साहित्य देश ब्लॉग के लिए
इस असीम(लोकप्रिय साहित्य के) महासागर का अभी मैं अंजुली भर जल हूँ, इस बारे में कुछ लिखूं ये मेरा सौभाग्य है।
अपने से पहले वाले लेखकों को प्रणाम करते हुए मैं अपनी बात शुरू करता हूं (गलतियां सारी मेरी, बधाइयां सारी वरिष्ठ लेखकों की)।
"वो किताब, किताब नहीं जिसका कोई पाठक न हो।
वो किताब, किताब नहीं जो पुस्तकालय में सिर्फ सजती हों।"
बड़े भैया के उपन्यासों को छुप छुप कर पढ़ना शुरू किया तो मैं सातवीं में था। संडे मॉर्निंग मिक्की माउस कार्टून देखने के लिए बेकरार रहता था और, इवनिंग में विक्रम-बेताल।
कॉमिक्स की दुनियां में नागराज पैदा ही हुआ था और, सुमन-सौरभ, नंदन, राम-रहीम, राजन-इक़बाल औऱ बिल्लू, चाचा चौधरी जलवा बिखेर रहे थे।
उसी दौरान भैया अपने दोस्तों के साथ विजय की बातें किया करते थे। मेरी उत्सुकता का कोई ठिकाना नहीं था जब मैं भैया को तुकबंदी करते हुए विजय बनने की कोशिश करते देखा करता था।
फिर किसी दिन ओमप्रकाश शर्मा जी का नॉवेल भी देखा। इतनी बड़ी-बड़ी किताबें कैसे पड़ते हैं भैया... वो भी बिना चित्रों के। ये सवाल था मेरा।
फिर भैया पढ़ाई के बाद कंप्यूटर कोर्स करने लगे।
हमारी भाभी (जो बड़े भैया की भी भाभी थीं) उन दिनों रानू, गुलशन नन्दा और जनप्रिय ओमप्रकाश शर्मा के नॉवेल पढ़ा करती थीं। सवाल वही की बिना चित्रों के कैसे इतने मोटे नॉवेल पढ़ती हैं।
खैर, वक़्त गुज़रा (वक़्त हमेशा क्या तेज़ी से ही गुजरता है ?)। भैया अपनी ज़िंदगी में - नौकरी में बिजी हो गए। बड़ी भाभी जी बच्चों में और फिर ज़माना भी बदल गया-नॉवेल, कॉमिक की जगह टीवी आ गया। फिर भी यदा-कदा घर में कॉमिक्स और नोवेल्स के दर्शन हो ही जाते थे(ये शौक़ इतनी आसानी से जाता भी नहीं)।
स्कूलिंग के बाद मेरा इंजीनियरिंग में एडमिशन हुआ। चार साल दुनियां से बेखबर पढ़ाई और मौज मस्ती में गुजरे गए। पढ़ने का सिलसिला टूट-सा गया। फिर नौकरी औऱ छोकरी ने वक़्त न दिया।
आशिकी में जब कुछ न कर पाए तो नौकरी ही कर लें-इस भावना से दिलो दिमाग को अपने ऑफिस में गिरवी रख दिया। नतीज़ा ये की इमेज अच्छी बन गयी, और हम भी सीनियर हो गए।
ऐसे में एक दिन दिल्ली में निर्भया कांड हो गया जो मुझे रुला गया (मैं कई सालों से रोया नहीं था-पिता जी के न रहने पर भी)।
फिर मेरा एक्सीडेंट हो गया(बहुत अच्छा हुआ!) और मैं 4 महीनें बेड पर रहा। ऐसे में मैंने वक़्त गुजरने के लिए कुछ लिखना-पढ़ना शुरू किया तो भैया ने कुछ पुराने नॉवेल दिए(उस वक़्त तो मना करते थे)। मैंने पढ़े औऱ पढ़ता ही गया।
सब पढ़ा-कम्बोज जी, ओमप्रकाश जी, पाठक जी, रानु जी, गुलशन नंदा जी कुछ जीवनियां भी पढ़ी जो आबिद रिज़वी जी की लिखी हुई थीं।
और आज तक पढ़ रहा हूँ सोचता हूँ कि हर चीज में कुछ न कुछ सकारात्मक होता है तो एक्सीडेंट ने मुझे लोकप्रिय साहित्य की दुनियां से परिचय करवा दिया। आजकल शरतचन्द्र, टैगोर, प्रेमचंद, कृष्णचंदर के आलवा वेद प्रकाश कंबोज जी,सुरेंद्र मोहन पाठक जी, जनप्रिय ओमप्रकाश शर्मा जी, वेदप्रकाश शर्मा जी सभी पढ़ रहा हूं। जो मिल जाता है चन्दर, आरिफ मरहवीं, कुशवाहा कांत, शिवानी पढ़ने की कोशिश करता हूँ।
अब समझ आने लगा है कि बिना चित्रों के कैसे इतनी मोटी नावेल पढ़ी जाती है/थी।
ये एक अजीब ही दुनियां है। इसमें पुराने समय के दिग्गज और नए जमाने के लेखक दोनों ही अपनी लेखनी से मनोरंजन प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
जब गृहकार्य से निपट कर महिलायें किसी लव स्टोरी को पढ़ती थीं और अपने सर्किल में इनके पात्रों के बारे में बतियाती थीं, ठीक ऐसे ही जैसे आजकल सीरियल की डिस्कशन होती है। वो दिन क्या कभी लौट के आएंगे--किसी ने पूछा था क्या ऐसा हो सकता है।
होने को तो सभी कुछ हो सकता है पर उसके लिए तो हमें अपनी धरोहरों को बचाना होगा। उस सहित्य को जीवंत रखना होगा जिसकी मशाल को एक सदी से पहले के लेखकों ने हमारे हाथों में दी।
इस उद्देश्य को ध्यान में रख कर श्री गुरप्रीत सिंह जी ने साहित्य ब्लॉगस्पोट के जरिये एक शुरुआत की है -उस दौर के सुनहरे इतिहास को, किस्सों को, लेखकों की कहानियों को और लुगदी साहित्य कहे जाने वाले इस लोकप्रिय साहित्य को संजोने की।
सौभाग्य से
कम्बोज जी, पाठक जी,आबिद जी, योगेश मित्तल जी, धरम राकेश जी, अनिल मोहन जी (अन्य किसी लेखक के बारे सूचित करें) आज हमारे बीच हैं जिनके सामने ये इतिहास बना था।
राम 'पुजारी'
( लेखक 'अधूरा इंसाफ...एक और दामिनी' तथा 'लव जिहाद...एक चिड़िया' जैसी चर्चित उपन्यासों के लेखक हैं।)
इस असीम(लोकप्रिय साहित्य के) महासागर का अभी मैं अंजुली भर जल हूँ, इस बारे में कुछ लिखूं ये मेरा सौभाग्य है।
अपने से पहले वाले लेखकों को प्रणाम करते हुए मैं अपनी बात शुरू करता हूं (गलतियां सारी मेरी, बधाइयां सारी वरिष्ठ लेखकों की)।
"वो किताब, किताब नहीं जिसका कोई पाठक न हो।
वो किताब, किताब नहीं जो पुस्तकालय में सिर्फ सजती हों।"
बड़े भैया के उपन्यासों को छुप छुप कर पढ़ना शुरू किया तो मैं सातवीं में था। संडे मॉर्निंग मिक्की माउस कार्टून देखने के लिए बेकरार रहता था और, इवनिंग में विक्रम-बेताल।
कॉमिक्स की दुनियां में नागराज पैदा ही हुआ था और, सुमन-सौरभ, नंदन, राम-रहीम, राजन-इक़बाल औऱ बिल्लू, चाचा चौधरी जलवा बिखेर रहे थे।
उसी दौरान भैया अपने दोस्तों के साथ विजय की बातें किया करते थे। मेरी उत्सुकता का कोई ठिकाना नहीं था जब मैं भैया को तुकबंदी करते हुए विजय बनने की कोशिश करते देखा करता था।
फिर किसी दिन ओमप्रकाश शर्मा जी का नॉवेल भी देखा। इतनी बड़ी-बड़ी किताबें कैसे पड़ते हैं भैया... वो भी बिना चित्रों के। ये सवाल था मेरा।
फिर भैया पढ़ाई के बाद कंप्यूटर कोर्स करने लगे।
हमारी भाभी (जो बड़े भैया की भी भाभी थीं) उन दिनों रानू, गुलशन नन्दा और जनप्रिय ओमप्रकाश शर्मा के नॉवेल पढ़ा करती थीं। सवाल वही की बिना चित्रों के कैसे इतने मोटे नॉवेल पढ़ती हैं।
खैर, वक़्त गुज़रा (वक़्त हमेशा क्या तेज़ी से ही गुजरता है ?)। भैया अपनी ज़िंदगी में - नौकरी में बिजी हो गए। बड़ी भाभी जी बच्चों में और फिर ज़माना भी बदल गया-नॉवेल, कॉमिक की जगह टीवी आ गया। फिर भी यदा-कदा घर में कॉमिक्स और नोवेल्स के दर्शन हो ही जाते थे(ये शौक़ इतनी आसानी से जाता भी नहीं)।
स्कूलिंग के बाद मेरा इंजीनियरिंग में एडमिशन हुआ। चार साल दुनियां से बेखबर पढ़ाई और मौज मस्ती में गुजरे गए। पढ़ने का सिलसिला टूट-सा गया। फिर नौकरी औऱ छोकरी ने वक़्त न दिया।
आशिकी में जब कुछ न कर पाए तो नौकरी ही कर लें-इस भावना से दिलो दिमाग को अपने ऑफिस में गिरवी रख दिया। नतीज़ा ये की इमेज अच्छी बन गयी, और हम भी सीनियर हो गए।
ऐसे में एक दिन दिल्ली में निर्भया कांड हो गया जो मुझे रुला गया (मैं कई सालों से रोया नहीं था-पिता जी के न रहने पर भी)।
फिर मेरा एक्सीडेंट हो गया(बहुत अच्छा हुआ!) और मैं 4 महीनें बेड पर रहा। ऐसे में मैंने वक़्त गुजरने के लिए कुछ लिखना-पढ़ना शुरू किया तो भैया ने कुछ पुराने नॉवेल दिए(उस वक़्त तो मना करते थे)। मैंने पढ़े औऱ पढ़ता ही गया।
सब पढ़ा-कम्बोज जी, ओमप्रकाश जी, पाठक जी, रानु जी, गुलशन नंदा जी कुछ जीवनियां भी पढ़ी जो आबिद रिज़वी जी की लिखी हुई थीं।
और आज तक पढ़ रहा हूँ सोचता हूँ कि हर चीज में कुछ न कुछ सकारात्मक होता है तो एक्सीडेंट ने मुझे लोकप्रिय साहित्य की दुनियां से परिचय करवा दिया। आजकल शरतचन्द्र, टैगोर, प्रेमचंद, कृष्णचंदर के आलवा वेद प्रकाश कंबोज जी,सुरेंद्र मोहन पाठक जी, जनप्रिय ओमप्रकाश शर्मा जी, वेदप्रकाश शर्मा जी सभी पढ़ रहा हूं। जो मिल जाता है चन्दर, आरिफ मरहवीं, कुशवाहा कांत, शिवानी पढ़ने की कोशिश करता हूँ।
अब समझ आने लगा है कि बिना चित्रों के कैसे इतनी मोटी नावेल पढ़ी जाती है/थी।
ये एक अजीब ही दुनियां है। इसमें पुराने समय के दिग्गज और नए जमाने के लेखक दोनों ही अपनी लेखनी से मनोरंजन प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
जब गृहकार्य से निपट कर महिलायें किसी लव स्टोरी को पढ़ती थीं और अपने सर्किल में इनके पात्रों के बारे में बतियाती थीं, ठीक ऐसे ही जैसे आजकल सीरियल की डिस्कशन होती है। वो दिन क्या कभी लौट के आएंगे--किसी ने पूछा था क्या ऐसा हो सकता है।
होने को तो सभी कुछ हो सकता है पर उसके लिए तो हमें अपनी धरोहरों को बचाना होगा। उस सहित्य को जीवंत रखना होगा जिसकी मशाल को एक सदी से पहले के लेखकों ने हमारे हाथों में दी।
इस उद्देश्य को ध्यान में रख कर श्री गुरप्रीत सिंह जी ने साहित्य ब्लॉगस्पोट के जरिये एक शुरुआत की है -उस दौर के सुनहरे इतिहास को, किस्सों को, लेखकों की कहानियों को और लुगदी साहित्य कहे जाने वाले इस लोकप्रिय साहित्य को संजोने की।
सौभाग्य से
कम्बोज जी, पाठक जी,आबिद जी, योगेश मित्तल जी, धरम राकेश जी, अनिल मोहन जी (अन्य किसी लेखक के बारे सूचित करें) आज हमारे बीच हैं जिनके सामने ये इतिहास बना था।
राम 'पुजारी'
( लेखक 'अधूरा इंसाफ...एक और दामिनी' तथा 'लव जिहाद...एक चिड़िया' जैसी चर्चित उपन्यासों के लेखक हैं।)
राम पुजारी |
कलम के जादूगर परशुराम शर्मा जी भी आज हमारे बीच है साहित्य इतिहास के संरक्षण और ज्ञान के लिए उनकी भी मदद ली जाए और उनको भी सम्मिलित किया जाए।।
जवाब देंहटाएंआपका सुझाव हमें बहुत अच्छा लगा। हम समय- समय पर विभिन्न लेखकों- प्रकाशकों और पाठकों से सहयोग लेते हैं और साहित्य देश सहयोग से ही आगे बढ रहा है।
हटाएंआप ब्लॉग पर पधारे, सुझाव दिया , आपका बहुत बहुत धन्यवाद।