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बुधवार, 23 नवंबर 2022

मैं गुनहगार हूँ- मोहन मौर्य

मैं गुनहगार हूँ- मोहन मौर्य
उपन्यास अंश
 सुबह के या फिर देखा जाए तो रात के 4 बज रहे थे। यह वह वक़्त होता है, जब लोग अपने-अपने बिस्तरों में चैन की नींद सोये हुए रहते हैं। रात की शिफ्ट में काम करने वाले लोग, खासतौर पर सरकारी विभाग के अधिकारी वर्ग भी इस समय सोने से नहीं बच पाते। यह वह वक़्त भी होता है जब लैला-मजनू बनकर देर रात तक एक-दूसरे से चैट करने नौजवान लोग या सोशल मीडिया पर नौजवान बनकर रहने वाले रसिक वृद्ध लोग भी अपनी चैट से थक-हारकर सो जाते हैं। आखिर उन्हें सुबह उठकर अपना-अपना काम भी करना होता है। 
          रात के ऐसे समय में हैदराबाद सेंट्रल जेल की कोठरी नंबर 102 में कैद उस कैदी की आँखों में नींद का नामोनिशान तक नहीं था। उसकी आँखों में नींद आये भी तो कैसे, जब उसे मालूम था कि ये आँखें अब सूरज की पहली किरण के साथ ही हमेशा के लिये बंद हो जाने वाली हैं। उस कैदी की वह आँखें तो बस उस कोठरी की सामने की दीवार को एकटक घूरे जा रही थीं। उसकी आँखों के निचले हिस्से पर उसके सूखे हुए आँसुओं की पपड़ी जमी हुई थी, जो यह बताने के लिये काफी थी कि वह बहुत देर तक रोती रही है। अब तो उन आँखों में बहने के लिये पानी भी नहीं बचा था। उसने एक नजर उस कोठरी में चारों तरफ दौड़ाई, जहाँ इस समय उसके सिवा कोई और नहीं था। फिर उसने वापस से अपनी नजरें सामने की दीवार पर टिका दीं। वह न जाने कितनी देर तक उस अवस्था में रहती अगर उसे उस आवाज ने चौंका नहीं दिया होता।
“ऐ ! उस दीवार को क्या घूरे जा रही है ? चल उठ, हमारे साथ चल।” उस जेल की कोठरी का ताला खोलकर एक पुरुष और दो महिला कॉन्स्टेबल अंदर दाखिल हुए।
“कहाँ ?” उसके मुँह से निकला।
 “कहाँ क्या ? भूल गयी क्या ? ये तेरे जीवन की आखिरी रात है। थोड़ी देर बाद तुझे फाँसी पर लटका दिया जाएगा।” एक महिला कॉन्स्टेबल ने जवाब दिया। 
“फाँसी ! पर क्यों, मैंने किया क्या है ?” वह जोर से चीखकर बोल उठी। 
“ये लो, ये पूछ रही है, इसने किया क्या है ?” दूसरी कॉन्स्टेबल ने कहते हुए एक ठहाका लगाया। इसमें बाकी दोनों ने भी उसका साथ दिया।
“खून किया है तूने, खून।” वह महिला कॉन्स्टेबल बोली, “अपने बॉयफ्रेंड का खून। कुछ याद आया ?”
 “नहीं... !” उसके मुँह से जोर से चीख निकली, “मैंने कोई खून नहीं किया। मुझे फँसाया गया है। मैं बेगुनाह हूँ।”
 “हर खूनी यही कहता है कि उसने कोई खून नहीं किया, वह बेगुनाह है। पर खून करते हुए वह भूल जाता है कि खूनी चाहे कितनी भी चालाकी कर ले पर कानून की पैनी नजरों से वह अपने जुर्म के निशान नहीं छुपा सकता। तुम्हारे भी गुनाहों के पुख्ता सबूत मिले थे और उसी के आधार पर तुम्हें फाँसी की सजा सुनाई गयी है।” 
“नहीं। वह सब तो एक बेवकूफ की बेवकूफी से हुआ है। वह बेवकूफ असली खूनी की साजिश में फँसकर मुझे खूनी समझ बैठा था।“ 
“वाह ! और पुलिस ने भी उस पर विश्वास कर लिया ? अदालत में वकील, जज सबने तुझे बेगुनाह होते हुए भी गुनाहगार साबित कर दिया।” वह महिला कॉन्स्टेबल व्यंग से बोल उठी।
 “हाँ, वह लोग भी उस बेवकूफ की तरह उस खूनी की साजिश का शिकार हो गए थे।”
 “चल चुप कर। तूने क्या सबको अंधा समझ रखा है ?” 
“हाँ ! सब-के-सब अंधे हैं जिनको सच नजर नहीं आ रहा है। आज तक सिर्फ सुना था, पर आज वास्तव में देख लिया कि कानून अंधा होता है।” 
“चल बंद कर तेरी बकवास। बहुत देर से तेरी बकवास सुन रहा हूँ।” - पहली बार उस पुरुष कॉन्स्टेबल ने उस महिला कैदी को डाँटकर कहा, फिर आगे अपने सहकर्मियों से बोला, “और तुम दोनों क्या इसकी बकवास सुनने बैठ गयी ? वहाँ पर जज साहब, जेलर साब, सब लोग हमारा इंतजार कर रहे हैं। और वह जल्लाद भी तो कब से इस छमिया को फाँसी पर चढ़ाने के लिये बेताब बैठा हुआ है।” 
“ए चल ! खड़ी हो जा अब।” एक महिला कॉन्स्टेबल ने गुस्से में कहा। वह कैदी अपनी जगह से एक इंच भी नहीं हिली।
 “ये ऐसे नहीं मानेगी। सुशीला ! चल इसको तू बायीं तरफ से पकड़, मैं इसको दायीं तरफ से पकड़कर उठाती हूँ।” 
“ठीक है रमिला !” फिर वह दोनों महिला कॉन्स्टेबल, जिनका नाम सुशीला और रमिला था, ने उस महिला कैदी को एक-एक तरफ से पकड़ लिया और उठाने लग गई। उस महिला कैदी ने बहुत विरोध किया, अपने हाथ पैर इधर-उधर मारे, पर उन दोनों की ताकत के आगे उसकी एक न चल सकी। सुशीला और रमिला दोनों ने उस महिला कैदी को उस कोठरी से बाहर निकाला और लगभग घसीटते हुए जेल के उस हिस्से में लेकर गयी, जहाँ पर उसे फाँसी देने की तैयारियाँ चल रही थीं। 
                    वह एक छोटे मैदान जैसा था, जिसके बीचोबीच एक चबूतरा बना हुआ था। चबूतरे के बीचोबीच लकड़ी का एक छोटा-सा घेरा बना हुआ था। उस घेरे के पास एक 6 फुट लंबा, मोटा तगड़ा, काला-सा आदमी अपने हाथ में एक मोटी-सी रस्सी, जिसमें एक गोल फन्दा बना हुआ था, लेकर खड़ा हुआ था। वह जल्लाद था जिसका काम कानून से फाँसी पाए हुए मुजरिमों को उस रस्सी से फाँसी पर चढ़ाना था। 
                 चबूतरे से नीचे थोड़ी दूर पर कुछ लोग खड़े हुए थे। उनमें से एक जिसने काले रंग का सूट और काले रंग की पेंट पहन रखी थी, वह हैदराबाद उच्च न्यायालय का जज था। खाकी वर्दी वाली जेलर की यूनिफॉर्म में उस जेल का जेलर था। बाकी वहाँ पर खाकी वर्दी में 2-3 लोग और थे जो उस जेल के ही कर्मचारी थे। 
“इसे लाने में इतनी देर क्यों कर दी ?” जेलर ने गुस्से में पूछा। 
“क्या करे सर, ये आने के लिये तैयार ही नहीं हो रही थी।” “तुम्हें इतना भी नहीं पता, ये कोई देश के लिये अपना खून बहाने वाला कोई क्रांतिकारी थोड़े ही है, जो फाँसी पर चढ़ने के लिये हमेशा तैयार रहता है।” जेलर ने एक ठहाका लगाते हुए कहा। 
उसकी बात सुनकर बाकी सब हँस पड़े। जेलर ने अपनी बात आगे बढ़ाई, “यह एक खूनी है और खूनी कभी भी फाँसी पर चढ़ने के लिये तैयार नहीं होता। उसे जबरदस्ती तैयार करना पड़ता है।” 
“सर, ये बात आपने बिलकुल सही कही !” उसके एक सहकर्मी ने कहा। 
“चलो, बातें बहुत हो गईं। इसे फाँसी पर चढ़ाने का इंतजाम करो।” इतनी देर से चुप खड़े उस जज ने कहा, फिर वह उस कैदी से बोला, “लड़की ! फाँसी पर चढ़ने से पहले तुम्हारी कोई आखिरी इच्छा। तुम कुछ कहना चाहती हो ?” 
“मैं बेगुनाह हूँ जज साहब ! आप मुझे उस खून के लिये फाँसी पर चढ़ा रहे हैं जो मैंने नहीं किया। आप पछताओगे।” 
“लड़की ! कम-से-कम अपने जीवन के आखिरी पलों में तो झूठ मत बोलो। इस समय अपने पापों के लिये भगवान से क्षमा माँगो और उनसे प्रार्थना करो कि वह तुम्हारी आत्मा को शांति प्रदान करे।”
 “भगवान से प्रार्थना, वह भी आत्मा की शांति के लिए। नहीं जज साहब, नहीं ! मेरी आत्मा को शांति तब तक नहीं मिलेगी जब तक मैं उस इंसान को उसके अंजाम तक नहीं पहुँचा देती, जिसकी वजह से आज मुझे फाँसी हो रही है।” वह गुस्से में फुंकार उठी। 
उसकी फुंकार सुनकर एक पल के लिये सब काँप उठे। थोड़ी देर तक वहाँ पर शांति छाई रही। फिर उस शांति को भंग करते हुए जेलर ने पूछा, “किसकी बात कर रही हो तुम ?”
 “उसी की, जो खुद को बहुत बड़ा जासूस समझता था और अपनी उसी जासूसी के कीड़े की वजह से मुझे उस खून के इल्जाम में फँसा दिया जो मैंने नहीं किया था।” 
“बहुत समय हो गया। इसे फाँसी के तख्त पर लेकर जाओ।”  
                जज ने अपने बायें हाथ की कलाई में बँधी हुई घड़ी पर नजर दौड़ाते हुए कहा। जज की बात सुनकर सुशीला और रमिला ने उसके दोनों हाथों को पीछे ले जाकर एक रस्सी से मजबूती से बाँध दिया। फिर उसे पकड़कर उस चबूतरे की ओर जाने लगी, जहाँ पर अपने हाथ में फाँसी का फंदा लिये हुए जल्लाद खड़ा हुआ था। जैसे ही वह महिला कैदी ऊपर पहुँची, उस जल्लाद ने पहले तो उसके चेहरे को एक काले कपड़े से पूरी तरह से ढक दिया और फिर उसके गले में फाँसी का फंदा डाल दिया। उसने बचने की बहुत कोशिश की थी पर वह सफल नहीं हो पाई। 
               दोनों महिला कॉन्स्टेबल पीछे हट गई। जल्लाद फाँसी खींचने वाले लीवर के पास आ गया। जज ने अपनी घड़ी में समय देखना शुरू किया। वातावरण एकदम शांत हो गया था । इस समय घड़ी की मिनट वाली सुई की आवाज उस वातावरण में गूँज रही थी। इधर जैसे ही घड़ी ने 5 बजने का संकेत दिया वैसे ही जज ने अपने हाथ में थामा हुआ रुमाल नीचे गिरा दिया। यह देखते ही उस जल्लाद ने फाँसी देने वाले लीवर को नीचे की ओर खींचा। उस महिला कैदी के पैरों के नीचे वाले तख्त के पट्टे खुल गए और वह फंदे पर लटकने लगी। वह थोड़ी देर तक मचली, तड़पी और फिर हमेशा के लिये शांत हो गई।
मैं गुनहागार हूँ- मोहन मौर्य
उपन्यास समीक्षा
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