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शनिवार, 23 अप्रैल 2022

यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की – 18

यादें वेद प्रकाश शर्मा जी की – 18
प्रस्तुति- योगेश मित्तल

ताला तेरा नहीं हैयह क्या बात हुई?” - वेद ने चकित होकर कहा।
बात तो मेरी भी समझ में नहीं आ रही थी
बात तो मेरी भी समझ में नहीं आ रही थीलेकिन इससे पहले कि मैं कुछ कहतासामने की गैलरी में आ खड़े हुएजयन्ती प्रसाद सिंघल जी बुलन्द और रौबदार आवाज कानों में पड़ी –“अबे तू जिन्दा हैमैं तो  समझामर-खप गया  होगा। सदियाँ बीत गईं तुझे देखे।”
सदियाँ....।”- मैं और वेद दोनों जयन्ती प्रसाद सिंघल के इस शब्द पर मुस्कुरायेतभी जयन्ती प्रसाद सिंघल जी का खुशी से सराबोर स्वर उभरा -”अरे वेद जीआप भी आये हैंइस नमूने के साथ। धन्य भाग हमारे। आये हैं तो जरा हमारी कुटिया भी तो पवित्र कर दीजिये।” 
                                       जयन्ती प्रसाद सिंघल ने बाँयीं ओर स्थित रायल पॉकेट बुक्स के छोटे से ऑफिस की ओर प्रवेश के लिये संकेत किया। ऑफिस में आगन्तुकों के बैठने के लिए एक ही फोल्डिंग कुर्सी खुली पड़ी थी
                                       जयन्ती प्रसाद सिंघल ने बाँयीं ओर स्थित रायल पॉकेट बुक्स के छोटे से ऑफिस की ओर प्रवेश के लिये संकेत किया। ऑफिस में आगन्तुकों के बैठने के लिए एक ही फोल्डिंग कुर्सी खुली पड़ी थीजयन्ती प्रसाद सिंघल जी ने दूसरी भी खोल दीफिर स्वयं टेबल के पीछे बांस की कुर्सी पर विराजे और हमसे बैठने का अनुरोध किया। 
वेद और मैं बैठ गयेपर बैठते-बैठते वेद ने कह ही दिया - “मैं तो यहाँ योगेश जी कमरा देखने आया थापर यहाँ तो दिक्खै आपने अपना ताला लगा रखा है।”
इसका ताला तोड़ करअपना न लगाता तो और क्या करतादस महीने में तो यह कमरा भूतों का डेरा हो जाता। हम सारे घर की रोज सफाई करवावैं हैंलेकिन...।”
दस महीने कहाँ हुए अभी...।”- तभी मैंने जयन्ती प्रसाद सिंघल जी की बात काटते हुए कहा।
वह बोले –“हिसाब लगाना आवै है या सिर्फ कागज़ काले करना ही जानै है?”
                                    मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो रही थी कि अगर जयन्ती प्रसाद जी ने दस महीने के हिसाब से किराया-भाड़ा और बिजलीजो कि मैंने बिल्कुल भी इस्तेमाल नहीं की थीसब जोड़-जाड़ कर पैसे माँग लिये तो....
पर तभी अचानक वेद ने गम्भीर स्वर में कहा –“पर आपने योगेश जी का ताला क्यों तोड़ायह तो आपने गलत किया न...?”
बिल्कुल नहीं।”- जयन्ती प्रसाद जी बोले -”हमने पन्द्रह-बीस दिन इसका इन्तज़ार कियाफिर ताला तोड़ दिया कि इसके पीछे कमरे की साफ सफाई तो हो जायेहम तो रोज इसकी सफाई करवाते थेअब किराये-भाड़े के साथ इसे बीस रूपये हर महीने सफाई के भी देने होंगे।”
क-क-कितने रुपये देने होंगे?” - मेरी आवाज कांपने लगी थी। तुरन्त ही वेद ने मेरी ओर देखा और उसका हाथ मेरी पीठ पर चला गया। उसे उस समय मुझ पर बहुत तरस आया था। 
तभी मेरे सवाल के जवाब में जयन्ती प्रसाद जी बोले –“तू अपने आप हिसाब लगा लेदस महीने के कितने हुएतू जो हिसाब लगायेगाहम मान लेंगे।”
                            मैंने नोट किया कि जो जयन्ती प्रसाद मुझसे योगेश जी और आप करके बोलते थे
वह तू-तड़ाक से और बड़े फ्रेंक लहज़े में बात कर रहे थे। सही भी थाअब मैं उनका लेखक बनकरउनके सामने नहीं बैठा थाबल्कि किरायेदार था। 
दस महीने नहीं हुए हैं अभी।”- मैंने कहा। 
हुए तो दस महीने ही हैंपर चल तू बतातेरे हिसाब से कितने महीने हुए हैंउसी से हिसाब लगा ले।”
मैं चुप। हिसाब लगाने में भी दिल घबरा रहा था कि मेरे हिसाब को गलत बता कर जयन्ती प्रसाद जी कोई और चुभती बात न कह दें।
 
                                यहाँ वेद ने मेरे लिये बात सम्भाली और विनम्र स्वर में जयन्ती प्रसाद जी से कहा –“हिसाब आप ही लगाकर बता दोपर कम से कम हिसाब बनानाक्या है कि लेखक तो होता ही गरीब है और आप जितने महीने का भी किराया लोगेयोगेश पर तो मुफ्त का वजन पड़ेगाक्योंकि जितने भी दिन का यह किराया देगाउसमें से एक भी दिन यह यहाँ रहा तो है ही नहीं।”
ठीक है। आप पहली बार हमारे यहाँ आये हैंहमारी कुटिया को पवित्र किया है तो आपकी बात मानकरमैं योगेश के लिये ज्यादा से ज्यादा कनशेसन कर देता हूँ और एक ही बात बोलूँगा।”
बोलिये....।” -वेद ने कहा। 
तो इससे कहिये - पचास रुपये दे दे। हमारा इसका हिसाब खत्म।” जयन्ती प्रसाद सिंघल एकदम बोले तो मेरा दिल बल्लियों उछल गया। 
पचास रुपये।” - हठात् ही मेरे मुंह से निकला। इतनी छोटी रकम में जान छूटने की तो मैंने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। सिर्फ पचास रुपये देने थे मुझेजबकि मैं तो बुरी तरह लुटने के लिए तैयार बैठा था।
बेटाये तो वेद साहब के लिहाज़ में तुझे छोड़ रहा हूँवरना आज तो तेरी जेब से एक-एक छदाम निकलवा लेनी थी मैंने। कंगला करके भेजना था।”- जयन्ती प्रसाद सिंघल जी मेरा चेहरा गौर से देखते हुए बोले तो वेद ने मेरी पीठ पर धौल मारा -”अब देख क्या रहा हैफटाफट दे पचास रुपयेइससे पहले कि मकान मालिक का इरादा बदल जाये।”
काहे का मकान मालिकहम सब भाई-बन्द हैं वेद जी। एक-दूसरे का ख्याल नहीं रखेंगे तो कैसे चलेगा।”- जयन्ती प्रसाद सिंघल जी बोले। इस समय उनका स्वर व लहज़ा बिल्कुल बदला हुआ था और स्वर ऐसा था कि मकान मालिक नहीं कोई घर का बुजुर्ग सामने बैठा हो। 
मैंने जेब से पचास रुपये निकालकर फटाफट जयन्ती प्रसाद जी की ओर बढ़ाये तो वह मुस्कुराये –“खुश हैलूटा तो नहीं तुझे?”
मेरी हंसी और खुशी ऐसी थी कि जुबान गुम हो गई थी। 
अच्छाअब योगेश का कमरा तो देख लियामैं चलूँगायोगेश के साथ बहुत वक़्त बीत गया।”- और वेद एकदम उठ खड़े हो गये। 
अरेऐसे कैसे चलूँगाअभी तो आपसे कुछ बात भी नहीं हुई। चाय-वाय का दौर भी नहीं चला।” -जयन्ती प्रसाद सिंघल जी तुरन्त बोले तो वेद ने उनकी ओर हाथ बढ़ा कर विनम्र स्वर में कहा - “फिर कभी जैन साहब। ये वादा रहा।”
जयन्ती प्रसाद जी को भी सभी लेखक व परिचित
 'जैन साहबही कहते थेवैसे भी वह जैन समुदाय से ही थे। 
जयन्ती प्रसाद जी ने वेद से हाथ मिलाया और हाथ थामे-थामे ही बोले –“थोड़ी देर रुकते न?”
फिर कभी...। आज आप योगेश जी से बात कीजिये। इन्हें ‘दबाकर’ चाय नाश्ता कराइये।”
 कहकर वेद एक पल भी रुके नहीं। अपना हाथ छुड़ापलटे और जाते-जाते मेरी पीठ थपथपाई –“फिर मिलते हैं।”
                              मुझे कुछ भी बोलने का अवसर ही नहीं दिया वेद ने। उसके ऐसे अचानक आंधी तूफान की तरह निकल जाने से मुझे यही लगा कि शायद कोई बहुत जरूरी काम ध्यान आ गया होगा। जाते-जाते वेद मेरे लिए चाय नाश्ते का डायलॉग मार गये थे तो ऑफिस में बैठे-बैठे ही जयन्ती प्रसाद जी ने चाय के लिए बोल दिया।
 
थोड़ी देर बाद जयन्ती प्रसाद जी के सुपुत्र चन्द्रकिरण जैन एक ट्रे में चाय-नाश्ता लिये आये और मुझे देखते ही बोले –“ओहोआज तो ईद का चांद निकल आया। कहाँ रहे इतने दिन?”
दिल्ली...।”- मैं धीरे से बोला। 
अब तो रहोगे... कुछ दिन  मेरठ में ?”
हाँ...।”- मैंने कहा और जो बात अभी तक जयन्ती प्रसाद जी से नहीं कह पाया थाचन्द्र किरण से बोला –“वो यार मेरे कमरे की चाबी....।”
मगर चन्द्र किरण की ओर से किसी भी रिस्पांस से पहले जयन्ती प्रसाद जी बोल उठे –“काहे की चाबी... अन्दर कुछ नहीं है तेरा
?”
पर मेरा सामान...?” - मैं एकदम बौखला गया। 
सब तेरे मामा को बुलवा कर उठवा दिया। उन्हीं के घर मिलेगा। लगै - मामा के यहाँ होकर नहीं आ रहा।”- जयन्ती प्रसाद जी बोले। 
                    यह सच ही थामेरठ आने के बाद अभी तक मैं मामाजी के यहाँ नहीं गया था। मैंने स्वीकार किया कि मामाजी के यहाँ अभी तक नहीं गया हूँ।     
खैरचाय-नाश्ता करने के बाद मैं रायल पॉकेट बुक्स के ऑफिस से निकला तो फिर बीच में किसी अन्य प्रकाशक से नहीं मिला। 
                                 सबसे नजरें बचाता हुआ ईश्वरपुरी से बाहर आ गयालेकिन सड़क तक नहीं पहुँच सकाकार्नर पर ही गिरधारी पान और चाय वाले की दुकान थीजिस पर उस दिन गिरधारी का बेटा राधे बैठा थामुझ पर नज़र पड़ते ही बोला –“राइटर साहबपान तो खाते जाओ।”
मैं ठिठककर घूम गया और पान की दुकान पर आ गया। राधे मुझसे बिना पूछे ही पान लगाने लगा। दरअसल उन दिनों मुझे जानने वाला हर पनवाड़ी जानता था कि मैं कभी सादी तो कभी सादी और पीली पत्ती तम्बाकू का पान खाता था।
 
पीली पत्ती डालूँ?” - राधे ने सादी पत्ती डालने के बाद पूछा। 
नहींआज रहने दे।” - मैंने कहा। मामाजी के यहाँ जा रहा था और पीली पत्ती की महक तेज़ नाक वालों को पलक झपकते ही आ जाती थीजबकि सादी पत्ती में चलने वाले 'रवितम्बाकू की महक का पता भी नहीं चलता था। 
राधे ने एक जोड़ा बना कर मुझे पकड़ाया। मैंने बीड़ा अपनी दायीं दाढ़ में फंसाया और आगे बढ़ गया। 
                          ईश्वरपुरी की अगली गली हरी नगर कहलाती हैजिसका पहला ही काफी बड़ा मकान मेरे मेरठ वाले मामाओं का है। सबसे बड़े मणिकान्त का ग्राउण्ड फ्लोर में दायां पोर्शन थाउनसे छोटे रामाकान्त गुप्ता बायें पोर्शन में  तथा उनसे छोटे विजयकान्त रामाकान्त मामाजी के ऊपर फर्स्ट फ्लोर में व सबसे छोटे हरीकान्त गुप्ताजो कि एडवोकेट थेबड़े मामा जी मणिकान्त गुप्ता जी के ऊपर के पोर्शन में फर्स्ट फ्लोर पर रहते थे। चारों मामाओं की एक या दो बसें यूपी रोडवेज़ में प्राइवेट बसों के तौर पर निर्धारित रूट पर दौड़ती थीं। 
                           बडे़ मामाजी मणिकान्त गुप्ता की यूपी के बड़ौत के बड़का गाँव में लम्बी चौड़ी खेतीबाड़ी और जमींदारी भी थी। उनसे छोटे रामाकान्त गुप्ता एल आई सी के एजेन्ट भी थे और जेवर आदि सामान गिरवी रख जरूरतमन्दों को ब्याज पर कर्ज भी दिया करते थे। तीसरे नम्बर के मामाजी विजयकान्त गुप्ता ने मेरठ के पुल बेगम के पास स्थित 'जगतसिनेमा का ठेका भी ले रखा थाजहाँ वह नई पुरानी फिल्में भी लगाते थे। मुझे वहाँ विजयकान्त मामाजी के बच्चों और मामीजी के साथ अनेक फिल्में मुफ्त में देखने के अनेक अवसर मिलेजिसमें चन्दरशेखरशकीलाआगाके.एन. सिंहमुकरी की 'काली टोपी लाल रूमाल तथा प्रोड्यूसर डायरेक्टर नासिर हुसैन की देवानन्दआशा पारेखप्राणराजेन्द्रनाथ अभिनीत 'जब प्यार किसी से होता हैकी मुझे आज भी याद है। 
                        सबसे छोटे हरीकान्त गुप्ता मामाजी की भी यूपी रोडवेज़ में बसें चलती थीं और वकालत भी चलती थी। मामाओं का मेरठ में खासा रसूख और दबदबा थापर जब भी मैं मेरठ रहाखाने-पीने-रहने का तो हमेशा आराम रहालेकिन जिन्दगी में कभी उनसे कभी भी एक पैसे की आर्थिक सहायता लेने की स्थिति कभी नहीं आईलेकिन वहाँ भाई बहन सभी उम्र में मुझसे छोटे थेइसलिए उन पर जब तब मैं कुछ न कुछ खर्च कर देता थाजिसके लिए मामा-मामी तो नहींभाई-बहन ही अक्सर टोका करते थे कि - “भैयाइतना खर्चा क्यों करते हो फिजूल में।”
                   रामाकान्त मामाजी के मेरे ईश्वरपुरी वाले सभी प्रकाशकों से नजदीकी सम्बन्ध थे और अक्सर प्रकाशकों के ऑफिस में भी उनका उठना-बैठना होता रहता था
इसलिये मैं निश्चिन्त हो गया था कि जयन्ती प्रसाद जी ने मेरा सामान मामाजी को उठवा दिया है तो उन्होंने और भाई-बहनों ने सहेज़ कर सलीके से ही रखवाया होगाइसलिये पान चबाते हुए मामाजी के घर तक पहुँचाकिन्तु अन्दर जाने से पहले मैंने सारा पान नाली में थूक दिया। कारण था रामाकान्त मामाजी की धर्मपत्नी चन्द्रावल मामीजी। वो जब भी मुझे पान खाते देखतींकहतीं –योगेश भैयातुम्हारे दांत बहुत अच्छे हैंपान मत खाया करो।”
 हालांकि वह स्वयं पान सुपारी खा लेती थीं और अपने दांतों की सुन्दरता से सन्तुष्ट नहीं थीं और उनके सौन्दर्य नष्ट होने का कारण पान और सुपारी को ही बताती थीं। 
जब मैं रामाकान्त मामाजी के घर पहुँचावे दालान में कतार से लगे गमलों के पौधों को पानी दे रहे थे। मुझे देखते ही उन्होंने हाथ रोक लिया और बोले –आ जासही टाइम पर आया। आ जाथोड़ा पुण्य तू भी कमा ले।”
पुण्य....?”- मैं कुछ समझा नहींइसलिये प्रश्नवाचक नज़रों से मामाजी की ओर देखा तो उन्होंने पानी से भरी एक बाल्टी और उसमें पड़े मग्गे की ओर इशारा किया और बोले –बाल्टी भरी हैमग्गा पड़ा है। चलपानी दे पौधों को।”
मैं बाल्टी की ओर बढ़ा। मग्गा पानी से भरकर बाल्टी से बाहर निकाला
फिर पूछा –किस-किस गमले में पानी देना है?”
निरा बुद्धू ही है तू... जो गमला गीला दिख रहा हैजिसमें पानी भरा है। उसमें मैंने दे दिया हैबाकी जो सूखे दिख रहे हैंजिनकी मिट्टी पर ताजा पानी नहीं दिख रहाउनमें पानी देना है।”
कितना-कितना पानी डालना है?” -मैंने पूछा। 
तू सचमुच बुद्धू है....।” -मामाजी 'बुद्धूशब्द पर जोर डालते हुए बोले –न बहुत ज्यादाना बहुत कम...। अभी आधा-आधा मग्गा डाल दे सभी में।”
मैं पौधों को पानी देने के लिए गमलों में पानी डालने लगा। जब दायित्व से मुक्ति मिली तो देखा
मामाजी बान की खुरदुरी चारपाई  वहीं पीछे ही चारपाई डाल कर बैठे हुए हैं। 
मैं भी मामाजी के पास जाकर बैठ गया और बैठकर बोला –मामाजीमेरा सामान कहाँ पर रखवाया है?”
कौन सा सामान?” - मामाजी ने पूछा। 
वही - जो मेरे पब्लिशर ने आपको उठवाया है।”मैंने कहा। 
क्या बक रहा हैमुझे किसी ने कोई सामान नहीं उठवाया।” - मामाजी ने कहा और मैं सन्नाटे में डूब गया। 
यह क्या कह रहे हैं मामाजीमुझसे मज़ाक तो नहीं कर रहे
जयन्ती प्रसाद जी ने तो मुझे वो कमरा खोल कर भी नहीं दिखाया थाजिसमें मैं किरायेदार था। 
                                   मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो रही थी कि अगर जयन्ती प्रसाद जी ने दस महीने के हिसाब से किराया-भाड़ा और बिजलीजो कि मैंने बिल्कुल भी इस्तेमाल नहीं की थीसब जोड़-जाड़ कर पैसे माँग लिये तो....
पर तभी अचानक वेद ने गम्भीर स्वर में कहा –“पर आपने योगेश जी का ताला क्यों तोड़ायह तो आपने गलत किया न...?”
बिल्कुल नहीं।”- जयन्ती प्रसाद जी बोले -”हमने पन्द्रह-बीस दिन इसका इन्तज़ार कियाफिर ताला तोड़ दिया कि इसके पीछे कमरे की साफ सफाई तो हो जायेहम तो रोज इसकी सफाई करवाते थेअब किराये-भाड़े के साथ इसे बीस रूपये हर महीने सफाई के भी देने होंगे।”
क-क-कितने रुपये देने होंगे?” - मेरी आवाज कांपने लगी थी। तुरन्त ही वेद ने मेरी ओर देखा और उसका हाथ मेरी पीठ पर चला गया। उसे उस समय मुझ पर बहुत तरस आया था। 
तभी मेरे सवाल के जवाब में जयन्ती प्रसाद जी बोले –“तू अपने आप हिसाब लगा लेदस महीने के कितने हुएतू जो हिसाब लगायेगाहम मान लेंगे।”
                            मैंने नोट किया कि जो जयन्ती प्रसाद मुझसे योगेश जी और आप करके बोलते थेवह तू-तड़ाक से और बड़े फ्रेंक लहज़े में बात कर रहे थे। सही भी थाअब मैं उनका लेखक बनकरउनके सामने नहीं बैठा थाबल्कि किरायेदार था। 
दस महीने नहीं हुए हैं अभी।”- मैंने कहा। 
हुए तो दस महीने ही हैंपर चल तू बतातेरे हिसाब से कितने महीने हुए हैंउसी से हिसाब लगा ले।”
मैं चुप। हिसाब लगाने में भी दिल घबरा रहा था कि मेरे हिसाब को गलत बता कर जयन्ती प्रसाद जी कोई और चुभती बात न कह दें।
मैं चुप। हिसाब लगाने में भी दिल घबरा रहा था कि मेरे हिसाब को गलत बता कर जयन्ती प्रसाद जी कोई और चुभती बात न कह दें। 
                                यहाँ वेद ने मेरे लिये बात सम्भाली और विनम्र स्वर में जयन्ती प्रसाद जी से कहा –“हिसाब आप ही लगाकर बता दोपर कम से कम हिसाब बनानाक्या है कि लेखक तो होता ही गरीब है और आप जितने महीने का भी किराया लोगेयोगेश पर तो मुफ्त का वजन पड़ेगाक्योंकि जितने भी दिन का यह किराया देगाउसमें से एक भी दिन यह यहाँ रहा तो है ही नहीं।”
ठीक है। आप पहली बार हमारे यहाँ आये हैंहमारी कुटिया को पवित्र किया है तो आपकी बात मानकरमैं योगेश के लिये ज्यादा से ज्यादा कनशेसन कर देता हूँ और एक ही बात बोलूँगा।”
बोलिये....।” -वेद ने कहा। 
तो इससे कहिये - पचास रुपये दे दे। हमारा इसका हिसाब खत्म।” जयन्ती प्रसाद सिंघल एकदम बोले तो मेरा दिल बल्लियों उछल गया। 
पचास रुपये।” - हठात् ही मेरे मुंह से निकला। इतनी छोटी रकम में जान छूटने की तो मैंने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। सिर्फ पचास रुपये देने थे मुझेजबकि मैं तो बुरी तरह लुटने के लिए तैयार बैठा था।
बेटाये तो वेद साहब के लिहाज़ में तुझे छोड़ रहा हूँवरना आज तो तेरी जेब से एक-एक छदाम निकलवा लेनी थी मैंने। कंगला करके भेजना था।”- जयन्ती प्रसाद सिंघल जी मेरा चेहरा गौर से देखते हुए बोले तो वेद ने मेरी पीठ पर धौल मारा -”अब देख क्या रहा हैफटाफट दे पचास रुपयेइससे पहले कि मकान मालिक का इरादा बदल जाये।”
                                    “काहे का मकान मालिकहम सब भाई-बन्द हैं वेद जी। एक-दूसरे का ख्याल नहीं रखेंगे तो कैसे चलेगा।”- जयन्ती प्रसाद सिंघल जी बोले। इस समय उनका स्वर व लहज़ा बिल्कुल बदला हुआ था और स्वर ऐसा था कि मकान मालिक नहीं कोई घर का बुजुर्ग सामने बैठा हो। 
मैंने जेब से पचास रुपये निकालकर फटाफट जयन्ती प्रसाद जी की ओर बढ़ाये तो वह मुस्कुराये –“खुश हैलूटा तो नहीं तुझे?”
मेरी हंसी और खुशी ऐसी थी कि जुबान गुम हो गई थी। 
अच्छाअब योगेश का कमरा तो देख लियामैं चलूँगायोगेश के साथ बहुत वक़्त बीत गया।”- और वेद एकदम उठ खड़े हो गये। 
अरेऐसे कैसे चलूँगाअभी तो आपसे कुछ बात भी नहीं हुई। चाय-वाय का दौर भी नहीं चला।” -जयन्ती प्रसाद सिंघल जी तुरन्त बोले तो वेद ने उनकी ओर हाथ बढ़ा कर विनम्र स्वर में कहा - “फिर कभी जैन साहब। ये वादा रहा।”
जयन्ती प्रसाद जी को भी सभी लेखक व परिचित
जयन्ती प्रसाद जी को भी सभी लेखक व परिचित 'जैन साहबही कहते थेवैसे भी वह जैन समुदाय से ही थे। 
जयन्ती प्रसाद जी ने वेद से हाथ मिलाया और हाथ थामे-थामे ही बोले –“थोड़ी देर रुकते न?”
फिर कभी...। आज आप योगेश जी से बात कीजिये। इन्हें ‘दबाकर’ चाय नाश्ता कराइये।”
 कहकर वेद एक पल भी रुके नहीं। अपना हाथ छुड़ापलटे और जाते-जाते मेरी पीठ थपथपाई –“फिर मिलते हैं।”
                              मुझे कुछ भी बोलने का अवसर ही नहीं दिया वेद ने। उसके ऐसे अचानक आंधी तूफान की तरह निकल जाने से मुझे यही लगा कि शायद कोई बहुत जरूरी काम ध्यान आ गया होगा। जाते-जाते वेद मेरे लिए चाय नाश्ते का डायलॉग मार गये थे तो ऑफिस में बैठे-बैठे ही जयन्ती प्रसाद जी ने चाय के लिए बोल दिया।
                              मुझे कुछ भी बोलने का अवसर ही नहीं दिया वेद ने। उसके ऐसे अचानक आंधी तूफान की तरह निकल जाने से मुझे यही लगा कि शायद कोई बहुत जरूरी काम ध्यान आ गया होगा। जाते-जाते वेद मेरे लिए चाय नाश्ते का डायलॉग मार गये थे तो ऑफिस में बैठे-बैठे ही जयन्ती प्रसाद जी ने चाय के लिए बोल दिया। 
थोड़ी देर बाद जयन्ती प्रसाद जी के सुपुत्र चन्द्रकिरण जैन एक ट्रे में चाय-नाश्ता लिये आये और मुझे देखते ही बोले –“ओहोआज तो ईद का चांद निकल आया। कहाँ रहे इतने दिन?”
दिल्ली...।”- मैं धीरे से बोला। 
अब तो रहोगे... कुछ दिन  मेरठ में ?”
हाँ...।”- मैंने कहा और जो बात अभी तक जयन्ती प्रसाद जी से नहीं कह पाया थाचन्द्र किरण से बोला –“वो यार मेरे कमरे की चाबी....।”
मगर चन्द्र किरण की ओर से किसी भी रिस्पांस से पहले जयन्ती प्रसाद जी बोल उठे –“काहे की चाबी... अन्दर कुछ नहीं है तेरा
मगर चन्द्र किरण की ओर से किसी भी रिस्पांस से पहले जयन्ती प्रसाद जी बोल उठे –“काहे की चाबी... अन्दर कुछ नहीं है तेरा?”
पर मेरा सामान...?” - मैं एकदम बौखला गया। 
सब तेरे मामा को बुलवा कर उठवा दिया। उन्हीं के घर मिलेगा। लगै - मामा के यहाँ होकर नहीं आ रहा।”- जयन्ती प्रसाद जी बोले। 
                    यह सच ही थामेरठ आने के बाद अभी तक मैं मामाजी के यहाँ नहीं गया था। मैंने स्वीकार किया कि मामाजी के यहाँ अभी तक नहीं गया हूँ।     
खैरचाय-नाश्ता करने के बाद मैं रायल पॉकेट बुक्स के ऑफिस से निकला तो फिर बीच में किसी अन्य प्रकाशक से नहीं मिला। 
सबसे नजरें बचाता हुआ ईश्वरपुरी से बाहर आ गयालेकिन सड़क तक नहीं पहुँच सकाकार्नर पर ही गिरधारी पान और चाय वाले की दुकान थीजिस पर उस दिन गिरधारी का बेटा राधे बैठा थामुझ पर नज़र पड़ते ही बोला –“राइटर साहबपान तो खाते जाओ।”
मैं ठिठककर घूम गया और पान की दुकान पर आ गया। राधे मुझसे बिना पूछे ही पान लगाने लगा। दरअसल उन दिनों मुझे जानने वाला हर पनवाड़ी जानता था कि मैं कभी सादी तो कभी सादी और पीली पत्ती तम्बाकू का पान खाता था।
मैं ठिठककर घूम गया और पान की दुकान पर आ गया। राधे मुझसे बिना पूछे ही पान लगाने लगा। दरअसल उन दिनों मुझे जानने वाला हर पनवाड़ी जानता था कि मैं कभी सादी तो कभी सादी और पीली पत्ती तम्बाकू का पान खाता था। 
पीली पत्ती डालूँ?” - राधे ने सादी पत्ती डालने के बाद पूछा। 
नहींआज रहने दे।” - मैंने कहा। मामाजी के यहाँ जा रहा था और पीली पत्ती की महक तेज़ नाक वालों को पलक झपकते ही आ जाती थीजबकि सादी पत्ती में चलने वाले 'रवितम्बाकू की महक का पता भी नहीं चलता था। 
राधे ने एक जोड़ा बना कर मुझे पकड़ाया। मैंने बीड़ा अपनी दायीं दाढ़ में फंसाया और आगे बढ़ गया। 
                          ईश्वरपुरी की अगली गली हरी नगर कहलाती हैजिसका पहला ही काफी बड़ा मकान मेरे मेरठ वाले मामाओं का है। सबसे बड़े मणिकान्त का ग्राउण्ड फ्लोर में दायां पोर्शन थाउनसे छोटे रामाकान्त गुप्ता बायें पोर्शन में  तथा उनसे छोटे विजयकान्त रामाकान्त मामाजी के ऊपर फर्स्ट फ्लोर में व सबसे छोटे हरीकान्त गुप्ताजो कि एडवोकेट थेबड़े मामा जी मणिकान्त गुप्ता जी के ऊपर के पोर्शन में फर्स्ट फ्लोर पर रहते थे। चारों मामाओं की एक या दो बसें यूपी रोडवेज़ में प्राइवेट बसों के तौर पर निर्धारित रूट पर दौड़ती थीं। 
                           बडे़ मामाजी मणिकान्त गुप्ता की यूपी के बड़ौत के बड़का गाँव में लम्बी चौड़ी खेतीबाड़ी और जमींदारी भी थी। उनसे छोटे रामाकान्त गुप्ता एल आई सी के एजेन्ट भी थे और जेवर आदि सामान गिरवी रख जरूरतमन्दों को ब्याज पर कर्ज भी दिया करते थे। तीसरे नम्बर के मामाजी विजयकान्त गुप्ता ने मेरठ के पुल बेगम के पास स्थित 'जगतसिनेमा का ठेका भी ले रखा थाजहाँ वह नई पुरानी फिल्में भी लगाते थे। मुझे वहाँ विजयकान्त मामाजी के बच्चों और मामीजी के साथ अनेक फिल्में मुफ्त में देखने के अनेक अवसर मिलेजिसमें चन्दरशेखरशकीलाआगाके.एन. सिंहमुकरी की 'काली टोपी लाल रूमाल तथा प्रोड्यूसर डायरेक्टर नासिर हुसैन की देवानन्दआशा पारेखप्राणराजेन्द्रनाथ अभिनीत 'जब प्यार किसी से होता हैकी मुझे आज भी याद है। 
                        सबसे छोटे हरीकान्त गुप्ता मामाजी की भी यूपी रोडवेज़ में बसें चलती थीं और वकालत भी चलती थी। मामाओं का मेरठ में खासा रसूख और दबदबा थापर जब भी मैं मेरठ रहाखाने-पीने-रहने का तो हमेशा आराम रहालेकिन जिन्दगी में कभी उनसे कभी भी एक पैसे की आर्थिक सहायता लेने की स्थिति कभी नहीं आईलेकिन वहाँ भाई बहन सभी उम्र में मुझसे छोटे थेइसलिए उन पर जब तब मैं कुछ न कुछ खर्च कर देता थाजिसके लिए मामा-मामी तो नहींभाई-बहन ही अक्सर टोका करते थे कि - “भैयाइतना खर्चा क्यों करते हो फिजूल में।”
                   रामाकान्त मामाजी के मेरे ईश्वरपुरी वाले सभी प्रकाशकों से नजदीकी सम्बन्ध थे और अक्सर प्रकाशकों के ऑफिस में भी उनका उठना-बैठना होता रहता था
                   रामाकान्त मामाजी के मेरे ईश्वरपुरी वाले सभी प्रकाशकों से नजदीकी सम्बन्ध थे और अक्सर प्रकाशकों के ऑफिस में भी उनका उठना-बैठना होता रहता थाइसलिये मैं निश्चिन्त हो गया था कि जयन्ती प्रसाद जी ने मेरा सामान मामाजी को उठवा दिया है तो उन्होंने और भाई-बहनों ने सहेज़ कर सलीके से ही रखवाया होगाइसलिये पान चबाते हुए मामाजी के घर तक पहुँचाकिन्तु अन्दर जाने से पहले मैंने सारा पान नाली में थूक दिया। कारण था रामाकान्त मामाजी की धर्मपत्नी चन्द्रावल मामीजी। वो जब भी मुझे पान खाते देखतींकहतीं –योगेश भैयातुम्हारे दांत बहुत अच्छे हैंपान मत खाया करो।”
 हालांकि वह स्वयं पान सुपारी खा लेती थीं और अपने दांतों की सुन्दरता से सन्तुष्ट नहीं थीं और उनके सौन्दर्य नष्ट होने का कारण पान और सुपारी को ही बताती थीं। 
जब मैं रामाकान्त मामाजी के घर पहुँचावे दालान में कतार से लगे गमलों के पौधों को पानी दे रहे थे। मुझे देखते ही उन्होंने हाथ रोक लिया और बोले –आ जासही टाइम पर आया। आ जाथोड़ा पुण्य तू भी कमा ले।”
पुण्य....?”- मैं कुछ समझा नहींइसलिये प्रश्नवाचक नज़रों से मामाजी की ओर देखा तो उन्होंने पानी से भरी एक बाल्टी और उसमें पड़े मग्गे की ओर इशारा किया और बोले –बाल्टी भरी हैमग्गा पड़ा है। चलपानी दे पौधों को।”
मैं बाल्टी की ओर बढ़ा। मग्गा पानी से भरकर बाल्टी से बाहर निकाला
मैं बाल्टी की ओर बढ़ा। मग्गा पानी से भरकर बाल्टी से बाहर निकालाफिर पूछा –किस-किस गमले में पानी देना है?”
निरा बुद्धू ही है तू... जो गमला गीला दिख रहा हैजिसमें पानी भरा है। उसमें मैंने दे दिया हैबाकी जो सूखे दिख रहे हैंजिनकी मिट्टी पर ताजा पानी नहीं दिख रहाउनमें पानी देना है।”
कितना-कितना पानी डालना है?” -मैंने पूछा। 
तू सचमुच बुद्धू है....।” -मामाजी 'बुद्धूशब्द पर जोर डालते हुए बोले –न बहुत ज्यादाना बहुत कम...। अभी आधा-आधा मग्गा डाल दे सभी में।”
मैं पौधों को पानी देने के लिए गमलों में पानी डालने लगा। जब दायित्व से मुक्ति मिली तो देखा
मैं पौधों को पानी देने के लिए गमलों में पानी डालने लगा। जब दायित्व से मुक्ति मिली तो देखामामाजी बान की खुरदुरी चारपाई  वहीं पीछे ही चारपाई डाल कर बैठे हुए हैं। 
मैं भी मामाजी के पास जाकर बैठ गया और बैठकर बोला –मामाजीमेरा सामान कहाँ पर रखवाया है?”
कौन सा सामान?” - मामाजी ने पूछा। 
वही - जो मेरे पब्लिशर ने आपको उठवाया है।”मैंने कहा। 
क्या बक रहा हैमुझे किसी ने कोई सामान नहीं उठवाया।” - मामाजी ने कहा और मैं सन्नाटे में डूब गया। 
यह क्या कह रहे हैं मामाजीमुझसे मज़ाक तो नहीं कर रहे
जयन्ती प्रसाद जी ने तो मुझे वो कमरा खोल कर भी नहीं दिखाया थाजिसमें मैं किरायेदार था। 
मेरा चेहरा देखते हुए रामाकान्त गुप्ता मामाजी गम्भीर हो गये। बोले -"तुझे यहाँ कमरा किराये पर लेना ही नहीं चाहिए था, इतने घर हैं तेरे...कहीं भी तू रहे, जगह की तेरे लिए कमी नहीं है।"
मैं चुप रहा। 
मामाजी ने फिर दोबारा बोलना आरम्भ किया और इस बार प्रश्न किया -"क्या-क्या सामान तेरा?"
"वही सब...जो आपके साथ ही तो खरीदा था।" - मैंने कहा। 
अपने कमरे के लिए मैंने हर सामान रामाकान्त गुप्ता मामाजी के साथ ही दुकानों से खरीदा था। 
"फिर भी क्या क्या था?"-  मामाजी सोचते हुए बोले -"एक फोल्डिंग पलंग था।"
"हाँ...।" - मैंने कहा। 
"एक गद्दा भी था....दिखै...।"
"हाँ...।"
"एक रजाई भी थी, सफेद खोल सहित खरीदवाई थी तुझे।"
"हाँ....।"
"और कुछ तो नहीं था शायद...। तकिया चादर तो तूने खरीदी नहीं थी।"
"हाँ...।"-  मैंने स्वीकार किया। 
                                                  तब मामाजी बोले -"देख, जब तूने कमरा किराये पर लिया था, कमरे के लिए सामान तो मैंने ही खरीदवाया था, साथ में जाकर तेरे कमरे कु सैटिंग भी मैंने ही करवाई थी, पर वो कमरा जिसके मकान में था, उस लैण्डलार्ड से मेरी कोई खास पहचान नहीं है। उसने तेरा सामान उठाने के लिए मुझे तो कोई खबर नहीं की, पर विजयकान्त से उसकी अच्छी दोस्ती है। विजय और उसे कई बार मैंने बात करते देखा है, हो सकता है, तेरे लैण्डलार्ड ने तेरा सामान विजयकान्त को उठवा दिया हो। तू एक बार ऊपर जाकर पूछ ले, जो उंगै को न हुआ सामान तो मैं तेरे साथ चलकर तेरे लैण्डलार्ड से बात करूँगा।"
रामाकान्त मामाजी की बात मुझे जमीं। विजयकान्त अर्थात मेरे मेरठ वाले मामाओं में तीसरे नम्बर के मामाजी, जो कि रामाकान्त मामाजी के ऊपर के फ्लोर पर ही रहते थे। 
"मैं होकर आऊँ ऊपर...?"-  मैंने रामाकान्त मामाजी से पूछा तो वह बोले -"हाँ, हो आ...।"
ऊपर जाने की सीढ़ियाँ, ग्राउंड फ्लोर स्थित रामाकान्त गुप्ता मामाजी के मुख्य द्वार के साथ ही थीं। 
रामाकान्त मामाजी से इजाज़त लेकर मैं शीघ्रतापूर्वक ही पहली मंजिल स्थित विजयकान्त गुप्ता मामाजी के घर पहुँचा। 
विजयकान्त गुप्ता मामाजी की पत्नी लता मामी उसी समय किचेन से निकलकर, बाहर टैरेस में आई थीं, मुझे देखते ही बोलीं - "योगेश भैया, मैं आपसे बहुत नाराज़ हूँ। बहुत सख्त नाराज़ हूँ।"
मेरठ में मेरी सभी मामियाँ मुझे हमेशा 'योगेश भैया' कहकर ही सम्बोधित किया करती रही हैं। 
लता मामी से यह सुन कि वह मुझसे बहुत नाराज़ हैं, मेरी जुबान पर उभरने वाले सवालों ने एकदम दम तोड़ दिया और मामीजी के चरणों में झुक, पांव छूते हुए मैं मुस्कुरा कर बोला -"गलत बात है मामीजी, मामी में आता है मां और मां को बच्चों से नाराज़ नहीं होना चाहिए।"
"अच्छा....।" मामीजी जोर से बोलीं -"चाहें नालायक बच्चे मां को कितना ही दुखी करते रहें।"
"अरे....।"-  मैं चौंका -"मैंने आपको कब कहाँ दुखी कर दिया मामीजी?"
"योगेश भैया, अब मुझे गुस्सा तो दिलाओ मत। कितने दिन मेरठ में रहे और कितनी बार मामी से मिलने आये? कितनी बार मामी का हाल चाल पूछने आये? कितनी बार यह देखने आये कि लता मामी जिन्दा भी है या नहीं?"
                        मज़ाक में ही सही, लता मामी जी ने बहुत बड़ी बात कह दी थी। हाँ, यह सही था कि मैं काफी दिनों से इन मामी जी के यहाँ नहीं आया था। कई बार रामाकान्त मामा जी के यहाँ आया भी तो नीचे से नीचे उन्हीं के यहाँ होकर चला गया। चन्द सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर तक नहीं गया था। 
                               दरअसल किसी एक जगह यदि आपके चार रिश्तेदार रहते हों और चारों की दाल रोटी घर बार अलग अलग हों और आप एक के यहाँ जायें, पर सभी लोगों से मिलने का समय निकाल पायें तो आपके साथ भी ऐसी शिकायती स्थिति अवश्य ही आयेगी और आती ही होगी। 
और आपके सभी रिश्तेदार आप पर जान छिड़कते हों, तब तो आपका सभी से समान व्यवहार न करना किसी को भी आहत कर सकता है। 
मामी जी की शिकायत वाजिब थी और गुनहगार था मैं, इसलिये मैंने तत्काल अपने दोनों हाथों से दोनों कान पकड़ लिये और बड़े भोलेपन से मामी जी से पूछा -"उठक-बैठक कितनी लगाऊँ मामी जी?"
 
मामीजी को हंसी भी आई और गुस्सा भी । हंसते हुए वह घूंसा तानकर मेरी तरफ लपकीं -"अभी बताती हूँ।"
                                       यह सोचकर कि अब मेरी पीठ पर मामीजी का घूंसा पड़ेगा, मैंने एकदम आँखें बन्द कर लीं, लेकिन घूंसा पीठ पर नहीं पड़ा, बल्कि मैंने अपना हाथ मामीजी के पंजे की जकड़ में महसूस किया और आँखें खोलीं तो पाया कि मामीजी मेरा हाथ पकड़ कर खींच रही हैं। उनका रुख छत की सीढियों की ओर था। मुझे सीढियों की ओर खींच ऊपर ले जाते हुए वह बोलीं -"ऊपर चलो, तुम्हें एक चीज दिखाती हूँ।"
                    छत पर सीढियों के साथ ही एक कमरा था, जिसमें पहले जब मैंने देखा था, अबाड़-कबाड़ ही भरा पाया था, लेकिन उस दिन मामीजी मुझे उस कमरे के सामने ले गईं और कमरे का दरवाजा खोल दिया तो मैंने देखा कि उस कमरे में मेरा पलंग बिछा हुआ है और उस पर गद्दा भी बिछा हुआ है तथा सिरहाने पर दो तकिये भी रखे थे व पायताने मेरी रजाई तह की हुई रखी थी। 
"योगेश भैया, यह मैंने तुम्हारा कमरा बना दिया। अब तुम्हें कहीं और भटकने की जरूरत नहीं। यहीं रहो, यही खाओ, यही सोवो। बस...।"
गुस्से में भी इतना प्यार...। मैं अचानक बहुत भावुक हो उठा। आँखें भीग गई और अनायास ही मैं मामीजी के चरणों में झुक गया।
"अरेरेरे... यह क्या करते हो योगेश भैया..।" - मामीजी ने मुझे दोनों कन्धों से पकड़ अपनी बाहों में समेट लिया और प्यार से बोलीं -"तुम्हारे सामान में तकिया एक भी नहीं था, बिना तकिये के सोते कैसे थे? तुम्हें तो दमा भी है, बिना तकिये के परेशानी नहीं होती थी क्या?"
मैं कुछ जवाब देता, उससे पहले ही मामीजी फिर बोल उठीं -"पर मैंने तुम्हारे लिये दो तकिये रखवा दिये हैं। गद्दे पर चादर भी बिछा दी है और एक मोटा गर्म खेस ओढ़ने के लिये रजाई के नीचे रख दिया है। सर्दी में सिर्फ एक रजाई काफी नहीं होती।"
"हाँ, आपकी बात ठीक है मामीजी, लेकिन मोटे गर्म खेस की इन दिनों जरूरत कहाँ पड़नी है। सर्दी के दिन तो अभी बहुत दूर हैं। अभी तो गर्मी के दिन हैं। रजाई भी कहाँ ओढ़ी जायेगी।"-  मैंने कहा।
"तो ठीक है। रजाई-खेस साइड में कर देना। कहो तो मैं हटा दूं। पर आज तुम कहीं नहीं जाओगे। तुम्हारे मामाजी भी तुम्हें बहुत याद करते रहे हैं। अभी तो वो काम पे गये हैं, लेकिन दोपहर खाने के वक़्त तक आ जायेंगे। आज खाना मामा-भांजा साथ साथ खाना, उन्हें बहुत अच्छा लगेगा। और दो बजे के बाद बच्चे भी स्कूल से आ जायेंगे। सब तुम्हें देखकर कितने खुश होंगे, तुम सोच भी नहीं सकते।"
दोस्तों, आज जब सगे रिश्तेदारों में भी प्रेम अक्सर औपचारिकता ही नज़र आता है। मेरे उन मामा-मामियों ने भी मुझे बेपनाह प्यार दिया, जो सगे तो नहीं थे, पर सगों से बढ़कर ही थे। 
                                    उस दिन बाद में लता मामीजी ने मेरे लिये चाय बनाते-बनाते मुझे बताया कि "विजयकान्त मामाजी और जयन्ती प्रसाद सिंघल पुराने दोस्त हैं। सुबह दोनों साथ साथ मार्निंग वाक पर निकलते हैं। जब दस पन्द्रह दिन तुम गायब रहे तो जयन्ती प्रसाद सिंघल ने तुम्हारे मामाजी से तुम्हारे बारे में पूछा और मामाजी ने बताया कि तुम दिल्ली जा चुके हो तो जयन्ती प्रसाद सिंघल बोले – “फिर उसका सामान आप अपने यहाँ रखवा कर हमारा कमरा खाली करवा दो। योगेश लेखक तो बहुत अच्छा है, पर है लापरवाह। अब का दिल्ली गया - कब आयेगा, कोई भरोसा नहीं। दिल्ली में भी उसके सौ खसम हैं, जिसने पकड़ लिया, उसी की किताबें लिखने बैठ जायेगा और यहाँ बेकार में किराया चढ़ेगा।' तो तुम्हारे मामाजी दो चक्कर में तुम्हारा सारा सामान ले आये और बोले - योगेश के लिये एक कमरा तैयार कर दो। अब जब भी आयेगा, यहीं रहेगा।"
उस दिन मुझे विजयकान्त मामाजी के फ्लोर के नीचे ग्राउंड फ्लोर पर रहने वाले रामाकान्त मामाजी और चन्द्रावल मामीजी से कहना पड़ा कि उस दिन मेरे लिये खाना नहीं बनायें, क्योंकि उस दिन मुझे ऊपर विजयकान्त मामाजी के यहाँ ही रहना है। 
चन्द्रावल मामीजी की आदत थी, जिस दिन भी मैं उनके यहाँ पहुँच जाता, उस दिन मेरा खाना-नाश्ता सब वही करवाती थीं और कई बार तो मुझसे पूछ पूछ कर मेरी पसन्द की खास चीजें बड़े शौक से बनाती थीं।
                      वो पूरा दिन मैंने विजयकान्त मामाजी के यहाँ ही बिताया। दोपहर का लंच मामाजी के साथ किया। फिर जब सब ममेरे भाई बहन आ गये तो उन्होंने मुझे मामा-मामी के डबल बेड पर ही घेर लिया और जिद्द पकड़ ली -"भैया, कोई कहानी सुनाओ।"
मामा-मामी के चारों बच्चे बबलू, पूनम, नीलू और सबसे छोटा टीनू चारों में से दो एक तरफ, दो एक तरफ और बीच में मैं। उन सबकी जिद्द पर आदतन कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा स्टाइल में तुरन्त-फुरन्त तैयार की गई कहानी सुनाने लगा। 
वह दिन शाम पांच बजे तक भाई- बहनों के साथ बीता। उसके बाद वे सब अपने स्कूल का होमवर्क करने लगे तो मैं उनके घर से पिछली ही ईश्वरपुरी की गली में पहुँच गया। 

शेष भाग 19 में पढें।
इस श्रृंखला के अन्य भाग यहां पढें
यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की – 01
यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की- 17
यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की- 19

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