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शनिवार, 10 नवंबर 2018

आदर्श -मनोरंजन साहित्य- संतोष पाठक

आदर्श साहित्य बनाम मनोरंजक साहित्य - संतोष पाठक

मेरा निजी ख्याल है कि मुख्यधारा के साहित्य और लुग्दी साहित्य को ‘आदर्श साहित्य‘ और ‘मनोरंजक साहित्य‘ के नाम से जाना जाना चाहिए। उक्त दोनों नाम ऐसे हैं जो दोनों को तत्काल अलग अलग कर देने में पूरी तरह सक्षम हैं।
              इससे दोनों की अपनी निजी पहचान कायम होती है, जो कि उनके बारे में बात करते वक्त सहज ही समझ में आ जाती है कि बात आखिर हो किसकी रही है।
वैसे भी अब लुग्दी, लुग्दी ना रहा, वो तो इम्पोर्टेड पेपर पर छपने लगा है, फिर क्यों हम आज भी उसे लुग्दी के नाम से ही संबोधित करते रहें।
                  अब मैं मुख्य मुद्दे पर आता हूं। किसने क्या पढ़ा और किसने क्या नहीं पढ़ा! किसे कौन सा लेखक पसंद है और किसे कौन सा लेखक पढ़ने के काबिल ही नहीं लगता! ये बात कोई मायने नहीं रखती इसलिए इसे बहस का मुद्दा बनाना ही बेकार है।
                     अब बात आती है आदर्श साहित्य का आज के दौर में कम पाॅपुलर होना, तो जनाब जरा सोचकर देखिए, एक बच्चा जिसे प्ले स्कूल में ही क से कबूतर की बजाय ए फाॅर एप्पल का ज्ञान दिया जाने लगता है, वो क्या जीवन में कभी कंकाल, कामायनी, आधा गांव, धरती धन न अपना, से लेकर आज के दौर में शह और मात, एक इंच मुस्कान, फिजिक्स कैमेस्ट्री और अलजबरा, आवान इत्यादि किताबों के साथ जुड़ पायेगा। जुड़ेगा तो कैसे जुड़ेगा? सच्चाई तो ये है कि इन या इनके जैसी हजारों की तादात में लिखी जा चुकी रचनायें उसके सिर के ऊपर से गुजर जायेगी। इसलिए गुजर जायेगी क्योंकि उसे पढ़ने के हिंदी का जो ज्ञान अनिवार्य है उससे वो वंचित होगा। मैंने जब फिजिक्स कैमेस्ट्री और अलजबरा नामक कहानी पढ़ी थी तो उसके मर्म तक पहुंचने के लिए उसे तीन बार पढ़नी पड़ी थी जबकि मैं उस दौर में हिंदी साहित्य से ना सिर्फ एमए कर रहा था बल्कि हिंदी अकादमी द्वारा उत्कृष्ट कथा लेखन के सम्मानित किया जा चुका था। तीन बार इसलिए पढ़ी क्योंकि मेरे मन में कहीं ना कहीं ये बात जरूर थी ‘हंस‘ जैसी पत्रिका में छपी कोई कहानी निरउद्देश्य हरगिज भी नहीं हो सकती थी। यही हाल राजेंद्र यादव जी के शह और मात के साथ हुआ।
कहने का तात्पर्य ये कोई कहानी या पुस्तक सिर्फ इसलिए हेय नहीं हो जाती क्योंकि वो हमारी समझ से बाहर है, उल्टा ये उसकी उत्कृष्टता को दर्शाता है। जाहिर सी बात है एक पीएचडी कर चुका लेखक जब कुछ लिखेगा तो उसकी बातों के मर्म तक पहुंचने के लिए हमें कम से कम एमए की उपाधि तो हासिल होनी ही चाहिए। यही वजह है कि आदर्श साहित्य की कई एक पंक्तियां ऐसी निकल आती हैं जिनका अर्थ तलाशने की कोशिश में कई कई पन्ने भर दिये जाते हैं।
                  आदर्श साहित्य भाषा के साथ-साथ, समाज को उन्नति प्रदान करता है। वो समाज की कुरीतियों उसकी खमियों के विरूद्ध आवाज बुलंद करता है। वो लगातार समाज को एक नई दिशा देने की कोशिश में लगा रहता है। वो ठीक वैसी ही जिम्मेदारी निभाता है जैसा बाॅर्डर पर खड़ा एक सैनिक निभाता है। बस दोनों का कार्यक्षेत्र अलग होता है दोनों अपने अपने स्तर पर अपने कर्म को अंजाम देते हैं।
ऐसे में मनोरंजक साहित्य को उसकी तुलना में खड़ा कर देना क्या सूरज को मोमबत्ती से कंपेयर करने जैसा नहीं होगा।
               सच्चाई यही है कि मनोरंजक साहित्य लेखक को समृद्ध कर सकता है, पाठक को चार-पांच घंटे का मनोरंजन प्रदान कर सकता है। वो भाषा के सैकड़ों नये पाठक पैदा कर सकता है, मगर सामाजिक स्तर पर उसका योगदान नागण्य ही होता है।  ऐसा ही फिल्मों के साथ होता है। जरा परेश रावल जी की फिल्म रोड टू संगम देखिए और फिर आक्रोश देखिए। फिर हेरा फेरी देखिए, दोनों में आपको आदर्श साहित्य और मनोरंजक साहित्य जैसा ही अंतर देखने को मिलेगा। बीच में कुछ फिल्में ओ माई गाॅड जैसी भी आ जाती हैं, जिसमें मनोरंजन के साथ-साथ एक खास उद्देश लिए हुए होती हैं।  हो सकता है हममें से कुछ लोगों ने ‘रोड टू संगम‘ देखा भी ना हो, या घर पर देखते वक्त बीच में ही छोड़ दिया हो। मगर इसका मतलब ये हरगिज भी नहीं है कि फिल्म अच्छी नहीं थी! हां कमाई के लिहाज से फिल्म निचले पायदान पर ही रही और उसने रहना भी था।
अगर हम ये समझते हैं कि आदर्श साहित्य का कोई लेखक मनोरंजक साहित्य नहीं लिख सकता इसलिए वो आदर्श साहित्य से पल्ला नहीं झाड़ पाता तो इससे बढ़कर कोई अहमकाना बात हो ही नहीं सकती।
अंत में सिर्फ इतना कहूंगा कि आदर्श साहित्य के सामने मनोरंजक साहित्य उद्देश के मामले में सूरज के आगे दीपक जैसा ही है।
                      बहरहाल ये मेरी निजी सोच है, इससे आप सभी महानुभावों में से किसी एक का भी सहमत होना कतई जरूरी नहीं है। क्योंकि हर पाठक के पास एक अलग किस्म का तराजू होता है जिसपर वो किसी रचना या उसके लेखक को तौलता है, तौलकर उससे हासिल का अंदाजा लगाता है और ये फैसला करता है कि भविष्य में उसे उक्त लेखक की किसी रचना को पढ़ना है या नहीं पढ़ना।
बावजूद उपरोक्त बातों के मुझे ये स्वीकार करने में कोई झिझक नहीं कि क्राइम फिक्शन मेरा पसंदीदा विषय है। पढ़ने के लिए भी और लिखने के लिए भी।
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लेखक- संतोष पाठक
संतोष जी मूलतः उपन्यासकार हैं। इनके कई उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं।
संतोष पाठक जी के संबंध में जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें। संतोष पाठक

संतोष पाठक


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