आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 29
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"मैं तो गर्ग एण्ड कम्पनी में पैसे लेने आया था ! मनोज में भी गया था। उन्हें बाल पाॅकेट बुक्स देनी थीं ?" मैंने राज भारती जी से कहा। फिर पूछा -"पर आप यहाँ कहाँ ?"
"क्यों ? तू ही यहाँ माल कमाने आ सकता है ? राज भारती को कोई नहीं जानता।" राज भारती हँसते हुए बोले तो मैं हड़बड़ाया -"नहीं-नहीं, मेरा वो मतलब नहीं था !"
"मतलब-वतलब छोड़ ये बता ज्ञान ने पैसे दिये ?"
"हाँ, दिये !" मैंने कहा।
उन दिनों मेरे मुँह से किसी भी पारिश्रमिक अथवा पेमेन्ट के लिए अधिकांशतः 'पैसे' शब्द ही मुँह से निकलता था ! राज भारती जी के संसर्ग ने ही मुझे 'पेमेन्ट' या 'पारिश्रमिक' बोलना सिखाया।
"आज तो लगता है - मनोज से भी पेमेन्ट मिल गई है ?" भारती साहब मेरा चेहरा गौर से देखते हुए चुटकी लेकर बोले !
"हाँ !" मैं हँसा।
"तब तो पार्टी हो जाये !"
"हाँ-हाँ, जरूर ! बताइये कहाँ चलना है ?"
"सब्र कर...सब्र कर ! तूने तो अपनी जेब भर ली ! अब मैं भी जरा कुछ नाश्ते-पानी का जुगाड़ कर लूँ !" राज भारती बदस्तूर मुस्कुराते हुए बोले।
उनकी इस बात पर मेरी समझ में कुछ नहीं आया कि क्या कहूँ - लिहाज़ा चुप रहा।
एक क्षण की चुप्पी के बाद राज भारती मेरा हाथ थाम एक ओर खींचते हुए बोले -"अमरनाथ जी से मिला है कभी ?"
"अमरनाथ कौन ?"
"पंजाबी पुस्तक भण्डार नहीं गया कभी ?"
"नहीं...!"
"चल, आज तुझे मिलाते हैं !" राज भारती बोले और मेरा हाथ थामे-थामे एक ओर बढ़ते चले गये।
लेखक वर्ग में राज भारती पहले शख़्स थे, जो मुझे तुम या आप नहीं, 'तू' कहकर सम्बोधित करते थे और इस सम्बोधन से उन्होंने जीवन के अन्तिम क्षणों तक मुझे एक अग्रज या अभिभावक की तरह बाँधे रखा।
अक्सर वो कहीं भी कभी भी सड़क पर मेरा हाथ थामकर ऐसे चलने लगते थे, जैसे कोई बहुत बड़ा भाई अपने नन्हें छोटे भाई को साथ ले जा रहा हो या कोई पिता अपने पुत्र को रास्ता पार करा रहा हो।
मेरे साथ उनका यह रिश्ता जैसे पिछले जन्मों से चला आ रहा था।हम दोनों सदैव इतने गहरे दोस्त रहे कि उनकी हर छोटी-बड़ी बात मुझे पता होती थी और मेरे हर दिन-रात, दिल की बात की उन्हें खबर होती थी।
मैं बचपन से...यह समझिये जन्म से ही दमे का बहुत खराब मरीज रहा हूँ, लेकिन आठ साल की उम्र से तो मुझे निरन्तर दवाओं पर निर्भर रहना पड़ा है। उस छोटी-सी आयु से आज तक एक दिन भी दवाओं से छुट्टी नहीं ली जा सकी ! किसी रात दवा खाये बिना सो जाता हूँ तो रात को ही तबियत गड़बड़ा जाती है। अस्थमा की वजह से दिल्ली के कई बड़े अस्पतालों में अपने कदम रख चुका हूँ, लेकिन जब भी मैं बीमार पड़ा एकमात्र राज भारती ही वह शख़्स रहे हैं, जिन्होंने हर रोज अस्पताल में आकर मेरी हिम्मत बढ़ाई। मेरा हाल-चाल जाना। बल्कि कई बार वह सुबह शाम दो-दो बार मुझे देखने आ जाते। शाम के समय अक्सर वह सरोज भाभी जी को भी साथ ले आते। वह जब भी आतीं, कम से कम एक बार मेरे सिर के बालों में हाथ जरूर फेरतीं और हाथ फेरते-फेरते कहतीं -"जल्दी से अच्छे हो जाओ ! इनको बहुत चिन्ता रहती है आपकी !"
कभी वह यह भी कहतीं -"आप बीमार मत पड़ा करो ! अपना ख्याल अच्छे से रखा करो। खाना-पीना अच्छे से खाया करो !"
खैर, यह तो वो रिश्ता था, जो राज भारती जी से बाद में बना और अब उनके बच्चों तथा बच्चों के बच्चों ने भी उसे बड़ी आत्मीयता, अपनेपन और मन की गहरी भावनाओं से जिन्दा रखा है।
राज भारती जी की सबसे बड़ी पुत्री मनजीत कौर की पुत्री प्रियंका उर्फ पिंकी और पुत्र अमन तो मेरे कलेजे के टुकड़े हैं ! अमन अक्सर आता है और मुझे 'नानू' कहता है तो मेरे हृदय में राज भारती जीवित हो उठते हैं ! मेरे हर बार मना करने पर भी वह मेरे पैरों को हाथ लगाने की कोशिश करता है और मैं उसे कलेजे से लगा लेता हूँ तो लगता है कोई अनमोल खजाना मिल गया और वहीं कहीं राज भारती जी अपनी चिर-परिचित अनोखी मुस्कान बिखेरते हुए हमारा यह अटूट बन्धन देख रहे हों।
दरीबे में चाँदनी चौक की ओर से प्रवेश करने पर आगे एक जगह बिना दरवाजों का द्वार जैसा रास्ता हुआ करता था ! उसमें प्रवेश करने के बाद बायीं ओर पंजाबी पुस्तक भण्डार का आॅफिस था।
राज भारती जी मुझे वहीं ले गये। वहाँ एक शख़्स पहले से मेहमानों के लिए रखी कुर्सियों में से एक पर मौजूद था, किन्तु मुख्य कुर्सी खाली थी।
राज भारती कुर्ता-पायजामाधारी उस शख़्स से सम्बोधित हुए -"आप यहाँ कैसे ? आपको भी अमरनाथ जी ने बुलाया है ?"
"हाँ, मगर खुद नदारद हैं !" उस शख़्स ने कहा -"वैसे टाइम के पंक्चुअल हैं, पर पता नहीं क्यों अभी तक नहीं आये ! सर्वेन्ट से पूछ रहे हैं तो उसे कुछ पता नहीं !"
"आ जायेंगे !" राज भारती बोले -"परसों मैं मिला था, तो तबियत ढीली थी ! हो सकता है डाॅक्टर को दिखाने गये हों, वहीं देर लग गई हो !" राज भारती बोले !
"हाँ, हो सकता है !" वह कुर्ता-पायजामाधारी बोला !
"इन्हें पहचानता है ?" तभी राजभारती जी ने कुर्ता-पायजामाधारी की ओर संकेत करते हुए मुझसे पूछा !
"नहीं !" मैंने इन्कार में सिर हिलाया !
"ये गोविंद सिंह हैं !"
"गोविंद सिंह !" मैं चौंका -"उपन्यासकार गोविंद सिंह !" यह नाम मेरे लिए अपरिचित नहीं था ! सामाजिक उपन्यास पत्रिकाओं में मैंने गोविंद सिंह के कई उपन्यास पढ़े थे।
मैंने आदर देने के लिए गोविंद सिंह की ओर देखते हुए दोनों हाथ जोड़े तो उन्होंने मेरी दोनों कलाइयाँ थाम दोनों हाथ अलग कर दिये। फिर दाँये हाथ से मेरा दाँया हाथ थामा और जोर से हिलाया तथा पूछा -"आप क्या करते हैं बन्धु ?"
'बन्धु' शब्द गोविंदसिंह के मुँह से बहुत अच्छा लगा, पर उन्हें मैं तुरन्त कोई जवाब नहीं दे सका और राज भारती जी की ओर देखने लगा ! शायद मेरे मन में ऐसी कोई भावना आई थी कि इतने बड़े लेखक को अपना क्या परिचय दूँ।
दोस्तों, आप में से जिन लोगों ने गोविंद सिंह का नाम नहीं सुना उन्हें बताना चाहूँगा कि गोविंद सिंह और फारुक अर्गली ये दो नाम ऐसे हैं, जो उन दिनों बहुत से नामों से बहुत ज्यादा पुस्तकें लिखने में सबसे आगे थे। गोविंद सिंह की ठण्डे मिजाज की धीमी गति से चलनेवाली हर कहानी में पल-पल में तूफानों का अन्देशा होता था। आप में से बहुतों ने सुमन पाॅकेट बुक्स में 'रतिमोहन' के उपन्यास अवश्य पढ़े होंगे ! रतिमोहन नाम से छपनेवाले सभी उपन्यास गोविंद सिंह के लिखे हैं। यह समझिये गोविंद सिंह का ही उपनाम रतिमोहन था।
गोविंद सिंह को अपना परिचय देने के लिए शब्द ढूँढने वाली स्थिति से मुझे भारती साहब ने उबार लिया और बोले -"इसे आप अपना ही छोटा भाई समझो ! जैसे आप कहीं भी, कभी भी शुरु हो जाते हो, वैसा ही है यह !"
"अच्छा ! क्या नाम है आपका ?" गोविंद सिंह की निगाहें मेरे चेहरे पर जम गीं।
"योगेश मित्तल !" मैंने कहा।
गोविंद सिंह ने एक बार फिर अपने दायें हाथ से मेरा दायां हाथ थाम लिया और पहले की तरह जोर-जोर से हिलाते हुए कहा -"भाई योगेश जी ! आपसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई !"
मेरे चेहरे पर मुस्कान उभर आई, लेकिन मैं कुछ बोला नहीं तो गोविंद सिंह फिर बोले -"लगता है, आपको हम से मिलकर प्रसन्नता या खुशी कुछ भी नहीं हुई ?"
"नहीं-नहीं !" मैं हड़बड़ाया ! फिर हकला गया और बोला -"दरअसल...आप...आप इतने बड़े लेखक हैं..."
"झूठ कहा है किसी ने !" गोविंद सिंह ने मेरी बात काटते हुए कहा -"इंची टेप ले आइये ! कद नाप लीजिए ! छ: फुट से भी कम है ! बड़ा कहाँ से हो गया !"
और फिर अचानक ही जो हरकत की गोविंद सिंह ने मैं और राज भारती दोनों ही हक्के-बक्के हो गये।
उस समय तक राज भारती जी और मैं, दोनों खड़े ही थे।
गोविंद सिंह अचानक अपनी कुर्सी से उठे। अपनी एक बाँह मेरी कमर में डाली और लिपटाकर कहा -"अब देखिये, आपसे कितना बड़ा नजर आ रहा हूँ मैं, दो-चार इंच का फर्क होगा !"
और यह कहकर गोविंद सिंह मुझसे अलग हुए फिर राज भारती जी की ओर देखते हुए बोले -"आइये न, आपलोग भी बैठिये !"
"लगता है ! आज मूड बहुत बढ़िया है ! वरना आप तो बड़े गम्भीर रहते हो !" राज भारती गोविंद सिंह से बोले !
"हाँ, आज बिना पिटे आ गया हूँ !" गोविंद सिंह ने कहा !
तभी द्वार की ओर से आहट उभरी और हम सबकी निगाहें आगन्तुक की ओर घूम गईं !
मैं उसे पहचानता था, इसलिए मेरा चेहरा खिल गया और मैं उसकी ओर लपका !
वह साधना प्रतापी थे !
"आइये प्रतापी साहब। कैसे हैं आप ?" मैंने साधना प्रतापी की ओर हाथ बढ़ाया, किन्तु साधना प्रतापी का हाथ मेरी ओर न बढ़ा तो मैंने हाथ खींच 'नमस्ते' के अन्दाज़ में दोनों हाथ जोड़ दिये।
साधना प्रतापी ने दो बार ऊपर से नीचे नज़रें घुमाकर मुझे देखा। फिर वहीं रखी कुर्सियों में से एक की ओर बढ़ गये ! उन्होंने राज भारती जी की ओर भी नहीं देखा। उनकी परस्पर कोई पहचान नहीं थी।
राज भारती जी ने मेरा उतरा हुआ चेहरा देखा, फिर गोविंद सिंह से पंजाबी मिश्रित हिन्दी में बोले -"आप लोग बातें कीजिये। हम थोड़ा घूमकर सिगरेट-विगरेट लेकर आते हैं !"
(शेष फिर)
और फिर एक और विशाल शख्सियत से मुलाकात ने मेरे दिन को जीवन के महानतम दिनों में से एक बना दिया।
आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 30
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"यह साधना प्रतापी है ?" पंजाबी पुस्तक भण्डार के आॅफिस से निकल, बाहर सड़क पर पहुँचते हुए राज भारती जी ने पूछा !
"हाँ !" मैंने सहमति में सिर हिलाया !
"तू जानता है इसे ?"
"हाँ !"
"पर उसने तो तुझे पहचाना ही नहीं !"
"हाँ ! पहचाना तो नहीं !" मैंने लम्बी साँस ली !
"तू कैसे जानता है साधना प्रतापी को ?" राज भारती जी ने पूछा !
मैंने बताया ! सारी बात सुनकर राज भारती जी ने पूछा -"तुझे बुरा लग रहा है कि उसने तुझे नहीं पहचाना !"
"नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है !" मैंने ऊपरी मन से कहा ! सच तो यही था कि मुझे बहुत बुरा लग रहा था ! बल्कि उस समय मन ही मन मैं खुद को अपमानित सा महसूस कर रहा था !
पर राज भारती जी से मेरा अनमनापन छिपा न रहा, बोले -"भूल जा ! ऐसा होता है ! साधना प्रतापी बहुत बड़ा लेखक है ! बाहर निकलता होगा तो उससे रोज मेरे-तेरे जैसे सैकड़ों रास्ते में मिलते होंगे ! घर पहुँचता होगा तो चार-छ: मिलने के लिए बैठे रहते होंगे ! आदमी कितने लोगों को याद रख सकता है ! तेरी उससे कोई दोस्ती तो है नहीं ! रोज का मिलना-जुलना भी नहीं है ! कैसे याद रखेगा बेचारा !"
मुझे भारती साहब की बात दमदार लगी ! एकदम मेरा मन शान्त और स्थिर हो गया !
मित्रों, आप यकीन करें न करें, लेकिन उन दिनों उपन्यास लेखकों की इज्जत, फिल्मी लेखकों से बहुत ज्यादा होती थी, बल्कि बहुत से लेखक तो आम फिल्म कलाकार या नेताओं से भी ज्यादा पसन्द किये जाते थे और उपन्यास पढ़नेवाले युवक-युवती उन्हें अपने 'खून' तक से चिट्ठी लिख देते थे ! आप इसे मजाक न समझें ! बाद के वर्षों में बहुत से बड़े लेखकों का निकटतम दोस्त रहा हूँ और ऐसे खून से लिखे सबसे ज्यादा पत्रों का शायद मैं अकेला ही चश्मदीद होऊँगा !
एक ऐसा पत्र विख्यात उपन्यासकार वेद प्रकाश शर्मा के पास उपन्यास लेखन जीवन की शुरूआत में ही आया था ! पर वेद ने पत्र लिखनेवाली लड़की को बड़ा भाई बनकर जवाब दे दिया था और भविष्य में किसी को भी वैसा पत्र न लिखने के लिये समझाया था, पर उस पत्र को रखा या फाड़कर फेंक दिया, यह मुझे नहीं मालूम !
जहाँ तक वेद प्रकाश शर्मा की बात है, लिखने में तो धुरन्धर थे ही, खूबसूरत भी बहुत थे, इसलिए उन्हें एक से ज्यादा लड़कियों के भी ऐसे पत्र आये हो सकते हैं, परन्तु इस बारे में उनके परिवार को बेहतर पता होगा !
मैंने जो पत्र देखा था, वह तब देखा था, जब वेद स्वामीपाड़ा में रहते थे और अविवाहित थे !
प्रेम बाजपेयी जी को ऐसे पत्र कई बार आये !
राज भारती जी के विनय नाम से छपे एक सामाजिक उपन्यास को पढ़ने के बाद एक कम उम्र लड़की ने ऐसा पत्र लिखा था !
यशपाल वालिया को तीन या चार अलग-अलग लड़कियों के पत्र आये थे !
बिमल चटर्जी से तो खून से पत्र लिखनेवाली एक लड़की मेरे सामने ही मिलने तक आ गई थी !
अमर पाॅकेट बुक्स से मेरे दो ही उपन्यास 'पापी' और 'कलियुग' प्रणय नाम से छपे थे !
उसमें बैक कवर पर कलर में छपी मेरी तस्वीर का प्रताप ही था शायद कि लुधियाना की एक लड़की का ऐसा पत्र मेरे पास भी आ गया था !
अविवाहित था, इसलिए उससे पत्र व्यवहार भी चला, पर जब वह दिल्ली आकर मिलने के लिए लिखने लगी तो मैंने सख्ती से मना कर दिया और उसके सारे पत्र फाड़कर जला दिये !
दरअसल घर-परिवार और बाहरी मित्रों तथा रिश्तेदारों में मेरी आदर्शवादी, संकोची और लड़कियों से दूर रहने की, जो छवि थी, वे पत्र उसे खराब कर सकते थे ! दूसरी बात यह थी कि "प्रणय" नाम से छपी पुस्तक में मैं जितना आकर्षक लगता था, वास्तविक जीवन में उसके मुकाबले पाँच परसेन्ट भी नहीं था ! पतला-दुबला, गिट्ठे कद का हड्डियों का ढाँचा सा था !
फोटो तो मेरी बहुत अच्छी आती थी, लेकिन शक्ल देखने के बाद कोई लड़की मुझे पसन्द भी कर सकती है, ऐसा मैं कभी सोच भी नहीं सकता था, इसलिए मैंने अपने कदम पीछे खींच लिये, लेकिन बहुत अर्से तक मैं उसे भूल नहीं सका और उसके सारे पत्र जलाने का अफसोस भी करता रहा !
दिल्ली और मेरठ के प्रकाशकों का एक ख़ास अंतर भी मैंने नोट किया था ! मेरठ के जैन बंधुओं के यहां प्रकाशकीय पते पर अगर पत्र के पते में शीर्ष पर किसी लेखक का नाम होता था तो अमूमन वह बिना खोले ही लेखक के हवाले कर देते थे, जबकि दिल्ली के प्रकाशकों में गहरी पैठ होने पर, मैंने जाना कि वहां हर पत्र पहले ही स्टाफ द्वारा खोल लिया जाता था ! लेखक तक पहुँचने से पहले वह कई लोगों द्वारा पढ़ा जा चुका होता था, बल्कि पत्र पूरी तरह पोस्ट मार्टम होने के बाद ही लेखक तक पहुंचता था !
इस सन्दर्भ में एक बार एक बड़ी मज़ेदार बात मेरठ के ज्योति पॉकेट बुक्स के विपिन जैन की है ! ज्योति पॉकेट बुक्स में प्रकाशकीय पते पर कई पत्र बिमल चटर्जी के नाम से आये थे ! विपिन जैन ने वो सारे पत्र बिना खोले ही बिमल चटर्जी के हवाले कर दिए !
बिमल चटर्जी ने पत्र खोले तो पाया कि उन में से तीन पत्र ऐसे थे, जिनमे बिमल चटर्जी की चोट सीरीज की प्रतियों के आर्डर थे और उनमे सिर्फ बिमल चटर्जी की किताबों के ही आर्डर थे ! हाँ, बाहर पते की जगह शीर्ष पर ज्योति पॉकेट बुक्स नहीं, बिमल चटर्जी (उपन्यासकार) लिखा था !
बिमल ने वे पत्र वापस विपिन जैन को सौंप दिए !
खैर, दरीबा कलाँ की सड़क पर मैं और भारती साहब यूँ ही चहलकदमी करते रहे, पान की एक छोटी सी दुकान के सामने रुके ! राज भारती जी ने कैवेन्डर्स की सिगरेट का एक पैकेट खरीदा ! उन दिनों वह कैवेन्डर्स ही पीते थे, जो पसन्द बाद में कई ब्राण्ड बदलने के बाद अन्तिम दिनों में विल्स नेवी कट पर ठहर गई थी !
पैकेट से सिगरेट निकाल राज भारती जी ने मुझसे पूछा -"सिगरेट पियेगा ?"
"नहीं !" बोलने के साथ ही मैंने सिर हिलाया !
भारती साहब ने जेब से माचिस निकाल, अपनी सिगरेट सुलगाई !
तभी मेरी नज़र दूर से आ रहे हीरो जैसी पर्सनालिटी के एक बेहद शानदार युवक पर पड़ी, उसका चेहरा मुझे कुछ जाना-पहचाना सा लगा ! उसके दाएं हाथ में एक सिगरेट का पैकेट था !
"वह पाठक है ! रतन एंड कंपनी से आ रहा होगा !" राज भारती जी ने मेरी नज़रों को लक्ष्य करते हुए मुझसे कहा !
"पाठक कौन ?" मैंने पूछा !
"सुरेंद्र मोहन पाठक !"
मैं उछल पड़ा - "आप जानते हो ?"
"हाँ, दो-एक बार मिला हूँ !" भारती साहब ने कहा !
"आओ, मिलते हैं !" मैंने तेजी से आगे बढ़ते हुए कहा !
दरअसल उन्हीं दिनों मैंने रतन एंड कंपनी से छपनेवाली किसी उपन्यासपत्रिका में सुरेंद्र मोहन पाठक का सुनील सीरीज का उपन्यास 'हत्यारे' पढ़ा था और मुझे बहुत पसंद आया था !
आगे बढ़कर मैं सुरेंद्र मोहन पाठक के बिलकुल सामने आ गया था, अतः सुरेंद्र मोहन पाठक मेरे निकट आकर ठिठक गए ! मुझे ऊपर से नीचे तक देखा, फिर बहुत तेजी से आगे बढ़ गए !
मैं - जो यह सोच रहा था कि अभी राज भारती सुरेंद्र मोहन पाठक से मेरी पहचान करवाएंगे, चौंककर पलटा तो पाया कि भारती साहब अपने स्थान से टस से मस नहीं हुए थे ! वह सिगरेट में कश मारते हुए बहुत पीछे खड़े थे !
"आप आगे नहीं आये ?" मैंने राज भारती जी से पूछा !
"क्या करना था ?" राज भारती ने पूछा !
"पाठक साहब से बात करते !"
"क्या होता बात करके ?"
मैं कुछ नहीं बोला, लेकिन मुझे बहुत अफ़सोस हो रहा था कि सुरेंद्र मोहन पाठक से मेरी 'हैल्लो- हाय' नहीं हो सकी।
उन दिनों स्कूटर, बाइक और मोटर कार आम नहीं होती थीं। बड़े-बड़े लेखक यूं ही सडकों पर घूमा करते थे, जैसे सुरेंद्र मोहन पाठक मेरी आँखों के सामने से निकल गए थे !
बाद में सुरेंद्र मोहन पाठक ने स्कूटर, बाइक, कार सभी चलाईं ! पर मुझसे मिलने वह जब भी आये, स्कूटर या कार द्वारा ही आये।
उन दिनों की एक ख़ास बात यह भी थी कि पुस्तक पढ़ने के शौक़ीन पाठकों में, आम नेताओं, आम अभिनेताओं अथवा खिलाड़ियों से ज्यादा कहानी व उपन्यास लेखक, चाहे और पसंद किये जाते थे।
लेखकों के प्रति पाठकों की दीवानगी का आलम आप किसी प्रख्यात लेखक के पास आये पाठकों के पत्रों से जान सकते हैं।
"आप आगे आये क्यों नहीं - मेरा पाठक साहब से परिचय तो करवा देते !" मैंने राज भारती जी से कहा तो वह हंसे -"पागल, उसके लिए पहले मुझे उससे अपना इंट्रोडक्शन करवाना पड़ता। मैं और पाठक मिले कई बार हैं -यहीं रतन एंड कंपनी में । पर कभी उसके पास टाइम नहीं होता, कभी हमें फुरसत नहीं होती ! इसलिए अभी ज्यादा दोस्ती नहीं है ! जितना मैं उसे जानता हूँ - उतना ही वो भी मुझे जानता है ! अगर उसके पास टाइम होता तो वो ही मेरे पास आ जाता ! देखा नहीं कितनी जल्दी में था !"
इसके बाद राज भारती जी बातें करते-करते मुझे रतन एंड कंपनी तक ले आये।
रतन एंड कंपनी में उस समय मुख्य सीट पर नरेंद्र जी थे !
दूकान के बाहर सिगरेट फूंकता एक औसत स्वास्थ्य वाला व्यक्ति खड़ा था ! उसका अंदाज़ बता रहा था कि वह बस जाने ही वाला है।
नरेंद्र जी उससे कुछ कह रहे थे और वह सुन रहा था !
"यह दत्त भारती है ! पर इंट्रोडक्शन कराने को मत बोलियो !" राज भारती बोले।
मेरे दिल से एक हाय निकली।
दत्त भारती मेरी पसंद के सिरमौर लेखकों में से एक थे !
कुछ ही पलों में दत्त भारती हम पर उचटती नज़र डाल, वहां से चले गे।
तब राज भारती सिगरेट जमीन में फेंक, टोटा जूते से कुचल, मुझे साथ लिए आगे बढ़ रतन एंड कंपनी के मस्तक पर आ गये।
"क्या हुआ, पीछे क्यों खड़ा था ?" नरेंद्र जी ने राज भारती से पूछा।
"सिगरेट ख़त्म कर रहा था !" राज भारती जी ने कहा, लेकिन मैं समझ गया था कि वह दत्त भारती और नरेंद्र जी की बातों अथवा व्यापारिक बातों के बीच नहीं आना चाहते थे।
"लिखा कुछ ?" नरेंद्र जी ने पूछा।
जवाब में भारती साहब ने हँसते हुए कहा -"आपके पास जगह तो है नहीं ?"
"तो क्या हुआ ? पहले भी छापते रहे हैं। जरूरी हुआ तो एक नया नाम रजिस्टर्ड करवा नई पत्रिका शुरू कर देंगे !" नरेंद्र जी ने कहा !
"ठीक है, बना लेंगे प्रोग्राम, लेकिन आज मैं अपने काम से नहीं आया हूँ !" राज भारती जी ने मेरी तरफ इशारा करते हुए नरेंद्र जी से कहा-"ये अपना योगेश मित्तल है ! बहुत ही बढ़िया लिख रहा है। इसके कद और उम्र पर ध्यान मत दो। भारती पॉकेट बुक्स में मैंने भी इसकी किताबें छापी हैं ! मनोज में भी लिख रहा है। गर्ग एंड कंपनी और गोलगप्पा में लिखा है ! इसके लिए कोई जगह हो तो बताना।"
नरेंद्र जी ने मुझे देखा। अच्छी तरह देखा। मानों यकीन करने की चेष्टा कर रहे हों कि मैं भी उपन्यास लिखता हूँ, लेकिन उनकी भाव-भंगिमा बता रही थी कि उन्हें यकीन नहीं आया है ! फिर भी कुछ क्षण बाद वह बोले-"आते रहना, काम होगा तो जरूर बताएँगे !"
फिर थोड़ी देर बाद औपचारिक बातों के बाद राज भारती ने नरेंद्र जी से इजाजत ली।
"आ चाय पीते हैं !" भारती साहब आगे बढ़ते हुए बोले तो मैंने याद दिलाया -"पंजाबी पुस्तक भण्डार भी तो जाना है।"
"छोड़। वहां फिर कभी जाएंगे। गोविन्द सिंह और साधना प्रतापी पहले ही वहां मौजूद हैं। ऐसे में क्या बात हो पाएगी और मैं ऑफिस के लिए भी लेट हो जाऊंगा !" भारती साहब बोले।
"ऑफिस भी जाना है ?" मैंने पूछा।
"हाँ, वो तो जाना ही है। बॉस आज छुट्टी पर है और बाकी के लिए गरीबदास को बोलकर आया हूँ - कोई पूछेगा तो संभाल लेगा, पर नौकरी की है तो काम भी तो करना ही है !" राज भारती ने कहा।
राज भारती तब पूसा रोड स्थित प्रोविडेंट फण्ड के दफ्तर में बतौर क्लर्क काम भी करते थे ! गरीबदास उनके सहयोगी साथी का नाम था।
अलग होने से पहले हमने चांदनी चौक स्थित कुमार सिनेमा के साथ एक टी स्टाल में चाय पी। पैसे फिर भारती साहब ने दिए। मैंने जेब से पैसे निकालने की चेष्टा ही की थी कि भारती साहब ने डांट दिया था।
पर सुरेंद्र मोहन पाठक और दत्त भारती से मिलकर भी उनसे कोई बात न कर पाने का, मुझे काफी समय तक सख्त मलाल रहा।
(शेष फिर)
उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-31,32
उपन्यास साहित्य का रोचक संसार- 27,28
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"मैं तो गर्ग एण्ड कम्पनी में पैसे लेने आया था ! मनोज में भी गया था। उन्हें बाल पाॅकेट बुक्स देनी थीं ?" मैंने राज भारती जी से कहा। फिर पूछा -"पर आप यहाँ कहाँ ?"
"क्यों ? तू ही यहाँ माल कमाने आ सकता है ? राज भारती को कोई नहीं जानता।" राज भारती हँसते हुए बोले तो मैं हड़बड़ाया -"नहीं-नहीं, मेरा वो मतलब नहीं था !"
"मतलब-वतलब छोड़ ये बता ज्ञान ने पैसे दिये ?"
"हाँ, दिये !" मैंने कहा।
उन दिनों मेरे मुँह से किसी भी पारिश्रमिक अथवा पेमेन्ट के लिए अधिकांशतः 'पैसे' शब्द ही मुँह से निकलता था ! राज भारती जी के संसर्ग ने ही मुझे 'पेमेन्ट' या 'पारिश्रमिक' बोलना सिखाया।
"आज तो लगता है - मनोज से भी पेमेन्ट मिल गई है ?" भारती साहब मेरा चेहरा गौर से देखते हुए चुटकी लेकर बोले !
"हाँ !" मैं हँसा।
"तब तो पार्टी हो जाये !"
"हाँ-हाँ, जरूर ! बताइये कहाँ चलना है ?"
"सब्र कर...सब्र कर ! तूने तो अपनी जेब भर ली ! अब मैं भी जरा कुछ नाश्ते-पानी का जुगाड़ कर लूँ !" राज भारती बदस्तूर मुस्कुराते हुए बोले।
उनकी इस बात पर मेरी समझ में कुछ नहीं आया कि क्या कहूँ - लिहाज़ा चुप रहा।
एक क्षण की चुप्पी के बाद राज भारती मेरा हाथ थाम एक ओर खींचते हुए बोले -"अमरनाथ जी से मिला है कभी ?"
"अमरनाथ कौन ?"
"पंजाबी पुस्तक भण्डार नहीं गया कभी ?"
"नहीं...!"
"चल, आज तुझे मिलाते हैं !" राज भारती बोले और मेरा हाथ थामे-थामे एक ओर बढ़ते चले गये।
लेखक वर्ग में राज भारती पहले शख़्स थे, जो मुझे तुम या आप नहीं, 'तू' कहकर सम्बोधित करते थे और इस सम्बोधन से उन्होंने जीवन के अन्तिम क्षणों तक मुझे एक अग्रज या अभिभावक की तरह बाँधे रखा।
अक्सर वो कहीं भी कभी भी सड़क पर मेरा हाथ थामकर ऐसे चलने लगते थे, जैसे कोई बहुत बड़ा भाई अपने नन्हें छोटे भाई को साथ ले जा रहा हो या कोई पिता अपने पुत्र को रास्ता पार करा रहा हो।
मेरे साथ उनका यह रिश्ता जैसे पिछले जन्मों से चला आ रहा था।हम दोनों सदैव इतने गहरे दोस्त रहे कि उनकी हर छोटी-बड़ी बात मुझे पता होती थी और मेरे हर दिन-रात, दिल की बात की उन्हें खबर होती थी।
मैं बचपन से...यह समझिये जन्म से ही दमे का बहुत खराब मरीज रहा हूँ, लेकिन आठ साल की उम्र से तो मुझे निरन्तर दवाओं पर निर्भर रहना पड़ा है। उस छोटी-सी आयु से आज तक एक दिन भी दवाओं से छुट्टी नहीं ली जा सकी ! किसी रात दवा खाये बिना सो जाता हूँ तो रात को ही तबियत गड़बड़ा जाती है। अस्थमा की वजह से दिल्ली के कई बड़े अस्पतालों में अपने कदम रख चुका हूँ, लेकिन जब भी मैं बीमार पड़ा एकमात्र राज भारती ही वह शख़्स रहे हैं, जिन्होंने हर रोज अस्पताल में आकर मेरी हिम्मत बढ़ाई। मेरा हाल-चाल जाना। बल्कि कई बार वह सुबह शाम दो-दो बार मुझे देखने आ जाते। शाम के समय अक्सर वह सरोज भाभी जी को भी साथ ले आते। वह जब भी आतीं, कम से कम एक बार मेरे सिर के बालों में हाथ जरूर फेरतीं और हाथ फेरते-फेरते कहतीं -"जल्दी से अच्छे हो जाओ ! इनको बहुत चिन्ता रहती है आपकी !"
कभी वह यह भी कहतीं -"आप बीमार मत पड़ा करो ! अपना ख्याल अच्छे से रखा करो। खाना-पीना अच्छे से खाया करो !"
खैर, यह तो वो रिश्ता था, जो राज भारती जी से बाद में बना और अब उनके बच्चों तथा बच्चों के बच्चों ने भी उसे बड़ी आत्मीयता, अपनेपन और मन की गहरी भावनाओं से जिन्दा रखा है।
राज भारती जी की सबसे बड़ी पुत्री मनजीत कौर की पुत्री प्रियंका उर्फ पिंकी और पुत्र अमन तो मेरे कलेजे के टुकड़े हैं ! अमन अक्सर आता है और मुझे 'नानू' कहता है तो मेरे हृदय में राज भारती जीवित हो उठते हैं ! मेरे हर बार मना करने पर भी वह मेरे पैरों को हाथ लगाने की कोशिश करता है और मैं उसे कलेजे से लगा लेता हूँ तो लगता है कोई अनमोल खजाना मिल गया और वहीं कहीं राज भारती जी अपनी चिर-परिचित अनोखी मुस्कान बिखेरते हुए हमारा यह अटूट बन्धन देख रहे हों।
दरीबे में चाँदनी चौक की ओर से प्रवेश करने पर आगे एक जगह बिना दरवाजों का द्वार जैसा रास्ता हुआ करता था ! उसमें प्रवेश करने के बाद बायीं ओर पंजाबी पुस्तक भण्डार का आॅफिस था।
राज भारती जी मुझे वहीं ले गये। वहाँ एक शख़्स पहले से मेहमानों के लिए रखी कुर्सियों में से एक पर मौजूद था, किन्तु मुख्य कुर्सी खाली थी।
राज भारती कुर्ता-पायजामाधारी उस शख़्स से सम्बोधित हुए -"आप यहाँ कैसे ? आपको भी अमरनाथ जी ने बुलाया है ?"
"हाँ, मगर खुद नदारद हैं !" उस शख़्स ने कहा -"वैसे टाइम के पंक्चुअल हैं, पर पता नहीं क्यों अभी तक नहीं आये ! सर्वेन्ट से पूछ रहे हैं तो उसे कुछ पता नहीं !"
"आ जायेंगे !" राज भारती बोले -"परसों मैं मिला था, तो तबियत ढीली थी ! हो सकता है डाॅक्टर को दिखाने गये हों, वहीं देर लग गई हो !" राज भारती बोले !
"हाँ, हो सकता है !" वह कुर्ता-पायजामाधारी बोला !
"इन्हें पहचानता है ?" तभी राजभारती जी ने कुर्ता-पायजामाधारी की ओर संकेत करते हुए मुझसे पूछा !
"नहीं !" मैंने इन्कार में सिर हिलाया !
"ये गोविंद सिंह हैं !"
"गोविंद सिंह !" मैं चौंका -"उपन्यासकार गोविंद सिंह !" यह नाम मेरे लिए अपरिचित नहीं था ! सामाजिक उपन्यास पत्रिकाओं में मैंने गोविंद सिंह के कई उपन्यास पढ़े थे।
मैंने आदर देने के लिए गोविंद सिंह की ओर देखते हुए दोनों हाथ जोड़े तो उन्होंने मेरी दोनों कलाइयाँ थाम दोनों हाथ अलग कर दिये। फिर दाँये हाथ से मेरा दाँया हाथ थामा और जोर से हिलाया तथा पूछा -"आप क्या करते हैं बन्धु ?"
'बन्धु' शब्द गोविंदसिंह के मुँह से बहुत अच्छा लगा, पर उन्हें मैं तुरन्त कोई जवाब नहीं दे सका और राज भारती जी की ओर देखने लगा ! शायद मेरे मन में ऐसी कोई भावना आई थी कि इतने बड़े लेखक को अपना क्या परिचय दूँ।
दोस्तों, आप में से जिन लोगों ने गोविंद सिंह का नाम नहीं सुना उन्हें बताना चाहूँगा कि गोविंद सिंह और फारुक अर्गली ये दो नाम ऐसे हैं, जो उन दिनों बहुत से नामों से बहुत ज्यादा पुस्तकें लिखने में सबसे आगे थे। गोविंद सिंह की ठण्डे मिजाज की धीमी गति से चलनेवाली हर कहानी में पल-पल में तूफानों का अन्देशा होता था। आप में से बहुतों ने सुमन पाॅकेट बुक्स में 'रतिमोहन' के उपन्यास अवश्य पढ़े होंगे ! रतिमोहन नाम से छपनेवाले सभी उपन्यास गोविंद सिंह के लिखे हैं। यह समझिये गोविंद सिंह का ही उपनाम रतिमोहन था।
गोविंद सिंह को अपना परिचय देने के लिए शब्द ढूँढने वाली स्थिति से मुझे भारती साहब ने उबार लिया और बोले -"इसे आप अपना ही छोटा भाई समझो ! जैसे आप कहीं भी, कभी भी शुरु हो जाते हो, वैसा ही है यह !"
"अच्छा ! क्या नाम है आपका ?" गोविंद सिंह की निगाहें मेरे चेहरे पर जम गीं।
"योगेश मित्तल !" मैंने कहा।
गोविंद सिंह ने एक बार फिर अपने दायें हाथ से मेरा दायां हाथ थाम लिया और पहले की तरह जोर-जोर से हिलाते हुए कहा -"भाई योगेश जी ! आपसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई !"
मेरे चेहरे पर मुस्कान उभर आई, लेकिन मैं कुछ बोला नहीं तो गोविंद सिंह फिर बोले -"लगता है, आपको हम से मिलकर प्रसन्नता या खुशी कुछ भी नहीं हुई ?"
"नहीं-नहीं !" मैं हड़बड़ाया ! फिर हकला गया और बोला -"दरअसल...आप...आप इतने बड़े लेखक हैं..."
"झूठ कहा है किसी ने !" गोविंद सिंह ने मेरी बात काटते हुए कहा -"इंची टेप ले आइये ! कद नाप लीजिए ! छ: फुट से भी कम है ! बड़ा कहाँ से हो गया !"
और फिर अचानक ही जो हरकत की गोविंद सिंह ने मैं और राज भारती दोनों ही हक्के-बक्के हो गये।
उस समय तक राज भारती जी और मैं, दोनों खड़े ही थे।
गोविंद सिंह अचानक अपनी कुर्सी से उठे। अपनी एक बाँह मेरी कमर में डाली और लिपटाकर कहा -"अब देखिये, आपसे कितना बड़ा नजर आ रहा हूँ मैं, दो-चार इंच का फर्क होगा !"
और यह कहकर गोविंद सिंह मुझसे अलग हुए फिर राज भारती जी की ओर देखते हुए बोले -"आइये न, आपलोग भी बैठिये !"
"लगता है ! आज मूड बहुत बढ़िया है ! वरना आप तो बड़े गम्भीर रहते हो !" राज भारती गोविंद सिंह से बोले !
"हाँ, आज बिना पिटे आ गया हूँ !" गोविंद सिंह ने कहा !
तभी द्वार की ओर से आहट उभरी और हम सबकी निगाहें आगन्तुक की ओर घूम गईं !
मैं उसे पहचानता था, इसलिए मेरा चेहरा खिल गया और मैं उसकी ओर लपका !
वह साधना प्रतापी थे !
"आइये प्रतापी साहब। कैसे हैं आप ?" मैंने साधना प्रतापी की ओर हाथ बढ़ाया, किन्तु साधना प्रतापी का हाथ मेरी ओर न बढ़ा तो मैंने हाथ खींच 'नमस्ते' के अन्दाज़ में दोनों हाथ जोड़ दिये।
साधना प्रतापी ने दो बार ऊपर से नीचे नज़रें घुमाकर मुझे देखा। फिर वहीं रखी कुर्सियों में से एक की ओर बढ़ गये ! उन्होंने राज भारती जी की ओर भी नहीं देखा। उनकी परस्पर कोई पहचान नहीं थी।
राज भारती जी ने मेरा उतरा हुआ चेहरा देखा, फिर गोविंद सिंह से पंजाबी मिश्रित हिन्दी में बोले -"आप लोग बातें कीजिये। हम थोड़ा घूमकर सिगरेट-विगरेट लेकर आते हैं !"
(शेष फिर)
और फिर एक और विशाल शख्सियत से मुलाकात ने मेरे दिन को जीवन के महानतम दिनों में से एक बना दिया।
आइये, आपकी पुरानी किताबी दुनिया से पहचान करायें - 30
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"यह साधना प्रतापी है ?" पंजाबी पुस्तक भण्डार के आॅफिस से निकल, बाहर सड़क पर पहुँचते हुए राज भारती जी ने पूछा !
"हाँ !" मैंने सहमति में सिर हिलाया !
"तू जानता है इसे ?"
"हाँ !"
"पर उसने तो तुझे पहचाना ही नहीं !"
"हाँ ! पहचाना तो नहीं !" मैंने लम्बी साँस ली !
"तू कैसे जानता है साधना प्रतापी को ?" राज भारती जी ने पूछा !
मैंने बताया ! सारी बात सुनकर राज भारती जी ने पूछा -"तुझे बुरा लग रहा है कि उसने तुझे नहीं पहचाना !"
"नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है !" मैंने ऊपरी मन से कहा ! सच तो यही था कि मुझे बहुत बुरा लग रहा था ! बल्कि उस समय मन ही मन मैं खुद को अपमानित सा महसूस कर रहा था !
पर राज भारती जी से मेरा अनमनापन छिपा न रहा, बोले -"भूल जा ! ऐसा होता है ! साधना प्रतापी बहुत बड़ा लेखक है ! बाहर निकलता होगा तो उससे रोज मेरे-तेरे जैसे सैकड़ों रास्ते में मिलते होंगे ! घर पहुँचता होगा तो चार-छ: मिलने के लिए बैठे रहते होंगे ! आदमी कितने लोगों को याद रख सकता है ! तेरी उससे कोई दोस्ती तो है नहीं ! रोज का मिलना-जुलना भी नहीं है ! कैसे याद रखेगा बेचारा !"
मुझे भारती साहब की बात दमदार लगी ! एकदम मेरा मन शान्त और स्थिर हो गया !
मित्रों, आप यकीन करें न करें, लेकिन उन दिनों उपन्यास लेखकों की इज्जत, फिल्मी लेखकों से बहुत ज्यादा होती थी, बल्कि बहुत से लेखक तो आम फिल्म कलाकार या नेताओं से भी ज्यादा पसन्द किये जाते थे और उपन्यास पढ़नेवाले युवक-युवती उन्हें अपने 'खून' तक से चिट्ठी लिख देते थे ! आप इसे मजाक न समझें ! बाद के वर्षों में बहुत से बड़े लेखकों का निकटतम दोस्त रहा हूँ और ऐसे खून से लिखे सबसे ज्यादा पत्रों का शायद मैं अकेला ही चश्मदीद होऊँगा !
एक ऐसा पत्र विख्यात उपन्यासकार वेद प्रकाश शर्मा के पास उपन्यास लेखन जीवन की शुरूआत में ही आया था ! पर वेद ने पत्र लिखनेवाली लड़की को बड़ा भाई बनकर जवाब दे दिया था और भविष्य में किसी को भी वैसा पत्र न लिखने के लिये समझाया था, पर उस पत्र को रखा या फाड़कर फेंक दिया, यह मुझे नहीं मालूम !
जहाँ तक वेद प्रकाश शर्मा की बात है, लिखने में तो धुरन्धर थे ही, खूबसूरत भी बहुत थे, इसलिए उन्हें एक से ज्यादा लड़कियों के भी ऐसे पत्र आये हो सकते हैं, परन्तु इस बारे में उनके परिवार को बेहतर पता होगा !
मैंने जो पत्र देखा था, वह तब देखा था, जब वेद स्वामीपाड़ा में रहते थे और अविवाहित थे !
प्रेम बाजपेयी जी को ऐसे पत्र कई बार आये !
राज भारती जी के विनय नाम से छपे एक सामाजिक उपन्यास को पढ़ने के बाद एक कम उम्र लड़की ने ऐसा पत्र लिखा था !
यशपाल वालिया को तीन या चार अलग-अलग लड़कियों के पत्र आये थे !
बिमल चटर्जी से तो खून से पत्र लिखनेवाली एक लड़की मेरे सामने ही मिलने तक आ गई थी !
अमर पाॅकेट बुक्स से मेरे दो ही उपन्यास 'पापी' और 'कलियुग' प्रणय नाम से छपे थे !
उसमें बैक कवर पर कलर में छपी मेरी तस्वीर का प्रताप ही था शायद कि लुधियाना की एक लड़की का ऐसा पत्र मेरे पास भी आ गया था !
अविवाहित था, इसलिए उससे पत्र व्यवहार भी चला, पर जब वह दिल्ली आकर मिलने के लिए लिखने लगी तो मैंने सख्ती से मना कर दिया और उसके सारे पत्र फाड़कर जला दिये !
दरअसल घर-परिवार और बाहरी मित्रों तथा रिश्तेदारों में मेरी आदर्शवादी, संकोची और लड़कियों से दूर रहने की, जो छवि थी, वे पत्र उसे खराब कर सकते थे ! दूसरी बात यह थी कि "प्रणय" नाम से छपी पुस्तक में मैं जितना आकर्षक लगता था, वास्तविक जीवन में उसके मुकाबले पाँच परसेन्ट भी नहीं था ! पतला-दुबला, गिट्ठे कद का हड्डियों का ढाँचा सा था !
फोटो तो मेरी बहुत अच्छी आती थी, लेकिन शक्ल देखने के बाद कोई लड़की मुझे पसन्द भी कर सकती है, ऐसा मैं कभी सोच भी नहीं सकता था, इसलिए मैंने अपने कदम पीछे खींच लिये, लेकिन बहुत अर्से तक मैं उसे भूल नहीं सका और उसके सारे पत्र जलाने का अफसोस भी करता रहा !
दिल्ली और मेरठ के प्रकाशकों का एक ख़ास अंतर भी मैंने नोट किया था ! मेरठ के जैन बंधुओं के यहां प्रकाशकीय पते पर अगर पत्र के पते में शीर्ष पर किसी लेखक का नाम होता था तो अमूमन वह बिना खोले ही लेखक के हवाले कर देते थे, जबकि दिल्ली के प्रकाशकों में गहरी पैठ होने पर, मैंने जाना कि वहां हर पत्र पहले ही स्टाफ द्वारा खोल लिया जाता था ! लेखक तक पहुँचने से पहले वह कई लोगों द्वारा पढ़ा जा चुका होता था, बल्कि पत्र पूरी तरह पोस्ट मार्टम होने के बाद ही लेखक तक पहुंचता था !
इस सन्दर्भ में एक बार एक बड़ी मज़ेदार बात मेरठ के ज्योति पॉकेट बुक्स के विपिन जैन की है ! ज्योति पॉकेट बुक्स में प्रकाशकीय पते पर कई पत्र बिमल चटर्जी के नाम से आये थे ! विपिन जैन ने वो सारे पत्र बिना खोले ही बिमल चटर्जी के हवाले कर दिए !
बिमल चटर्जी ने पत्र खोले तो पाया कि उन में से तीन पत्र ऐसे थे, जिनमे बिमल चटर्जी की चोट सीरीज की प्रतियों के आर्डर थे और उनमे सिर्फ बिमल चटर्जी की किताबों के ही आर्डर थे ! हाँ, बाहर पते की जगह शीर्ष पर ज्योति पॉकेट बुक्स नहीं, बिमल चटर्जी (उपन्यासकार) लिखा था !
बिमल ने वे पत्र वापस विपिन जैन को सौंप दिए !
खैर, दरीबा कलाँ की सड़क पर मैं और भारती साहब यूँ ही चहलकदमी करते रहे, पान की एक छोटी सी दुकान के सामने रुके ! राज भारती जी ने कैवेन्डर्स की सिगरेट का एक पैकेट खरीदा ! उन दिनों वह कैवेन्डर्स ही पीते थे, जो पसन्द बाद में कई ब्राण्ड बदलने के बाद अन्तिम दिनों में विल्स नेवी कट पर ठहर गई थी !
पैकेट से सिगरेट निकाल राज भारती जी ने मुझसे पूछा -"सिगरेट पियेगा ?"
"नहीं !" बोलने के साथ ही मैंने सिर हिलाया !
भारती साहब ने जेब से माचिस निकाल, अपनी सिगरेट सुलगाई !
तभी मेरी नज़र दूर से आ रहे हीरो जैसी पर्सनालिटी के एक बेहद शानदार युवक पर पड़ी, उसका चेहरा मुझे कुछ जाना-पहचाना सा लगा ! उसके दाएं हाथ में एक सिगरेट का पैकेट था !
"वह पाठक है ! रतन एंड कंपनी से आ रहा होगा !" राज भारती जी ने मेरी नज़रों को लक्ष्य करते हुए मुझसे कहा !
"पाठक कौन ?" मैंने पूछा !
"सुरेंद्र मोहन पाठक !"
मैं उछल पड़ा - "आप जानते हो ?"
"हाँ, दो-एक बार मिला हूँ !" भारती साहब ने कहा !
"आओ, मिलते हैं !" मैंने तेजी से आगे बढ़ते हुए कहा !
दरअसल उन्हीं दिनों मैंने रतन एंड कंपनी से छपनेवाली किसी उपन्यासपत्रिका में सुरेंद्र मोहन पाठक का सुनील सीरीज का उपन्यास 'हत्यारे' पढ़ा था और मुझे बहुत पसंद आया था !
आगे बढ़कर मैं सुरेंद्र मोहन पाठक के बिलकुल सामने आ गया था, अतः सुरेंद्र मोहन पाठक मेरे निकट आकर ठिठक गए ! मुझे ऊपर से नीचे तक देखा, फिर बहुत तेजी से आगे बढ़ गए !
मैं - जो यह सोच रहा था कि अभी राज भारती सुरेंद्र मोहन पाठक से मेरी पहचान करवाएंगे, चौंककर पलटा तो पाया कि भारती साहब अपने स्थान से टस से मस नहीं हुए थे ! वह सिगरेट में कश मारते हुए बहुत पीछे खड़े थे !
"आप आगे नहीं आये ?" मैंने राज भारती जी से पूछा !
"क्या करना था ?" राज भारती ने पूछा !
"पाठक साहब से बात करते !"
"क्या होता बात करके ?"
मैं कुछ नहीं बोला, लेकिन मुझे बहुत अफ़सोस हो रहा था कि सुरेंद्र मोहन पाठक से मेरी 'हैल्लो- हाय' नहीं हो सकी।
उन दिनों स्कूटर, बाइक और मोटर कार आम नहीं होती थीं। बड़े-बड़े लेखक यूं ही सडकों पर घूमा करते थे, जैसे सुरेंद्र मोहन पाठक मेरी आँखों के सामने से निकल गए थे !
बाद में सुरेंद्र मोहन पाठक ने स्कूटर, बाइक, कार सभी चलाईं ! पर मुझसे मिलने वह जब भी आये, स्कूटर या कार द्वारा ही आये।
उन दिनों की एक ख़ास बात यह भी थी कि पुस्तक पढ़ने के शौक़ीन पाठकों में, आम नेताओं, आम अभिनेताओं अथवा खिलाड़ियों से ज्यादा कहानी व उपन्यास लेखक, चाहे और पसंद किये जाते थे।
लेखकों के प्रति पाठकों की दीवानगी का आलम आप किसी प्रख्यात लेखक के पास आये पाठकों के पत्रों से जान सकते हैं।
"आप आगे आये क्यों नहीं - मेरा पाठक साहब से परिचय तो करवा देते !" मैंने राज भारती जी से कहा तो वह हंसे -"पागल, उसके लिए पहले मुझे उससे अपना इंट्रोडक्शन करवाना पड़ता। मैं और पाठक मिले कई बार हैं -यहीं रतन एंड कंपनी में । पर कभी उसके पास टाइम नहीं होता, कभी हमें फुरसत नहीं होती ! इसलिए अभी ज्यादा दोस्ती नहीं है ! जितना मैं उसे जानता हूँ - उतना ही वो भी मुझे जानता है ! अगर उसके पास टाइम होता तो वो ही मेरे पास आ जाता ! देखा नहीं कितनी जल्दी में था !"
इसके बाद राज भारती जी बातें करते-करते मुझे रतन एंड कंपनी तक ले आये।
रतन एंड कंपनी में उस समय मुख्य सीट पर नरेंद्र जी थे !
दूकान के बाहर सिगरेट फूंकता एक औसत स्वास्थ्य वाला व्यक्ति खड़ा था ! उसका अंदाज़ बता रहा था कि वह बस जाने ही वाला है।
नरेंद्र जी उससे कुछ कह रहे थे और वह सुन रहा था !
"यह दत्त भारती है ! पर इंट्रोडक्शन कराने को मत बोलियो !" राज भारती बोले।
मेरे दिल से एक हाय निकली।
दत्त भारती मेरी पसंद के सिरमौर लेखकों में से एक थे !
कुछ ही पलों में दत्त भारती हम पर उचटती नज़र डाल, वहां से चले गे।
तब राज भारती सिगरेट जमीन में फेंक, टोटा जूते से कुचल, मुझे साथ लिए आगे बढ़ रतन एंड कंपनी के मस्तक पर आ गये।
"क्या हुआ, पीछे क्यों खड़ा था ?" नरेंद्र जी ने राज भारती से पूछा।
"सिगरेट ख़त्म कर रहा था !" राज भारती जी ने कहा, लेकिन मैं समझ गया था कि वह दत्त भारती और नरेंद्र जी की बातों अथवा व्यापारिक बातों के बीच नहीं आना चाहते थे।
"लिखा कुछ ?" नरेंद्र जी ने पूछा।
जवाब में भारती साहब ने हँसते हुए कहा -"आपके पास जगह तो है नहीं ?"
"तो क्या हुआ ? पहले भी छापते रहे हैं। जरूरी हुआ तो एक नया नाम रजिस्टर्ड करवा नई पत्रिका शुरू कर देंगे !" नरेंद्र जी ने कहा !
"ठीक है, बना लेंगे प्रोग्राम, लेकिन आज मैं अपने काम से नहीं आया हूँ !" राज भारती जी ने मेरी तरफ इशारा करते हुए नरेंद्र जी से कहा-"ये अपना योगेश मित्तल है ! बहुत ही बढ़िया लिख रहा है। इसके कद और उम्र पर ध्यान मत दो। भारती पॉकेट बुक्स में मैंने भी इसकी किताबें छापी हैं ! मनोज में भी लिख रहा है। गर्ग एंड कंपनी और गोलगप्पा में लिखा है ! इसके लिए कोई जगह हो तो बताना।"
नरेंद्र जी ने मुझे देखा। अच्छी तरह देखा। मानों यकीन करने की चेष्टा कर रहे हों कि मैं भी उपन्यास लिखता हूँ, लेकिन उनकी भाव-भंगिमा बता रही थी कि उन्हें यकीन नहीं आया है ! फिर भी कुछ क्षण बाद वह बोले-"आते रहना, काम होगा तो जरूर बताएँगे !"
फिर थोड़ी देर बाद औपचारिक बातों के बाद राज भारती ने नरेंद्र जी से इजाजत ली।
"आ चाय पीते हैं !" भारती साहब आगे बढ़ते हुए बोले तो मैंने याद दिलाया -"पंजाबी पुस्तक भण्डार भी तो जाना है।"
"छोड़। वहां फिर कभी जाएंगे। गोविन्द सिंह और साधना प्रतापी पहले ही वहां मौजूद हैं। ऐसे में क्या बात हो पाएगी और मैं ऑफिस के लिए भी लेट हो जाऊंगा !" भारती साहब बोले।
"ऑफिस भी जाना है ?" मैंने पूछा।
"हाँ, वो तो जाना ही है। बॉस आज छुट्टी पर है और बाकी के लिए गरीबदास को बोलकर आया हूँ - कोई पूछेगा तो संभाल लेगा, पर नौकरी की है तो काम भी तो करना ही है !" राज भारती ने कहा।
राज भारती तब पूसा रोड स्थित प्रोविडेंट फण्ड के दफ्तर में बतौर क्लर्क काम भी करते थे ! गरीबदास उनके सहयोगी साथी का नाम था।
अलग होने से पहले हमने चांदनी चौक स्थित कुमार सिनेमा के साथ एक टी स्टाल में चाय पी। पैसे फिर भारती साहब ने दिए। मैंने जेब से पैसे निकालने की चेष्टा ही की थी कि भारती साहब ने डांट दिया था।
पर सुरेंद्र मोहन पाठक और दत्त भारती से मिलकर भी उनसे कोई बात न कर पाने का, मुझे काफी समय तक सख्त मलाल रहा।
(शेष फिर)
उपन्यास साहित्य का रोचक संसार-31,32
उपन्यास साहित्य का रोचक संसार- 27,28
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