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रविवार, 14 अप्रैल 2019

उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-31,32

आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 31
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          उस दिन फूलचन्द सुबह-सुबह घर आ गया ! वह अपने माता-पिता की इकलौती सन्तान था और उसके माता-पिता उसकी इतनी ज्यादा चिन्ता करते थे, जितनी कोई माँ-बाप अपनी जवान बेटी की भी नहीं करते।

           फूलचन्द गाँधीनगर में रहने पर शुरुआती दौर में बने मेरे दोस्तों नरेश कुमार गोयल और अरुण कुमार शर्मा का सहपाठी रह चुका था और उन दोनों का ही अच्छा दोस्त था, लेकिन मेरी उससे सिर्फ पहचान ही थी।

           फूलचन्द कद में मुझसे खास बड़ा नहीं था, सिर्फ इंच-दो इंच का रहा होगा, लेकिन उसका शारीरिक गठन बहुत अच्छा था और सबसे खास बात यह थी कि उसका रंग एकदम गोरा-चिट्टा था ! चेहरे पर हमेशा मासूमियत छाई रहती थी ! किन्तु उसके चेहरे पर मूँछ-दाढ़ी का अभाव था।

         वह इतना खूबसूरत था कि यदि साड़ी-ब्लाऊज में सामने आ जाये तो गली-मोहल्ले के दिलफेंक लड़के 'अश्-अश्' कर उठें और उस पर लाइन मारने के अवसर ढूँढने लगें।

       नवीं-दसवीं में तीन साल फेल होने के कारण वह नरेश और अरुण से पिछड़ अवश्य गया था, किन्तु बचपन से साथ-साथ पढ़ने के कारण बनी दोस्ती बरकरार थी।
      फूलचन्द से पहले जब भी मैं मिला था, वह नरेश गोयल व अरुण शर्मा के साथ था। पहली बार वह अकेला ही मेरे द्वार पर था, जबकि उससे मेरी मामूली बोल-चाल ही थी, इसलिए उसे अपने द्वार पर देखकर मुझे आश्चर्य ही हुआ था।

"क्या हुआ ? आज मेरे यहाँ कैसे ?" मैंने पूछा तो वह बेहद गम्भीर होकर बोला -"भाई साहब, मुझे आप से जरूरी काम है बहुत ही जरूरी काम है ! आप थोड़ी देर बाहर चलोगे ?"
"चलता हूँ, पर यार तुम भी नरेश और अरुण की तरह मुझे योगेश कह सकते हो !" मैंने कहा।
"नहीं, मैं भाई साहब ही कहूँगा ! आप मुझे बड़े भाई जैसे लगते हो ! मेरा कोई बड़ा भाई होता तो बिल्कुल आप जैसा ही होता !" फूलचन्द ने गहरे आत्मविश्वास से कहा।

         घर से बाहर निकल, मैं फूलचन्द के साथ मामचन्द की चाय की दुकान की ओर बढ़ने लगा तो फूलचन्द बोला -"नहीं, यहाँ नहीं। यहाँ लोग हमारी बात सुन लेंगे !"

मुझे झटका-सा लगा।
ऐसी क्या बात करना चाहता है फूलचन्द।

"आप इधर चलो मेरे साथ !" फूलचन्द ने मेरा हाथ पकड़कर खींचा और मुझे अपने साथ लिए आगे बढ़ता चला गया।

           गाँधीनगर की नेहरू गली से हमारे घर के बीच उन दिनों एक बड़ा पार्क था, जहाँ तब जगह-जगह कूड़े का ढेर हुआ करता था ! रामलीला के दिनों में अवश्य उस पार्क की हालत सुधर जाती थी, क्योंकि वहाँ रामलीला का मंचन होता था, पर उन दिनों उस पार्क की हालत बहुत खराब थी।

         फूलचन्द मुझे उसी पार्क में ले गया ! फिर आस-पास किसी को न देख बोला -"अब ठीक है, यहाँ हमारी बात कोई नहीं सुन सकेगा।"
            "हाँ, मगर बात क्या है ? तुम इतने परेशान क्यों हो ?"
"पहले आप वादा करो, हमारे बीच की बात किसी को भी नहीं बताओगे ! अरुण और नरेश को भी नहीं !"
"ऐसी क्या बात है फूलचन्द ? तुम्हें मुझ पर विश्वास हो तो करो ! वरना मत करो ! तुम परेशान हो, इसलिए मैं तुमसे वादा कर सकता हूँ ! पर जो कुछ कहना है - फटाफट कहो !"
"मैं गाँव जा रहा हूँ !" फूलचन्द ने हरियाणा के किसी गाँव का नाम लिया ! फिर जो कुछ भी बताया, वह संक्षेप में इस प्रकार था कि उसकी बचपन में ही शादी हो गई थी, जिसके बारे में उसके किसी भी दोस्त को पता नहीं था ! शर्म के मारे उसने कभी किसी दोस्त को कुछ भी नहीं बताया हुआ था !

        अब उसकी पत्नी सोलह साल की थी और दो साल बाद गौना होने की बात दोनों के परिवारों ने निश्चित की थी, यह सोचकर कि तब तक फूलचन्द कोई न कोई काम-धन्धा या नौकरी भी करने लगेगा।

            फूलचन्द ने बताया कि उसकी पत्नी बहुत खूबसूरत है और पहले भी जब भी वह गाँव जाता था, उसके दिल में कुछ-कुछ होता तो था, दोनों एक-दूसरे को चोरी-छिपे देखते थे, मगर बात नहीं होती थी, लेकिन इस बार फूलचन्द अपनी पत्नी को एक प्रेमपत्र देना चाहता था और वह समझता था कि मैं एक बहुत अच्छा लेखक हूँ, इसलिए अपना प्रेमपत्र लिखवाने के लिए वह मेरे पास आया था। उसकी पत्नी बिल्कुल अनपढ़ नहीं थी, गाँव के स्कूल में चार क्लास तक पढ़ी हुई थी ! हिन्दी पढ़ना-लिखना अच्छी तरह जानती थी।

            किताबी दुनिया के किस्से में शायद आपके विचार में - इस किस्से का जिक्र जरूरी न हो, लेकिन फिर भी इस किस्से को मैं आपके सामने पेश कर रहा हूँ, क्योंकि यह किस्सा - हरेक जिन्दगी का हिस्सा है।

शादी से पहले या शादी के बाद मेरा तो यही मानना है कि प्रेमपत्र हर पति-पत्नी के जीवन की रीढ़ हुआ करता है।

पहले जीवन की गति जब बहुत धीमी हुआ करती थी, अन्तर्देशीय पत्र अथवा लिफाफे इश्क-मोहब्बत का खजाना हुआ करते थे।
अब तेज भागते जीवन में एसएमएस और व्हाॅट्सएप मन का उद्गार प्रकट करते हैं।


आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 32
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          फूलचन्द उम्र में मुझसे तकरीबन चार साल बड़ा था, लेकिन मुझे भाई साहब कह रहा था, यह तो मुझे अजीब लग ही रहा था, अपनी पत्नी के लिए मुझसे प्रेमपत्र लिखने को कह रहा था, यह मुझे ज्यादा अजीब लग रहा था।

सारी बात बेहद भोलेपन से कह चुकने के बाद, फूलचन्द ने बड़े अपनेपन से मुझसे सवाल किया -"तो अब यह बताओ भाई साहब कि आप कब तक पत्र लिख कर दे दोगे ?"
"कभी नहीं !" मैंने तत्काल कहा।

फूलचन्द जैसे आसमान से गिरा।

"ऐसा मत कहो भाई साहब ! मैं बड़ी उम्मीद से आपके पास आया हूँ ! आपने तो एकदम मना कर दिया ! मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि आप इतने छोटे से काम के लिए मना करोगे ! मुझे लिखना नहीं आता, नहीं तो मैं खुद लिख लेता ! इतनी दूर...आपके घर...आपकी खुशामद करने कभी नहीं आता ! जरा सोचिये - एक आदमी कितने अरमानों के साथ आपके पास आया है और आपने यह भी नहीं सोचा कि आपके दो टूक इन्कार से उसके दिल पर क्या बीतेगी ! आपको मेरी मदद करनी ही चाहिए ! मुसीबत में दोस्त अगर दोस्त की मदद नहीं करेगा तो कौन करेगा ? आप तो मेरे दोस्त हो न ?"
"नहीं !" मैंने तत्काल कहा -"फूलचन्द, तुम नरेश और अरुण के साथ मुझसे मिलने आते रहे हो, पर आज से पहले कब तुमने मुझसे कोई भी विशेष बात की ? नरेश और अरुण के साथ मेरे निकट आने पर हमेशा तुम खामोश ही रहे हो ! जैसे अरुण व नरेश मुझसे खुलकर बातें करते हैं - याद करो, क्या तुमने उस तरह कभी मुझसे बातें की ?"
"बातें नहीं कीं, क्योंकि मुझे बातें करना नहीं आता ! अब काम पड़ा तो आया हूँ न बात करने ! और आप बोल रहे हो, मैं आपका दोस्त नहीं हूँ ! अरे, अगर मैं आपको दोस्त नहीं समझता तो इतनी बड़ी बात क्या मैं आपको बताता, जो मैंने आज तक अरुण और नरेश को नहीं बताई ! दोस्त नहीं समझता तो क्या अपनी पत्नी के लिए प्रेमपत्र आपसे लिखवाने के लिए इतनी दूर आता ?" फूलचन्द गुस्से में आ गया !
"अच्छा-अच्छा ! आज से हम दोस्त हैं ! अगर नहीं भी थे तो आज से हैं ! अब मैं एक दोस्त की तरह जो तुमसे कहूँगा - सुनोगे ?" मैं फूलचन्द को शान्त करने के लिए नम्रता और स्नेह से बोला !
"क्या ?" उसने तुरन्त पूछा, मगर उसका स्वर अभी भी उखड़ा हुआ था !
"मेरा यह मानना है कि अपनी पत्नी या प्रेमिका के लिए किसी को भी किसी अन्य से पत्र नहीं लिखवाना चाहिए और यही बात एकदम मेरे दिमाग में आई थी,  इसीलिए मैंने तुम्हें पत्र लिखने से मना किया था !" मैंने कहा !
"क्यों ? क्या हो जायेगा आपसे पत्र लिखवाने से ?" फूलचन्द ने तमक कर पूछा।

वह अभी भी बहुत गुस्से में था।

              मैंने फूलचन्द के गले पर बायीं ओर से हाथ डाल, अपना हाथ उसके बायें कन्धे पर टिका दिया और बड़ी आत्मीयता से कहा -"फूलचन्द, थोड़ी देर पहले तुम बता रहे थे कि तुम्हारी पत्नी बहुत खूबसूरत हैं !"
"हाँ, बहुत ही खूबसूरत है ! मैं तो कहता हूँ - कोई फिल्म की हीरोइन भी इतनी खूबसूरत नहीं है !" फूलचन्द भावुक हो गया था ! उसकी आँखों के सामने पत्नी का चेहरा आ गया होगा !
"ठीक है ! ठीक है ! अब यह बताओ, साल-दो साल बाद कभी तो तुम उसे अपने यहाँ दिल्ली लाओगे ही ?"
"हाँ !" फूलचन्द ने कहा !
"तब, कभी न कभी उसे अपने यार-दोस्तों से भी मिलवाओगे ही !"
"हाँ, वो तो मैंने सोचा हुआ है, तब अरुण, नरेश और आपको एक शानदार पार्टी दूँगा और अपनी पत्नी के हाथ का खाना आप सबको खिलाऊँगा !" फूलचन्द बड़े उत्साह से बोला !
"ठीक है, लेकिन आज अगर तुम मुझसे अपनी पत्नी के लिए प्रेमपत्र लिखवाकर ले जाओगे तो तब तुम्हारी फिल्मी हीरोइनों से भी ज्यादा खूबसूरत पत्नी को देखकर मेरे दिल और दिमाग में यह बात जरूर आयेगी कि इस खूबसूरत औरत को फूलचन्द ने मुझसे प्रेमपत्र लिखवाकर दिया था  और तब तुम्हारी पत्नी के प्रति मेरी नीयत खराब भी हो सकती है, जो कि नहीं होनी चाहिए ! हो सकता है - कभी मौका पाकर मैं उसे यह बता भी सकता हूँ कि कभी फूलचन्द ने तुम्हें जो पत्र दिया था, वह मेरा लिखा हुआ था !"
"आप ऐसा करोगे ?" फूलचन्द आहत भाव से बोला ! फिर खुद ही तुरन्त बोला -"नहीं, आप ऐसा नहीं कर सकते और करोगे भी तो मेरी पत्नी आपको कभी पसन्द ही नहीं करेगी ! वो कभी भी आपके पटाये में नहीं आयेगी !"

         मुझे हँसी आ गयी, पर हँसी रोककर मैं बोला -"मैं जानता हूँ - तुम्हारी फिल्मी हीरोइनों से भी ज्यादा खूबसूरत पत्नी मेरे पटाये में नहीं आयेगी और मैं उसे पटाना भी नहीं चाहता, लेकिन तुम उसके लिए मुझसे पत्र लिखवाओगे तो अगर मैं एक अच्छा इन्सान हूँ तो उसके प्रति कुछ भी बुरा नहीं सोचूँगा ! पर यह भी तो हो सकता है कि मैं ऊपर से, बाहर से तो बहुत अच्छा लगता होऊँ, मगर दिल से बड़ा कमीना होऊँ ! ऐसे में - मैं कुछ भी हासिल न हुआ तो जब तब तुम्हारी पत्नी को किसी न किसी बहाने यहाँ-वहाँ छूने की कोशिश तो अवश्य करूँगा !"
"आप ऐसा करोगे ?" फूलचन्द का चेहरा रुआँसा हो गया ! फिर एकदम सिर हिलाते हुए वह बोला -"नहीं-नहीं ! आप ऐसा नहीं कर सकते !"
"नहीं करूँगा !" मैंने मुस्कुराते हुए फूलचन्द को भरोसा दिया -"पर मेरे यह सब कहने का मतलब है - अपनी प्रेमिका  या पत्नी को कभी किसी और से लिखवाया प्रेमपत्र नहीं देना चाहिए ! अपने मन की भावनाएँ खुद ही कहनी चाहिए !"
"पर मुझे तो कुछ आता ही नहीं ! मैं तो दो लाइन भी नहीं लिख सकता ! इसीलिए तो मैं पढ़ाई में भी तीन-तीन बार फेल हुआ हूँ !"इतना कहकर फूलचन्द ने खुद को भद्दी सी गाली दी - "मैं इतना बड़ा........हूँ कि अपनी पत्नी को एक प्रेमपत्र भी नहीं लिख सकता !"
"पर तुम्हें प्रेमपत्र लिखने की जरूरत ही क्या है ! तुम सीधे उससे मिलकर बात क्यों नहीं करते !" मैंने कहा !
"मिलकर...?" फूलचन्द का गला सूखने लगा - "नहीं-नहीं, गाँव में किसी ने देख लिया तो...?"
"अब कोई तुम दोनों को साथ में न देखे, इसका ख्याल तो तुम्हें ही रखना होगा, पर अगर कोई देख भी ले तो डरना या घबराना नहीं ! वो गाना नहीं सुना - 'जब प्यार किया तो डरना क्या'  और फिर वो तो तुम्हारी पत्नी है !"

फूलचन्द सोच में पड़ गया।
तभी मैंने उससे सवाल किया -"तुम्हारे गाँव में कोई तालाब, झील या मन्दिर जैसी जगह तो होगी ! तुम अपनी पत्नी को एक लाइन की चिट्ठी लिखो कि इतने बजे वहाँ आकर मिलो और यदि वह मिलने आये तो उस समय तुम्हारे दिल में जो कुछ भी आये, सब उससे कह देना !"

        फूलचन्द को मेरी बात पसन्द तो आई, लेकिन उसके मन में एक संशय हुआ -"क्या वो मिलने आयेगी ?"
मैंने जवाब दिया -"आग अगर उधर भी लगी हुई तो जरूर मिलने आयेगी ! वरना तुम सब्र कर लेना ! जहाँ इतने साल दूर-दूर रहे, वहाँ कुछ और साल सही !"
"ये कुछ साल ही तो काटने मुश्किल हो रहे हैं !" फूलचन्द ने कहा तो मैं बोला -"ठीक है, फिर कोशिश करना और कोशिश में सफल हो गये तो बेटा, एक बात और जान लो !"
"क्या ?"
"लवलैटर लिखने तुम्हें खुद-ब-खुद आ जायेंगे और तुम किसी भी लेखक से भी ज्यादा अच्छे प्रेमपत्र लिखने लगोगे !"

फूलचन्द हँसने लगा।
उस रोज पहली बार वह खुलकर हँसा।

        उस दिन के बाद फूलचन्द मुझसे अलग हुआ तो बहुत दिनों तक नहीं मिला। बहुत दिन बाद गाँव से लौटने पर वह मुझसे मिलने अकेला ही आया तो शरारती अन्दाज में एकदम मेरे पैरों पर झुक गया और बोला - "गुरुजी, आप महान हो !"
"क्यों ? क्या हुआ ?" मैंने उसे अपने पैरों पर गिरने से रोक सीने से लगाते हुए पूछा।

           उसने कहा -"मैंने बिल्कुल वैसा ही किया, जैसा आपने बताया।   मैंने उसे घर के पीछे गन्ने के खेत में मिलने की चिट्ठी लिखकर उसके पास फेंक दी।  उसने चिट्ठी उठा ली, पढ़ी और समय पर खेत में पहुँच गी।    फिर दोनों ने खूब बातें की।   उसके बाद तो हम दोनों बहुत बार मिले और हमने एक-दूसरे को खूब सारा प्यार भी किया ?"
"प्यार कैसे किया ?" मैंने जान-बूझकर शरारतन पूछा तो फूलचन्द ने शरमाते-शरमाते बताया कि दोनों जब-जब खेत में मिले ! एकान्त का फायदा उठा - एक-दूसरे की खूब पप्पियाँ और जफ्फियाँ लीं।

                लेकिन सबसे खास बात जो फूलचन्द ने बताई, वह यह कि फूलचन्द और उसकी पत्नी ने एक-दूसरे को लवलैटर भी लिखे। फूलचन्द ने बताया कि उसने पाँच और उसकी पत्नी ने उसे आठ प्रेमपत्र लिखे और फूलचन्द का लिखा एक प्रेमपत्र तो पूरे साढ़े चार पेज का था।  उस पत्र के बारे में बताते हुए फूलचन्द ने मुझसे कहा -"क्या बताऊँ गुरुजी, वो लैटर तो इतना अच्छा लिखा गया, इतना अच्छा लिखा गया था कि आप भी वैसा पत्र कभी नहीं लिख सकते ! और उसकी पत्नी ने तो उसके पत्रों को इतना अच्छा बताया….इतना अच्छा बताया है कि उससे बढ़िया लवलैटर कोई लिख ही नहीं सकता और वो उन प्रेमपत्रों को ज़िंदगी की आख़िरी सांस तक बहुत संभाल कर रखेगी !"

     ‌‌‌  फूलचन्द का कहना था कि यदि मैं उसके कहने पर आरम्भ में ही उसे प्रेमपत्र लिखकर दे देता तो उसे पता ही नहीं चलता कि वह मुझसे भी अच्छे लवलैटर लिख सकता है।

           इसके बाद उसने मुझसे यह भी कहा कि चूँकि मैंने ही उसे पत्नी से मिलने और मन की बात जुबानी कहने के लिए प्रोत्साहित किया था, इसलिए मैं उसका "लवगुरु" हूँ और वह मुझे हमेशा "गुरुजी" कहा करेगा और जब तक मैं गाँधीनगर में रहा, फूलचन्द ने नरेश और अरुण के सामने भी मुझे ‘गुरुजी’ कहकर सम्बोधित किया।

        अपनी शादी बचपन में ही हो चुकने का किस्सा भी उसने अरुण और नरेश को बता दिया। मुझसे प्रेमपत्र लिखवाने और मेरे ना लिखने तथा लैक्चर पिलाने की बातें भी उसने अपने जिगरी दोस्तों को बता दी थी।

       दरअसल मेरा यह मानना है कि किन्हीं दो स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम बिलकुल निजी-व्यक्तिगत अनुभूति तथा उपलब्धि है ! उसे निजी ही रहना चाहिए। उसका आनंद तभी तक है, जब तक साँसों और धड़कनों के स्वर दो प्रेमियों के बीच ही रहें।

           जब हम दोस्तों के बीच प्रेम की दास्तान शेयर करते हैं तो हमारा उद्देश्य बेशक अतिरिक्त आनंद और मज़ा लेने का हो, लेकिन हम प्रेम की सूक्ष्म तथा मन और आत्मा को छूने वाली संवेदनाओं को खो देते हैं। हमारे लिए प्रेम तन-मन और आत्मा का मिलन नहीं रह जाता, एक मनोरंजक फिल्म का हिस्सा बन जाता है।  प्रेम की बातों का ऐसा मज़ा वही लेते हैं, जिनके लिए प्रेम केवल शारीरिक आनंद का विषय हो, लेकिन जिनके लिए प्रेम तन-मन-आत्मा का मिलन हो, वे भावुक और सच्चे प्रेमी अपने प्रेम की हर किसी से ‘अनावश्यक’ चर्चा नहीं करते  और प्रेम का वास्तविक आनंद उन्हें ही प्राप्त होता है ! वे ही प्रेम का भरपूर आनंद उठाते है।
   
          उसके बाद मैं और मेरा परिवार बहुत लम्बे अर्से तक गाँधीनगर में नहीं रहे, इसलिए फूलचन्द की पत्नी को देखने का अवसर मुझे कभी नहीं मिला ! गाँधीनगर छूटने के बाद नरेश और फूलचन्द से भी कभी मुलाकात नहीं हुई। हाँ, अरुण से अवश्य बहुत मुलाकातें हुईं और उसकी बेटी के विवाह में भी मैं सम्मिलित हुआ था।

(शेष फिर )
उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-01,02
उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-29,30


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