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रविवार, 28 फ़रवरी 2021

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा, आत्मकथा भाग-02

मैं आवारा, इक बनजारा-  भाग-2
अशोक कुमार शर्मा, आत्मकथा
तो दोस्तो, मेरे गांव रूपगढ़ की इस ऐतिहासिक दास्तान सुनने के बाद अब आप इस ख़ाकसार की दास्तान भी सुन लीजिए, जिसका कि शीर्षक मैंने दिया है  -   
मैं आवारा, इक बंजारा
मेरा, यानी कि इस नाचीज़ का जन्म ऐसे ही ऐतिहासिक महत्व वाले रूपगढ़ नाम के इस गांव में ईसवी सन 1968 को श्री मदन लाल शर्मा एवं श्रीमती गीता देवी के घर सुबह चार बजे अलसभोर में हुआ था।
घर में मेरे दो भाइयों सुभाष शर्मा एवं पवन शर्मा का जन्म मुझसे पहले ही हो चुका था, इस कारण घर में सबसे छोटा सदस्य होने की वजह से मैं सबका प्यारा, राज दुलारा और आंखो का तारा था। इस वजह से बचपन से ही मुझे स्वच्छंद और आवारगी भरा जीवन जीने का पक्का लाइसेंस मिल गया था।
अब..., जब मेरे खानदान की बात चल ही गई है, तो मैं अपने शेष खानदान का एक छोटा सा परिचय आपको दे दूं।
और मेरे शेष खानदान का छोटा सा परिचय ये है दोस्तो कि मेरे पूजनीय दादाजी का नाम -
श्री बंशीधर शर्मा, दादी का नाम श्रीमती घोटीदेवी, मेरी भाभियों का नाम क्रमश: पाना शर्मा और किरण शर्मा है और मेरी धर्मपत्नी  का नाम मंजू शर्मा है ।
मेरे पुत्र का नाम सौरभ शर्मा और मेरे भतीजे व भतीजी का नाम क्रमश: विकास शर्मा, सचिन शर्मा और बीना शर्मा ( धर्म पत्नी - श्री दीपक शर्मा ) है ।
और हम सब की प्यारी और राज दुलारियों नाती और पोती का नाम मनस्वी शर्मा और आराध्या शर्मा है।
मेरे भतीजे विकाश और सचिन, दोनों की ही पत्नियों का नाम संयोग से पूनम शर्मा है ।
बचपन में, यानी कि तीन - चार साल की उम्र में मैने अपनी सिर्फ पांचवीं कक्षा पास मां से राजाओं की, भूतो की, चोरों की, स्थानीय रॉबिन हुड जैसे परोपकारी और उदार दिल डाकू व स्वतंत्रता सेनानी बलजी - भूरजी और डूंग जी - जवाहर जी की, व्रतकथा और त्योंहारों की, लोककथा और परलोक कथाओं की, रामायण और महाभारत के महान पात्रों की और अन्य बहुत सी कहानियां सुनी थी।
इसके अलावा जब हमारा परिवार नागौर जिले के कुकनवाली नाम के गांव में रहता था, तो मैं अपने भाईयो के साथ रामलीला और नाटक देखने के लिए भी जाया करता था ।
नाटकों में मैंने 'मैना सुंदरी और सर सुंदरी', 'राजा हरीश्चंद्र, 'राजा भरतहरी', 'सुल्ताना डाकू' और 'रूप - बसंत' जैसे कई नाटक कई बार देखे, जिनका प्रभाव मेरे भावुक व संवेदनशील दिल पर और कल्पना शील दिमाग पर बहुत ही ज्यादा पड़ा।
मैं नाटकों के पात्रों की खुशी में उनके साथ हंसता था और उनके दुखों में उनके साथ रोता था। यानी कि मैं मात्र एक दर्शक न रहकर उन्ही के परिवार का एक सदस्य बन जाया करता था और उनके सुखी होने पर मैं खुद को भी सुखी और उनके दुखी होने पर मैं खुद को भी दुखी महसूस करता था।
मुझ जैसे नाचीज़ में दया, प्रेम, सहानुभूति, अहिंसा, सहयोग, सत्यता और न्यायप्रियता आदि गुण व अन्याय, असमानता, हिंसा और शोषण के खिलाफ जो आक्रोश का भाव थोक भाव में मौजूद है, उनकी वजह मेरी मां द्वारा सुनाई गई कहानियां, रामलीला और उन नाटकों का ही प्रभाव है।
सिर्फ यही नहीं, मेरी कल्पनाओं को उड़ान भी इन्होंने ही दी।
मैं कल्पना में इनके मुख्य पात्रों की जगह खुद को रखकर मन ही मन उन जैसा होने का अहसास महसूस करता था।
कहने का मतलब ये है साहेबान कि उन कथा - कहानी और नाटकों ने मेरे भविष्य में लेखक होने की एक पुख्ता और मजबूत नींव रख दी थी, परिणाम स्वरूप मैं अपने कल्पना शील दिमाग से जोड़ - जोड़ कर मनघड़ंत कहानियां अपने यार - दोस्तों, नाते - रिश्तदारों और घरवालों - बाहरवालों को लगभग चार - पांच वर्ष की उम्र में ही सुनाने लगा था।
बचपन में मेरे द्वारा सुनाई जाने वाली उन कहानियों को सुनकर  मेरे मंझले मामाजी श्री दीनदयाल शर्मा ने भविष्यवाणी कर दी थी कि मेरा ये नन्हा सा भांजा बड़ा होकर एक न एक दिन बहुत ही बड़ा लेखक बनेगा और दुनिया में अपना नाम रोशन करेगा।
और इस प्रेणना भरे मात्र एक ही वाक्य ने हमेशा ही मुझे एक लेखक बनने और इस वाक्य को सिद्ध करके दिखाने के लिए प्रेरित किया।
मैं जानता हूं कि आप मन ही मन ये जरूर सोच रहे होंगे कि मैं लंबी - लंबी फैंक रहा हूं।
एक चार - पांच साल की उम्र वाली बचपन की बातें भला बावन साल की उम्र में कैसे याद रह सकती है ?
तो मैं आपको बतादूं कि ऐसे  प्रेरणादायक या दिल को चोट पहुंचने वाले प्रसंग या संस्मरण या घटनाऐं, जिन्होंने आपके दिल, दिमाग और भावनाओं को बहुत ही ज्यादा और बहुत ही गहराई तक प्रेसराईज या प्रभावित या आहत किया हो, वे दिमाग की 'स्थाई मेमोरी' में  जाकर स्टोरेज हो जाते हैं। ठीक उसी तरह, जिस तरह आपके कम्प्यूटर पर आप द्वारा दिए गए सभी कमांड उसकी स्थाई मेमोरी 'रोम' में जाकर स्टोरेज हो जाते है।
इसी कारण हम बचपन के प्रेरणादायक या सुखदायक या दुखदायक प्रसंग, संस्मरण और घटनाओं को जीवन में कभी भी नहीं भुला पाते।
वैसे मैं आपकी जानकारी के लिए  बता दूं कि आपका ये प्रिय लेखक बहुत ही ज्यादा भूलक्कड़ है। ठीक उस बावन साल पुराने कम्प्य़ूटर की तरह, जिसकी स्थाई मेमोरी 'रोम' तो काम करती है, पर अस्थाई मेमोरी 'रेम' ठीक से काम नहीं करती। इसलिए मुझे आज अपने दैनिक जीवन में बहुत सी कठिनाइयों का और इस कारण हुई शर्मिंदगियों का लगभग हर रोज ही सामना करना पड़ता है ।
और वो इसलिए, क्यों कि लोग इस बात पर यकीन ही नहीं करते कि कई किताबें लिखने वाला लेखक इतना बड़ा भुलक्कड़ भी हो सकता है।
       स्थाई मेमोरी की बात जब चल ही निकली है, तो यहां मैं अपने जीवन की आपको वे छोटी - छोटी सी कुछ बाते और घटनाऐं बताता हूं, जब मैं सात साल से भी कम उम्र का था।
तीन -  चार साल की उम्र में मुझे सबसे छोटे मामाजी की बारात में अपने ननिहाल हर्ष से सीकर ले जाया गया था और वहां नाश्ते में रसगुल्ले दिए गए थे , जिनको मैंने अपनी छोटी सी जिंदगी में पहली बार देखे थे और जिन्हें मैंने अंडे समझकर खाने से साफ इंकार कर दिया था। फिर बाद में अपने दीनदयाल मामाजी द्वारा बार - बार समझाये जाने और खुद खाकर दिखाये के बाद मैंने उन्हें बहुत ही शौक से खाए थे।
उन्ही दिनों एक रोज मेरे दीनदयाल मामाजी हर्ष की बहुत ही ऊंची पहाड़ी की तलहटी में स्थित पोलकाजी मंदिर के दर्शन करने के लिए जा रहे थे। लाडला भांजा होने की वजह से मुझे भी उन्होंने अपनी साईकिल के डंडे पर अपने आगे बैठा लिया था, पर उस दिन बहुत ही तेज सर्द हवाएं चलने के कारण मैं जोर - जोर से कांपने लगा। और फिर न जाने मैं कब बेहोश होकर साईकिल से नीचे गिर पड़ा।
जब मैं होश में आया, तो मैंने देखा कि एक साधू के आश्रम में जलते हुए धूने { अलाव } की आग के सामने मेरे मामाजी मुझे अपनी गोद में लिटाये हुए अपनी हथेलियों को सामने जल रही आग से गर्म कर - करके मेरे ललाट और जिस्म पर  सिकाई कर रहे थे ।
हमारे सामने एक सफेद जटाओं वाले साधू महाराज भी बैठे हुए थे, जो चुपचाप हमारी ओर ही देख रहे थे और शायद मुझे होश में लाने का यह सटीक नुस्खा भी उन्होंने ही मेरे मामाजी को बताया था ।
वो तो उस महात्मा द्वारा मेरे मामाजी को बताए गए उस नुस्खे से गनीमत मानो कि मैं वापस होश में आ गया, वरना आपके इस ख़ाकसार लेखक के जीवन का उसी दिन 'द एंड '  हो जाना था ।
उन दिनों हम कुकनवाली रहा करते थे। वहां हमारे घर में एक सफेद गाय, जिसका कि नाम 'फूलां' था, के अलावा एक मोटी - ताजी बहुत ही ज्यादा मात्रा में दूध देनेवाली एक खूबसूरत सफेद बकरी और उस सफेद बकरी के दूध से भी ज्यादा सफेद रंग का और रेशम जैसी मुलायम त्वचा वाला उसका एक बच्चा भी था, जिसके साथ मै खूब खेला करता था।
उस बकरी के बच्चे का शिकार करने के लिए रात को अक्सर एक भेड़िया हमारे घर की ऊंची बाड़ फर्लांग कर हमारे घर के अहाते में आने लगा, पर बकरी और उसका बच्चा एक बंध दरवाजे वाली टपरी [ कच्चा घर ] में बंधे हुए रहते थे, इस वजह से वो भेड़िया कभी भी अपने इरादे में कामयाब नही हो पाया।
उस भेड़िए की गंध सूंघकर वो बकरी और उसका बच्चा मारे भय के जोर - जोर से बोलने लग जाते थे।
उनकी इस भयभीत भरी आवाज से मेरे पिताजी समझ जाया करते थे कि जरूर कोई खतरा है।
वे लाठी लेकर टपरी की और जाते थे और उस भेड़िए को भगा दिया करते थे।
मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि वो खूंखार भेड़िया उस बकरी के  बच्चे को मारकर खा जाना चाहता है।
ये सुनकर मेरे मन में बार - बार सवाल उठने लगा कि आखिर उस बकरी के उस मासूम बच्चे ने उस खूंखार भेड़िए का ऐसा क्या बिगाड़ दिया, जो वो उस निर्दोष बेजुबान को मारकर खा जाना चाहता है ?
उस समय मेरा अबोध मन इस कलियुगी दुनिया की इस हिंसक प्रवृति और कुव्यवस्था को समझ नहीं पाया था, पर आज सोचता हूं कि उस वक्त मेरे पिताजी ने उस मासूम को उस जंगली भेड़िए से तो बचा लिया था, पर वे उसको उन सभ्य इंसानों से कैसे बचाते, जो सिर्फ अपनी चटोरी जीभ के गुलाम है और जिनके लिए दूसरों का दुख - दर्द और पीड़ा कोई भी मायने नहीं रखता।
अच्छा हुआ कि वो मासूम कुछ दिनों बाद बीमार होकर अपनी मौत खुद मर गया, वरना उसे इस दुनिया में चट कर जानेवालों की कोई कमी न थी।
ये मेरे भावुक और संवेदनशील दिल पर लगी पहली गहरी चोट थी। उस गहरी चोट को मेरा कोमल मन झेल नहीं पाया, इसीलिए मैं उस बकरी के बच्चे के लिए खूब रोया और बहुत ही दिनों तक खूब उदास भी रहा।
बाद मैं वो खूबसूरत बकरी भी किसी पागल कुत्ते के काटे जाने के कारण पागल होकर मर गई।
इस तरह जीवन की एक अटल और बहुत ही दर्दनाक सच्चाई का, जिसका कि नाम 'मौत' है, मुझे अपनी छोटी सी उम्र में पहली बार अनुभव हुआ था और उस अनुभव की गहरी चोट से मेरे मन में जीवन के प्रति कुछ - कुछ विरक्ति के भाव उत्पन्न हो गए थे।
वो बकरी का बच्चा, जो कि मेरा सबसे अजीज दोस्त था, की याद आते ही मैं बहुत ही ज्यादा उदास हो जाया करता था और मुकेश द्वारा गाये गए एक फिल्मी गाने की तरह ही अक्सर मैं सोचने लग जाया करता था कि -

दुनिया से जाने वाले,
न जाने चले जाते हैं कहां...?
कोई कैसे ढूंढे उनको,
नहीं कदमों के भी निशां "...?

जीवन के प्रति उसी विरक्ति का भाव आज भी मेरे मन के किसी कोने में उसी तरह बना हुआ है, जिस तरह उस बकरी के बच्चे की मौत के बाद बना था।
पर इस मृत्युलोक में विरक्ती का भाव चाहे किसी के मन में कितनी भी ज्यादा मात्रा में मौजूद क्यों न हो, पर न चाहने के बावजूद भी कहीं न कहीं और कुछ न कुछ  आसक्ती की मात्रा भी बनी ही रहती है।
क्यों कि  -
काजल की कोठरी में कितनों ही सयानो जाय ।
एक लीक काजल की, लागी है पे लागी है।
इसलिए जब - जब भी मैंने खुद का निष्पक्ष मूल्यांकन किया है, तो यही पाया है कि मैं आधा विरक्त भी हूं और आधा आसक्त भी।
यानी कि -
आधा तीतर और आधा बटेर।
ठीक उस बगुले की तरह, जो अधिकतर रहता तो विरक्ति रूपी थल पर ही है, पर अपनी रीजक जुटाने के लिए उसे आसक्ति रूपी जल में उतरना ही पड़ता है।
इसलिए बाबजूद उस विरक्ति के, इस फ़ानी दुनिया को छोड़कर जा चुके उस बकरी के बच्चे की याद अब भी कभी - कभार आ ही जाती है।
ऐसी ही जिंदगी में बहुत सी यादें और भी है, जिनको कभी भी भुलाया नहीं जा सकता।
एक ऐसी ही याद है कुकनवाली में गणगौर के उत्सव पर होने वाली उस घुड़दौड़ और ऊंटदौड़ की, जिसकी पूरे कुकनवाली के वाशिंदो को बड़ी ही आतुरता से प्रतीक्षा रहा करती थी।
हम बच्चे लोग उन ऊंट - घौड़ो को दौड़ते हुए देखकर बहुत ही खुश हो जाया करते थे और खुश होकर बहुत देर तक तालियां और सीटियां बजाया करते थे और साथ ही साथ जोर - जोर से शोर भी मचाया करते थे।
हमारी आवारा पार्टी के मेंबर उन ऊंट - घोड़ों में से अपने - अपने मन पसंद का ऊंट - घोड़ा चुन लिया करते थे और उनके जीतने पर वो मेंबर उसी तरह खुशियां मनाया करता था, जैसे उसका खुद का ऊंट - घोड़ा जीत गया हो।
यानी कि - 'बेगाने की शादी में, अब्दुल्ला दीवाना'।
बाकी के मेंबरों के चेहरे यूं लटक  जाया करते थे, जैसे कि बेल के नीचे तुंबा। और फिर जब उनसे जीतने वाले मेंबर की खुशी बर्दास्त नहीं होती थी, तो वो जल - भुन कर कहता था - अरे, काहे को इतना शोर मचा रहा है, यार ? अगली बार देखना, मैं ही जीतूंगा।
जीतने वाले ऊंट और घोड़े के मालिकों को इनाम भी दिया जाता था और हमारा नकली विजेता मेंबर भी उस असली विजेता के आजू - बाजू अकड़कर यूं खड़ा हो जाया करता था, जैसे कि उसे ही इनाम मिलने वाला हो।
बाकी के मेंबर उसकी इस अकड़ को देखकर मन ही मन जल - भुन जाया करते थे और उसपर तरह - तरह कि फब्तियां कसा करते थे।
आपकी जानकारी के लिए बतादूं कि आपके इस ख़ाकसार को भी एक बार यूं ही अकड़ कर खड़े होने का मौका मिला था, जब मेरी पसंद का घोड़ा, जिसके कि मालिक कुकनवाली के राजा ठाकुर बन्ने सिंह जी थे, जीत गया था। 
अक्सर इस ऊंट और घुड़दौड़ में कुकनवाली के राजा साहेब -  ठाकुर बन्ने सिंह जी का ऊंट और घोड़ा ही अव्वल आते थे।
उनका वो काले चमकीले रंगवाला और बहुत ही ऊंची कद - काठी वाला घोड़ा बहुत ही खूबसूरत और बहुत ही कीमती था।
ये सन् 1974 - 75 के आसपास की बात होगी। उस वक्त सुना था कि पांचवा के ठाकुर साहेब ने उस वक्त उसकी कीमत बीस हजार रूपए लगाई थी, जो महंगाई के हिसाब से देखें तो आज अगर वो घोड़ा जिंदा होता, तो उसकी कीमत करोड़ों में होती।
उस घोड़े का जिक्र मैं इसलिए कर रहा हूं, क्यों की उस घोड़े की सवारी का मौका आपके इस ख़ाकसार को भी कई बार मिला था।
और वो ऐसे कि ठाकुर साहेब के कोई भी संतान नहीं थी, इसलिए वे अपने दासी पुत्र नाथू सिंह को ही अपनी संतान की तरह माना करते थे। नाथू सिंह जी की मनुहार और जी हुजूरी करने पर वे कभी - कभार हमें भी अपने साथ उस घोड़े पर बैठा लिया करते थे, जो हमारे लिए बहुत ही रोमांचक और खुशी भरा अनुभव होता था।
उस घोड़े पर बैठकर हम खुद को किसी स्टेट के राज कुमार से कम नहीं समझा करते थे ।
आपकी जानकारी के लिए बतादूं कि ठाकुर बन्ने सिंह जी उस समय उस गांव के सरपंच थे और मेरे पिताजी वहां के ग्रामसेवक।
उन्ही दिनों के आस - पास ही इमरजेंसी लगी थी और प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने लगभग सभी बड़े विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया था।
ये बात मुझे अपने पिताजी के रेडियो से और उन लोगो की चर्चा -  परिचर्चा से मालूम चली, जो हर रात सात या आठ बजें हमारे घर के सामने मौजूद खुली जगह पर डाली गई खटियाओं पर आकर बैठ जाया करते थे और बीड़ी के सुट्टे लगाते हुए बी. बी. सी. लंदन से प्रसारित होने वाले समाचार बड़े ही ध्यान से सुना करते थे और बाद में उन समाचारों में आए किसी मुद्दे पर आपस में जोरदार बहस भी किया करते थे, पर उनकी वो बहस आजकल टी. वी. चैनल्स पर नेताओ द्वारा की जाने वाली बेतुकी और हो - हल्ले वाली बहसों जैसी नहीं हुआ करती थी, बल्कि वो बहसें तथ्य और तर्क सहित सभ्य तरीके से दोस्ती के माहौल में हुआ करती थी ।
ये कार्य मेरे पिताजी और उन लोगों के रोज के महत्त्वपूर्ण कार्यों में शामिल था।
उस वक्त मुझे समाचारों की तो उतनी समझ नहीं थी, पर समाचारों से पहले बी. बी. सी. लंदन से संगीत की जो लुभावनी सी ट्यून आती थी, वो मुझे बहुत ही ज्यादा पसंद थी और साथ ही साथ उस वक्त के एंकर की वो प्रभावशाली आवाज भी, जो वो बड़े ही उतार - चढ़ाव के साथ और बड़े ही नाटकीय अंदाज़ में बोला करता था - ये बी. बी. सी. लंदन है। अब आप फलान चंद जी से देश और दुनिया की प्रमुख खबरें सुनिए।
     मेरे पिताजी को न केवल रेडियो सुनने का, बल्कि डायरी लिखने का भी बहुत बड़ा शौक था। उनके द्वारा उस वक्त की लिखी हुई डायरी आज भी हमारे घर में सुरक्षित मौजूद है, जिसको कभी - कभार मैं पढ़ लिया करता हूं और पढ़कर बहुत ही ज्यादा आनंदित हो जाया करता हूं।
उसमें इंडिया चाइना वार के समाचारों के अलावा नेहरू जी के उस वक्त के दिए गए वक्तव्यों का भी बहुत ही बारीकी से उल्लेख है, जो कि बहुत ही सारगर्भित है।
यह डायरी इतने रोचक ढंग से लिखी हुई है कि पढ़ने वालो को ये तुरन्त ही उस वक्त के माहौल में पहुंचा देती है, जिस वक्त और जिस माहौल में ये लिखी गई थी।
हम बच्चे अक्सर वहां के सफेद चोला पजामा पहनने वाले पटवारी जी, जिनका कि मुझे अब नाम याद नहीं है और जो एक  चांदी की पानदानी सदैव ही अपने पास रखा करते थे और जिनके मुंह में हमेशा ही एक पान दबा हुआ रहा करता था, से पूछा कि पटवारी काका, ये इमरजेंसी क्या बला है, जो लोग अक्सर इसी चुड़ैल की चर्चा करते रहते हैं।
उस वक्त मेरे साथ मेरे आवारा दोस्त भी मौजूद थे, जो पटवारी काका द्वारा दिए जानेवाले जवाब की बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे थे।
कुछ पलों के इंतजार के बाद पटवारी काका ने जवाब में हमे डराते हुए बताया कि सरकार द्वारा एक ऐसा कानून लाया गया है, जिसके तहत बदमाशी करने वालों को पकड़ कर तुरन्त जेल में डाल दिया जाएगा, इसलिए तुम लोग अगर अपनी खैर चाहते हो, तो रोज स्कूल जाया करो और
अपनी शरारतें जितनी जल्दी हो सके, उतनी जल्दी बंद कर दो।
पटवारी काका के मुंह से यह सब सुनकर सचमुच हम डर गए और हमारे चेहरों पर हवाइयां उड़ने लगी।
हमारे चेहरे पर एकाएक यूं हवाइयां उड़ती हुई देखकर वे एक जोरदार ठहाका लगाकर हंस पड़े और फिर उन्होंने हमारा ये डर दूर करने के लिए मुस्कराते हुए कहा -  "अरे, तुम लोग तो सचमुच ही डर गए !  मैं तो सिर्फ मजाक कर रहा था।"
"क... क्या सचमुच आप मजाक कर रहे थे ?" मैंने बेयकीनी अंदाज में पूछा।
"अरे हां, बाबा... हां. इसलिए तुम लोग तो पहले की तरह ही खूब खेलो और खूब शरारतें करो। जेल में तो उन्हे डाला जाएगा, जो काला बाजारी करते हैं।"
उनके मुंह से ये सुनकर तो हम और भी ज्यादा डर गए, इसलिए मैंने घबराए हुए स्वर में कहा - "क...काका ! तब तो हम लोग गए काम से।"
उन्होंने आश्चर्य से पूछा - "अरे, वो कैसे  ?"
मैंने कहा - "वो ऐसे, क्यों की काला बाजारी तो हम लोग भी करते है।"
उन्होंने हैरत से ही पूछा  - "अरे, त... तुम लोग  !  त...तुम लोग कौनसी काला बाजारी करते हो ?"
जवाब में मैंने कहा कि -"हम बाजार की दीवारों पर अक्सर कोयले से उन टीचर्स का कार्टून बनाकर   उसके नीचे हमारे द्वारा उनके बिगाड़े हुए नाम भी लिख दिया करते है, जो होमवर्क न करने पर हमे बहुत ज्यादा मारते - पीटते है। इस तरह कोयले से बाजार की दीवारों को काला करके काला बाजारी हम भी तो किया करते हैं न, काका।"
पटवारी काका हमारी इस काला बाजारी की समझ को सुनकर एकबार फिर ठहाका लगाकर हंस पड़े ।
फिर उन्होंने अपने पान की पीक  पुच्च से थूकने के बाद हमें काला बाजारी का सही अर्थ बताया, तो हमारी समझ में आया कि हम कितने बड़े बेवकूफ है ।
उस वक्त वस्तुओं के बहुत ही कम भाव थे, जैसे -  गेंहू एक या डेढ़ रुपए किलो, जौ  अस्सी - नब्बे पैसे किलो, चीनी डेढ़ - दो रुपए किलो, गुड़ अस्सी पैसे किलो और देशी घी लगभग बारह - तेरह रुपए किलो था । फिर भी ये कम भाव काला बाजारी के भावों के अंतर्गत ही आते थे।
उस समय पांच पैसे की पांच
टॉफियां या एक आइस्क्रीम आ जाया करती थी। गुब्बारे पांच पैसों के दो आ जाया करते थे।
उन दिनों एक, दो और तीन पैसे के सिक्के भी बहुत चलन में थे, पर हम जैसे कंगलो के पास उन जैसे छुटकू सिक्को का भी हमेशा अभाव ही बना रहता था ।
अरे, हां ।
उन दिनों की एक मजेदार घटना तो मैं आपको सुनाना भूल ही
गया ।
उन दिनों की एक मजेदार घटना तो मैं आपको सुनाना भूल ही
गया ।
हुआ यूं था दोस्तो कि गर्मियों के दिनों मे आइस्क्रीम बेचने वाला एक बूढा आदमी रोज ही दोपहर की छुट्टी में अपनी आइस्क्रीम बेचने के लिए हमारी स्कूल के बाहर मौजूद एक बरगद के पेड़ के नीचे आया करता था ।
वो बूढ़ा बहुत ही सनकी था और साथ ही साथ बहुत ही चिड़चिड़ा और गुस्सैल भी।
आइस्क्रीम न खरीदने वाले बच्चों को वो अपनी आइस्क्रीम वाली पेटी के पास भी नहीं फटकने देता था।
वो उनको डांटता - डपटता तो था ही इसके अलावा ऊपर से तरह - तरह की फब्तियां भी कसता रहता था।
और हम कंगलों के पास रोज पैसे कहां होते थे, इसलिए हमारी आवारा पार्टी को रोज उसकी डांट- डपट खानी पड़ती थी और उसकी तरह - तरह कि फब्तियां भी सुननी पड़ती थी।
इस कारण हमारी आवारा पार्टी उस खब्ती बूढ़े को कोई जोरदार सा सबक सिखाना चाहती थी, पर हमारी समझ में ये कभी भी नहीं आया कि आखिर उसको सबक सिखाए, तो कैसे सिखाएं ?
तभी एक रोज ऊपरवाले ने तरस खाकर हमे एक ऐसा मौका दे दिया ।
हुआ यूं कि उस रोज एक हट्टा - खट्टा सा नौजवान वेंडर भी अपनी आइस्क्रीम बेचने के लिए वहां पर आ धमका।
ये देखकर हम बहुत ही खुश हो गए और आपस में तय कर लिया कि आज इस बूढ़ऊ की वॉट जरूर लगानी है। बहुत अकड़ता है न ये।
इसी योजना को अंजाम देने के लिए मैंने अपनी आवारा पार्टी के सदस्यों के साथ जाकर आइस्क्रीम खाने वाले उन सभी बनियों के बच्चो को उस बूढ़े के पास जाने से रोक दिया था, जो लगभग हर रोज ही उससे आइस्क्रीम खरीदकर खाया करते थे।
मैंने उनसे कहा कि आज हम सब उस नए वाले वेंडर से आइस्क्रीम खरीद कर खाएंगे, क्यों कि उसके पास बूढ़े वेंडर की तरह सिर्फ लाल रंगवाली ही नहीं, बल्कि तरह - तरह के रंगवाली आइस्क्रीमें भी है।
ये कहने को तो मैंने कह दिया था, पर उस पांच पैसे की आइस्क्रीम को खरीदने के लिए हमारी आवारा पार्टी के पास एक फूटी कोड़ी भी नहीं थी।
सिर्फ मेरी जेब में एक पैसे का सिक्का था, पर उस एक पैसे के सिक्के से आइस्क्रीम खरीदकर नहीं खाई जा सकती थी।
वे सभी बनिए के बच्चे हमारी बात मान गे।
मैं उनका नेतृत्व करता हुआ उस नए वाले वेंडर की ओर बढ़ने लगा।
पर वो खब्ती बूढ़ा यूं आसानी से हार मानने वालों में से नहीं था, इसलिए उसने हमारे पीछे से एक जोरदार आवाज लगाई - चार पैसे की एक... चार पैसे की एक।
ये सुनते ही वे बनियों के लड़के झट से उस उस खब्ती बूढ़े की ओर वापस मुड़ गे।
ये देखकर मैं हक्का - बक्का रह गया और सोचने लग गया कि अब करूं, तो क्या करूं ?
अगर वे लड़के वापस उस नएं वेंडर की ओर नहीं मुड़े, तो मेरी तो बेइज्जती हो जाएगी ।
फिर मेरे आला दिमाग ने उनको वापस उस नए वेंडर की ओर मोड़ने की तुरन्त एक तरकीब सोच ली ।
मैंने उस नए वेंडर से मुखातिब होकर ज़ोर से पूछा - सुनो भैया, क्या तीन पैसों की एक दोगे ?
नया वेंडर कुछ पल तक तो कुछ सोचता रहा और फिर अनिच्छा वाले भाव से धीरे से बोला - हां... हां...। क... क्यों नहीं । आ जाओ। सभी आ जाओ।
ये सुनते ही मैं खुश हो गया।
फिर मैं जैसे ही उन बनियों के छोकरों को वापस उस नए वेंडर की ओर मोड़ने के लिए पीछे घुमा, तो ये देखकर मैं दंग रह गया कि वे लालची लड़के तो किन्हीं ऑटोमैटिक खिलौनों की तरह खुद - ब - खुद पहले ही उस नए वेंडर की ओर घूम गए हैं।
पर तभी उस बूढ़े ने पीछे से अपना गला फाड़ते हुए एक जोरदार आवाज फिर से लगाई - दो पैसे की एक । दो पैसे की  एक।
इससे पहले कि वे लालची लड़के वापस उस खब्ती बूढ़े की ओर मुड़ते, नए वाले वेंडर ने उस खब्ती बूढ़े का चैलेंज कबूल करते हुए पहली बार जोर से आवाज लगाई - आ जाओ । आ जाओ। एक पैसे की एक। एक पैसे की एक।
पर वो खब्ती बूढ़ा कहां हार मानने वाला था। उसने अपना कभी भी फैल न होने वाला शस्त्र, ब्रह्मास्त्र निकाला और बड़े ही जोरदार तरीके से वार करते हुए चिल्लाया  - "चले आओ । चले आवो, फोकट में आइस्क्रीम। फोकट में आइस्क्रीम।"
ये सुनते ही सभी बनियों के लड़के तुरन्त उस बूढे की ओर ऑटोमैटिक ढ़ंग से मुड़ गए।
मेरे होशो - हवास तो जैसे फाख्ता बनकर फुर्र से उड़ गए थे ।
फिर कुछ पल बाद मैंने बड़ी ही आशा और अपेक्षा भरी दृष्टि से उस नए वेंडर की ओर देखा कि शायद वो भी कोई जवाबी वार करेगा, पर उसने इस बार कोई भी जवाबी वार नहीं किया था ।
और वो शायद इसलिए, क्यों कि उसके पास उस बूढ़े के ब्रह्मास्त्र की काट करने वाला कोई भी अस्त्र - शस्त्र नहीं था।
वो निराशा और हताशा भरी दृष्टि से बनियों के बच्चो को उस खब्ती बूढे की ओर जाते हुए बस देखता रहा।
हमारी आवारा पार्टी असमंजस की स्थिति में अभी भी युद्ध मैदान में डटी हुई थी और मेरे अगले आदेश की प्रतीक्षा कर रही थी।
तभी वो बूढ़ा जिंदगी में पहली बार अपनी आइस्क्रीम से भी मीठे  स्वर में हमसे बोला - "अरे, तुम लोग क्यों रुक गए ? आ जाओ। आ जाओ भाई। तुम लोगो को भी फोकट में आइस्क्रीम मिलेगी।"
ये सुनकर हमारी आवारा पार्टी के एक मेंबर ने बड़ी ही बेसब्री से मुझसे पूछा - "जल्दी बता, यार। चलेगा या नहीं ? हम लोग तो फोकट में आइस्क्रीम खाने के लिए जा रहे है।"
फिर उसने अपनी गर्दन घुमाकर बाकी के मेंबरों से पूछा -  "क्यों भाईयो ? मैंने ठीक कहा न ?"
आवारा पार्टी के सभी मेंबर लार टपकाते हुए बोले - हां... हां बिल्कुल ठीक बोला । ऐसे मौके बार - बार थोड़े ही आते है।
पर मेरी हार की हताशा को ये गवारा न हुआ, इसलिए मैं झल्लाए हुए स्वर में बोला - "तुम लोगों को अगर जाना है, तो जाओ।  मैं फोकट में आइस्क्रीम नहीं खाता।"
ये सुनकर हमारी आवारा पार्टी का वो मेंबर बाकी साथियों से बोला - बड़ा ही बेवकूफ है, जो ऐसा गोल्डन चांस छोड़ रहा है। पर हम लोग नहीं छोड़नेवाले. आओ भाईयो, चले।
इसके बाद हमारी वो आवारा पार्टी भी उन बनियों के छोकरों के पीछे - पीछे उस बूढ़े की ओर बढ़ गी।
अब युद्ध मैदान में हमारी ओर सिर्फ हम दो योद्धा खड़े थे और वो भी बुरी तरह से जख्मी और हारे हुए।
मैंने उस खब्ती बूढ़े की वॉट लगानें की सोची थी, पर लग गई मेरी।
कुछ ही पलों बाद वे बनियों के छोकरे और हमारी आवारा पार्टी के मेंबर बड़े ही मजे ले - लेकर वो फोकट की आइस्क्रीम खा रहे थे और वो खब्ती बूढ़ा खिल्ली उड़ाने वाले अंदाज में मुस्कराते हुए हमारी ओर ही देख रहा था।
और वो देखता भी क्यों नहीं ?
उसने अपनी बहुत सारी
आइस्क्रीमें फोकट में शहीद करके युद्ध मैदान जो जीत लिया था  और यूं अपना साम्राज्य दुश्मन के हाथों में जाने से बचा लिया था।
पर मुझे उसकी ये व्यंग भरी मुस्कराहट बर्दास्त नहीं हुई।
मैंने अपनी जेब से एक नए पैसे का सिक्का निकाला और उसें  उस नए वेंडर की ओर बढ़ाते हुए बोला - "भैया । जरा एक आइस्क्रीम देना तो।"
नए वेंडर ने आश्चर्य से पूछा - "उधर फोकट में मिल रही है । क्या वो नहीं खाओगे ?"
मैंने अकड़कर कहा - "मैं किसी की फोकट में आइस्क्रीम नहीं खाता।"
ये सुनकर वो नया वेंडर दाद देने वाले अंदाज में बोला  - "शाबास ! शाबाश, बच्चे । पर काश ! तुम जैसी खुद्दारी तुम्हारे साथियों में भी होती।"
ये सुनकर मैंने मन ही मन झुंझलाते हुए कहा कि खुद्दारी क्या ख़ाक है।  मेरा भी मन ललचा रहा है कि औरों की तरह में भी मजे ले - ले कर वो फोकट वाली आइस्क्रीम खाऊं, पर अब कैसे खा सकता हूं ? क्यों कि अपने ही द्वारा बिछाए जाल में मैं किसी मकड़ी की तरह फंस जो गया हूं।
पर वो नया वेंडर तो मुझे एक खुद्दार लड़का ही समझ रहा था   और इसीलिए उसने मुझे शाबाशी दी थी।
उसने एक पैसे का नया सिक्का मुझसे लिया और अपनी पेटी में से एक आइस्क्रीम निकालकर मेरे हाथ में थमा दी ।
उसके बाद वो अपनी पेटी अपने सिर पर रखकर वहां से रुखसत हो गया।
और ऐसा रुखसत हुआ कि फिर कभी भी लौटकर वहां वापस नहीं आया।
और इस प्रकार उस खब्ती बूढ़े ने उस हट्टे - खट्टे नौजवान वेंडर को सदा के लिए भगाकर बड़ी ही चालाकी से अपने साम्राज्य पर पुन: एकाधिकार स्थापित कर लिया था ।
वाह री किस्मत !
अब हमे पहले की तरह ही रोज उस खब्ती बूढ़े की डांट - डपट खानी थी और उसकी तरह - तरह की फब्तियां चुपचाप सुननी थी।
अब चलिए। मैं अपने जीवन की एक और मजेदार घटना आपको सुनाता हूं।
हुआ यूं दोस्तो कि एक रोज मेरी माताजी ने एक वेंडर से प्लास्टिक के पारदर्शी पैकेट्स में पैक गुलाबी रंग की बच्चों वाली मिठाई  'गुड़िया के बाल' के तीन पैकेट्स हम तीनो भाइयों के लिए खरीदे थे।
मैंने और पवन भाईसाहब ने तो तुरंत ही वो मिठाई खाली, पर सुभाष भाईसाहब उस वक्त स्कूल गए होने की वजह से वो मिठाई नहीं खा सके।
इसलिए मेरी माताजी ने पैकेट खोलकर उनके हिस्से की मिठाई एक कटोरी में ढक कर रख दी।
जब शाम को सुभाष भाईसाहब घर लौटे, तो माताजी ने उनको उनके हिस्से की मिठाई देने के लिए जैसे ही कटोरी का ढक्कन ऊपर उठाया, तो उन्हे उस कटोरी से वो मिठाई गायब मिली।
मिठाई की जगह उसमें बस दो - चार बूंदे गुलाबी चाशनी की जरूर मौजूद थी।
ये देखकर मेरी मां को गुस्सा आ गया।
उन्होंने समझा कि वो मिठाई जरूर मैंने चुराकर खा ली होगी, इसलिए वो मुझे डांटने - डपटने लगी।
मैंने हर तरह से उनको यकीन दिलाने की कोशिश की कि वो मिठाई मैंने नहीं खाई है, पर उनको मेरी इस बात पर यकीन नहीं आया।
और वो इसलिए, क्यों कि कटोरी अच्छी तरह से ढकी हुई थी, इसलिए किसी बिल्ली द्वारा उसे खा लिए जाने की संभावना भी  नहीं बनती थी, इसलिए उनकी नज़रों में सबसे बड़ी बिल्ली में ही था।
फिर कुछ देर तक डांट - डपट पड़ने के बाद मामला फिर से शांत हो गया ।
चार - पांच दिनों बाद वो 'गुड़िया के बाल' बेचने वाला वेंडर एक बार फिर हमारे मौहल्ले में आ  धमका।
पहले की तरह इस बार भी मेरी माताजी ने हम तीनो भाइयों के लिए उस मिठाई के तीन पैकेट्स खरीदे।
मिठाई वाले ने उत्सुकता से पूछा -  आपके बच्चे कहां है बहन जी ? क्यों कि वे तो मुझे दिखाई ही नहीं दे रहे ।
माताजी ने जवाब दिया -  वे तीनों अभी स्कूल में है ।
मिठाई वाले ने कुछ पल सोचने के बाद कहा -  तब तो वे शाम को ही घर लौटेंगे, इसलिए आप ये मिठाई के पैकेट बिना खोले ही रख देना, वरना कुछ देर बाद ही ये मिठाई गर्मी पाकर पिघल जाएगी और अपने स्थान से पूरी तरह गायब हो जाएगी।
ये सुनकर मेरी माताजी
आश्चर्यचकित रह गी।
क्यों कि उन्होंने अपनी जिंदगी में पहली बार यूं एकाएक गायब हो जानेवाली मिठाई के बारे में सुना था।
अब उन्हे उस दिन कटोरी में से एकाएक मिठाई गायब हो जाने का राज समझ में आ गया था,
इसलिए उन्हें उस बात का बहुत ही अफसोस हुआ कि उन्होंने उस रोज बेवजह ही मुझे डांट दिया था।
इसी तरह एक रोज मेरे दोनो भाईसाहब एक कपड़े की गेंद पर लकड़ी के सोटों { डंडों } से वार कर - करके खेल रहे थे।
अचानक गेंद पर किए गए एक वार के साथ ही पवन भाई साहब के हाथ से लकड़ी का वो सोटा छूट गया और फनफनाता हुआ  वो मेरे सिर पर आ लगा ।
इस कारण मेरा सिर फूट गया और उस फूटे हुए सिर से खून बहने लगा।
ये देखकर मेरे दोनो भाई बुरी तरह  घबरा गए थे।
मुझे तुरन्त हॉस्पिटल ले जाया गया और मरहम पट्टी करवा दी गई।
पर मुझे अपना सिर फूटने का तनिक भी अफसोस नहीं हुआ।
और वो इसलिए, क्यों कि अब मुझे स्कूल भी नहीं जाना पड़ता था।
मैं मन ही मन भगवान से प्रार्थना करता रहता था कि हे भगवान मेरा घाव जल्दी मत भरना, वरना मुझे वापस स्कूल जाना पड़ेगा।
पर ऊपरवाले ने मेरी प्रार्थना कबूल नहीं की ।
चार - पांच रोज बाद ही मेरा वो घाव पूरी तरह से भर गया ।
पर दर्द होने का झूंठा बहाना बना - बनाकर मैं दस - बारह दिन तक स्कूल नहीं गया।
पर आखिर वो झूंठा बहाना कब तक चलता ?
दस - बारह रोज बाद जबरदस्ती मुझे स्कूल वापस भेज दिया गया।
पर इन दस बारह दिनों में मैंने अपने आवारा दोस्तों के साथ खूब मस्ती की थी।
उस समय कुकनवाली में ग्रेवल रोड़ बन रही थी । उस रोड़ पर मिट्टी डालने के लिए उसके दोनो किनारों पर मजदूरों द्वारा चौकोर गड्डे खोदे गए थे। हम उन गड्ढों में घर बना - बनाकर खूब खेला करते थे।
हम उन घरों पर खींफ और बुई ( एक प्रकार की रेशेदार घास) की छत भी डाला करते थे।
छत बीच में से न लचके, इसके लिए पहले उन गढ्डों पर 'आक' की टहनियां बिछाई जाती थी।
हम उन घरों में छत तो बनाते ही बनाते थे, साथ ही साथ मिट्टी के ढ़ेलों को काट - छांट कर चक्की, चूल्हा, गाय, भैंस, बकरी, उंट और घोड़े भी बनाते थे।
सिर्फ यही नहीं, दूसरे घरों में आने - जाने के लिए हमारे पास मिट्टी के ढेलों की ही बसें और छोटी - छोटी गाड़ियां भी होती थी।
एक रोज उस सड़क को जमाने के लिए वहां पर एक बहुत बड़ा रोड़ रोलर आया, जिसके बड़े - बड़े टायर लोहे के ही थे।
ऐसा विशाल वाहन हम सबने पहली मर्तबा ही देखा था।
फिर क्या था, हमने मिट्टी के एक बड़े ढेले को काट - छांटकर उस रोलर की भी एक नकल बना डाली।
और हम भी एक मिट्टी की सड़क बनाकर उसपर वो अपने द्वारा बनाया हुआ रोलर चलाने लगे।
हमारे पास उन दो बसों की नकलें तो पहले से ही मौजूद थीं, जो वहां कच्चे रूट पर चला करती थी।
उनमें से एक का नाम मर्सिडीज था, तो दूसरी टूटी - फूटी बस का नाम हमने 'तेली - तगरा' निकाल रखा था।
उसे तेली - तगरा नाम इसलिए दिया गया था, क्यों कि वो भूरे रंग वाली बस तेलियों की थी और बहुत ही पुरानी और टूटी - फूटी होने के कारण और रेतीली मिट्टी में रोज ही फंस जाने के कारण तेली शब्द के पीछे तगरा ( बेकार वस्तु ) शब्द और जोड़ दिया गया था ।
उस बस के भूरे रंग पर कबूतरों की सफेद बींट के निशान दूर से ही दिखाई दे जाते थे।
मैं उस बस में कभी भी बैठना पसंद नहीं करता था, पर मजबूरी में कभी - कभी बैठना भी पड़  जाता था।
वैसे अधिकतर हम कुकनवाली से रूपगढ़ ऊंटगाड़ी से ही आया - जाया करते थे और ये सफर अधिकतर रात को ही किया जाता था, ताकि अलसभौर के वक्त हम अपने गंतव्य स्थान तक पहुंच सके।
चांदनी रात का सफर तो फिर भी ठीक था, क्यों कि मुझे चांद को निहारना बहुत ही अच्छा लगता था और जो आज भी लगता है, इसीलिए गर्मियों के मौसम में मैं चांद को निहारने के लिए आज भी खुली छत पर सोना पसंद करता हूं, पर अंधेरी रात का सफर ?
बाप रे, बाप !
न जाने कब कोई काला भूत आकर हम सब को दबोच ले ।
या किसी खेत या जंगल से निकलकर कब कोई शेर या भेड़िया हम सब को खा जाए।
अंधेरी रातों के सफर में ऐसी ही डरावनी कल्पनाएं किया करता था मैं, इस वजह से मेरे रोंगटे पूरे सफर के दौरान खड़े ही रहा करते थे।
सफर की बात चलने के कारण मुझे जिंदगी का एक और सफर याद आ गया।
और उस सफर की दास्तान ये है दोस्तो कि मैं अपनी मां और मामाजी के साथ कुकनवाली से अपने ननिहाल हर्ष जा रहा था ।
उन दिनों उस रूट पर नई - नकोर एक खूबसूरत रंगवाली बस चली थी, पर उसमें बहुत ज्यादा भीड़ हो जाने के कारण मजबूरन मुझे उसकी सबसे पिछली सीट पर बैठना पड़ा था।
उन दिनों अधिकतर बसों में उसकी सबसे पिछली साइड में एक गेट हुआ करता था, जिसकी बाहरी साइड में सवारियों के खड़े होकर सफर करने के लिए एक लकड़ी का पायदान लगा हुआ रहता था।
और उस पायदान की लेफ्ट और राइट साइड में बस की छत पर चढ़ने के लिए लोहे की दो सीढ़ियां भी लगी हुई रहती थी।
वे सीढ़ियां छत पर चढ़ने के अलावा पायदान पर खड़ी सवारियों को सहारा देने के लिए भी काम आती थी ।
उस रोज मौसम बहुत ही सुहावना था।
गर्मियों के उस मौसम में दिल और दिमाग को राहत देने वाली ठंडी - ठंडी तेज हवाएं चल रही थी और आसमान में काले - काले बादल उमड़ - घुमड़ रहे थे, जिनको देखकर यूं लग रहा था कि जैसे जल्दी ही बारिश आने वाली है।
बानूड़ा गांव के बाद वो बस पक्की सड़क पर पर चढ़ गई ।
बस के पायदान पर उस वक्त उस बस का कंडक्टर एक हाथ से सीढ़ी पकड़े हुए खड़ा था।
इस सुहावने मौसम ने उस पर भी प्रभाव डाला था, इसलिए वो बस की एक साइड में झुककर बस के आगे की ओर  देखते हुए झूम - झूमकर मस्ती भरे अंदाज में राजेश खन्ना की फिल्म अंदाज का एक गाना जोर - जोर से गाने लगा, जिसके बोल थे -
"जिंदगी एक सफर है सुहाना।
जहां कल क्या हो, किसने जाना"

उसका चेहरा राजेश खन्ना से बहुत मिलता जुलता था और उसी की हेयर स्टाइल में उसके लम्बे - लम्बे बाल भी थे, जो उस वक्त चल रही ठंडी - ठंडी तेज हवाओं के कारण पीछे की साइड के अलावा कभी इधर, तो कभी उधर उड़ रहे थे ।
उसकी मधुर आवाज और उसका राजेश खन्ना स्टाइल में यूं झूम - झूम कर गाना मेरे मन को इतना भा गया कि वो गाना उसी रोज मेरी जिन्दगी का सबसे फेवरेट गाना बन गया, जो आज भी उसी तरह बना हुआ है।
मैं जब भी ये गाना गुनगुनाता हूं, तो मेरी आंखों के सामने खाकी वर्दी पहने हुए वो ही कंडक्टर आ जाता है, जो उस रोज झूम - झूमकर मस्ती भरे अंदाज़ में राजेश खन्ना की तरह वो गाना गा रहा था।
आत्मकथा का प्रथम भाग- मैं आवारा, इक बनजारा
आत्मकथा का तृतीय भाग- अति शीघ्र प्रकाशित होगा।

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