साहित्य मस्तिष्क के संवाद का विषय है- सत्यपाल
साक्षात्कार श्रृंखला -11
लोकप्रिय उपन्यास साहित्य के क्षेत्र में ऐसे अनेक सितारे हुये हैं जिन्होंने अपनी कलम से उपन्यास साहित्य को अनमोल मोती प्रदान किये हैं और इस क्षेत्र में एक विशेष पहचान स्थापित की है।
साहित्य देश अपने साक्षात्कार स्तंभ में लोकप्रिय साहित्य के सामाजिक उपन्यासकार 'सत्यपाल' जी का साक्षात्कार यहाँ प्रस्तुत कर रहा है, जिसमें अपने लेखन, तात्कालिक समय और अपने उपन्यासों के संबंध में विस्तृत चर्चा की है।
सत्यपाल |
- मेरा पूरा नाम सत्यपाल चावला है। मेरा जन्म अप्रैल 1955 में एक कृषक परिवार में गाँव बनियानी, जिला रोहतक, हरियाणा, भारत में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई। तत्पश्चात परिवार दिल्ली आ गया। शेष शिक्षा दिल्ली में ही हुई। लिखने का शौक कहिए या जुनून बचपन से ही था। तुकबंदी करना छटी कक्षा से ही शुरू हो गया था। हायर सेकंडरी तक आते-आते निबंध, कहानी और मुक्त कविताएं इत्यादि भी लिखना शुरू कर दिया था। क्योंकि परिवार निम्न मध्यम वर्ग में था, माता-पिता अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे। छोटे स्तर की एक डेयरी से भरण-पोषण चलता था। मैं पढ़ने में तेज था। अपने से छोटी क्लास के बच्चों को ट्यूशन देने के कारण मेरा स्वयं का शिक्षा का आधार भी मजबूत हो जाता था और कुछ आय भी हो जाती थी। समाज के लिए उपयोगी था इसलिए मुझे प्यार ओर आदर मिलता था। स्कूलिंग के उपरान्त हालांकि मुझे पहली ही लिस्ट में दिल्ली विश्वविद्यालय के डी.ए.वी. कॉलेज में बी.काम.आनर्स में प्रवेश मिला किंतु आर्थिक एवं पारिवारिक परिस्थितियों के कारण मुझे आगे की पढ़ाई पत्राचार द्वारा करनी पड़ी। मैंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से बी.काम. कर ली। घर की तरफ से स्पष्ट आदेश था कि पहले नौकरी प्राप्त करो। और कागज़ काले (लिखना) करना बंद करो। ट्यूशन, नौकरी के लिए कम्पीटीशन, सैल्फ स्टडी और लेखन सब साथ-साथ चले। कुछ नौकरियां कुछ-कुछ दिन ही चली। स्टेट बैंक की कलैरिकल परीक्षा और साक्षात्कार उत्तीर्ण कर लिया तब लगा कि अब चैन मिला। इधर शादी भी हो गई। एक पुत्री और दो पुत्रों जन्म हुआ आज मैं रिटायर्ड हूँ। परिवार सैटल है। मैं हिन्दी में स्नातकोत्तर करना चाहता था। मैंने रिटायर होने के बाद इग्नू से हिन्दी स्नातकोत्तर प्रथम श्रेणी में पास कर लिया।
- मेरे पूर्वजों ने 1947 के भारत-पाक विभाजन के दंश को झेला था। विस्थापन की
प्रक्रिया में पूरी एक पीढ़ी खप गई। तत्पश्चात भी सम्भल गए तो समझता हूँ कि किस्मत
अच्छी ही थी। रोजी-रोटी और सिर छिपाने की जगह पहली जरूरत होती है। उसके बाद सब आता
है। मेरे परिवार या रिश्तेदारों में साहित्य लेखन अथवा पठन का कोई भी शौकीन नहीं
था। बस मैं ही था जिसे प्रभु ने कल्पना और संवेदनशीलता कुछ अधिक मात्रा में प्रदान
कर दी थी। जो घर वालों की नज़र में कागज काले करना माना जाता था इसलिए मेरा यह शौक
नितांत निजी था, स्वांत-सुखाय एवं स्वयं-प्रस्फुटित था। किसी
से चर्चित अथवा मार्गदर्शित नहीं था। सपने थे किंतु पूरी तरह नियंत्रित और दबे हुए
थे। फिल्मी दुनियाँ में जाने का सपना भी था किंतु व्यावहारिक नहीं था क्योंकि उसके
लिए बम्बई जाना अनिवार्य था, जो कि मेरे लिए आज तक सम्भव ही
नहीं हो पाया । सिर्फ इतना ही सोचता था कि यदि प्रभु ने यह कला दी है तो कभी न कभी
वह अवसर भी प्रदान करेगा।
आपने पूछा है कि मैं
किन-किन लेखको से प्रभावित रहा तो उसका उत्तर है आदरणीय श्री भगवतीचरण वर्मा।
जब मैं बी. काम. कर रहा था तब उनका एक उपन्यास चित्रलेखा पढा। अति उत्तम
श्रेणी का, इस पर शायद दो बार फिल्म भी बन चुकी है। यह उपन्यास हमारे कोर्स में
था। इस उपन्यास ने ही मुझे एक उपन्यासकार बनने का आधार प्रदान किया। प्रेमचंद की
कहानियों से बहुत प्ररेणा मिलती थी। जो भी हिंदी विषय में साहित्य पढा उसके सभी
लेखकों ने किसी न किसी रूप में मुझे पोषित और प्रभावित किया।
3. एक पाठक से एक लेखन बनने का विचार कैसे आया? कब आपने प्रथम उपन्यास लिखा और कौनसा ?
- सब को जानना भी चाहिए और मानना भी
चाहिए कि बिना गुरु के गति नहीं होती। मैं इसी खोज में था कि कोई ज्ञानी और सिद्ध
गुरु प्राप्त हो तो लिखना कुछ फलीभूत हो। प्रभु ने संयोग बनाया। सोलंकी जी से
घनिष्ठता हुई। वे हमसे दूध लिया करते थे। वेशभूषा सफेद रखते इसलिए मैं उन्हें नेता
ही समझता था। वे हमारे घर के सामने वाले मकान के प्रथम तल पर रहते थे, हमारा घर
ग्राउंड फ्लोर ही था। वे सामने से मुझे रोजाना छत पर बैठे कॉपी पर कुछ लिखते हुए
देखते तथा नोटिस करते थे। उन्होंने एक दिन मुझसे पूछ लिया भई क्या लिखते रहते हो।
मैंने कहा, 'कुछ खास नहीं।'
रिजर्व रहना तथा सामने वाले के बारे संतोषजनक जानकारी के बिना अधिक
करीब जाना यह मेरे स्वभाव में ही नहीं, अतः मैं शीघ्रता से खुलता नहीं हूँ । किंतु
वे मेरे संक्षिप्त से उत्तर से संतुष्ट नहीं हुए उन्होंने कहा, 'अरे भाई हम आर्टिस्ट भी हैं, हमारी रीडिंग गलत नहीं
हो सकती।'
'सोलंकी जी मैं तो आपको नेता समझता था।'
बस उसके बाद हम
खुले। बातों-बातों में मुझे जैसे ही पता चला कि वे उपन्यासकार प्रेम बाजपेयी को
व्यक्तिगत रूप से जानते हैं तो मैंने तुरंत उनसे प्रेम बाजपेयी जी से मिलवाने का
अनुरोध कर दिया। जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। और करीब छ:मास पश्चात मेरा यह
अनुरोध पूर्ण हुआ और एक दिन शाम के समय उन्होंने कहा आज चलो। हमने रिक्शा पकड़ा और पंद्रह-बीस मिनट में प्रेम बाजपेयी जी के निवास पर पहुँच गए। पहले हम उनके स्वागतकक्ष में बैठे। कुछ
समय पश्चात प्रेम बाजपेयी जी आए। मैंने उनके चरण छुए उन्होंने आशीर्वाद दिया।
परिचय हुआ। सोलंकी जी ने यह काम दिल से किया। मैंने प्रेम बाजपेयी जी को गुरु कह
के सम्बोधित किया। वे थोड़े मुस्कुराए और बोले हमारे मिलने का यही समय है आते
रहना। हम सबने कॉफी पी और करीब आधे घंटे की
मुलाकात के पश्चात हम वापिस आ गए। मैं बहुत प्रसन्न था मुझे मेरा गुरु मिल गया था।
सोलंकी जी ने कहा, 'मैंने अपना काम कर दिया है अब सब
तुम्हारे पर निर्भर करता है।'
इस तरह प्रभु-कृपा और गुरु-कृपा से 1980 में प्रथम उपन्यास डायमंड पाकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित किया गया।
जिसका नाम था -माँ-बेटी। इसके लिए मैं डायमंड बुक्स के मालिक श्री नरेंद्र
कुमार वर्मा जी का सदैव ऋणी रहूँगा।
4. उपन्यास साहित्य में स्वयं के नाम के साथ प्रकाशित होना एक कठिन कार्य रहा है, क्या आपको भी उपन्यास प्रकाशन हेतु परेशानियों का सामना करना पड़ा या नहीं? (किन-किन, कैसी कैसी परेशानियां रही प्रकाशन हेतु विस्तार से जानकारी दीजिएगा, अगर ऐसा हुआ हो तो)
- स्वयं के नाम से
प्रकाशित होना केवल कठिन कार्य नहीं बल्कि यदि सच कहा जाए तो यहां असंभव से कुछ
पहले का शब्द ढूँढ़ना होगा। किंतु जैसा कि मैंने पहले कहा प्रभु-कृपा और गुरु-कृपा
से असंभव भी संभव हो जाता है। मेरे साथ ऐसा ही हुआ। मैं लोकप्रिय लेखन के क्षेत्र
के एक अपवाद बनकर प्रविष्ट हुआ। प्रभुसत्ता में अटल विश्वास और गुरु के प्रति
पूर्ण श्रद्धा और निःस्वार्थ समर्पण ही वह तत्व था जिससे कि सब काम अपने आप होता
गया।
परमपूज्य
श्री प्रेम बाजपेयी जी ने मुझे न केवल अपने विश्वास से ही अलंकृत किया बल्कि मेरे
पहले उपन्यास के लिए कहीं-कहीं डिक्टेशन तक प्रदान की। उन्होंने तथा नरेंद्र कुमार
वर्मा जी ने मुझे उस समय के दसियों चर्चित उपन्यासों को पढ़ने की सलाह दी। मैंने
उनके किसी आदेश अथवा आग्रह को कभी नहीं टाला बल्कि कुछ कदम आगे बढ़कर ही मेहनत की
जो पूरी तरह फलीभूत हुई। उन दिनों मेरा और गुरु जी का ऐसा साथ था कि कुछ प्रकाशकों
को भाता तक नहीं था। गुरु जी प्रकाशकों के साथ होने वाली अधिकांश मुलाकातों में
मुझे अपने साथ रखते थे। उनके यहाँ आने-जाने में उनका सानिध्य मिलता था। हमारी
कभी-कभी तो रोज़, नही तो हर दूसरे तीसरे दिन शाम को
बैठक हो जाया करती थी। उपन्यास की कहानियां उनके शीर्षक तथा विज्ञापन और प्रकाशन
परिस्थितियों पर चर्चा होती थी। अब एक बार फिर 'माँ-बेटी'
पर आता हूँ। हुआ यूं कि उन दिनों डायमंड पाकेट बुक्स की एक घरेलू
लाइब्रेरी योजना चला करती थी जिसके मैंबरों की संख्या हजारों में थी। जिसमें वे
अपनी पसंद के उपन्यास भी भेज दिया करते थे और फिर पाठकों की राय जाना करते थे।
पाठकों की राय बहुत महत्व रखती थी।' माँ-बेटी' को उन्होंने जितना छापा था उसका अधिकांश भाग उसी में वितरित हो गया और 'माँ-बेटी' बुक स्टालों और रेलवे स्टेशनों पर कम
दिखाई दी, इस बात को हम लोगों ने नोट किया।
डायमंड पाकेट बुक्स की ओर से जैसे 25 लेखकीय प्रतियां हमें प्राप्त हुई ठीक उसी वक्त
गुरु जी के माध्यम से तुरंत उन्हें मेरे दूसरे उपन्यास जिसका नाम 'चिंगारी' की पांडुलिपि प्रदान कर दी गई । जिसे
उन्होंने अपने पास रख लिया बिना किसी प्रतिक्रिया के। यहां मैं इतना बताता चलता
हूँ कि उन दिनों प्रकाशकों से नियमित रूप से मुलाकातें होती रहती थीं। जिनमें
डायमंड पाकेट बुक्स, मनोज पाकेट बुक्स, पवन पाकेट बुक्स, हिंद पाकेट बुक्स इत्यादि के नाम
प्रमुख हैं। कुछ समय पश्चात एक मुलाकात में मैंने 'माँ-बेटी'
का हल्का सा जिक्र किया और नरेंद्र जी से उपन्यास के बारे में
पाठकों की राय के बारे में पूछा तो उन्होनें बहुत ही धनात्मक और उत्साहवर्धक उत्तर
दिया। इधर उपन्यास में दिए मेरे घर पर भी फैन चिट्ठियां आनी शुरू हो चुकी थी।
अब मुझे 'चिंगारी' के प्रकाशन की उम्मीद बंध चुकी थी और हुआ भी ऐसा ही। कुछ दिनों के उपरान्त चिंगारी हमारे सामने था। इस बार प्रतियाँ भी अधिक छपी। कुछ पत्रिकाओं में विज्ञापन भी था। उपन्यास बाजार में भी उपलब्ध था। पहले की तरह इस बार भी मैंने 'चिंगारी' की प्रति हाथ में आते ही अपने तीसरे उपन्यास 'घर-आंगन' की पांडुलिपि नरेंद्र जी को प्रदान कर दी। और इस तरह सिलसिला चल पड़ा और हर तीन-चार माह में नया उपन्यास प्रकाशित होने लगा। 'घर-आंगन के उपरान्त 'शहनाई और सिन्दूर', ये 'घर-आंगन' का दूसरा पार्ट था। ये कहानी बहुत ही सराही गई। अब इसके बाद तो मैंने कोई स्क्रिप्ट पूरी नहीं की जितनी भी लिखता था सीधी प्रेस में चली जाती थी। इस तरह अब मैं नियमित लेखक बन चुका था। गुरु जी से सम्बन्ध उसी तरह से चल रहा था। मैंने रॉयल्टी का मार्ग चुना था। पैसे तो कम मिलते थे लेकिन मैंने कॉपीराइट अपने पास सुरक्षित रखे और शुरू के उपन्यासों को बाद अभिनव तथा पवन पाकेट बुक्स से पुनः प्रकाशित करवाया। कुछ नए उपन्यास भी पवन पाकेट बुक्स से प्रकाशित हुए। यह सिलसिला 1990 तक निर्बाध रूप से चला। मेरे 24-25 उपन्यास प्रकाशित हुए। अब केबल टीवी शुरू हो चुका था सीरियल हिट हो रहे थे। उपन्यासों की मांग कम हो चुकी थी। मुझे अपना निवास बदलना पड़ा। नए निवास से गुरु जी के यहाँ आना-जाना उतना सरल नहीं था। पूरा प्रकाशन उद्योग ही लड़खड़ा गया। पड़ता (लाभ) न खाने की बातें सामने आने लगी। उद्योग ही ठंडा पड़ गया। गुरु जी से दूरी हो गई। उनके उपन्यास भी न के बराबर आने लगे। उनका स्वास्थ्य भी गिरने लगा था। उन्होंने स्वयं प्रकाशन की योजना भी बनाई लेकिन सम्पूर्ण उद्योग ही जब ठंडा हो चुका था तो बात कैसे बनती। धीरे-धीरे वह स्वर्णिम युग पहले मद्धिम और फिर विलुप्तप्रायः हो गया।
5. एक समय था जब Ghost writing का दौर था। क्या आपने कभी Ghost writing की या कभी किसी से करवायी हो?
- 1980 जब मैंने इस क्षेत्र में कदम रखा तो तब Ghost Writing का ही दौर था। चूंकि असली नाम से छपने वालों को अधिक पैसे देने होते थे और उनके नखरे भी प्रकाशकों को सहने पड़ते थे इसलिए वे Ghost Writing करवाते थे। जिन लेखकों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी वे पैसा कमाने के लिए इस रास्ते को अपनाते थे। सुनने में आता था कि कुछ Ghost writers थैले भर कर स्क्रिप्टस् लाया करते थे और विभिन्न प्रकाशकों के देकर जाते थे। कई तो नाम बदल कर और कुछ घटनाएँ इधर-उधर करके एक कहानी को ही अलग-अलग प्रकाशकों को दे जाते थे और वे अलग-अलग नामों से छ्प भी जाती थीं। हाँ, कुछ प्रकाशक अपने एक विशेष ट्रेड नेम के लिए अच्छा भुगतान करके केवल एक ही सिद्ध-हस्त लेखक से लिखवाते थे। प्रकाशक असली लेखकों ( जिन्हें वे चलती भाषा में चौखटे वाला अर्थात फोटो वाला लेखक कहते थे) को भी लिखित अथवा मौखिक रुप से किसी अन्य प्रकाशक को अपने उपन्यास न देने के लिए बाध्य करते थे। और तत्पश्चात ही उन्हें छापा करते थे। यहां तक की उपन्यासों के कवर बैक पर उनकी इस बाध्यता को सार्वजनिक किया जाता था। आपने उपन्यासों के पीछे ऐसी इबारतें देखी होंगी। प्रकाशकों का यह कहना होता था कि वे एक लेखक का नाम बनाने में बहुत खर्चा करते हैं और नाम होने पर यदि वह कहीं और चला गया तो उन्हे आर्थिक नुकसान झेलना पड़ेगा।
6. प्रत्येक लेखक कुछ अपन्यास ऐसे होते हैं जिनकी चर्चा हमेशा पाठकों के मध्य होती है, कुछ उन्यास लेखक के दिल के ज्यादा करीब होते हैं। आपके ऐसे उपन्यासों के बारे में भी हम जानना चाहेंगे, जो अपने समय में चर्चा में रहे हों?
- सर्वप्रथम तो चर्चा प्रचार से ही शुरू होती है। पब्लिसिटी बिकती है यह एक सच्चाई है चाहे कोई भी उत्पाद हो। तब सोशल मीडिया शून्य था। रेडियो (आकाशवाणी) और दूरदर्शन ही इलैक्ट्रानिक मीडिया के एकाधिकारी थे। बाकी प्रिंट मीडिया था। फिल्मी पत्रिकाएँ थी। सिनेमा हॉल में स्लाइडस् चला करती थीं। बड़े और नामी लेखकों की अच्छी पब्लिसिटी की जाती थी। और डायमंड पाकेट बुक्स तो पब्लिसिटी को बहुत महत्व देती थी। कॉमिक्स के क्षेत्र में उन्होंने तहलका मचा रखा था। मुझे भी डायमंड पाकेट बुक्स ने पत्र पत्रिकाओं तथा रेडियो में पब्लिसिटी दी थी। मीडिया पब्लिसिटी के साथ-साथ माऊथ पब्लिसिटी का भी बहुत योगदान होता है। जो मुझे प्रथम उपन्यास से ही मिलने लगा था। फैन मेल भी उत्तरोत्तर बढती चली जा रही थी। मैं हर पत्र को पढ़ता था और उत्तर देता था। फिर भी कुछ उपन्यासों के नाम जिक्र करता हूँ। माँ-बेटी, घर-आंगन, आखिर कब तक, आने वाला कल, पत्थर के लोग, काली चाँदनी, मुट्ठी भर खुशियाँ, कुवांरी दुल्हन, पापी कौन नहीं, दुल्हन एक ऐसी भी, विधवा की बेटी, दुनिया मतलब की, मै बांझ नहीं, कानून से ऊंचा इत्यादि। अपने एक उपन्यास भूख का मैं विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगा।
7. उपन्यास साहित्य का एक सुनहरा समय था, और देखते ही देखते यह खत्म हो गया। आपकी दृष्टि में इसका क्या कारण रहा है?
- आपने ठीक कहा। वह उपन्यास साहित्य का स्वर्णिम समय था। लोगों को पढ़ने की आदत थी। उपन्यास जहाँ पाठकों का ज्ञानवर्धन करते थे वहीं उनका मनोरंजन करने में भी सक्षम होते थे। इन उपन्यासों की गली-मुहल्लों में बाकायदा लाईब्रेरियां बनी हुई थीं हालांकि इन उपन्यासों की कीमतें बहुत कम होती थीं फिर भी 10-20 पैसे के किराये पर भी ये उपन्यास पढ़े जा सकता थे। मासिक शुल्क की सुविधा होती थी। किन्तु जैसे ही 1989-90 में केबल टीवी आया नए-नए चैनल और लम्बे-लम्बे सीरियल शुरु हुए लोगों का रुझान बदलने लगा। पढ़ने की आदत छूटने लगी। फिर सोशल मीडिया के आने से और ऑन लाइन पुस्तकें आने से बची-खुची रीडरशिप भी समाप्त होने लगी। कभी लोग इन उपन्यासों के आदी थे अब 'स्क्रीन ऐडिक्ट' हो गए हैं। पहले अच्छी-खासी रॉयल्टी मिला करती थी। अब लेखक खुद के पैसे लगा कर उपन्यास छपवा भी रहे हैं और खुद ही बेच भी रहे हैं। वह स्वर्णिम युग था आज वह `घर फूंक तमाशा देख बन` गया है। लेखक बनना और प्रकाशक बनना अधिकांश मामलों में में नॉन सीरियस हो गया है। Ghost Writing भी इसका एक कारण रही है। इन लेखकों को सिर्फ पैसे से मतलब होता था। जिस रीडरशिप को बनाए रखने के लिए फोटो वाले लेखक खूब मेहनत करके अच्छे कन्टेन्ट दिया करते थे वहीं वे लोग डुप्लीकेसी, घटिया फार्मूले और सरसरी कहानियां देते थे। इस तरह वह स्वर्णिम युग जो गुलशन नंदा, प्रेम बाजपेयी, राजहंस, रानू, रितुराज, दत्त भारती, अशोक दत्त इत्यादि ने बनाया था तथा जिस कतार में सफल फोटो वाले लेखकों मे मैं शामिल था समाप्त हो गया। आज मेरा कोई भी उपन्यास बाज़ार में उपलब्ध नहीं है। अन्य लेखकों का भी कमोबेश यही हाल है। वेद प्रकाश शर्मा, ओमप्रकाश शर्मा, सुरेंद्र मोहन पाठक, परशुराम शर्मा भी उसी स्वर्णिम युग के चमकते सितारे रहे हैं हालांकि वे अलग विधा के लेखक थे। सुरेंद्र मोहन पाठक अपवाद हैं वे अभी भी प्रकाशित हो रहे हैं। मैं भी प्रयासरत हूँ कि पुराने उपन्यासों के साथ-साथ कुछ नए उपन्यास भी पाठकों को दे सकूं।
8. एक लेखक कभी भी लेखन से दूर नहीं हो सकता। इसी संदर्भ में आप वर्तमान में भी क्या आप लेखन कर रहे हैं? कैसा और किन विषयों पर?
- कहते हैं कि यदि किसी को प्रभु ने
लिखने कला सौंपी है तो वह जीवन पर्यंत बनी रहती है। शेष परिस्थितियों पर निर्भर
करता हूँ। स्वांत-सुखाय लिखना चलता ही रहता है। लिखने का क्षेत्र बहुत ही व्यापक
और बहु-आयामी है। मैंने भी कई आयामों को छुआ है और लिखना सतत जारी रखा है। लेखन का
कोई उपयोग हो तो लिखने का बहुत आनंद आता है। जैसे ही उपन्यासों का दौर समाप्त हुआ
तो टैलिफिल्मस् लिखी। विज्ञापन तथा जिंगल लिखे। एक-दो सीरयल भी लिखे। कविता, गीत, कहानी और नाटक भी लिखे। इस समय भी
एक-दो उपन्यासों पर काम कर रहा हूँ। किंतु वही समस्या है प्रकाशक अब कुछ देना नहीं
चाहते। कोई अच्छा अवसर आए तो बात बने। इस समय गूगल पर मेरे नाम अर्थात Satya
Pal Chawla के नाम से सर्च के साथ 'काली
चाँदनी' 'अथवा' पत्थर के लोग' डाल कर सर्च करेंगे तो Kahaniya.com पर episodes
के रुप में ये दोनों उपन्यास पढ़ने के लिए मिल जाएंगे। यादों का सफर
नामक podcast में श्री Sushil Bharti ji के स्वर में मेरी दो-तीन कहानियां जिनके नाम 'एक कदम
आगे' तथा 'ममत्व' भाग एक एवं दो हैं, आपको सुनने को मिल जाएंगी।
यू-ट्यूब पर देश भक्ति का एक बहुत सुन्दर गीत 'Matri bhumi naman' (मातृभूमि नमन) सुनने को मिल जाएगा। इस तरह छुट-पुट चलता रहता है।
कवि-गोष्ठियों तथा कवि साथियों में कविताएं सुनने-सुनाने के कार्यक्रम बनते रहते
हैं । समय आसानी से बीत रहा है।
- साहित्य मस्तिष्क के स्वाद का विषय है। अब जिसने मेरे उपन्यासों का पढ़ा है उनके मानस पर कुछ अंकित हो गया हो तो उसकी चर्चा भी होती है। किंतु लम्बा समय बीत चुका है। उपन्यास बाजार में उपलब्ध भी नहीं है इसलिए अब कोई चर्चा होती हो उम्मीद कम हाँ, कभी वक्त था। उम्मीद की किरण अभी भी बाकी है यदि एक बार फिर सभी उपन्यास बाजार में आ गए तो निःसंदेह चर्चा फिर से शुरू हो सकती है।
10. साहित्य देश ब्लॉग के लिए कोई दो शब्द।
- गुरप्रीत जी साहित्य देश ब्लॉग के माध्यम से आपने एक ऐसी अनूठी पहल की है
जिसका मेरी जानकारी में दूसरा कोई उदाहरण नहीं। ये क्षेत्र आम जन का साहित्य होने
के बावजूद एकदम उपेक्षित रहा है। कई लोग तो इस लोकप्रिय साहित्य को नकारते तक रहे
हैं। किंतु जब इसका पाठक वर्ग इतना बढ़ गया कि उपन्यासों की प्रतियाँ हजारों में
नहीं अपितु लाखों में हाथों-हाथ बिकने लगी तब वे प्रत्यक्ष न सही, परोक्ष रूप से स्वीकार करने लगे।
सत्यपाल जी |
सत्यपाल जी के उपन्यासों की सूची - उपन्यास सूची
आबिद रिजवी
वेदप्रकाश काम्बोज
नरेन्द्र नागपाल
अनिल सलूजा
समस्त साक्षात्कार यहाँ देखें
साक्षात्कार श्रृंखला
वाह!
जवाब देंहटाएंशानदार इंटरव्यूह। साहित्य देश बहुत ही बढ़िया कार्य कर रहा है।
Keep it up👍👍
बेहतरीन इंटरव्यू।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुलझे हुए व्यक्ति।
प्रेम वाजपेयी जी मिलने का सौभाग्य आपको मिला। आप बहुत ही किस्मत वाले हैं।
बाकी साहित्य देश वाले तो उपन्यास-सरंक्षण का अच्छा काम कर हज रहे हैं।
बहुत सुंदर सर मजा आ गया पढंने में इनके उपन्यास पढ़े नही मैंने लेकिन ऐसे इंटरव्यू अच्छे लगते है।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन इन्टरव्यू। सत्यपाल जी के विषय में जानकर अच्छा लगा। आभार।
जवाब देंहटाएंरोचक जानकारी......... 👌👌👌👌👌👌👌..... गुरप्रीत जी..... 👍👍👍👍👍👍
जवाब देंहटाएंगुरप्रीत आई, आपका कार्य सराहनीय है। इंटरव्यू पढ़कर मजा आ गया
जवाब देंहटाएंगुरप्रीत जी, आपके इस सराहनीय पहल से मैं अभीभूत हुआ। किसी भी पाठक को उपन्यास से ज्यादा उपन्यासकार के बारे में जानने की उत्सुकता ज्यादा होती है लेकिन उनसे साक्षात्कार करना या उनके बारे में जानना सम्भव नहीं हो पाता।
जवाब देंहटाएंआपने इसे सुलभ किया। आज के इस दौर में आपका प्रयास एक सुखद एहसास है।
मेरी शुभकामनायें आपके साथ हैं।