिल्लाये की 'लाश बोल उठी'। इसी लाश के चक्कर में तो उलझकर नवोदित लेखक अनुराग कुमार जीनियस 'एक लाश का चक्कर' लिख गये।
नये लेखक कंवल शर्मा तो इसी लिये जाने जाते हैं की उनके उपन्यासों के शीर्षक में एक अंक अवश्य होता हैं। वन शाॅट, सैकण्ड चांस, टेक थ्री, कैच फाॅर आदि।
इस मामले में राकेश पाठक भी अग्रणी रहे। इनके शीर्षक इतने गजब होते थे कसम से उपन्यास छोड़ कर बंदा शीर्षक ही पढता रहे। आप भी वाह! वाह करे बिना न रहेंगे। 'थाना देगा दहेज, चूहा लङेगा शेर से, मुर्दा कत्ल करेगा, कौन है मेरा कातिल, इच्छाधारी नेता'। सब एक से बढकर एक नाम हैं।
राजा पॉकेट बुक्स के लेखक हरियाणा निवासी J.K. शर्मा जिन्होंने टाइगर के छद्म नाम से उपन्यास लिखे उनका उपन्यास था 'इच्छाधारी अम्मा'। वेदप्रकाश शर्मा के दो और गजब शीर्षक है। 'वो साला खद्दर वाला', 'अपने कत्ल की सुपारी'।
गौरी पण्डित कहती है 'पगली मांगे पाकिस्तान', अब पाकिस्तान तो मांगने से मिलेगा नहीं तो केशव पण्डित 'बारात जायेगी पाकिस्तान' ले चले। अब ऐसी बारात में जायेगा कौन तो सुरेन्द्र मोहन पाठक बोले यह तो 'चोरों की बारात' होगी लेकिन इसमें 'एक थप्पड़ हिंदुस्तानी'(VPS) भी होगा।
रवि पॉकेट बुक्स से गौरी पण्डित के उपन्यासों के शीर्षक भी गजब थे- मुर्दा बोले कफन फाड़ के सब साले चोर हैं, आओ सजना खेले खुन-खून, गोली मारो आशिक को।
यह गोली सिर्फ आशिक तक सीमित नहीं रहती प्रेम कुमार शर्मा तो कहते हैं 'देखो और मार दो'।
सुरेश साहिल 'किराये का पति' का पति पेश करते हैं, जिसे रेणू 'दो टके का सिंदूर' कहती है, आखिर यह किराये का पति कितने दिन चलेगा। इसका उत्तर गोपाल शर्मा 'सात दिन का पति' में देते हैं। यहाँ पति ही सात दिन का नहीं बल्कि 'तीन दिन की दुल्हन'(विनय प्रभाकर) भी उपस्थिति है।
कोई तो चिल्ला -चिल्ला कर कह रहा है- 'मैं विधवा हूँ'(विनय प्रभाकर) तो सुनील प्रभाकर और भी जबरदस्त बात कहते हैं, वे तो इसे 'बिन ब्याही विधवा' कहते हैं, इनका साथ धरम राकेश 'अनब्याही विधवा' कहकर देते हैं। रानू कहते हैं यह तो 'कुंवारी विधवा' है। लेकिन इसका प्रतिवाद सत्यपाल 'कुंवारी दुल्हन' कह कर करते हैं। राजहंस तो इसे 'अधूरी सुहागिन' कह कर पीछे हट जाते हैं, किसी ने पूछा 'अधूरी सुहागिन' कैसे तो अशोक दत्त ने 'दुल्हन एक रात की' कहकर उत्तर दिया। लेकिन मनोज इसे 'दो सौ साल की सुहागिन' कह कर मान बढाते हैं।
यह आवश्यक नहीं की ये शीर्षक सभी को आकृष्ट करें। पाठक विकास नैनवाल जी कहते हैं- अतरंगी शीर्षक ध्यान आकृष्ट करने में सफल होते हैं लेकिन ये एक वजह भी है जिससे हिन्दी अपराध साहित्य को हेेय दृष्टि से देखा जाता है। हो सकता है 90 के दशक में ये चलन रहा हो लेकिन मेरा मानना रहा है कि शीर्षक कहानी के अनुरूप होना चाहिए। अब शॉक वैल्यू का जमाना गया। मैंने अनुभव किया है कि कई मर्तबा लोग इन शीर्षकों के वजह से ही ये धारणा मन में बना लेते हैं कि किताब का स्तर कम होगा।
अरे यार अभी एक नाम तो रह ही गया। सबसे अलग, सबसे जुदा, सबसे रोचक और सबसे हास्य अगर शीर्षक हैं तो वह है माया पॉकेट बुक्स की लेखिका 'माया मैम साब' के उपन्यासों के।
इनके उपन्यासों के शीर्षक जैसे शायद ही किसी और लेखक ने दिये हों। 'बिल्ली बोली म्याऊँ, मैं मौत बन जाऊं', 'मुर्गा बोला कुक्कडू कूं, मुर्दा जी उठा क्यूं', और 'कौआ बोला काऊं-काऊं, मैं करोड़पति बन जाऊं'।
क्यों जनाब अब तो आप मानते हैं ना हिंदी जासूसी साहित्य के उपन्यासों के शीर्षक कितने रोचक और दिलचस्प रहे हैं।
अगर आपको कुछ ऐसे ही रोचक शीर्षकों की जानकारी है तो देर किसी बात की कमेंट बाॅक्स आपके लिए ही है। आप भी लिख दीजिएगा कुछ रोचक उपन्यासों के शीर्षक।
आया कुछ समझ में, अगर समझ में नहीं आया तो 'अभिमन्यु पण्डित' से आशीर्वाद लीजिए और बोलिए 'रावण शरणम् गच्छामि'।
--- विज्ञापनचंदर
चंदर जासूसी उपन्यास जगत का एक प्रसिद्ध नाम हैं। इनके उपन्यास जासूसी होते थे।
चंदर के नाम से जो उपन्यास प्रकाशित होते थे, वे संयुक्त लेखन था। श्री आनंदप्रकाश जैन और उनकी धर्मपत्नी चंद्रकांता दोनों संयुक्त रूप से लेखन करते थे। इनके उपन्यास 'चंदर' नाम से प्रकाशित होते रहे हैं।
चंदर जी 'भोला शंकर सीरीज' से उपन्यास लिखते थे।
चंदर के उपन्यास
(कुछ उपन्यासों कर लिंक दिये हैं, संबंधित नाम पर क्लिक करें।)
चंदर चंदर का परिचय
1. गरम गोश्त के सौदागर
2. नीले फीते का जहर
3. तरंगों के प्रेत
4. पीकिंग की पतंग
5. चीनी षड्यंत्र
6. चीनी सुंदरी
7. मौत की घाटी में
8. डबल सीक्रेट एजेंट 001/2
9. प्यार का तूफान
10. बिजली के बेटे 001/2
11. प्लास्टिक की औरत
12. रह जा री हरजाई
13. तोप के गोले
क्रम संख्या 01-13 तक के सभी उपन्यास अप्रेल 1971 ई. तक प्रकाशित हो चुके थे।
14. मौत के चेहरे
15. अदृश्य मानव
16. शह और मात
17. प्रेत की परछाई
18. जहरीले पंजे ( भोलाशंकर सीरिज)
19. जहर की बुझी
20. किराये के हत्यारे (किराये के हत्यारे -समीक्षा)
21. रूस की रसभरी (प्रथम भाग)
22. हथकड़ियों की आँखें (द्वितीय भाग)
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1. डबल सिक्रेट एजेंट 001/2
2. बिजली के बेटे 001/2
3. तोप के गोले 001/2
4. आफत के परकाले 001/2
5. एटम बम 001/2
6. प्लास्टिक की औरत
7. प्यार का तूफान
8. ढोल की पोल (संपादित)
9. रह जा री हरजाई
10. जाली टकसाल
11. ब्लैक दिसंबर
12. बुत का खून
13. चंदर की चक्कलस (चुटकुले)
14. भटके हुए
15. शह और मात
16. जहरीले पंजे
17. शनी की आँखे
18. मौत के पंजे
19. जमाई लाल
20. नवेली
21. रुपघर की रुपसी
22. मौतघर
23. चलते पुर्जे 001/2
24. रसीली
क्रम 01-24 तक के उपन्यास 'चंदर पॉकेट बुक्स' से प्रकाशित है।
25. नीले फीते का जहर
26. फरार
27. तरंगों के प्रेत
28. पीकिंग की पतंग
29. चीनी षड्यंत्र
30. चीनी सुंदरी
31. मौत की घाटी में
32. प्रेत की परछाई
33. मौत के चेहरे
34. गरम गोश्त के सौदागर. सुबोध पॉकेट बुक्स
35. खून के खिलाड़ी सुबोध पॉकेट बुक्स
36. किराये के हत्यारे - सुबोध पॉकेट बुक्स
उपन्यास शृंखला
वैज्ञानिक जासूस गोपालशंकर की बेहतरीन शृंखला
- चांद की मल्का
- मकड़ सम्राट
- पांच पुतले
- खून पीने वाले
- काला रत्न
- अंतरिक्ष के हत्यारे
भूखे भेड़ियेखजाने का सांप
बुधवार, 12 दिसंबर 2018
अनिल सलूजा
कुमार मनेष
कुमार मनेष 'तूफान- विक्रांत' सीरीज के उपन्यास लिखते थे।
मनेष जैन |
1. पहला हैवान
2. दूसरा हैवान
3. तीसरा हैवान
4. हैवानों का शहंशाह
5. सौदा मौत का
6. शिकार शिकारी का
मंगलवार, 11 दिसंबर 2018
अमित
अमित के उपन्यास
1. इंसाफ
2. टूटे सपने
3. रास्ते का पत्थर
4. छोटे ठाकुर
5. बुझते चिराग
6. सगा भाई
7. बदनाम सीता
8. खूनी गुलाब
उक्त लेखक के विषय में अगर कोई किसी भी प्रकार की जानकारी हो तो अवश्य शेयर करें।
- sahityadesh@gmail.com
धन्यवाद।
मंगलवार, 4 दिसंबर 2018
अभिमन्यु पण्डित
अभिमन्यु पण्डित 'केशव पण्डित' सीरिज लिखते थे। ये रवि पॉकेट बुक्स से प्रकाशित हैं।
अभिमन्यु पण्डित के उपन्यास
1. अभिमन्यु का चक्रव्यूह (प्रथम उपन्यास)
2. तू बंदर मैं लंगूर. (द्वितीय उपन्यास)
3.रावण शरणम् गच्छामि
4. केशव पुराण
बुधवार, 28 नवंबर 2018
काम्बोज जी- पाठक जी
वेदप्रकाश कंबोजी जी और सुरेन्द्र मोहन पाठक।
बचपन के मित्र। एक बार फिर साथ-साथ।
29.11.2018
मंगलवार, 27 नवंबर 2018
राम-रहीम
दीपक पालेकर
शनिवार, 24 नवंबर 2018
2. साक्षात्कार- इकराम फरीदी
मंगलवार, 20 नवंबर 2018
घनश्याम मालाकार
एक फोन वार्ता के दौरान लेखक महोदय मे बताया की अभी तक उनका यही एक मात्र उपन्यास बाजार नें आया है। (23.11.2018)
घनश्याम मालाकार जी के उपन्यास
1. खूनी खिलाड़ी -2011 (प्रथम उपन्यास)
संपर्क-
घनश्याम मालाकार
गायत्री कालाॅनी, बैड़िया
तह.- बड़वाह,
जिला-खरगोन, मध्य प्रदेश
Email- malakarghnshyam@yahoo.com
Mob- 9826047608, 9039004496
अनिल राज
अनिल राज के उपन्यास
अनिल राज - दुर्गेश पॉकेट बुक्स
1. नींव में भरा बारूद- अमर सिंह सीरिज
2. भून दो सालों को- अमर सिंह सीरिज
3. एडवांस मर्डर- एन.के. अग्रवाल सीरिज
4. हादसों के बीच- थ्रिलर
5. भुनगा- अमर सिंह सीरिज
6. ब्लैक हाउस- अमर सिंह सीरिज
7. दो पल की दुल्हन- एन. के अग्रवाल
8. हत्या एक मुजरिम की- थ्रिलर उपन्यास
9. लिफाफे में बदं मौत- एन. के. अग्रवाल
10. लूटकाण्ड- थ्रिलर
दुर्गेश पॉकेट बुक्स- SS II 1444, सेक्टर-D-1,
LDA, कॉलोनी, लखनऊ-12,
Mob- 9793102780
अनिल राज के विषय में कहीं से कोई सूचना मिले तो अवश्य संपर्क करें।
धन्यवाद।
-sahityadesh@gmail.com
www.sahityadesh.blogspot.in |
सोमवार, 19 नवंबर 2018
विजेता पण्डित
वेदप्रकाश शर्मा का प्रसिद्ध पात्र था केशव पण्डित । जिस पर वेदप्रकाश शर्मा ने ...उपन्यास लिखे थे। एक लंबे समय पश्चात वेदप्रकाश शर्मा के पुत्र 'शगुन शर्मा' के नाम से जो उपन्यास बाजार में आये उसमें 'केशव पण्डित' के पुत्र 'विजेता' को एक नायक के रूप में प्रस्तुत किया गया। 'विजेता' की लोकप्रियता देखकर बाजार में 'विजेता पण्डित' नामक Ghost writer भी आ गये ।
यह प्रकाशक....की देन थी।
- विजेता पण्डित के उपन्यास
1. मैं बेटा तूफान का
2.
3.
4.
5.
शुक्रवार, 16 नवंबर 2018
प्रकाश पण्डित
केशव पण्डित एक Ghost writing का कमाल है। इसकी लोकप्रियता को देखकर अनेक प्रकाशक 'पण्डित' नाम से Ghost writing करवाने लगे।
प्रकाश पण्डित भी ऐसी ही एक Ghost writing का कमाल है।
धीरज पॉकेट बुक्स-
केशव पण्डित के उपन्यास
मंगलवार, 13 नवंबर 2018
किस्सा ओमप्रकाश का
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प्रिय पाठकों, लिटरेचर लाइफ गु्रप पर 12 नवम्बर, सन् 2018 ई. को दो मित्रजनों की पोस्टें पढ़ीं। उस पोस्ट पर उन्होंने ओम प्रकाश शर्मा (जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा पर भ्रामक टिप्पणियां कर, जासूसी उपन्यास जगत के 40-50 की वय के पाठकों को भ्रामक जानकारियां देकर दिवंगत लेखक पर आक्षेप लगाए। मैं उन्हें पूरी तरह नकारते हुए जानकारियां दुरुस्त कराने का प्रयास कर रहा हूं। ओम प्रकाश शर्मा (बाद में जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा) और वेद प्रकाश काम्बोज का मैं सन् 1958 ई. से पाठक रहा हूं। हो सकता कुछ महीने पूर्व से उनका लेखन पाठकों के बीच आ गया हो। ये लेखक द्वय, मासिक पत्रिकाओं में लिखा करते थे। (नाॅवल) लेखन की शर्त मासिक पत्रिका प्रकाशक की हर माह नाॅवल देने की होती थी। 112 पेजेज और 27 लाइनों में नाॅवल होते थे, (मूल्य 75 पैसे।) अतः सरलता से हफ्ता-दस में लिखे जा सकते थे।
ओम प्रकाश शर्मा के 450 के आसपास उपन्यास, और 900 के आसपास नकली उपन्यासों को मिलाकर संख्या बतायी गयी है। पाठक द्वय द्वारा। प्रश्न उठाया कि 450 उपन्यास कैसे लिखे जा सकते हैं? आक्षेपित किया कि ओम प्रकाश ने नकली उपन्यास ओम प्रकाश शर्मा के नाम से लिखे-लिखाए।
इस संदर्भ में जानकारी देता हूं कि मेरे सन् 1968-70 के बीच दिल्ली प्रवास के बीच, एक ऐसी घटना घटी जिसने जासूसी उपन्यासकारों के नाम पर भूचाल ला दिया, जो सन् 2000 तथा बाद तक अपना पूरे असर में रहा; जब तक कि जासूसी उपन्यासों की सेल, ढलान पर न आ गयी। हुआ यूं कि उक्त अवधि 1968-70 के बीच, कूचा चेलान, दरियागंज, दिल्ली-6, निवासी एक ओम प्रकाश शर्मा नामधारी सज्जन जो लिखने का शौक रखते थे, उनसे एक प्रकाशक ने, कानूनी सलाह लेकर राजेश, जयन्त, जगत, तारा आदि पात्रों सहित जासूसी उपन्यास लिखाया। ओम प्रकाश शर्मा के नाम से छपा। बेचा।
नोट-उस समय तक पिछले दस वर्षों से लिखते आ रहे ओम प्रकाश शर्मा के दस वर्षों में प्रतिमाह नावल, 10×12=120 मार्केट में आ चुके थे। पाठक उनकी शैली पहचानते थे। बाद में आये ओम प्रकाश शर्मा की शैली में अंतर पकड़कर शिकायतें लिखकर भेजी गयीं। पूर्व के ओम प्रकाश शर्मा ने प्रकाशक का साथ पाकर बाद वाले ओम प्रकाश शर्मा पर मुकदमा किया। अदालती पेशियां पड़ीं। बाद वाले ओम प्रकाश शर्मा मुकदमा चलने के दौरान कई उपन्यास मार्केट में उतार चुके थे। (नोट-मैं उन्हें नकली ओम प्रकाश शर्मा न लिखूंगा, क्योंकि अदालत में नहीं माना) बाद वाले ओम प्रकाश शर्मा के वकील ने अदालत में साबित कर दिया कि उनके मुवक्किल का नाम ओम प्रकाश शर्मा हैं। उन्हें अपने नाम से लिखने-छपने का मौलिक अधिकार है। अदालत ने यह दलील स्वीकार की। पूर्व वाले ओम प्रकाश शर्मा ने उपन्यास के पात्रों को लेकर विरोध रखा, बाद वाले ओम प्रकाश शर्मा के वकील ने अदालत को दलील देते हुए कहा कि राम, सीता, गीता, राजेश, जयन्त, तारा नाम देश के हजारों लोगों के हो सकते हैं, चूंकि पात्र समाज के नामों से ही उठाए जाते हैं, अतः इस अधिकार को भी नहीं छीना जा सकता।
बहरहाल बाद वाले ओम प्रकाश शर्मा ने मुकदमा जीता। अदालत ने अपनी सलाह दी कि नाम के साथ कुछ और आगे-पीछे लगाकर नाम की भ्रामक स्थिति को लेखक स्वयं साफ करें। पूर्व वाले ओम प्रकाश शर्मा ने अपने लिए ‘जनप्रिय लेखक’ नाम रजिस्टर्ड कराया। जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा के नाम से नावल, फोटोयुक्त आने लगे।
तो दोस्तों, इस तरह आगे, ओम प्रकाश शर्मा नाम के साथ नाॅवलों के छपने का सिलसिला शुरू हुआ तो महीने में दिल्ली-मेरठ से 50-60 उपन्यास आने लगे। जिनकी संख्या समीक्षक द्वय ने 900 लिखी वे कई हजार में है जिन्हीं अब नकली कहने में परहेज नहीं।
जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा के 450 उपन्यास पर सवाल उठाने वालों को ध्यान में लाना आवश्यक है कि पूर्व में 120 उपन्यास की बात 10 वर्षों में मैंने लिखी, अगले 30 वर्षों को और जोड़ लीजिए 68 से 98 जबकि उपन्यास लेखन-पाठन का स्वर्णिम काल था तो 30×12=360़120=480 उपन्यास बनते हैं। कुछ अपवाद स्वरूप समय में न लिखा तो तीस की संख्या घटकर 450 रह जाती है। जो अक्षरशः सही है। जनप्रिय ओम प्रकाश ने कभी नकली नाॅवल नहीं लिखा। उन्हें जब एक उपन्यास के प्रथम एडिसन की रायल्टी दस हजार रुपये मिलते थे तब नकली ओम प्रकाश शर्मा पाण्डुलिपि लिखने वाले लेखक, 60-100 रुपये के बीच पारश्रमिक पाते थे। सहज में समझ में आने वाली बात है कि 10,000 रुपये एक प्रिण्ट के लेने वाला लेखक 60-100 रुपये में नाॅवल नकली क्यों लिखेगा? एक बालक बुद्धि की भी समझ में यह बात नहीं आने वाली।
ओम प्रकाश शर्मा नाम के जाली उपन्यासों की संख्या 900 में नहीं 9,000 से ऊपर हो सकती है।
जनप्रिय ओम प्रकाश के साथ मैंने वेद प्रकाश काम्बोज के नाम को भी खास मकसद से लिखा है। सन् 1974-75 में वेद प्रकाश शर्मा जी जब लेखन क्षेत्र में आये तो अदालती फैसले को निगाह में रखते हुए वेद प्रकाश काम्बोज के पात्रों विजय-रघुनाथ को लेकर लेखन की शुरूआत की। उन्होंने मेहनत की कामयाबी के झण्डे गाड़े। पर न भूलना चाहिए कि शुरूआती दिनों में वेद प्रकाश काम्बोज और विजय-रघुनाथ सीरीज के नाम की गुडविल शामिल थी।
-आबिद रिजवी
8218846970
दिनांक-13 नवम्बर, 2018
ओमप्रकाश शर्मा- एक रोचक किस्सा
अरे! मैं भी भूल गया भाई। ओमप्रकाश भी तो दो हैं ना अब आप कहां भटक गये।
जगन, जगत, पचिया, बंदूक सिंह जैसे पात्रों को लिखने वाले ओमप्रकाश शर्मा।
अब भी नहीं पहचाने तो अब हम बोल देते हैं जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा।
अच्छा अब पहचाना है।
तो मित्रों कोई लेखक अपने पहले उपन्यास से तो जनप्रिय होता नहीं इसलिए उसे जनप्रिय बनने के लिए कुछ ऐसा लिखना होगा की वह वास्तव में जनप्रिय बन सके।
और इन्होंने ऐसा ही लिखा की पाठक इनके उपन्यास का इंतजार करते रहते थे।
इनकी लोकप्रियता इस कदर थी की उपन्यास जगत में एक और ओमप्रकाश शर्मा आ गये।
अब दो ओमप्रकाश शर्मा।
अब पाठक किसे पढे।
कौन असली- कौन नकली।
इस असली- नकली की लङाई में पाठक भटकता रहता है।
हालांकि नकली किसी को भी नहीं कहा जा सकता।
अब दोनों ओमप्रकाश शर्मा।
तो मित्रों प्रथम ओमप्रकाश शर्मा इस बात को लेकर अदालत पहुंच गये की मेरे नाम से कोई और लेखन कर रहा है जिसके कारण पाठक से धोखा हो रहा है।
अदालत में द्वितीय ओमप्रकाश शर्मा को बुलाया गया।
तो द्वितीय ओमप्रकाश शर्मा ने कहा, -" महोदय मेरा वास्तविक नाम ओमप्रकाश शर्मा है और में भी एक लेखक हूँ । क्या एक नाम से दो लेखक नहीं हो सकते।"
अब जज महोदय ने प्रथम ओमप्रकाश शर्मा जी से कहा , " आप दोनों ही ओमप्रकाश शर्मा हो। इसलिए किसी को लेखन से मना तो नहर किया जा सकता। अतः आप अपने उपन्यास पर अपना चित्र प्रकाशित कीजिएगा।"
ओमप्रकाश शर्मा की तरफ से फिर आपत्ति आयी, कि जब द्वितीय ओमप्रकाश शर्मा भी अपना चित्र लगाना आरम्भ कर देंगे तो पाठक फिर भ्रमित होगा।"
न्यायाधीश ने कहा, -" चलो, फिर आप अपने नाम के आगे- पीछे कोई उपाधि या उपनाम लगा लो।"
यहाँ मामला कुछ जचा।
काफी सोच-विचार के बाद ओमप्रकाश शर्मा जी ने अपने नाम के आगे जनप्रिय लेखक लगाना आरम्भ किया।
इस प्रकार जनता के प्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा से जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा बन गये।
सोमवार, 12 नवंबर 2018
लेखक मित्र
दिल्ली यात्रा के दौरान 3.11.2018 को लेखकगण के साथ।
1. वेदप्रकाश कंबोज
2. इकराम फरीदी
3. कंवल शर्मा
4. वेदप्रकाश कंबोज जी और इकराम फरीदी जी
शनिवार, 10 नवंबर 2018
आदर्श -मनोरंजन साहित्य- संतोष पाठक
मेरा निजी ख्याल है कि मुख्यधारा के साहित्य और लुग्दी साहित्य को ‘आदर्श साहित्य‘ और ‘मनोरंजक साहित्य‘ के नाम से जाना जाना चाहिए। उक्त दोनों नाम ऐसे हैं जो दोनों को तत्काल अलग अलग कर देने में पूरी तरह सक्षम हैं।
इससे दोनों की अपनी निजी पहचान कायम होती है, जो कि उनके बारे में बात करते वक्त सहज ही समझ में आ जाती है कि बात आखिर हो किसकी रही है।
वैसे भी अब लुग्दी, लुग्दी ना रहा, वो तो इम्पोर्टेड पेपर पर छपने लगा है, फिर क्यों हम आज भी उसे लुग्दी के नाम से ही संबोधित करते रहें।
अब मैं मुख्य मुद्दे पर आता हूं। किसने क्या पढ़ा और किसने क्या नहीं पढ़ा! किसे कौन सा लेखक पसंद है और किसे कौन सा लेखक पढ़ने के काबिल ही नहीं लगता! ये बात कोई मायने नहीं रखती इसलिए इसे बहस का मुद्दा बनाना ही बेकार है।
अब बात आती है आदर्श साहित्य का आज के दौर में कम पाॅपुलर होना, तो जनाब जरा सोचकर देखिए, एक बच्चा जिसे प्ले स्कूल में ही क से कबूतर की बजाय ए फाॅर एप्पल का ज्ञान दिया जाने लगता है, वो क्या जीवन में कभी कंकाल, कामायनी, आधा गांव, धरती धन न अपना, से लेकर आज के दौर में शह और मात, एक इंच मुस्कान, फिजिक्स कैमेस्ट्री और अलजबरा, आवान इत्यादि किताबों के साथ जुड़ पायेगा। जुड़ेगा तो कैसे जुड़ेगा? सच्चाई तो ये है कि इन या इनके जैसी हजारों की तादात में लिखी जा चुकी रचनायें उसके सिर के ऊपर से गुजर जायेगी। इसलिए गुजर जायेगी क्योंकि उसे पढ़ने के हिंदी का जो ज्ञान अनिवार्य है उससे वो वंचित होगा। मैंने जब फिजिक्स कैमेस्ट्री और अलजबरा नामक कहानी पढ़ी थी तो उसके मर्म तक पहुंचने के लिए उसे तीन बार पढ़नी पड़ी थी जबकि मैं उस दौर में हिंदी साहित्य से ना सिर्फ एमए कर रहा था बल्कि हिंदी अकादमी द्वारा उत्कृष्ट कथा लेखन के सम्मानित किया जा चुका था। तीन बार इसलिए पढ़ी क्योंकि मेरे मन में कहीं ना कहीं ये बात जरूर थी ‘हंस‘ जैसी पत्रिका में छपी कोई कहानी निरउद्देश्य हरगिज भी नहीं हो सकती थी। यही हाल राजेंद्र यादव जी के शह और मात के साथ हुआ।
कहने का तात्पर्य ये कोई कहानी या पुस्तक सिर्फ इसलिए हेय नहीं हो जाती क्योंकि वो हमारी समझ से बाहर है, उल्टा ये उसकी उत्कृष्टता को दर्शाता है। जाहिर सी बात है एक पीएचडी कर चुका लेखक जब कुछ लिखेगा तो उसकी बातों के मर्म तक पहुंचने के लिए हमें कम से कम एमए की उपाधि तो हासिल होनी ही चाहिए। यही वजह है कि आदर्श साहित्य की कई एक पंक्तियां ऐसी निकल आती हैं जिनका अर्थ तलाशने की कोशिश में कई कई पन्ने भर दिये जाते हैं।
आदर्श साहित्य भाषा के साथ-साथ, समाज को उन्नति प्रदान करता है। वो समाज की कुरीतियों उसकी खमियों के विरूद्ध आवाज बुलंद करता है। वो लगातार समाज को एक नई दिशा देने की कोशिश में लगा रहता है। वो ठीक वैसी ही जिम्मेदारी निभाता है जैसा बाॅर्डर पर खड़ा एक सैनिक निभाता है। बस दोनों का कार्यक्षेत्र अलग होता है दोनों अपने अपने स्तर पर अपने कर्म को अंजाम देते हैं।
ऐसे में मनोरंजक साहित्य को उसकी तुलना में खड़ा कर देना क्या सूरज को मोमबत्ती से कंपेयर करने जैसा नहीं होगा।
सच्चाई यही है कि मनोरंजक साहित्य लेखक को समृद्ध कर सकता है, पाठक को चार-पांच घंटे का मनोरंजन प्रदान कर सकता है। वो भाषा के सैकड़ों नये पाठक पैदा कर सकता है, मगर सामाजिक स्तर पर उसका योगदान नागण्य ही होता है। ऐसा ही फिल्मों के साथ होता है। जरा परेश रावल जी की फिल्म रोड टू संगम देखिए और फिर आक्रोश देखिए। फिर हेरा फेरी देखिए, दोनों में आपको आदर्श साहित्य और मनोरंजक साहित्य जैसा ही अंतर देखने को मिलेगा। बीच में कुछ फिल्में ओ माई गाॅड जैसी भी आ जाती हैं, जिसमें मनोरंजन के साथ-साथ एक खास उद्देश लिए हुए होती हैं। हो सकता है हममें से कुछ लोगों ने ‘रोड टू संगम‘ देखा भी ना हो, या घर पर देखते वक्त बीच में ही छोड़ दिया हो। मगर इसका मतलब ये हरगिज भी नहीं है कि फिल्म अच्छी नहीं थी! हां कमाई के लिहाज से फिल्म निचले पायदान पर ही रही और उसने रहना भी था।
अगर हम ये समझते हैं कि आदर्श साहित्य का कोई लेखक मनोरंजक साहित्य नहीं लिख सकता इसलिए वो आदर्श साहित्य से पल्ला नहीं झाड़ पाता तो इससे बढ़कर कोई अहमकाना बात हो ही नहीं सकती।
अंत में सिर्फ इतना कहूंगा कि आदर्श साहित्य के सामने मनोरंजक साहित्य उद्देश के मामले में सूरज के आगे दीपक जैसा ही है।
बहरहाल ये मेरी निजी सोच है, इससे आप सभी महानुभावों में से किसी एक का भी सहमत होना कतई जरूरी नहीं है। क्योंकि हर पाठक के पास एक अलग किस्म का तराजू होता है जिसपर वो किसी रचना या उसके लेखक को तौलता है, तौलकर उससे हासिल का अंदाजा लगाता है और ये फैसला करता है कि भविष्य में उसे उक्त लेखक की किसी रचना को पढ़ना है या नहीं पढ़ना।
बावजूद उपरोक्त बातों के मुझे ये स्वीकार करने में कोई झिझक नहीं कि क्राइम फिक्शन मेरा पसंदीदा विषय है। पढ़ने के लिए भी और लिखने के लिए भी।
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लेखक- संतोष पाठक
संतोष जी मूलतः उपन्यासकार हैं। इनके कई उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं।
संतोष पाठक जी के संबंध में जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें। संतोष पाठक
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