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रविवार, 14 अप्रैल 2019

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-27,28

आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 27
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बैठने के लिए उन दिनों चन्दर की दुकान में छोटे-छोटे स्टूल थे।

एक पर वो बैठा, दूसरे के शीर्ष पर हाथ से थपकी दे, मुझसे बोला -"बैठ।"
मैं यन्त्रवत् बैठ गया।

"यार, मैं तुझसे बहुत दिन से बात करने की सोच रहा था। पर कभी कस्टमर्स की भीड़, कभी तेरे साथ बिमल चटर्जी या अरुण शर्मा होते थे, इसलिए कभी चांस नहीं मिला, पर आज तू पकड़ में आ गया और अभी कस्टमर भी नहीं हैं !"
मैं मुस्कुरा दिया, बोला कुछ नहीं।

"तुझे जल्दी तो नहीं है ना ?" चन्दर ने फिर पूछा।
मैंने "नहीं" में सिर हिला दिया।

"पानी पियेगा ?" पूछने के साथ-साथ चन्दर ने स्टूल से उठ, वहीं कहीं से काँच का एक गिलास उठाया और कुछ पीछे नीचे जमीन पर रखी एक बेहद खूबसूरत सुराही उठाई और सुराही से पानी काँच के गिलास में उड़ेलकर, मेरी ओर बढ़ा दिया।

प्यास तो नहीं थी, फिर भी मैंने गट-गट पानी पीकर गिलास खाली कर दिया और वापस चन्दर को थमा दिया।

चन्दर गिलास वहीं कहीं नीचे रखने के बाद फिर से स्टूल पर बैठ गया।

"अच्छा बता, किस-किसके लिए लिख रहा है ?" स्टूल पर जमकर बैठने के बाद उसने पूछा।
मैंने पहले तो बगल की दुकान की ओर इशारा किया और बोला -"मनोज में लिख रहा हूँ।"
फिर एक क्षण रुककर बोला -"गर्ग एण्ड कम्पनी और भारती पाॅकेट बुक्स में भी लिख रहा हूँ।"
"बेकार है, यह सब बनिये लोग बड़े चालू होते हैं ! इनमें कोई भी तुझे तेरे नाम से नहीं छापेगा । तू जिन्दगी भर लिखता रहेगा। कोई फायदा नहीं होगा।" चन्दर ने कहा !

"गर्ग एण्ड कम्पनी का ज्ञान तो एक बाल पाॅकेट बुक्स मेरे नाम से भी छाप रहा है।" मैंने बताया।
"अरे बाल पाॅकेट बुक्स में क्या रखा है। एस. सी. बेदी को जानता है तू ? वो मेरा यार है। उसने बच्चों के लिए एक बड़ी धाँसू "राजन-इकबाल" सीरीज़ लिखी है। बिल्कुल "विनोद-हमीद" सीरीज़ का चिल्ड्रेन एडीशन है। लेकिन बेदी को कोई छापनेवाला नहीं मिल रहा। उसे जेम्स बांड या विजय सीरीज़ लिखने को सब कह रहे हैं !"

मैं चुप रहा।

चन्दर ने फिर बोलना शुरु किया - "तू ऐसा कर कोई धाँसू सा जासूसी उपन्यास लिख। आजकल जासूसी उपन्यास की बड़ी माँग है। मैं तो दुकान चलाता हूँ, मुझे सब पता है। मेरे पास मेरठ के सारे पब्लिशर आते हैं। आजकल मेरठ में जासूसी राइटर की बहुत कमी है। मैं किसी से भी तेरी बात करा दूँगा। वहाँ से तुझे पैसे भी बहुत अच्छे मिलेंगे, और दो चार उपन्यास छपते ही मेरठ के सारे पब्लिशर तेरे पीछे लग जायेंगे और कोई न कोई नाम से भी छापने के लिए तैयार हो जायेगा। सच कह रहा हूँ योगेश। कामयाबी का यही एक रास्ता है।"
"पर मेरठ में भी ज्यादातर प्रकाशक बनिये ही हैं।" मैंने कहा।
"अबे तू नहीं जानता। वो दूसरे टाइप के बनिये हैं। वो सब जैनी बनिये हैं। जैनी बनिये बहुत अच्छे होते हैं। उन्हें तो कोई कीड़ा भी मर जाये तो बहुत दुख होता है। दूसरों का दुख:-दर्द ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं। तू दो बार उनसे अपने नाम से छापने को कहेगा तो तीसरी बार वो खुद तैयार हो जायेंगे।"

"वैसे मैं भी बनियों में गिना जाता हूँ।" चन्दर साँस लेने के लिए रुका तो मैंने मुस्कुराते हुए कहा।

"अच्छा।" चन्दर को एक बार झटका- सा लगा।  मगर दूसरे ही पल वह जल्दी से बोला -"अबे तू कहाँ से बनिया है। तू कोई व्यापार थोड़े ही कर रहा है। तू तो लेखक है। प्राचीन काल में लिखने-पढ़ने-पढ़ाने का काम ब्राह्मणों का होता था। तू जन्म से बेशक बनिया है। कर्म से ब्राह्मण है।" कहकर चन्दर एक क्षण के लिए खामोश हो गया। फिर धीरे से बोला- "वो मैंने दिल्ली के बनियों के बारे में जो कहा, तुझे बुरा तो नहीं लगा। अरे यार, मेरा मतलब सिर्फ इन प्रकाशकों से था। तेरे से मतलब नहीं था।  तू तो मेरा यार है। मुझे मालूम नहीं क्या कि तू कितना इन्नोसेन्ट है। बिमल चटर्जी ने तेरे बारे में मुझे सब बता रखा है और इसीलिए तो मैं तुझे इन दिल्ली के बनियों से, मेरा मतलब है प्रकाशकों से सावधान कर रहा हूँ।" कहते-कहते अचानक चन्दर ने सड़क पर गिलास केतली ले जाते एक लड़के को उसका नाम लेकर आवाज दी।

लड़का रुका और करीब आया तो चन्दर उससे बोला -"फटाफट दो चाय लेकर आ। दूध-दूध की। मलाई मार के और साथ में दो मट्ठी भी ले आइयो।"

लड़का सिर हिलाकर आगे बढ़ गया तो चन्दर फिर से मेरी तरफ मुड़ मुझसे सम्बोधित हुआ -"तो मैं तेरे लिए किसी मेरठ वाले से बात कर लूँ !"
"कर लो।" मैंने कहा।
"देख, लिखेगा न, मेरठ के लिए। बाद में मुकर तो नहीं जायेगा ?"
"नहीं यार !"
"ठीक है ! फिर मिला हाथ।"
मैंने चन्दर से हाथ मिलाया।

"वैसे क्या तू अभी भी बिमल चटर्जी के लिए भी लिख रहा है ?" चन्दर ने पूछा।
"नहीं...! पर कभी-कभी बिमल अपने उपन्यास का कोई सीन बता देते हैं तो लिख देता हूँ ! पर ऐसा बिमल तभी करते हैं, जब अपने लिखे सीन से वह सन्तुष्ट नहीं होते !" मैंने कहा !
"चल ठीक है ! पर यार तू बिमल को या किसी और को यह न बताइयो कि तेरी-मेरी कोई बात हुई है !"
"ठीक है !" मैंने सहमति दी।
"और यार जब भी तू दरीबे आये ! हमेशा मुझसे मिलकर जाया कर ! मैं तुझे सफल होने के ऐसे-ऐसे गुर बताऊँगा कि एक दिन सारे दिल्ली-मेरठ में तेरे नाम का डंका बजेगा ! अबे मैंने स्वेट मार्डन की बहुत सारी किताबें पढ़ी हैं ! अंग्रेजी में इससे बढ़िया कोई राइटर नहीं है !"
"अच्छा !" मैं धीरे से बोला। उन दिनों तक न तो मैंने स्वेट मार्डन को पढ़ा था। ना ही उसका नाम सुना था।

( शेष फिर )
आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 28
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उसी समय एक ग्राहक चन्दर की दुकान पर आकर रुका !
"आ भई। आज तो बहुत दिन बाद आया ?" चन्दर उसे देखते ही बोला। चन्दर उस ग्राहक को पहचानता था !
"सासू जी बीमार थीं ! उन्हें देखने लोहारु गया था !" ग्राहक ने बताया !
"अच्छा फिर दुकान..?" चन्दर ने पूछा !
"छोटा भाई शाम को खोल लेता था ! सुबह तो उसे स्कूल जाना होता है ?"
"कितना बड़ा है तेरा भाई ? कौन सी क्लास में पढ़ता है ?" चन्दर ने एक साथ दो सवाल टपका दिये।

वह ग्राहक चौबीस पच्चीस वर्षीय एक पतला और लम्बा युवक था ! उसने चन्दर के दोनों सवालों का जवाब दिया -"सोलह साल का है ! अभी दसवीं में है !"
वह युवक बात करने के साथ-साथ हर किताब की ढेरी से दो-दो किताबें उठाकर अलग रखता जा रहा था।
"अच्छा-अच्छा !" उसका जवाब सुनकर चन्दर ने सिर आगे-पीछे हिलाया और पूछा -"हुआ क्या था तेरी सास को ?"
"पीलिया हुआ था ! अब ठीक हैं !"

ग्राहक से बात में चन्दर शायद भूल ही गया था कि मैं भी उसकी दुकान में बैठा हूँ ! फिर अचानक ही जैसे उसे याद आ गया ! मेरी ओर मुड़कर बोला -"योगेश ! यह शिवराम है ! बहादुरगढ़ से मेरे पास किताबें लेने आता है ! बहादुरगढ़ पता है - कहाँ है ! दिल्ली बार्डर के बाद पड़ता है ! यहाँ से तो बहुत दूर है ! तू गया है कभी बहादुरगढ़ ?"
मैंने इन्कार में सिर हिला दिया ! फिर चन्दर शिवराम का माल सम्भलवाने तथा उसकी छाँटी किताबों का बण्डल बनाने में लग गया ! शिवराम के जाने से पहले ही दो ग्राहक और आ गये !

मैं बैठा-बैठा बोर होने लगा और सोचने लगा कि चन्दर से कहूँ -'अब मैं चलता हूँ !'

तभी लड़का चाय-मट्ठी ले आया।
चाय काँच के दो गिलासों में थी, जिन्हें वह लोहे के तार के हैंगर में लटकाकर लाया था ! दूसरे हाथ में अखबारी कागज के एक छोटे लिफाफे में दो मट्ठियाँ थीं !

चन्दर ने लिफाफे से निकाल एक मट्ठी और चाय का गिलास मेरी ओर बढ़ाया।
मैंने एक हाथ में चाय, दूसरे में मट्ठी थाम ली ! चन्दर अपने ग्राहकों में व्यस्त हो गया और मैं मट्ठी कुतरने लगा ! एक बार मट्ठी कुतरता, फिर चाय का घूँट भरता ! फिर मट्ठी कुतरता और चाय का घूँट भरता ! इस तरह मेरी चाय और मट्ठी खत्म हो गई, जबकि चन्दर के हिस्से की अभी ज्यों की त्यों रखी थी।

तभी कुछ और ग्राहक आ गये ! चन्दर की व्यस्तता और बढ़ गई ! अब वहाँ रुके रहने का कोई फायदा नहीं था।

मैंने चन्दर की पीठ पर हाथ रखा -"अभी मैं चलूँ चन्दर भाई ! गर्ग एण्ड कम्पनी से पेमेन्ट लेनी है ! देखूँ...शायद मिल जाये !"
"कितनी लेनी है ?" चन्दर ने ग्राहक के लिए कुछ किताबें निकालते-निकालते पूछा !
"पच्चीस रुपये ! एक बाल पाॅकेट बुक्स की पेमेन्ट है !" मैंने कहा !
"बस ! पच्चीस रुपये ! योगेश, ये ज्ञान तो बड़ा कंजूस है ! कम से कम पचास तो देने ही चाहिए ! बहुत पैसा है साले के पास ! गल्ला हर समय भरा रहता है ! इनका कच्चे का काम बहुत शानदार है !"

कच्चे का काम का मतलब, तब मैं समझने लगा था।
बेहद सस्ते अखबारी नेफा पेपर पर छापी जानेवाली किताबों को कच्चे की श्रेणी में रखा जाता था ! उन किताबों की लागत बेहद कम आती थी। फिल्मी गानों की किताबें। धार्मिक पुस्तकें तथा किस्सा तोता-मैना, शेखचिल्ली, बेताल कथाएं,  अकबर-बीरबल और तिलस्मी कहानियों की किताबें तब कच्चे में ही छपती थीं।

चन्दर से इजाजत लेकर मैं उसकी दुकान से नीचे उतर गया !
थोड़ा आगे ही गर्ग एण्ड कम्पनी की दुकान थी। जब मैं दुकान पर पहुँचा ज्ञान दुकान पर नहीं था। उसके यहाँ काम करनेवाला लड़का था, जो काफी पीछे बैठा था और छपे हुए किसी सामने रखे आधे फार्म को मोड़-मोड़ कर एक ओर रख रहा था।

मैंने गौर से देखा, फर्मा मुड़कर आठ पेज की किताब की शक्ल ले रहा था, वह किसी नई आई फिल्म के गानों की किताब थी।
यानि जैसा चन्दर ने कहा था - वही कच्चे का काम।

"ज्ञान भाई साहब कहाँ हैं ?" मैंने लड़के से पूछा।
"आ रहे हैं !" लड़के ने एक उचटती निगाह मुझ पर डाली और फिर से अपने काम में लग गया।

मैं दुकान के बाहर ही खड़ा रहा।
लगभग दस मिनट मुझे खड़े-खड़े हो गये तो मेरा सब्र जवाब देने लगा।
मैंने अपने काम में लगे लड़के से फिर पूछा -"ज्ञान भाई साहब गये कहाँ हैं ?"
"अभी आ रहे हैं ?" लड़के ने फिर कहा।
"कहीं दूर गये हैं क्या ?" मैंने फिर पूछा।
इस बार लड़के ने सीधा जवाब दिया - "शूशू करने गये हैं !"

वो जमाना और था।टायलेट या वाशरूम जैसे शब्द आम प्रचलन में नहीं थे। हल्के होने जाना हो तो सीधा-स्पष्ट नाम लिया जाता था।
लड़के का जवाब सुनकर मैं गहरी साँस लेकर रह गया ! पैसे लेने थे तो खड़े रहने के सिवा कोई चारा नहीं था ! लड़के ने एक बार भी बैठने को नहीं कहा था और मैं इतना फ्रैंक नहीं हुआ था कि खुद-ब-खुद बैठ जाता या शायद मुझ में आत्मविश्वास की भी कमी रही हो।

कुछ देर बाद ज्ञान आ गया।
आते ही लड़के को आवाज दी -"जरा पानी डाल !"
लड़का अल्युमिनियम का एक जग उठाकर लाया ! उससे ज्ञान के हाथ पर पानी डाला। हाथ धोते-धोते ज्ञान ने मुझसे पूछा -"तू कब आया ?
"हो गये होंगे बीस मिनट ! आपने बहुत देर कर दी ?" मैं बोला।
"बहुत देर नहीं, बहुत जल्दी आ गया ! जाकर देख कितनी लाइन लगी है ? पीछे घर का टॉयलेट बहुत गंदा हो  रहा है ! मजबूरी में बाहर जाना पड़ा !" ज्ञान ने यह कहते हुए, हाथ धोने के बाद गद्दी के कोने में पड़े छोटे तौलिये से हाथ पोंछे और  दुकान पर चढ़ गया तथा अपनी गद्दी पर बैठ गया।

तब दरीबे की किसी भी दुकान में काउंटर नहीं होते थे। स्टूल जरूर लगभग हर दुकान में थे ! पर अधिकांशत: वह ऊँचे-ऊँचे रैक्स से किताबें उतारने के लिए इस्तेमाल होते थे।

आजकल जितनी भी नई सरकारी मार्केट बन रही हैं ! सबमें टायलेट आदि जनसुविधाओं का भी समुचित ख्याल रखा जाता है, पर तब गली सड़कों में बनी दुकानों में लोगों को घर का टायलेट ही इस्तेमाल करना पड़ता था ! किन्तु जब लोगों ने दुकानें बेचनी या किराये पर देनी आरम्भ की तो बहुत कम मकानमालिक किरायेदारों को अपना घरेलू टायलेट प्रयोग करने की इजाजत देते थे ! घरों में फ्लश वाले टॉयलेट न होकर दो खुड्डी वाले होते थे, जिसमे हमेशा बदबू रहती थी !

दुकानदारों को सरकारी जनसुविधा केन्द्रों पर निर्भर रहना पड़ता था।

वह डाॅक्टर बिन्देश्वर पाठक द्वारा आरम्भ किये सुलभ इन्टरनेशनल या सुलभ शौचालयों का शुरुआती दौर था।

           तब एक गली में एक या दो सिर्फ़ पुरुषों के लिए मूत्रालय होते थे, जहाँ कई बार बड़ी लम्बी-लम्बी लाइन लग जाती थी ! किन्तु ऐसी स्थिति में बहुत से लोग मोहल्ले के मकानों की दीवारों को खराब करते थे।

जहाँ दुकाने ज्यादा थीं और दुकान वालों को उस मकान के टायलेट उपयोग करने की सुविधा नहीं थी, उन्हें बड़ी परेशानी होती थी।‌  जिनके घर पास में होते थे, वो तो सीधे घर को ही भागते थे।

खुद गद्दी पर सैट होकर बैठने के बाद ज्ञान ने मुझे भी गले में हाथ डाल, खींचकर पास ही बैठा लिया ! फिर पूछा -"आज  क्या लाया है ?"
"आज क्या लाना था ! आपका कोई आर्डर तो था नहीं !" मैंने कहा तो ज्ञान ने तुरन्त ही कहा -"बेवकूफ है तू और गधा ही रहेगा ! गोलगप्पा में तेरी कितनी कहानियाँ छपी हैं ?"
"दो !" मैंने कहा।
"और कोई कहानी भेजी है तूने गोलगप्पा में ?"
"नहीं !"
"और तू जानता है गोलगप्पा हर महीने छपती है ! उसके लिए कहानी लिखकर लाने के लिए भी तुझे बोलना पड़ेगा ! पाँच-छ: कहानी ले आता तो हर महीने मैं तेरी दो-दो कहानी लगा देता !"

मैं चुप ! ज्ञान की इस बात के जवाब में खामोशी ही, ठीक जवाब था।

"और सुना...कहानी नहीं लाया तो फिर क्यों आया है ! मनोज में आया था ?" ज्ञान ने पूछा ! मैं समझ गया - ज्ञान आज अच्छे मूड में है, वरना मनोज पाॅकेट बुक्स के लिए 'मनोज' शब्द प्रयोग करना उसके स्वभाव के विपरीत था ! इस अच्छे मूड का फायदा उठाने के लिए मैं मुस्कुराकर बोला -"मैं तो आपसे ही मिलने आया हूँ !"
"हाँ, बड़ा मैं राजकपूर हूँ ना ! मुझसे मिलने आया है ! असली बात बता !"
"वो...आपने बुलाया था न !"
"मैंने कब बुलाया ! वैसे ही.."
"बुलाया था ! बाल पाॅकेट बुक्स की पेमेन्ट देनी थी न !" मैंने ज्ञान को याद दिलाया तो वह अनजान बनकर बोला -"किसे देनी थी ? कब देनी थी ! तुझे तो मैंने एक-एक पैसा दे दिया था ! तेरी गोलगप्पा में छपी कहानियों के भी दस रुपये दिये थे कि नहीं ?"
"हाँ, पर अभी भी पचास रूपये देने है !" मैंने कहा !
"पचास रूपये काहे के ?"
"एक बाल पाॅकेट के !"
"उसकी तो हमारी पच्चीस की बात हुई थी ! एक पाॅकेट के पच्चीस तुझे दिये भी थे !"
"हाँ, एक के दे दिये थे ! पर दूसरी के तो दे दो ! गरीब लेखक से मजाक मत किया करो !"
"अच्छा-अच्छा !" ज्ञान ने यूँ दर्शाया, जैसे याद आ गया हो ! फिर गल्ले से पच्चीस रुपये निकालकर मुझे दे दिये !
पच्चीस रुपये देने के बाद ज्ञान गम्भीर होकर बोला -"तेरे लिए मेरे पास एक बहुत बढ़िया आॅफर है ! डेढ़ सौ रुपये महीना दूँगा ! तू मेरे पास आ जा ! सुबह नौ बजे से रात आठ बजे तक दोनों साथ-साथ काम करेंगे ! मेरी गोलगप्पा का सारा काम तू सम्भाल ले !"
"फिर नाॅवल कब लिखूँगा ? अभी तो मुझे मनोज और भारती पाॅकेट बुक्स के लिए कई उपन्यास लिखने हैं !" मैंने कहा !
"छोड़ ! सब सालों को ! तूने किसी की गुलामी थोड़े ही कर रखी है ! किसी से एडवांस थोड़े ही लिया है !"

मुझे तत्काल कोई जवाब नहीं सूझा !

ज्ञान तुरन्त मुझे उलझन से निकालता हुआ बोला-"कोई बात नहीं ! तू हफ्ते-दस दिन सोच ले ! अपने घरवालों से सलाह कर ले !"
ज्ञान से हाथ मिला मैं आगे बढ़, कुछ ही दूर पहुँचा था कि कान में आवाज आई -"क्यों ?"
और कन्धे पर एक हाथ आ गया था ! मैंने घूमकर देखा !
राज भारती जी थे !
चेहरे पर मनमोहक मुस्कान लिए हुए !
"यहाँ कहाँ...?" राज भारती जी ने पूछा !

(शेष फिर )

वह दिन मेरे जीवन के बहुत-बहुत खास दिनों में से एक था।

चित्र - डॉक्टर बिंदेश्वर पाठक - जिन्होंने सुलभ इंटरनेशनल की नींव रखी और सुलभ शौचालयों के एक श्रृंखला आरम्भ की।

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-29,30

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