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शनिवार, 20 फ़रवरी 2021

मैं आवारा, इक बनजारा- अशोक कुमार शर्मा, भाग- 01

नमस्ते पाठक मित्रो, 
साहित्य देश इस बार प्रस्तुत कर रहा है लोकप्रिय साहित्य के एक और सितारे अशोक कुमार शर्मा जी की आत्मकथा। पेशे से अध्यापक अशोक जी राजस्थान के सीकर जिले के निवासी हैं। इन्होने ट्रेड नेम से भी लिखा और स्वयं के नाम से भी उपन्यास प्रकाशित हुये हैं।

लेखक परिचय-
नाम-     अशोक कुमार शर्मा
मु. पो. -  रूपगढ़,
वाया   -  कौछोर,
जिला -   सीकर [ राज ]
मो. न. -  9928108646
                
    मैं आवारा, इक बंजारा- भाग-01
          मैं अत्यंत ही आभारी हूं हम सब लेखकों के अति प्रिय आदरणीय श्री गुरप्रीत सिंह जी का [लेक्चरर- माउंट आबू।। निवासी - बगीचा, जिला -  गंगानगर, राजस्थान ]
जिन्होंने मुझे अपने ब्लॉग  साहित्य देश पर अपने लेखकीय जीवन की यह छोटी सी एक आत्मकथा, जिसका कि शीर्षक है -
'मैं आवारा, इक बंजारा' लिखने का मौका दिया। शुक्रिया गुरप्रीत सिंह जी, आपका लाख - लाख शुक्रिया।

मेरी इस लेखकीय आत्मकथा को पढ़ने वाले पाठकों को मैं यकीन दिलाना चाहता हूं कि अपनी इस आत्मकथा में जो कुछ भी मैंने लिखा है, वो सब ऊपरवाले को हाजिर - नाजिर जानकर पूरा का पूरा सच लिखा है और सच के सिवा और कुछ भी नहीं लिखा है।  हां, पर स्मृति दोष के कारण इसकी कुछ घटनाओं के काल खंड में और कुछ व्यक्ति या स्थान के नामो में भूल हो सकती है, जिसके कारण मैं एडवांस में ही आप जैसे उदार हृदय बंधुओ से क्षमा मांग लेता हूं ।
तो अब चलिए दोस्तों !
मेरे साथ मेरे लेखन जीवन की शुरुआत के कुछ सुहाने और कुछ दर्द भरे सफर पर, जिसमें कुछ गम भी है, तो कुछ खुशियां भी। कुछ फूल भी है, तो कुछ कांटे भी। 
कुछ मुस्कुराहटें है, तो कुछ आंसू भी ।
अगर मेरी इस आत्मकथा में लिखे कुछ शब्दों और वाक्यों की वजह से किसी महानुभाव की भावनाओं को अगर जरा सी भी कोई ठेस पहुंचे, तो मेरी उनसे हाथ जोड़कर रिक्वेस्ट है कि वे मुझे अपनी इस बेअदबी के लिए अपना छोटा भाई समझ कर तुरन्त मुझे माफ कर देना ।
तो आइए दोस्तो । अब चलते है मेरे जीवन की उन टेढ़ी - मेढ़ी, ऊंची - नीची, पथरीली, कंटीली और रेतीली राहों पर, जिनपर मैं कभी बिना थके और बिना किसी से शिकायत का एक लफ्ज़ भी कहे कभी रोता, तो कभी हंसता, तो कभी एक आवारा बंजारे की तरह मस्ती से बांसुरी या अलगोजे की धुन बजाता हुआ बिना अपने पैरो में चुभे हुए कांटो की परवाह किए, निरन्तर नंगे पांव आगे, और आगे, और फिर उससे भी और आगे चलता ही गया, बस । चलता ही गया..........।
बिना रुके !
बिना थके !
दर कूंचा $$$ !
दर मंजलां $$$!
उन अनजानी मंजिलों की ओर, जिनकी न तो मुझे दिशा ही
मालूम थी और न ही दूरी ।
इसीलिए मैंने अपनी इस लेखकीय आत्मकथा का नाम एक निष्पक्ष और एक तटस्थ दृष्टा बनकर दिया है -मैं आवारा, इक बंजारा।     मेरी इस आत्मकथा को शुरू करने से पहले मैं अपने प्यारे गांव रूपगढ़ का एक छोटा सा ऐतिहासिक परिचय आप सब दोस्तो को देना चाहता हूं, ताकि आप जान सके कि आपका ये ख़ाकसार किस खेत की पैदावार है और आप उस खेत की मिट्टी की खुशबू और भी नजदीक से सूंघ सके, जिस मिट्टी की खुशबू मेरी रग - रग में समाई हुई है।
तो दोस्तो, अब चलिए मेरे साथ रूपगढ़ का थौड़ा सा ऐतिहासिक परिचय जानने के लिए ।   
[ मेरे गांव रूपगढ़ का ऐतिहासिक परिचय ]
मेरा प्यारा गांव रूपगढ़, जो कि राजस्थान के सीकर जिले की दांतारामगढ़ तहसील में स्थित है और जो तीनो और से हरी - भरी पहाड़ी वादियों से घिरा हुआ इतना खूबसूरत और इतना दिल फरेब है कि जिसे देखकर यूं लगता है कि ये जरूर कोई जन्नत का एक ऐसा छोटा सा टुकड़ा है, जो हम सब रूपगढ़ के वाशिंदों के सौभाग्य से जन्नत से टूटकर जमीन पर आ गिरा है ।
इस जन्नत के छोटे से टुकड़े का ऐतिहासिक परिचय ये है दोस्तो कि सूर्यवंशी क्षत्रिय भगवान श्रीराम के पुत्र कुश के वंशज कालांतर में जाकर कछवाहा राजपूत कहलाए ।
इन्हीं वंश के राजवंश का कभी ग्वालियर पर अधिकार था। ग्वालियर से ये नरवर आए। नरवर से राजस्थान आकर इन्होंने चौहान राजपूतों के सहयोग से बड़गुर्जरों को हराकर दौसा पर अधिकार कर लिया।
दौसा जीतने के बाद इन्होंने मीनों का ठिकाना मांची [ अब जमुवा रामगढ़]  राव नाथू को हराकर जीत लिया।
उसके बाद खोह, गेटोर और झोटवाड़ा आदि को जीतने के पश्चात इसी वंश के राजा कांकिल देव ने विक्रम संवत् - 1207 में आमेर के मीणा राजा "भंत्या" को हराकर आमेर पर अपना अधिकार कर लिया।
फिर इन्हीं की पीढ़ी के आमेर के तेरहवें राजा उदय करण जी ने अपने पुत्र बालाजी को पुत्र बंटवारे में बारह गांवों की एक जागीर दी, जिसका कि नाम बड़वाला था।
बालाजी के बाद उनके पुत्र राव मोकलजी बड़वाला के अधिपति बने।
इन्हीं मोकल जी की संतान थे कछवाहा राजपूतों के शेखावत वंश के पितृपुरुष, महाप्रतापी और महायोद्धा राव शेखाजी, जिनका जन्म विक्रम संवत 1490 को हुआ था और जिनको विक्रम संवत - 1502 में बारह वर्ष की अल्पायु में ही अपने पिता  के स्वर्गवास के कारण राजगद्दी संभालनी पड़ी।
चार - पांच साल शांत बैठे रहने के बाद इस महाप्रतापी वीर योद्धा ने अपना विजय रथ चंदेल, निर्वाण, टांक, सांखला और तंवरो के कई ठिकानों की ओर हांक दिया और उनको जीतकर वे 360 गांवों के अधिपति बन गए।
फिर इस महायोद्धा ने विक्रम संवत - 1517 में "अमरसर" नाम का एक नया गांव बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया।
[अमरसर - अजीतगढ़ से चौमूं जाने वाले सड़क मार्ग पर स्थित है। ]
आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि राव शेखाजी ने अपने शासन काल में अपने राज्य विस्तार के लिए कुल बावन लड़ाइयां लड़ी थी, जिनमें से ग्यारह लड़ाइयां उन्होंने केवल 'गौड़' राजपूत वंश के खिलाफ लड़ी थी ।
विक्रम संवत - 1545 या ईसवी सन - 1488 में मारोठ, घाटवा और झूंथर जैसे कई  'गौड़' ठिकानों की संयुक्त सेना से अपने जीवन का अंतिम युद्ध लड़ने के दौरान घायल हो जाने के कारण वे हमारे गांव रूपगढ़ से सात किलोमीटर दूर और  'जीणमाता' नाम के गांव से मात्र दो किलोमीटर दूर 'रलावता' नाम के गांव में वीरगति पा गए, जहां आज भी उनका स्मृति स्थल बना हुआ है ।
उनके बाद उनके सबसे छोटे पुत्र राव रायमल जी
[ ईस्वी सन -1488-1537 ]
अमरसर राज्य के उतराधिकारी बने ।
राव रायमल जी के बाद उनके पुत्र राव सुजाजी।
[ ईसवी सन - 1537 - 1549 ]
और राव सूजाजी के बाद राव लूणकरण जी अमरसर की राजगद्दी पर बैठे।
पर उनके सबसे छोटे पुत्र राव रायसल जी को भाई बंटवारे में सिर्फ 'लामियां' नाम कि एक छोटी सी जागीर मिली थी, पर अपने परदादा राव शेखाजी जैसे महत्वाकांक्षी और महायोद्धा राजा रायसल इस छोटी सी जागीर को पाकर भला संतुष्ट कैसे होते ?
उन्होंने अपने साम्राज्य विस्तार के लिए रैवासा और कासली के चंदेलों और खंडेला रियासत के निर्वाण राजपूतों को, और इन जैसे बहुत से और राजाओं को युद्ध में हराकर पांच सौ पचपन  गांवों का एक विशाल साम्राज्य खड़ा कर लिया और खंडेला रियासत के मुख्य शहर 'खंडेला' को अपनी राजधानी बनाया ।
[ ईसवी सन - 1549 - 1621 ]
राजा रायसल जी के बारह पुत्र हुए, जिनमें से एक पुत्र गिरधरदास जी को दिल्ली के बादशाह जहांगीर ने अन्य उत्तराधिकारियों से वरियता देते हुए खंडेला रियासत का राजा बना दिया था ।
गिरधरदास जी के वंशज
'गिरधर जी के शेखावत' कहलाए।
गिरधर जी के बाद क्रमश:  द्वारकादास और वरसिंह जी खंडेला की राजगद्दी पर बैठे । फिर वरसिंह जी ने अपने पुत्र श्याम सिंह जी को भाई - बंटवारे में विक्रम संवत् - 1709 को खूड़ ठिकाना दिया ।
इसी खूड़ ठिकाने में स्थित है  हमारा प्यारा गांव रूपगढ़, जो बाद में जाकर इन्हीं के वंशज ठाकुर रूपसिंह ने अपने नाम पर बसाया था।
विक्रम संवत - 1754 में श्याम सिंह जी ने अपने भतीजे और खंडेला के राजा केसरी सिंह का साथ देते हुए औरंगजेब की सेना से हरिपुरा के युद्ध मैदान में वीरता पूर्वक युद्ध लड़ा था और बुरी तरह घायल हुए थे। केसरी सिंह जी इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए थे।
श्याम सिंह जी के बाद क्रमश: किशोर सिंह जी, मोहन सिंह जी और रूपसिंह जी खूड़ की राजगद्दी पर बैठे।
रूपसिंह जी ने सीकर के राव राजा शिव सिंह जी और झुंझुनू के राजा शार्दूल सिंह जी का साथ देते हुए फतेहपुर के नवाब सरदार खान को विक्रम संवत् - 1788  में हराया और सुना है कि वहां से अपार धन अर्जित किया।
मेरे अनुमान के अनुसार इस युद्ध के एक दो साल बाद इन्होंने रूपगढ़ की जगह पहले बसे पुराने गांव "टांकरवालिया" पर अधिकार कर फतेहपुर से मिले उस अपार धन से वहां की पहाड़ी पर गढ़, महल और रघुनाथ जी के मंदिर का निर्माण कराया और उसकी तलहटी में अपने नाम पर रूपगढ़ नाम का एक गांव बसा दिया।
अगर हम मान ले कि फतेहपुर युद्ध के समय रूपसिंह जी की आयु लगभग चालीस वर्ष की रही होगी, तो रूपसिंह जी का जन्म  विक्रम संवत् - 1788 - 40 = 1748 के लगभग होना चाहिए।
रूपगढ़ की जगह पहले बसे गांव
'टांकरवालिया' का नाम मैंने बड़े - बुजुर्गों की जुबानी सुना है, जिसकी पुष्टि गांव की पूर्वी पहाड़ी पर बना वो बुर्ज { लड़ाई का एक मोर्चा } भी कर रहा है, जो देखने में गढ़ और महल से काफी पुराना प्रतीत होता है।
मेरे अनुमानानुसार टांकरवालिया बसने से पहले यहां एक और पुराना गांव था, जिसका नाम में लाख प्रयत्न करने के बावजूद भी नहीं खोज सका और जिसपर गौड़ो का शासन था।
ये बात मैं इसलिए कह रहा हूं, क्यों कि रूपगढ़ से मात्र पांच - छह किलोमीटर दूर तूली डूंगरी की तलहटी में गौड़ राजा कोलराज की राजधानी "झूंथर" नाम का गांव था, जिसको राव शेखा जी ने विक्रम संवत् - 1540 के लगभग एक घटना से नाराज़ होकर नेस्तनाबूद कर दिया था और राव कोलराज़ का सिर काटकर अपने गढ़ "शिखरगढ़" के दरवाजे पर टांग दिया था, इसलिए हो सकता है, टांकरवालिया से पहले बसा ये गांव गौड़ो के झूंथर ठिकाने का ही एक गांव हो।
मेरे इस अनुमान कि पुष्टि रूपगढ़ से मात्र चार किलोमीटर दूर बसा वो गांव भी करता है, जिसका नाम गौड़ राजवंश के नाम पर "गौड़ियावास" है । इसका मतलब ये हुआ कि इस पूरे क्षेत्र पर पहले गौड़ो का ही शासन था। 
राव शेखा जी द्वारा झूंथर गांव नस्ट करने के बाद भी गौड़ों का शासन यहां पर कायम रहा । फिर बाद में मारोठ, घाटवा और झूंथर की संयुक्त सेना से घाटवा के खूंटिया तालाब के मैदान में युद्ध करने के कारण राव शेखा जी  विक्रम संवत् - 1945 को "रलावता" नाम के गांव के पास वीरगति को प्राप्त हो गए ।
चूंकि शेखाजी के स्वर्गवास के बाद उनके पुत्र रायमल जी अमरसर की राजगद्दी पर बैठे थे, इसलिए शेखावतों और गौडों की दुश्मनी समाप्त करने के उदेश्य से मारोठ के गौड़ राजा रिड़मल जी ने अपनी पुत्री का विवाह रायमल जी से कर दिया और राव कोल राज की राजधानी " झूँथर " सहित इक्यावन गांव रायमल जी को एक संधि के तहत दे दिए ।
इस प्रकार "झूंथर" ठिकाने पर गौड़ो का शासन समाप्त हो गया ।
हो सकता है उन्ही इक्यावन गांवों में "टांकरवालिया" से पहले बसा हुआ वो गांव भी शामिल हो, जिसको आज हम रूपगढ़ के नाम से जानते है ।
पर रूपगढ़ पर बना हुआ वो बुर्ज गौड़ो का बनाया हुआ नहीं हो सकता, क्यों कि इस बुर्ज की दीवारों में तोप चलाने के लिए मौखे { छेद } बने हुए है, पर तोपें उस वक्त देसी रजवाड़ों के पास नहीं थी ।
आपकी जानकारी के लिए बतादूं कि भारत में तोपों का सर्वप्रथम प्रयोग ईस्वी सन् - 1526 { विक्रम संवत् - 1583 } में हुए पानीपत के युद्ध में बाबर ने इब्राहीम लोदी के विरूद्ध किया था, इसलिए छोटे रजवाड़ों के पास ये तोपें पहुंचने में लगभग पचास वर्ष तो लग ही गए होंगे। इस हिसाब से इस बुर्ज का निर्माण विक्रम संवत् - 1583 + 50 = 1630 के आसपास होना चाहिए ।
[ संलग्न - बुर्ज का फोटो ]
इसका मतलब ये हुआ कि इस बुर्ज का निर्माण राव शेखाजी के ही किसी वंशज ने किया था और गौड़ो के उस गांव की जगह
"टांकरवालिया" नाम का गांव बसा दिया था ।
मेरे अनुमानानुसार इस गांव का नाम "टांकरवालिया" इसलिए रखा हुआ हो सकता है, क्यों कि शेखाजी की एक "टांकवंशीय"
{ नागवंश की एक राजपूत शाखा } रानी थी, जिसका नाम गंगाकुंवरी था और जो नगरकोट [ वर्तमान नाम - गढ़ टकनेट ] के राजा किल्हन टांक की पुत्री थी तथा जिनके पुत्र का नाम दुर्गाजी था, और जो अपने पिता राव शेखाजी के साथ ही घाटवा युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए थे, उन्हीं दुर्गाजी के वंशज दुर्गाजी की मां के वंश के नाम के आधार पर  "टकनेत शेखावत" कहलाए ।
हो सकता है इन्हीं "टकनेतों" के किसी वंशज को ये क्षेत्र भाई - बंटवारे में मिला हो और उन्होंने अपने वंश के नाम पर
"टांकरवालिया" नाम से ये गांव बसाकर इस "बुर्ज" का निर्माण करवाया हो और बाद में रूपसिंह जी ने इन "टकनेतों" को बेदखल कर इस "टांकरवालिया" गांव की जगह अपने नाम पर रूपगढ़ नाम के इस गांव की स्थापना कर दी हो ।
ये सब प्राप्त तथ्यों के आधार पर मेरे द्वारा लगाया गया अनुमान मात्र ही है, पर सच्चाई क्या है, ये तो ऊपरवाला ही जाने।
खैर ! जो कुछ भी हुआ हो, पर "टांकर वालिया" नाम का ये गांव अस्तित्व में था जरूर। और वो इसलिए, क्यों कि गढ़वाली
पहाड़ी की उत्तरी तलहटी में "टांकरवालिया" के खंडहर हुए मकानों की पुरानी नीवें कहीं - कहीं पर आज भी मौजूद है तथा पूर्वी तलहटी में एक बहुत बड़ा टीला है, जिस पर मिट्टी के घड़ो के लगभग आधा इंच मोटे ठीकरे { घड़ों के छोटे टुकड़े } आज भी यदा - कदा देखने को मिल जाया करते हैं ।
इसलिए मेरा पक्का यकीन है कि यदि इस टीले की खुदाई की जाए, तो "टांकरवालिया" गांव का कुछ दबा हुआ हिस्सा वहां अवश्य मिल सकता है।
ऐसे ही "ठीकरे" गांव के उत्तरी पूर्वी भाग के खेतों में भी यदा - कदा दिखाई दे जाते हैं, जो वहां पर कभी कोई पुराना गांव होने का प्रतीक है ।
पुराना गांव इसलिए कह रहा हूं, क्यों कि आज के कुंभकार इतनी मोटी परत वाले मिट्टी के घड़े अब नहीं बनाते ।
इसके अलावा बुर्ज की तलहटी में "गढ़ी" नाम की पत्थरों की एक खान है । गढ़ी छोटे "गढ़" को कहा जाता है, इसलिए इससे जाहिर होता है कि पुराने समय में जरूर वहां पर गौड़ो या टकनेतो का बनाया हुआ कोई छोटा गढ़ रहा होगा, पर आज वहां पर उस गढ़ के अवशेष के रूप में छोटा सा एक पत्थर भी दिखाई नहीं देता।
इसके अलावा गांव के बड़े - बुजुर्ग बताया करते थे कि " टांकर वालिया" नाम का ये गांव बहुत ही बड़ा था और व्यापार का एक प्रमुख केंद्र हुआ करता था।
वे ये भी बताते थे कि गांव की पश्चिमी दिशा में एक कुआ था और उत्तरी पूर्वी दिशा में एक बावड़ी थी, जो आंधी - तूफानों के रूप में आईं वक्त की गर्दिश से जमींदोज हो गए और उनके साथ   ही जमींदोज हो गई हमारे पुराने गांव "टांकरवालिया" की पहचान भी।
ठाकुर रूपसिंह जी के बाद बख्तसिंहजी या भगतसिंहजी नाम के उनके पुत्र खूड़ ठिकाने की राजगद्दी पर बैठे, जिन्होंने विक्रम संवत - 1837 में जयपुर रियासत की ओर से दिल्ली की शाही सेना के सेनापति मुर्तजा अली भड़ेच से खाटू के मैदान में वीरतापूर्वक युद्ध कर अपने प्राणों का बलिदान दे दिया था।
उनकी इस वीरता से खुश होकर जयपुर दरबार ने उनके उत्तराधिकारी ठाकुर मोती सिंह जी को बावन हजार बीघे की जागीर प्रदान की थी ।
ठाकुर मोती सिंह जी के बाद क्रमश: करण सिंह जी, राजसिंह जी और और ठाकुर रामप्रताप सिंह जी खूड़ ठिकाने की राजगद्दी पर बैठे।
ठाकुर रामप्रताप सिंह जी ने अपनी पांच पीढी पूर्व के दादाजी ठाकुर रूपसिंह जी की माजीसा दीपजोड़ जी के दाह संस्कार स्थल पर उनकी स्मृति में  छतरियां बनवाकर उनके नीचे एक शिलालेख लगवाया, जिसपर ये उपरोक्त बातें और इन छतरियों का निर्माण वर्ष विक्रम संवत् - 1941 खुदाई करके लिखा हुआ है ।
आपकी जानकारी के लिए बतादूं कि इस शिलालेख को दस - बारह वर्ष पूर्व सर्वप्रथम पढ़ने का श्रेय आपके इस ख़ाकसार को ही जाता है, जिसने इस शिलालेख पर लिखी उपरोक्त इबारत पढ़कर अपने दोस्तों को सुनाई थी ।
[ संलग्न  - छतरियों का फोटो ]
[ संलग्न -  शिलालेख का फोटो ]
इन छतरियों के निर्माण के एक वर्ष पूर्व रूपगढ़ में जैन मंदिर का भी निर्माण हुआ था, जिसमें स्थापित भगवान चंद्रप्रभु की संगमरमर की मूर्ति पर विक्रम संवत - 1941 खुदाई कर लिखा हुआ है, जो इस मंदिर के निर्माण वर्ष का सबूत है ।
[ संलग्न - भगवान चंद्रप्रभु की संगमरमर की मूर्ति ]
इसी मंदिर में अष्टधातु की भगवान पार्श्वनाथ की  488 साल पुरानी एक मूर्ति भी स्थापित है, जिसपर इस मूर्ति का निर्माण या स्थापित वर्ष विक्रम संवत् - 1589 लिखा हुआ है ।
[ संलग्न - भगवान पार्श्वनाथ की अष्टधातु की मूर्ति का फोटो ]
पर इस विक्रम संवत को हम रूपगढ़ का स्थापना वर्ष या मंदिर का निर्माण वर्ष कदापि नहीं मान सकते, क्यों कि ये जैन परिवार रूपगढ़ का नहीं, बल्कि खंडेला का मूलनिवासी है, जो लाडनूं और अन्य कई स्थानों पर बसता हुआ दांता आकर बस गया था और फिर कालांतर में दांता से रूपगढ़ आकर आबाद गया था ।
इस तरह ये परिवार जहां - जहां पर भी बसता गया, इस अस्टधातू की मूर्ति को भी वहीं पर स्थापित कर इसकी पूजा - आराधना करता रहा ।
रामप्रताप ठाकुर सिंह जी के बाद उनके पुत्र ठाकुर उदय सिंह जी खूड़ ठिकाने की राजगद्दी पर बैठे और उनके बाद पुत्र ठाकुर मंगल सिंह जी ।
मंगल सिंह जी खूड़ ठिकाने के अंतिम राजा थे, जो धार्मिक विचारों वाले दयालु, उदार हृदय और अपनी प्रजा को पुत्रो जैसा स्नेह देने वाले उच्च शिक्षित, दूरदर्शी और महान योद्धा थे ।
उन्होंने प्रसिद्ध "जीणमाता" गांव  अपनी पितृ रियासत खंडेला से जीतकर खूड़ ठिकाने में शामिल किया था।
बुजुर्ग लोग बताते है कि वे गौरे - चिट्ठे और करीब छ: फूट लंबे हृष्ट - पुस्ट शरीर के मालिक थे।
अपनी लम्बी सफेद जटाओं और सफेद ही दाढ़ी - मूछों के कारण वे रविन्द्र नाथ टैगोर के जुड़वा भाई लगते थे, पर उनकी आस्था रविन्द्र नाथ टैगोर से ज्यादा महर्षि अरविंद में थी, जिसके कारण वे महर्षि अरविन्द से मिलने अक्सर पांडिचेरी जाते रहते थे।
यही नहीं, उस दानवीर ने अपना रूपगढ़ वाला महल भी अरविंद आश्रम को दान में दे दिया था ।
इसके अलावा इन्होंने अपनी कई चल और अचल सम्पत्तियां वनस्थली विद्यापीठ निवाई और  और चौपासनी विद्यापीठ जोधपुर को दान में देकर अपनी दानवीरता का परिचय दिया था।
उन्होंने अपना अधिकांश जीवन शिकार करते हुए बियाबान जंगलों और पहाड़ों में ही बिताया, पर हैरत की बात ये थी कि शिकार करने के शौकीन इस राजा ने बालिग होने के बाद कभी भी शराब नहीं पी और कभी भी मांस नहीं खाया।
वे अपनी प्रजा के हर सुख दुख में उनके साथ रहते थे । वे जयपुर की सेना "मानसिंह गार्ड" में कैप्टन के पद पर थे।
ईसवी सन - 1938  को जब जयपुर के आई. जी. यंग ने किसी बात से खफा होकर जयपुर की सेना से सीकर को घेर लिया था, तब इन्होंने यंग और सीकर के राव राजा कल्यानसिंह जी के बीच सेठ जमनालाल बजाज के माध्यम से संधि करवाकर अपनी बुद्धिमत्ता और उदारता का परिचय दिया था।
"पोलो" के वे बहुत अच्छे खिलाड़ी थे और जयपुर दरबार के साथ वे पोलो खेला करते थे। जयपुर दरबार प्यार और सम्मान से उन्हें  'मंगला बाबा' के नाम से पुकारा  करते थे।
बाद में उनकी किसी बात को लेकर जयपुर दरबार से ठन गई और उसके बाद वे कभी भी जयपुर नहीं गए।
उनके अच्छे और मधुर संबंध बहुत ही महान हस्तियों से थे, जिनमें महर्षि अरविन्द, करपात्री जी महाराज, महामहिम राष्ट्रपति जी डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद, सेठ जमनालाल बजाज, गुरु गोलवरकर, मुख्यमंत्र 
हीरालाल शास्त्री और जोधपुर दरबार का नाम शामिल है।
उनका स्वर्गवास ईसवी सन् - 1976 में हुआ था, पर मुझे उस विराट व्यक्तित्व के स्वामी के दर्शनों का सौभाग्य कभी भी प्राप्त नहीं हो सका, क्यों कि उन दिनों हमारा परिवार नागौर जिले के कुकनवाली नाम के एक छोटे से गांव में रहता था, पर मैंने अपने गांव के ही एक बुजुर्ग दादाजी स्वर्गीय श्री दामोदर प्रसाद जी शर्मा के पास उनकी एक फोटो जरूर देखी थी, जिसमें वास्तव में ही वे शानदार और जानदार व्यक्तित्व के मालिक लगते थे।
पर अफसोस वाली बात ये थी कि उनके कोई संतान नहीं थी, इसलिए उनके खूड़ राजवंश का सूर्य सदा - सदा के लिए अस्त हो गया।
परन्तु हां ।
उनके छुट भाइयों का वंश अभी भी चल रहा है, जो हमारे गांव में और पास के ही गांव  "नया बास" में आज भी रहते हैं ।
तो दोस्तो, ये थी मेरे छोटे से गांव की ऐतिहासिक दास्तान, जिसको मैं अपनी आत्मकथा से पहले लिखने का लोभ हरगिज भी नहीं छोड़ सका।
और वो इसलिए, क्यों कि मै इसी गांव के गली - कूंचों में, चौक और चौराहों में, जंगलों और पहाड़ों में किसी आवारा बंजारे की तरह मस्ती से इधर - उधर घूमता -  फिरता हुआ और यूं अपना यायावरी जीवन बिताता हुआ ही आज इतना बड़ा हुआ हूं । 
आत्मकथा का द्वितीय भाग- मैं आवारा, इक बनजारा,भाग-02

1 टिप्पणी:

  1. आत्मकथा को पेश करने का अंदाज बेहद पसंद आया । कहीं से भी ऐसा नहीं लगा कि ये किसी लेखक की आत्मकथा हो सकती है । कुछ पल के लिए तो ऐसा लगा जैसे कि ये ऐतिहासिक वृत्तांत हो । इस आलेख के माध्यम से कुछ जानने को भी मिल गया , जिसके बारे में मुझे कुछ भी नहीं पता था ।

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