यादें वेद प्रकाश शर्मा जी की - 19
प्रस्तुति- योगेश मित्तल
नूतन पाकेट बुक्स का ऑफिस उस समय खुला हुआ था। सुमत प्रसाद जैन अपनी सीट पर बिराजमान थे। एक कोने में एक वर्कर कुछ बण्डल पैक कर रहा था।
सुमत प्रसाद जैन ने जब सामने से मुझे गुजरते देखा तो एकदम आवाज लगाई -"योगेश ।"
मैं रुका, मुड़ा, फिर पलटकर नूतन पाकेट बुक्स के ऑफिस में प्रविष्ट हो गया।
"चाय पियेगा..?"- सुमत प्रसाद जैन ने पूछा।
"नहीं... ऐसी कोई तलब नहीं है।"- मैंने कहा तो सुमत प्रसाद जैन बड़ी आत्मीयता से बोले -"कर दी न दिल तोड़ने वाली बात। दिन भर में बीस कप चाय पीने वाला योगेश मित्तल हमें चाय को मना कर रहा है। अबे यार, बड़ी देर से मेरा चाय पीने का मूड कर रहा था, लेकिन अकेले पीने का मन नहीं हो रहा था, इसीलिये तो तुझे देखकर आवाज दी।"
"ठीक है, मंगा लीजिये।" - मैं हंसते हुए बोला। तो जनाब यह भी नूतन पाकेट बुक्स और सूर्या पाकेट बुक्स के संस्थापक सुमत प्रसाद जैन का एक मूडी अन्दाज़ था, जिसकी जितनी तारीफ की जाये, कम है। मूड होने पर भी सिर्फ इसलिये चाय नहीं पी रहे थे, क्योंकि उस समय अकेले पीने का मूड नहीं था और गुफ्तगू करने वाला कोई साथी नज़र नहीं आ रहा था।
मेरे 'हाँ' करते ही सुमत प्रसाद जैन पैकिंग में लगे वर्कर से बोले -"जा बेटा, गिरधारी के यहाँ चाय बोल दे, तूने भी पीनी हो तो तीन चाय बोल देइयो।" चाय के साथ गपशप का दौर भी चला। फिर वहाँ से निकला और आगे बढ़ा तो देखा, कंचन पाकेट बुक्स के उस ऑफिस का शटर उस समय खुला हुआ था, जो उन दिनों अक्सर बन्द रहता था। नज़र घुमाई तो देखा - सुरेश चन्द्र जैन और वेद प्रकाश शर्मा दोनों ही ऑफिस में थे।
मैं बिना सोचे समझे उनके ऑफिस की ओर बढ़ गया। सुरेश चन्द्र जैन और वेद प्रकाश शर्मा दोनों शायद कोई विशेष बात कर रहे थे। मुझे देख, दोनों एकदम चुप हो गये। मुझे लगा - मैं गलत समय आ गया हूँ। तुरन्त बोला -"सॉरी, मैं गलत समय तो नहीं आ गया?"
"अब आ ही गया है तो बैठ भी जा...।"- वेद भाई ने कहा। सुरेश चन्द्र जैन सिर्फ मुस्कुराये।
"नहीं, मैं चलता हूँ।" - मैंने पलटते हुए कहा -"आप लोग अपनी चर्चा जारी रखिये।"
लेकिन तभी सुरेश चन्द्र जैन बोल उठे -"अरे नहीं, बैठो न यार। तुमसे भी कुछ खास बात करनी है।"
सुरेश चन्द्र जैन और वेद प्रकाश शर्मा बड़ी टेबल के पीछे दीवार से लगी कुर्सियों पर बिराजमान थे, मैं टेबल के इस ओर खाली पड़ी कुर्सियों में से पहली पर ही टिक गया।
"चाय पियोगे योगेश जी?" - सुरेश चन्द्र जैन ने मेरे बैठते ही सवाल पूछा।
"नहीं, अभी एस. पी. साहब के यहाँ से पीकर ही आ रहा हूँ।"- मैंने कहा।
"फिर क्या दारू पियेगा?" - वेद भाई ने चुटकी ली।
"आज नहीं..।" - मैंने कहा -"मामाजी के यहाँ ठहरा हूँ, जरा भी खुश्बू आ गई तो खाट खड़ी हो जायेगी।"
तब मैं कभी कभी ड्रिंक्स लेने लगा था। ये बुरी आदत कैसे पड़ी, इसकी भी एक कहानी है, जिसकी शुरुआत टाइटिल कवर बनाने वाले बंगाली आर्टिस्ट त्रिभुवन नारायण राय उर्फ टी एन राय से हुई थी, लेकिन वो किस्सा फिर कभी...
"फिर क्या लेगा..? कुछ खायेगा?" - वेद ने पूछा।
"नहीं यार, अभी कुछ खाया तो रात के खाने में कुछ भी नहीं खाया जायेगा।"
"और तेरे मामा-मामी तेरी खाट खड़ी कर देंगे।" - वेद ने फिर से चुटकी ली।
मैं मुस्कुरा कर रह गया।
"योगेश जी, आपके लिये एक सलाह है...।"- अचानक सुरेश चन्द्र जैन ने कहा -"अगर बुरा न मानो और सीरियसली सोचो तो मैं कुछ कहूँ...।"
"क्या...?" मैंने पूछा।
"आप किसी एक जगह टिक कर काम करो। इधर उधर भटकने में कुछ नहीं रखा, ना तो नोट ज्यादा कमा सकोगे, ना ही कहीं नाम से छप पाओगे।" - सुरेश चन्द्र जैन गम्भीर स्वर में बोले।
"योगेश, एक बात बता, तुझे महीने में कितने पैसों की जरूरत है। ठीक ठीक बता, फालतू फिजूलखर्ची जोड़े बिना...।" - अचानक वेद प्रकाश शर्मा ने गम्भीर स्वर में मुझसे सवालिया अन्दाज़ में कहा तो मैं एकदम चौकन्ना हो गया।
यह कैसा सवाल था? मुझे एक महीने में कितना पैसा चाहिये। मुझे तो खुद भी नहीं मालूम था कि मुझे कितना चाहिये। कितना खर्च करता हूँ मैं। मैं तो यह जानता कि कितना ही कमा लूँ - हमेशा जेब खाली ही रहती थी। बहुत कम ही ऐसा होता था कि मेरी जेब में चार - छ: दिनों तक दो चार सौ से अधिक रुपये रहे हों, पर आज सोचता हूँ तो याद आता है कि इस कड़की का असली कारण मैं खुद ही था। उन दिनों कुछ परिवार वाले ऐसे दोस्त भी थे, जो एक निश्चित तनख्वाह की नौकरी करते थे और उस तनख्वाह में उनके घर का किराया, बच्चों की फीस और राशन पानी का खर्च पूरा नहीं पड़ता था और ऐसा कोई दोस्त कभी मुझसे यह कहता कि यार योगेश पचास रुपये हों तो दे और मैं बिना सोचे समझे, बिना यह पूछे कि वापस कब देगा, उसे पचास रुपये दे देता था और उसे कभी उधार दिये पैसों में न तो शुमार करता था, ना ही वो दिये हुए रुपये मुझे कभी वापस मिलते थे। यह देने वाली आदत तो शायद मैंने राजभारती जी से ही सीखी थी, लेकिन राजभारती जी हिसाब किताब में बहुत क्लीयर रहते थे, जिसे उधार देते थे, उससे यह पूछ लेते थे कि वो लिये गये पैसे वापस कब देगा। उनका लेन-देन का हिसाब बिल्कुल साफ-सुथरा रहता था, लेकिन मेरी हालत और आदत बिल्कुल पूरब-पश्चिम वाली थी, कहने का मतलब है हालत तो हर समय भुक्खड़-कड़कों वाली थी और दिल हमेशा शहंशाही घोड़े पर सवार रहता था कि आओ जितने भी दीन-दुखी हो आओ भई, मैं हूँ ना तुम्हारे दुख-दर्द दूर करने के लिये! तुम्हारे लिये ही तो कमाता हूँ मैं। ठोकर तब लगी, जब मैंने अपने ऐसे ही एक दोस्त के मुंह से कुछ ऐसे शब्द सुने, जिनसे आत्मा तक घायल हो गयी।
एक दोस्त था, जिसकी घरेलू हालत बहुत खराब थी। उसके घर एक बार कल्याणपुरी जाना हुआ तो देखा। उसके चार-पांच बच्चे फटे-चिथड़ों में घूम रहे थे। पत्नी की धोती भी कई जगह से पैबन्द लगी हुई थी और ब्लाऊज भी फट रहा था। ब्रा तो उसने पहनी ही नहीं थी। और ठीक ठाक शक्ल होने पर भी बिना काढ़े उलझे बालों और अस्त-व्यस्त सी दशा में बदसूरत नहीं भी लग रही थी तो भी उसे देखकर घिन्न सी महसूस होती थी।
वो दोस्त मुझसे कभी भी दस-बीस-पचास रुपये माँगता तो मैं मना नहीं करता था। मेरे पास नहीं होते तो किसी से लेकर उसे दे देता था और यह सोचकर ही देता था कि ये रुपये वापस नहीं मिलने हैं।
जब मैं मेरठ रह रहा था दस से ज्यादा अवसर ऐसे आये थे, जब वह अपनी कोई लिखी कोई किताब देने मेरठ आया, लेकिन वापसी का किराया और राह खर्च के लिये दस-पांच रुपये मुझसे यह कहकर ले जाता था कि यार फलाने पब्लिशर ने पेमेन्ट नहीं दी, जेब खाली है, वापसी किराये के लिये बीस पच्चीस रुपये चाहिये।
उस समय बीस-पच्चीस रुपये छोटी रकम नहीं होती थी। एक उपन्यास के सौ- डेढ़ सौ रुपये से अधिक नहीं मिलते थे।
उस दोस्त के लिये मेरे मन में इतना तरस था कि कभी यह जानने की चेष्टा ही नहीं की कि वह सच बोल रहा है या नहीं कि पेमेन्ट नहीं मिली।
बाद में मैंने उसे राज पाकेट बुक्स में नौकरी दिला दी। तब मनोज पाकेट बुक्स से अलग होकर राज कुमार गुप्ता जी ने राज पाकेट बुक्स की नींव शक्ति नगर में ही किराये के एक बेसमेन्ट में आफिस बनाकर रखी थी, तब हिन्द पाकेट बुक्स में काफी समय काम कर चुके बख्शी साहब को प्रूफरीडर के तौर पर रखा था।बख्शी साहब की और उसकी टेबल साथ साथ थी।
एक दिन मैं राज पाकेट बुक्स के बेसमेन्ट की सीढ़ियाँ उतर रहा था, राज बाबू से मिलने के लिये! संयोगवश राजकुमार गुप्ता आफिस में नहीं थे, यह मुझे बाद में पता चला था, पर उस समय सीढ़ियाँ उतरते मेरे कदम अचानक आधी सीढ़ियों पर ही रुक गये, जब मेरे कानों में अपने दोस्त की तेज आवाज पड़ी -"योगेश, तो बड़ा चू... है! मैं जब भी मेरठ जाता हूँ! उसे चू... बनाकर चाय-नाश्ते के पैसे भी उससे खर्च करवा लेता हूँ और वापसी का किराया भी उसी से ऐंठ लेता हूँ।"
सुनकर मैं सन्न रह गया। जिस दोस्त के लिये मेरे दिल में दया और प्रेम था, वह मुझे बेवकूफ समझता था और अपनी अक्ल पर अकड़ रहा था कि वह हमेशा मुझे बेवकूफ बनाकर मुझसे खर्च करवा लेता है! वापसी का किराया ऐंठ लेता है।
बाद में एक बार मेरी इसी आदत की वजह से राजभारती जी से मुझे बहुत तगड़ी डांट पड़ी थी। उन्होंने कहा था -"तू बहुत ज्यादा इमोशनल है। इमोशनल होना बुरा नहीं है, लेकिन तू बेवकूफी की हद से भी ज्यादा इमोशनल है। तू यह जो पैसा कमाता है। लोगों को बांटने के लिये कमाता है। बहुत बड़ा धन्ना सेठ है तू, या तेरा बाप करोड़पति है कि तू लुटाये जायेगा तो भी कोई कमी नहीं पड़ेगी।"
राजा पाकेट बुक्स में अपने दोस्त से बख्शी साहब के साथ हुए उस वार्तालाप को सुनने के बाद मैं सीढ़ियाँ उतरकर बेसमेन्ट में नहीं गया था, बल्कि वापस लौट गया था, मगर रास्ते में ही राजकुमार गुप्ता जी से मुलाकात हो गई, जोकि शक्ति नगर में ही अग्रवाल मार्ग पर स्थित मनोज पाकेट बुक्स के आफिस की पहली मंजिल पर स्थित अपने घर से होकर आ रहे थे।
बाद में एक बार अपने दोस्त की अनुपस्थिति में मैंने बख्शी साहब से अपने दोस्त की बातें पूछीं तो पता चला कि मेरा वह दोस्त मुझे दुनिया का सबसे बड़ा 'चू... ' समझता है यानि बेवकूफ समझता है और खुद को बहुत बड़ा अक्लमंद और योगेश मित्तल जैसे एक शख्स को बार बार बड़ी कामयाबी से बेवकूफ बना देता है।
खैर, बात हम वेदप्रकाश शर्मा द्वारा पूछे गये सवाल की कर रहे थे! वेद ने सवाल किया था कि मुझे एक महीने में ठीक ठीक कितने पैसों की जरूरत होती है।
थोड़ी देर के लिये मैं इस सवाल पर खामोश रह गया था, कुछ समझ ही नहीं आया कि क्या जवाब दूं, पर फिर मैंने उलटा सवाल कर दिया कि - "यह क्यों पूछ रहे हो?"
जवाब में वेद ने कहा -"अगर तुझे अपने खर्च लायक पैसा किसी एक ही पब्लिशर से मिल जाये तो दस जगह भागने की क्या जरूरत है! दरअसल सुरेश जी काफी समय से कह रहे हैं कि योगेश मित्तल के अन्दर कुछ क्वालिटी है, अगर वो टिककर काम करे तो उसके लिये कुछ करते हैं।"
मतलब मेरे लिये सुरेश चन्द्र जैन के दिल में कोई साफ्ट काॅर्नर था और उनका विचार था कि योगेश मित्तल के लिये कुछ ऐसा किया जाये कि उसे नाम और दाम दोनों ठीक ठाक मिलें।
लेकिन सुरेश चन्द्र जैन के दिल की बात मुझे डिटेल में वेद भाई ने ही बताई।
मुझे नहीं पता कि मैंने सही किया या गलत, लेकिन उस समय मेरी टांगें इतनी जगह फंसी हुई थीं और स्वभाववश मैं हमेशा से सौ परसेन्ट ईमानदार और सच्चा इन्सान रहा हूँ कि एक साथ कई लोगों को धोखा देकर, एक अच्छी आफर स्वीकार कर लेने का मन ही नहीं बना सका, बोला -"वेद भाई, कभी हिसाब नहीं लगाया, कितना कमा रहा हूँ... कितना खर्च कर रहा हूँ, यह सब हिसाब किताब तो इत्मीनान से लगाकर ही कुछ बता सकूँगा।"
"ठीक है, कितने दिन में आप हिसाब लगा लोगे?"- सुरेश चन्द्र जैन ने पूछा -"एक दिन... दो दिन.. तीन दिन...?"
"हाँ, कुछ दिन तो लगेंगे ही...।" - मैंने कहा!
"कुछ दिन क्यों लगेंगे?" - वेद ने कहा -"तू बता, तुझे हर महीने घर पर क्या देना है और अपने लिये कितना चाहिये? दो मिनट का काम है।"
मैं चुप रहा।
वेद के इन शब्दों ने निरुत्तर सा कर दिया, तब शायद सुरेश चन्द्र जैन मेरी असमंजस की स्थिति को ताड़ गये और बोले -"नहीं दो चार दिन या हफ्ता सोचने दो इन्हें। खेल खिलाड़ी, मनोज पाकेट बुक्स, भारती पाकेट बुक्स, जहाँ जहाँ भी काम कर रहे हैं, वहाँ से कैसे हाथ खींचना है, कैसे काम समेटना है, उसके लिये भी तो प्लानिंग करनी होगी।"
"हाँ-हाँ...।" - मैं तत्काल बोला और एकदम कुर्सी से उठ गया -"मैं मिलता हूँ कुछ दिनों में, अभी चलता हूँ।"
वेद भाई और सुरेश चन्द्र जैन दोनों में से किसी ने मुझे रोकने का प्रयास नहीं किया। जिसका कारण बहुत बाद में वेद भाई के मुंह से ही पता चला था कि उस दिन वेद भाई और सुरेश भाई सचमुच कोई व्यापारिक बात कर रहे थे और मैं अचानक पहुँच गया तो खामोश हो गये, क्योंकि हर बात हर शख्स के सामने नहीं की जाती।
शेष भाग -20 में
प्रस्तुति- योगेश मित्तल
नूतन पाकेट बुक्स का ऑफिस उस समय खुला हुआ था। सुमत प्रसाद जैन अपनी सीट पर बिराजमान थे। एक कोने में एक वर्कर कुछ बण्डल पैक कर रहा था।
मैं रुका, मुड़ा, फिर पलटकर नूतन पाकेट बुक्स के ऑफिस में प्रविष्ट हो गया।
"नहीं... ऐसी कोई तलब नहीं है।"- मैंने कहा तो सुमत प्रसाद जैन बड़ी आत्मीयता से बोले -"कर दी न दिल तोड़ने वाली बात। दिन भर में बीस कप चाय पीने वाला योगेश मित्तल हमें चाय को मना कर रहा है। अबे यार, बड़ी देर से मेरा चाय पीने का मूड कर रहा था, लेकिन अकेले पीने का मन नहीं हो रहा था, इसीलिये तो तुझे देखकर आवाज दी।"
"ठीक है, मंगा लीजिये।" - मैं हंसते हुए बोला। तो जनाब यह भी नूतन पाकेट बुक्स और सूर्या पाकेट बुक्स के संस्थापक सुमत प्रसाद जैन का एक मूडी अन्दाज़ था, जिसकी जितनी तारीफ की जाये, कम है। मूड होने पर भी सिर्फ इसलिये चाय नहीं पी रहे थे, क्योंकि उस समय अकेले पीने का मूड नहीं था और गुफ्तगू करने वाला कोई साथी नज़र नहीं आ रहा था।
"नहीं, मैं चलता हूँ।" - मैंने पलटते हुए कहा -"आप लोग अपनी चर्चा जारी रखिये।"
लेकिन तभी सुरेश चन्द्र जैन बोल उठे -"अरे नहीं, बैठो न यार। तुमसे भी कुछ खास बात करनी है।"
सुरेश चन्द्र जैन और वेद प्रकाश शर्मा बड़ी टेबल के पीछे दीवार से लगी कुर्सियों पर बिराजमान थे, मैं टेबल के इस ओर खाली पड़ी कुर्सियों में से पहली पर ही टिक गया।
"चाय पियोगे योगेश जी?" - सुरेश चन्द्र जैन ने मेरे बैठते ही सवाल पूछा।
"नहीं, अभी एस. पी. साहब के यहाँ से पीकर ही आ रहा हूँ।"- मैंने कहा।
"फिर क्या दारू पियेगा?" - वेद भाई ने चुटकी ली।
"आज नहीं..।" - मैंने कहा -"मामाजी के यहाँ ठहरा हूँ, जरा भी खुश्बू आ गई तो खाट खड़ी हो जायेगी।"
तब मैं कभी कभी ड्रिंक्स लेने लगा था। ये बुरी आदत कैसे पड़ी, इसकी भी एक कहानी है, जिसकी शुरुआत टाइटिल कवर बनाने वाले बंगाली आर्टिस्ट त्रिभुवन नारायण राय उर्फ टी एन राय से हुई थी, लेकिन वो किस्सा फिर कभी...
"फिर क्या लेगा..? कुछ खायेगा?" - वेद ने पूछा।
"नहीं यार, अभी कुछ खाया तो रात के खाने में कुछ भी नहीं खाया जायेगा।"
"और तेरे मामा-मामी तेरी खाट खड़ी कर देंगे।" - वेद ने फिर से चुटकी ली।
मैं मुस्कुरा कर रह गया।
"योगेश जी, आपके लिये एक सलाह है...।"- अचानक सुरेश चन्द्र जैन ने कहा -"अगर बुरा न मानो और सीरियसली सोचो तो मैं कुछ कहूँ...।"
"क्या...?" मैंने पूछा।
"आप किसी एक जगह टिक कर काम करो। इधर उधर भटकने में कुछ नहीं रखा, ना तो नोट ज्यादा कमा सकोगे, ना ही कहीं नाम से छप पाओगे।" - सुरेश चन्द्र जैन गम्भीर स्वर में बोले।
"योगेश, एक बात बता, तुझे महीने में कितने पैसों की जरूरत है। ठीक ठीक बता, फालतू फिजूलखर्ची जोड़े बिना...।" - अचानक वेद प्रकाश शर्मा ने गम्भीर स्वर में मुझसे सवालिया अन्दाज़ में कहा तो मैं एकदम चौकन्ना हो गया।
यह कैसा सवाल था? मुझे एक महीने में कितना पैसा चाहिये। मुझे तो खुद भी नहीं मालूम था कि मुझे कितना चाहिये। कितना खर्च करता हूँ मैं। मैं तो यह जानता कि कितना ही कमा लूँ - हमेशा जेब खाली ही रहती थी। बहुत कम ही ऐसा होता था कि मेरी जेब में चार - छ: दिनों तक दो चार सौ से अधिक रुपये रहे हों, पर आज सोचता हूँ तो याद आता है कि इस कड़की का असली कारण मैं खुद ही था। उन दिनों कुछ परिवार वाले ऐसे दोस्त भी थे, जो एक निश्चित तनख्वाह की नौकरी करते थे और उस तनख्वाह में उनके घर का किराया, बच्चों की फीस और राशन पानी का खर्च पूरा नहीं पड़ता था और ऐसा कोई दोस्त कभी मुझसे यह कहता कि यार योगेश पचास रुपये हों तो दे और मैं बिना सोचे समझे, बिना यह पूछे कि वापस कब देगा, उसे पचास रुपये दे देता था और उसे कभी उधार दिये पैसों में न तो शुमार करता था, ना ही वो दिये हुए रुपये मुझे कभी वापस मिलते थे। यह देने वाली आदत तो शायद मैंने राजभारती जी से ही सीखी थी, लेकिन राजभारती जी हिसाब किताब में बहुत क्लीयर रहते थे, जिसे उधार देते थे, उससे यह पूछ लेते थे कि वो लिये गये पैसे वापस कब देगा। उनका लेन-देन का हिसाब बिल्कुल साफ-सुथरा रहता था, लेकिन मेरी हालत और आदत बिल्कुल पूरब-पश्चिम वाली थी, कहने का मतलब है हालत तो हर समय भुक्खड़-कड़कों वाली थी और दिल हमेशा शहंशाही घोड़े पर सवार रहता था कि आओ जितने भी दीन-दुखी हो आओ भई, मैं हूँ ना तुम्हारे दुख-दर्द दूर करने के लिये! तुम्हारे लिये ही तो कमाता हूँ मैं। ठोकर तब लगी, जब मैंने अपने ऐसे ही एक दोस्त के मुंह से कुछ ऐसे शब्द सुने, जिनसे आत्मा तक घायल हो गयी।
एक दोस्त था, जिसकी घरेलू हालत बहुत खराब थी। उसके घर एक बार कल्याणपुरी जाना हुआ तो देखा। उसके चार-पांच बच्चे फटे-चिथड़ों में घूम रहे थे। पत्नी की धोती भी कई जगह से पैबन्द लगी हुई थी और ब्लाऊज भी फट रहा था। ब्रा तो उसने पहनी ही नहीं थी। और ठीक ठाक शक्ल होने पर भी बिना काढ़े उलझे बालों और अस्त-व्यस्त सी दशा में बदसूरत नहीं भी लग रही थी तो भी उसे देखकर घिन्न सी महसूस होती थी।
वो दोस्त मुझसे कभी भी दस-बीस-पचास रुपये माँगता तो मैं मना नहीं करता था। मेरे पास नहीं होते तो किसी से लेकर उसे दे देता था और यह सोचकर ही देता था कि ये रुपये वापस नहीं मिलने हैं।
जब मैं मेरठ रह रहा था दस से ज्यादा अवसर ऐसे आये थे, जब वह अपनी कोई लिखी कोई किताब देने मेरठ आया, लेकिन वापसी का किराया और राह खर्च के लिये दस-पांच रुपये मुझसे यह कहकर ले जाता था कि यार फलाने पब्लिशर ने पेमेन्ट नहीं दी, जेब खाली है, वापसी किराये के लिये बीस पच्चीस रुपये चाहिये।
उस समय बीस-पच्चीस रुपये छोटी रकम नहीं होती थी। एक उपन्यास के सौ- डेढ़ सौ रुपये से अधिक नहीं मिलते थे।
उस दोस्त के लिये मेरे मन में इतना तरस था कि कभी यह जानने की चेष्टा ही नहीं की कि वह सच बोल रहा है या नहीं कि पेमेन्ट नहीं मिली।
बाद में मैंने उसे राज पाकेट बुक्स में नौकरी दिला दी। तब मनोज पाकेट बुक्स से अलग होकर राज कुमार गुप्ता जी ने राज पाकेट बुक्स की नींव शक्ति नगर में ही किराये के एक बेसमेन्ट में आफिस बनाकर रखी थी, तब हिन्द पाकेट बुक्स में काफी समय काम कर चुके बख्शी साहब को प्रूफरीडर के तौर पर रखा था।बख्शी साहब की और उसकी टेबल साथ साथ थी।
एक दिन मैं राज पाकेट बुक्स के बेसमेन्ट की सीढ़ियाँ उतर रहा था, राज बाबू से मिलने के लिये! संयोगवश राजकुमार गुप्ता आफिस में नहीं थे, यह मुझे बाद में पता चला था, पर उस समय सीढ़ियाँ उतरते मेरे कदम अचानक आधी सीढ़ियों पर ही रुक गये, जब मेरे कानों में अपने दोस्त की तेज आवाज पड़ी -"योगेश, तो बड़ा चू... है! मैं जब भी मेरठ जाता हूँ! उसे चू... बनाकर चाय-नाश्ते के पैसे भी उससे खर्च करवा लेता हूँ और वापसी का किराया भी उसी से ऐंठ लेता हूँ।"
सुनकर मैं सन्न रह गया। जिस दोस्त के लिये मेरे दिल में दया और प्रेम था, वह मुझे बेवकूफ समझता था और अपनी अक्ल पर अकड़ रहा था कि वह हमेशा मुझे बेवकूफ बनाकर मुझसे खर्च करवा लेता है! वापसी का किराया ऐंठ लेता है।
बाद में एक बार मेरी इसी आदत की वजह से राजभारती जी से मुझे बहुत तगड़ी डांट पड़ी थी। उन्होंने कहा था -"तू बहुत ज्यादा इमोशनल है। इमोशनल होना बुरा नहीं है, लेकिन तू बेवकूफी की हद से भी ज्यादा इमोशनल है। तू यह जो पैसा कमाता है। लोगों को बांटने के लिये कमाता है। बहुत बड़ा धन्ना सेठ है तू, या तेरा बाप करोड़पति है कि तू लुटाये जायेगा तो भी कोई कमी नहीं पड़ेगी।"
राजा पाकेट बुक्स में अपने दोस्त से बख्शी साहब के साथ हुए उस वार्तालाप को सुनने के बाद मैं सीढ़ियाँ उतरकर बेसमेन्ट में नहीं गया था, बल्कि वापस लौट गया था, मगर रास्ते में ही राजकुमार गुप्ता जी से मुलाकात हो गई, जोकि शक्ति नगर में ही अग्रवाल मार्ग पर स्थित मनोज पाकेट बुक्स के आफिस की पहली मंजिल पर स्थित अपने घर से होकर आ रहे थे।
बाद में एक बार अपने दोस्त की अनुपस्थिति में मैंने बख्शी साहब से अपने दोस्त की बातें पूछीं तो पता चला कि मेरा वह दोस्त मुझे दुनिया का सबसे बड़ा 'चू... ' समझता है यानि बेवकूफ समझता है और खुद को बहुत बड़ा अक्लमंद और योगेश मित्तल जैसे एक शख्स को बार बार बड़ी कामयाबी से बेवकूफ बना देता है।
खैर, बात हम वेदप्रकाश शर्मा द्वारा पूछे गये सवाल की कर रहे थे! वेद ने सवाल किया था कि मुझे एक महीने में ठीक ठीक कितने पैसों की जरूरत होती है।
थोड़ी देर के लिये मैं इस सवाल पर खामोश रह गया था, कुछ समझ ही नहीं आया कि क्या जवाब दूं, पर फिर मैंने उलटा सवाल कर दिया कि - "यह क्यों पूछ रहे हो?"
जवाब में वेद ने कहा -"अगर तुझे अपने खर्च लायक पैसा किसी एक ही पब्लिशर से मिल जाये तो दस जगह भागने की क्या जरूरत है! दरअसल सुरेश जी काफी समय से कह रहे हैं कि योगेश मित्तल के अन्दर कुछ क्वालिटी है, अगर वो टिककर काम करे तो उसके लिये कुछ करते हैं।"
मतलब मेरे लिये सुरेश चन्द्र जैन के दिल में कोई साफ्ट काॅर्नर था और उनका विचार था कि योगेश मित्तल के लिये कुछ ऐसा किया जाये कि उसे नाम और दाम दोनों ठीक ठाक मिलें।
लेकिन सुरेश चन्द्र जैन के दिल की बात मुझे डिटेल में वेद भाई ने ही बताई।
मुझे नहीं पता कि मैंने सही किया या गलत, लेकिन उस समय मेरी टांगें इतनी जगह फंसी हुई थीं और स्वभाववश मैं हमेशा से सौ परसेन्ट ईमानदार और सच्चा इन्सान रहा हूँ कि एक साथ कई लोगों को धोखा देकर, एक अच्छी आफर स्वीकार कर लेने का मन ही नहीं बना सका, बोला -"वेद भाई, कभी हिसाब नहीं लगाया, कितना कमा रहा हूँ... कितना खर्च कर रहा हूँ, यह सब हिसाब किताब तो इत्मीनान से लगाकर ही कुछ बता सकूँगा।"
"ठीक है, कितने दिन में आप हिसाब लगा लोगे?"- सुरेश चन्द्र जैन ने पूछा -"एक दिन... दो दिन.. तीन दिन...?"
"हाँ, कुछ दिन तो लगेंगे ही...।" - मैंने कहा!
"कुछ दिन क्यों लगेंगे?" - वेद ने कहा -"तू बता, तुझे हर महीने घर पर क्या देना है और अपने लिये कितना चाहिये? दो मिनट का काम है।"
मैं चुप रहा।
वेद के इन शब्दों ने निरुत्तर सा कर दिया, तब शायद सुरेश चन्द्र जैन मेरी असमंजस की स्थिति को ताड़ गये और बोले -"नहीं दो चार दिन या हफ्ता सोचने दो इन्हें। खेल खिलाड़ी, मनोज पाकेट बुक्स, भारती पाकेट बुक्स, जहाँ जहाँ भी काम कर रहे हैं, वहाँ से कैसे हाथ खींचना है, कैसे काम समेटना है, उसके लिये भी तो प्लानिंग करनी होगी।"
"हाँ-हाँ...।" - मैं तत्काल बोला और एकदम कुर्सी से उठ गया -"मैं मिलता हूँ कुछ दिनों में, अभी चलता हूँ।"
वेद भाई और सुरेश चन्द्र जैन दोनों में से किसी ने मुझे रोकने का प्रयास नहीं किया। जिसका कारण बहुत बाद में वेद भाई के मुंह से ही पता चला था कि उस दिन वेद भाई और सुरेश भाई सचमुच कोई व्यापारिक बात कर रहे थे और मैं अचानक पहुँच गया तो खामोश हो गये, क्योंकि हर बात हर शख्स के सामने नहीं की जाती।
शेष भाग -20 में
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