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रविवार, 10 अप्रैल 2022

यादें वेद प्रकाश शर्मा जी की - 17

यादें वेद प्रकाश शर्मा जी की - 17
 प्रस्तुति- योगेश मित्तल
मैं सतीश जैन के सामने था।
“तुम पागल हो?- सतीश जैन ने कहा।
वो तो मैं हूँ....पर आपको बहुत ज्यादा गुस्सा किस बात पर आ रहा है?” मैंने बेहद शान्ति से सवाल किया। 
तुम यारइसे जानते कितना हो?” - सतीश जैन का स्वर अभी भी गर्म था। 
इसे... किसे...?”- समझते हुए भी मैंने पूछा। 
इसी को...रामअवतार को....?”
नहीं जानता...।” -मैंने स्वीकार किया -”आपके यहाँ ही मिला हूँ।”
अरे मैं नहीं जानता उसे..। उसके घर के लोगों को...। कैसा आदमी हैकैसा परिवार हैऔर तुम.... तुम्हें उसने एक बार कहा और तुम उसके यहाँ खाने पहुँच गये। यार ये कोई तुक है। अक्ल-वक्ल कुछ है तुममें या दिमाग से एकदम पैदल होजितने का तुमने खाना नहीं खाया होगाउससे ज्यादा तो तुमने किराया खर्च कर दिया। कितना किराया खर्चा?”
साठ रुपये....।” - मैंने धीरे से कहा -"तीस जाने के...तीस आने के।”
इससे कम मेंतुम यहीं किसी रेस्टोरेंट में बैठकर उससे अच्छा खाना खा सकते थेजैसा वहाँ खाया होगा।”
हाँखाना बेशक ज्यादा अच्छा खा सकता थालेकिन रेस्टोरेंट में वो माहौल... ।”
तुम यार बिल्कुल बेवकूफ हो। ऐसे ही किसी ऐरे-गैरे के यहाँ खाना खाने कैसे जा सकते हो। तुम जासूसी उपन्यास लिखते होतुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारे साथ कुछ ऊंच-नीच भी घट सकता है।”
टेन्शन मत लो यार...। कुछ हुआ तो नहीं। रामअवतार जी बहुत सिम्पल आदमी हैं।” - मैंने सतीश जैन को समझाना चाहापर उनका मूड सही नहीं हुआ। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि वह मेरे द्वारा रामअवतार जी के यहाँ खाना खाने से खफा हैं या मैंने उन्हें अपना कोट दे दिया इसलियेपर सतीश जैन ने कुछ जाहिर नहीं किया। मुझसे ठीक से बात किये बिना ही वह ऑफिस की ओर पलट गये। मैं भी सतीश जैन के पीछे पीछे ऑफिस में दाखिल हुआ। 
       सतीश जैन कीऑफिस टेबल के अपोजिट बिछी फोल्डिंग चेयर पर बैठते हुए मैंने यूँ ही सवाल किया –“कितने दिन का टूर है?”
कम से कम दो हफ्ते तो लगेंगे ही।” सतीश जैन ने कहापर उनकी आवाज़ में अभी भी जो तल्खी थीमुझे समझ में आ गया कि उनका मूड अभी भी सही नहीं है। 

कितने स्टेशन कवर करने हैं?”- मैंने फिर पूछा। 
जितने ज्यादा से ज्यादा हो जायें।”- सतीश जैन ने कहा। 
फिर हम दोनों के बीच चुप्पी रहीपर कुछ देर बाद सतीश जैन ने ही मुंह खोला –“अब हमारा हिसाब तो क्लीयर है ना?”
हाँ....।”- मैंने कहा। 
अभी मेरठ ही रहोगे या दिल्ली जाना है?”- सतीश जैन ने फिर पूछा। स्वर पहले जैसा रूखा था। 
मुझे लगा कि मुझे उठ जाना चाहिए और उठते हुए मैं बोला –“शाम तक यहीं हूँ... शाम को निकल जाऊंगा।”
ठीक हैफिर.... शाम तक जिस जिस से मिलना होमिल लो। तुम्हारे तो बहुत सारे घर हैं मेरठ में...।”
ठीक हैचलता हूँ।”- मैं बोला। 
तभी जैसे सतीश जैन की व्यापारिक बुद्धि में कोई बात आई और वह एकाएक ही एकदम कोमल स्वर में बोले –“यारमेरी बात का बुरा मत मानना। तुम हमारे लिए बहुत कीमती होइसलिए हमें तुम्हारी चिन्ता होती है। और कोई भी काम करोसोच समझ कर किया करो। खुद समझ न आये तो सलाह ले लिया करो।”
मैं बोला कुछ नहीं। मुस्कुराते हुए सहमति में सिर हिलाते हुए लक्ष्मी पॉकेट बुक्स के ऑफिस से बाहर निकल गया।
उसके बाद मैं सोचने लगा कि जीजी के यहाँ जाऊँ या एक चक्कर ईश्वरपुरी लगा लूं। दिल चाहता था कि बड़ी बहन के यहाँ जाकर कुछ खा-पीकर सो जाऊँपर दिमाग ने कहा -'मुझे ईश्वरपुरी जाना चाहिए।”
मुझे याद आया कि मैंने रायल पॉकेट बुक्स के मकान में एक कमरा किराये पर लिया हुआ है। उसका किराया तो मात्र पचास रुपये थापर महीनों हो गये थेमुझे ताला लगाकर दिल्ली गये और अभी तक लौटकर मैं वहाँ झांकने भी नहीं गया था। 
मैंने हिसाब लगाया कि किराया भी लगभग पांच सौ रुपये के आसपास हो रहा होगा। 

गनीमत है - किराया अदा करने के लिए रुपये थे मेरे पासलेकिन मन में एक गिल्ट सा पैदा हो रहा था। 

              ईश्वरपुरी का रिक्शा करके जाते हुए मैं यही सोच रहा था कि रायल पॉकेट बुक्स के स्वामी जयंती प्रसाद जी मुझसे क्या कहेंगे और जवाब में मैं क्या कहूँगा। और यह भी मैं सोच रहा था कि मेरे पास जो रुपये हैंवो सारे के सारे तो शायद उनके यहाँ के कमरे का किराया अदा करने में ही निकल जायेंगे या हो सकता है - कुछ कम ही पड़ जायें। और पैसे कम पड़े तो मुझे वापसी के किराये का भी कहीं से जुगाड़ करना पड़ेगा। 
             यह समस्या मेरे सामने चाहे बहुत बड़ी थीपर एक आदत तब भी मुझमें थी और अब भी हैवो यह कि बात कितनी ही बड़ी क्यों न होमैं खुद को कभी बहुत ज्यादा टेन्शन नहीं देता। मस्त रहता हूँ।
 
           ईश्वरपुरी पहुँच सबसे पहले मैंने अपने कमरे पर ही जाना थापर ऐसा न हो सका। 
आरम्भ में ही पड़ने वाले नूतन पॉकेट बुक्स के ऑफिस में मुझे एसपी साहब और वेद प्रकाश शर्मा दिखाई दिये। 
              दिल में आयाअन्दर घुसूं और पूछूँ कि क्या हो रहा हैपर दिमाग ने तुरन्त रोक दिया कि नहींकुछ आपसी बातचीत हो रही होगी। शायद छपने और छापने की। मुझे अन्दर नहीं जाना चाहिए। देखकर भी अनदेखा करमैं आगे बढ़ गयाकिन्तु अभी चन्द कदम दूर गंगा पॉकेट बुक्स के ऑफिस से भी आगे नहीं बढ़ा था कि कानों में आवाज आई –“योगेश....।”
           पलटकर देखा - नूतन पॉकेट बुक्स के ऑफिस के बाहर वेद खड़े थे और सहसा वह मेरी तरफ बढ़ने लगे और मैं तो उनकी ओर बढ़ना शुरू कर ही चुका था। 
एक मिनट बाद हमारे हाथ मिल चुके थे। 
यहाँ कहाँ?”- वेद ने पूछा। फिर खुद ही कहा –“गंगा में...?”
नहींअपने कमरे पर जा रहा था।”- मैंने कहा। 
कमरे में...यहाँ कमरा ले रखा है तूने?” 
हाँ...।”
कितना किराया है?”
बिजली-पानी समेत पचास रुपये है। हालांकि पानी की मुझे ज्यादा जरूरत नहीं पड़तीक्योंकि फ्रेश होने और नहाने के लिए मैं मामाजी के यहाँ चला जाता हूँ।”

तू पागल है क्या बिल्कुल।” -पूरी बात सुनवेद ने छूटते ही कहा-“बेवकूफतेरे मामाओं का घर यहाँ है। हजार गज की कोठी है। उनके होते तुझे कमरा किराये पर लेने की क्या जरूरत आ पड़ीफिर तेरी तो बड़ी बहन का घर भी मेरठ में है।”

वो यार... अलग कमरे में...प्राइवेसी होने से कुछ ज्यादा तो लिखा जायेगा।” - मैंने कुछ झिझकते हुए कहा। 

इतना तो तूने फालतू न लिखा होगाजितना किराये में बरबाद किया होगा और यहाँ पर तो ईश्वर पुरी में रहने वाला कोई भी जब चाहे सिर उठाये तेरा टाइम बरबाद करने आ जाता होगाजबकि तेरे मामाओं के यहाँ या बहन के कोई भी तभी पहुँचेगाजब कोई जरूरी काम होगा।”

वेद प्रकाश शर्मा की बात बिल्कुल सही थी। मेरी बोलती बन्द हो गई। 
किसके यहाँ कमरा लिया है?” -तभी वेद ने सवाल किया। 
रायल पॉकेट बुक्स वाले जयन्ती प्रसाद सिंघल जी के यहाँ...?”
तो फिर उनका भी कुछ न कुछ काम जरूर किया होगा।”
हाँपर उन्होंने उसके पैसे तुरन्त ही दे दिये।”
कम दिये होंगे।”
नहींबिल्कुल भी कम नहीं दिये।”- मैंने कहा। 
तो फिर तूने माँगे ही कम होंगे।”
वेद की इस बात ने मुझे निरुत्तर कर दिया। दरअसल मैं इतने ज्यादा मनमौजी स्वभाव का था कि कौन क्या ले रहा हैइसमें मेरी कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही। मार्केट रेट किस काम का क्या हैमुझे कुछ पता नहीं होता था। मैं तो बसइतना जानता था कि मेरी जेब खाली नहीं रहनी चाहिए। जो मिले - आने दो। अब इस लिहाज़ से मैं बेवकूफ था तो थाइसमें कोई शक भी नहीं था।
नूतन पॉकेट बुक्स से कोई डील हो रही है....।”-  बात का रुख पलटने के ध्येय से मैंने प्रश्न किया। 
क्यों एक पब्लिशर और राइटर साथ-साथ बैठ जायें तो इसका मतलब जरूरी है कि उनमें कोई डील हो रही है।”
राइटर योगेश मित्तल जैसा हो तो कई बार टाइम पास हो रहा होता हैलेकिन वेद प्रकाश शर्मा हो तो डील का अन्देशा ही होता है।”- मैंने कहा। 
वेद हंसा। 
क्योंवेद के सिर पर कोई सींग उगे हैं?”
नहींमुकुट लगा है - हीरे का।” -मैंने कहा।
बात करते-करते सरकते हुए हम गंगा पॉकेट बुक्स के ऑफिस के बिल्कुल सामने आ गये थे तो अचानक ही वेद ने कहा- “आतेरी बात करते हैं।”

 और मेरा हाथ थाममुझे लिए-लिए गंगा पॉकेट बुक्स में दाखिल हो गये। 

गंगा पॉकेट बुक्स के ऑफिस में उस समय सिर्फ सुशील जैन ही बास की चेयर पर विराजमान नज़र आ रहे थे। 

सुशील जैन एकदम कुर्सी से उठे और कुर्सी पीछे धकेल, मेज को क्रॉस कर, आगे निकल आये और बड़े तपाक से वेद प्रकाश शर्मा की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा –“आज योगेश और आप साथ-साथ कैसे?” 

और फिर पीछे पड़ी कुर्सी खींचकर सुशील जी ने वेद के निकट कर दी। मैंने अपने लिए खुद ही कुर्सी खींच ली। 

आज मैं योगेश की सिफारिश करने आया हूँ।”- वेद ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा। 

इसे सिफारिश की क्या जरूरत पड़ गई?”- सुशील जैन अपनी कुर्सी पर बिराजते हुए बोले –“ये तो हमारा वैसे ही हीरो है, जो काम कोई न कर सकै, इससे करवा लो।”

काम ही करवाते रहोगे या कुछ नाम और दाम भी दोगे?” - वेद ने कहा और इससे पहले कि सुशील जैन बात समझ कर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करते, वेद ने बात आगे बढ़ा दी –“सुना है, आपने इसका विज्ञापन छापा है, किसी नॉवल का। बहुत अच्छा-सा नाम है.... ।”

लाश की दुल्हन...।” -सुशील जैन ने वेद की बात पूरी की।

हाँ... हाँ... वही.... लाश की दुल्हन... तो कब छाप रहे हो यह नावल, योगेश के नाम से...।

हम तो कल छाप दें... पहले यह नॉवल दे तो सही, पर इसने तो इतने खसम पाल रखे हैं कि हमारा नम्बर ही नहीं आता। आज भी छ: महीने बाद शक्ल देख रहा हूँ.... वो भी शायद आप पकड़ लाये हो, इसलिए.... ।”- सुशील जैन धाराप्रवाह कहते चले गये। 

वेद ने मेरी ओर देखा –“यो क्या चक्कर है भई? मुझे 'जुल' दिया सो दिया, जैन साहब को भी लपेट लिया।”

नहीं यार, वो दिल्ली से आना ही नहीं हुआ।”- मैं कुछ खिसियाकर बोला। 

यह गलत बात है योगेश।”- वेद ने मुझसे दो टूक स्वर में कहा –“या तो विज्ञापन नहीं देना था और विज्ञापन दिया है तो नॉवल भी दो। तुम दोगे तो जैन साहब न छापें, यह हो ही नहीं सकता।”

लिखूँगा यार....।” -मैंने फिर से खिसियाये लहज़े में कहा। 

कब लिखेगा, जब लोग विज्ञापन भी भूल जायेंगे...?” 

विज्ञापन तो लोग अब तक भूल ही चुके होंगे।”- सुशील जैन बोले –“छ: महीने पहले छपा था, फिर हमने रिपीट ही नहीं किया।”

रिपीट क्यों नहीं किया?” -वेद ने सुशील जैन से पूछा। 

करते कैसे... यह मेरठ से ऐसा गायब हुआ, जैसे गधे के सिर से सींग और हमें तो अपना पता भी नहीं देकर गया कि कहीं हम एक चिट्ठी ना लिख दें। हाँ, मामा से इसकी घणी यारी है... उसके पास अपना तो अपना, शायद पड़ोसियों का भी अता-पता लिखा रखा है।”

तो यार, आप मामा से मेरा पता ले लेते।”- मैंने कहा। 

क्यों माँग लेते मामा से?”- सुशील जैन तमक कर बोले –“हमारी कोई इज्जत नहीं है क्या? अपने लेखक का पता दूसरे पब्लिशर से माँगना हमारे लिए तो भीख मांगने जैसा है।”

कह तो जैन साहब सही रहे हैं।” -वेद ने सुशील जैन का पक्ष लिया –“तुझे खुद अपना पता इन्हें लिखवाना चाहिए था।”

यहाँ सभी पाठक समझ गये होंगे कि 'मामा' सम्बोधन द्वारा लक्ष्मी पॉकेट बुक्स के सतीश जैन का जिक्र हो रहा था।

प्रकाशक-सतीश जैन, जिन्हें सब प्यार से मामा कहते हैं

अब लिखवा दूंगा...।” मैंने कहा, फिर सुशील जैन से बोला –“एक कागज़ और पेन दीजिये।”

             सुशील जैन ने एक तरफ रखा, रफ पेपर्स का पैड और पैन मेरी तरफ बढ़ा दिया। मैंने उस पैड के ऊपरी पेपर पर अपना दिल्ली का पता लिख दिया। 

वेद प्रकाश शर्मा ने अब आगे जो कहा, वो पूरी तरह मेरी सिफारिश थी। बड़े ही नम्र स्वर में वेद सुशील जैन से बोला –“जैसा कि मैंने लोगों से सुना है, आपको योगेश से बहुत प्यार है।”

वो तो है।”- सुशील जैन एकदम कह उठे। 

तो इसे इसके नाम से छापो न, इस बात की गारन्टी मैं लेता हूँ, इसे छापकर आपको कभी अफसोस नहीं होगा और यह आपके साथ गद्दारी भी नहीं करेगा।” - वेद ने कहा। 

यह तो है...।” सुशील जैन बोले - “इसकी ईमानदारी और सच्चाई पर तो मेरठ का कोई पब्लिशर शक नहीं कर सकता।”

तो फिर छापिये न योगेश मित्तल का उपन्यास...।”

हमने कब मना किया, पहले यह नॉवल दे तो सही।” -सुशील जैन ने गेंद मेरे पाले में फेंक दी। 

ले भई...।” वेद ने  ओर देखा -”जैन साहब तो तैयार बैठे हैं। अब तू बता - कब देवेगा उपन्यास?”

जल्दी ही स्टार्ट करूँगा, कम्पलीट होते ही दे दूंगा।” - मैंने कहा।

                दरअसल अर्सा पहले अमर पॉकेट बुक्स में जब मेरे सामाजिक उपन्यास 'पापी' और 'कलियुग' उपन्यासकार के रूप में मेरे पहले उपनाम - `प्रणय` नाम से बैक कवर पर रगीन तस्वीर के साथ के साथ छपे थे, तब तीसरे उपन्यास 'लोक-लाज' को पब्लिशर साहब को देने के समय मेरे साथ कुछ ऐसा घटा था कि मैंने प्रकाशकों से निश्चित वायदा करना छोड़ दिया था, पर वो किस्सा फिर कभी....। हाँ, उस घटना के बाद 'प्रणय' नाम से मेरा कोई उपन्यास फिर कभी नहीं छपा। 

अब भी मैंने वेद प्रकाश शर्मा और सुशील जैन के सामने गोल-मोल बात कही थी, पर वेद प्रकाश शर्मा के सामने मेरी दाल न गलनी थी। उसने कहा –“तेरा यह जल्दी कब होवैगा? कहीं तू जैन साहब को भी गोली तो नहीं दे रहा बेट्टा, जैसे मुझे दी थी कि ला रहा हूँ उपन्यास कम्पलीट करके, पर मेरी बात और थी, मैंने तेरी कोई पब्लिसिटी नहीं की थी, लेकिन जैन साहब तो तेरी पब्लिसिटी भी कर चुके हैं - 'लाश की दुल्हन' उपन्यास का नाम और विज्ञापन भी तूने ही बनाया था। नाम भी ठीक ठाक है, बल्कि मैं तो कहूँ... बहुत शानदार नाम है - लिख डाल इस पर उपन्यास।”

लिखूँगा यार..।”- मैंने वेद से कहा। 

तो फिर तेरी और से मैं जैन साहब को पक्का कर लूँ?”- वेद ने पूछा। 

मैं अचानक खामोश हो गया। 

उस जरा सी देर की खामोशी पर सुशील जैन ने सहसा यह कहते हुए प्रहार कर दिया –“योगेश, तू उपन्यास लिखना तो स्टार्ट कर दे, पर एक शर्त मेरी भी है।”

शर्त....।”- मैं चौंका। 

वेद भाई भी चौंक पड़े और तुरन्त बोले –“अब ये शर्त की क्या भसूड़ी है जैन साहब?”

कुछ नहीं, मामूली सी बात है। योगेश मेरे पास तीन उपन्यास जमा कर देगा, तब मैं पहला उपन्यास छापूंगा।”

मैंने गहरी सांस ली और बहुत धीमे से बुदबुदाया –“न नौ मन तेल होगा, ना राधा नाचेगी।”

क्या कहा?”- एकदम ही ये दो शब्द वेद भाई और सुशील जैन के मुंह से लगभग एक साथ निकले थे। 

नहीं, कुछ नहीं।”- मैंने अपनी तस्वीर वाली मुस्कान फेंकते हुए कहा। 

    तो सुशील जैन बोले –“देखिये योगेश जी, आपके और सलेकचन्द जी के बीच क्या हुआ, क्यों अमर पॉकेट बुक्स में आपका ‘पापी’ और ‘कलियुग’ के बाद तीसरा उपन्यास 'लोक-लाज’ नहीं छपा, इससे मुझे कोई मतलब नहीं है, लेकिन मैं नहीं चाहता कि हमारे आपके रिश्ते में भी वैसा ही कोई इतिहास दोहराया जाये, इसलिए तीन उपन्यास तो जरूरी हैं। उसके बाद जब पहला उपन्यास छपेगा तो आपके पास बहुत वक़्त होगा, चौथे उपन्यास के लिए, उसमें दो चार दिन आप विलम्ब भी कर दोगे तो हमें परेशानी नहीं होगी।”

सुशील जैन की इस बात पर वेद प्रकाश शर्मा ने भी कहा -”योगेश, तेरे अमर पॉकेट बुक्स के लफड़े के बारे में मुझे भी कुछ नहीं पता, पर यो समझ में आवै है कि जैन साहब की बात बिल्कुल ठीक है। अब तू मेरी बात मान और कमर कस ले। लिखना शुरू कर दे। ठीक...।”

ठीक....।”- मैंने कहा। 

तो ठीक है ना जैन साहब...। यह तीन उपन्यास दे देगा, तब आप छापना शुरू कर देना। अब जरा मैं इसका कमरा देख लूं। सुना है - रायल पॉकेट बुक्स के मकान में ले रखा है।” 

और वेद भाई उठ खड़े हुए। मैं भी उठ खड़ा हुआ। 

तभी सुशील जैन मीठी मुस्कान फेंकते हुए बोले –“जयन्ती प्रसाद सिंघल भी योगेश जी के जबरदस्त 'फैन' हैं, पता नहीं क्या जादू किया है, इनकी बुराई भी तारीफ की तरह करते हैं।”

बुराई.....?”- मैं और वेद दोनों ही ठिठक गये। 

हाँ, एक बार मुझसे कह रहे थे - बहुत लापरवाह आदमी है... बहुत ज्यादा लापरवाह है, लेकिन इतने गुणी आदमी में दो चार ऐब तो होवै ही हैं।”

वेद की हंसी छूट गई। मैं भी मुस्करा दिया।

अब लिखने में लग जा, फालतू 'टाइम वेस्ट' करना बन्द कर दे।”- वेद ने दो कदम आगे बढ़ने के बाद मुझे समझाया।

मैं कहाँ फालतू 'टाइम वेस्ट' करता हूँ।” - मैंने कहा तो वेद ने घूर कर मुझे देखा और बोला –“और यह कभी बिमल चटर्जी, कभी भारती साहब, कभी यशपाल वालिया, कभी कुमारप्रिय, कभी गाँधीनगर के लौंडे-लपाड़ों के साथ घूमते-फिरते रहने के चर्चे दिल्ली के नारंग पुस्तक भण्डार का चन्दर यूँ ही बदनाम करने को सुनावै है।”

चन्दर मुझे बदनाम करता है?”- मैंने चौंककर पूछा। 

नहीं, वो तो तारीफ ही करता है, लेकिन कभी-कभी किसी के द्वारा की गई तारीफ भी बदनाम करने वाली होती है, यह भी तुझे समझना चाहिए। चन्दर तो इस तरह कहता है कि योगेश मित्तल असली यारों का यार है। उसे जिसके साथ चाहो, देख लो। कभी बिमल चटर्जी, कभी कुमारप्रिय, कभी परशुराम शर्मा, कभी राज भारती, कभी वालिया, कभी लालाराम गुप्ता, कभी राजकुमार गुप्ता, कभी गौरीशंकर गुप्ता, कभी ज्ञान गपोड़ी के साथ।” वेद ने कहा –“तेरी इस तारीफ से यही समझ में आता है कि तेरी नज़र में टाइम की कोई कीमत है।” 

ऐसा क्यों कहते हो यार...।”- मैं चेहरे पर कृत्रिम उदासी लाकर बोला –“कई बार तो यह कम्बख्त योगेश मित्तल वेद प्रकाश शर्मा जी के साथ भी दरीबे में घूमता पाया गया है।”

वेद के चेहरे पर हंसी उभर आई, पर एकदम कड़क कर बोला –“फालतू मजाक मत न करै। काम पर ध्यान दे। सुशील जी ने तेरा विज्ञापन भी किया हुआ है।”

विज्ञापन तो लक्ष्मी पॉकेट बुक्स में मामा सतीश जैन भी एक उपन्यास का किया था।”- मैंने कहा। 

वो मिट्टी का ताजमहल.... नाम सुनकर ही लगे - प्रेम बाजपेयी का सालों पुराना कोई नावल होगा, जिसमें एक लड़का होगा, एक लड़की होगी, दोनों की दुख भरी कोई कहानी होगी। वो तो योगेश, नाम ही एकदम पिटा हुआ है, इसीलिए मैंने उसका कोई जिक्र नहीं किया, पर यह नाम 'लाश की दुल्हन'.....नाम से ही साला सस्पेंस झलकता है। उत्सुकता पैदा होती है - कोई लड़की कैसे बन सकती है - लाश की दुल्हन। तू 'मिट्टी के ताजमहल' पर मिट्टी डाल और 'लाश की दुल्हन' शुरू कर दे।”

बातें करते हुए हम रायल पॉकेट बुक्स के मकान तक आ गये थे तो वेद ने एकाएक चुप्पी साध ली। मैं भी इस चुप्पी के समय में दो बातें बता दूँ - वेद ने गाँधी नगर के जिन लौंडे-लपाड़ों का जिक्र किया था, वह मेरे गाँधी नगर के दोस्त अरूण कुमार शर्मा और नरेश गोयल थे तथा बाद में जिस ज्ञान गपोड़ी का जिक्र किया था, वह गप्पें मारने में मशहूर गर्ग एंड कंपनी के ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग का जिक्र था। 

यहाँ कौन सा कमरा तूने किराये पर लिया है?”- वेद ने पूछा तो अपनी जेब में से कमरे की चाबी निकालते-निकालते मैं सन्न रह गया। 

           कमरा सामने था, मगर उस पर एक भारी भरकम और बड़ा सा ताला लटक रहा था, जबकि मैंने उस पर जो ताला लगाया था, वो एक छोटा और सस्ता सा ताला था। 

क्या हुआ? अपना कमरा नहीं पहचान रहा?” वेद ने पूछा। 

कमरा तो यही है - सामने वाला। लेकिन इस पर मेरा ताला नहीं है।” - मैंने कहा। 

- तो  यह नया ताला किसका था?
- योगेश मित्तल जी का ताला कहां गय
- वेदप्रकाश शर्मा जी ने तब क्या मदद की?
यह सब पढें 'यादें वेदप्रकाश शर्मा जी की' भाग -18 में
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